वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1756
From जैनकोष
क्वचित्कुमानुषोपेतं क्वचिद्वयंतरसंभृतम् ।
क्वचिद्भोगाधराकीर्णं नरक्षेंत्र निरंतरम् ।।1756।।
मनुष्यलोक में कुभोगभूमि, भोगभूमि व व्यंतरावासों का संकेत―यह मनुष्य लोक का क्षेत्र कहीं-कहीं तो कुमानुषों से भरा हुआ है, कहीं व्यंतरों से भरा है, कहीं भोगधारियों से भरा है । ऐसे इस मनुष्य लोक में कुछ स्थान तो कर्मभूमि के है, कुछ स्थान भोगभूमि के हैं । और इस ही मनुष्यलोक में कुछ स्थानों में व्यंतर भी रहते हैं । लोक की रचना के चिंतन में यह ज्ञानी जीव इस समय मध्यलोक की रचना का विचार कर रहा है । नाना क्षेत्र नाना रचनायें उपयोग में आने से वर्तमान समागमों का मोह नहीं रहता । इस इतने बड़े लोक में ऐसे-ऐसे स्थानों में हम अनंत बार उत्पन्न हुए हैं और वहाँ भी मेरा कुछ बनकर नहीं रहा । तो यहाँ के जो समागम हैं वे मेरे बनकर रहेंगे क्या? तो रचनाओं का चिंतन करने से रागद्वेष में शिथिलता हो जाती है । इस मनुष्य लोक में कुछ रचनाएँ तो भोगभूमि की रचनायें हैं जहाँ जुगलियाँ उत्पन्न होती हैं, मनोवान्छित भोग कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते हैं, कोई चिंता नहीं करनी पड़ती है । और ये भी आयु से पहिले नहीं मरते । वह भोगभूमियों से भरा हुआ कुछ क्षेत्र है और कुछ कुभोगभूमि है जिसमें खोटे मनुष्य भी रहते हैं और कुछ क्षेत्रों में कर्मभूमि की रचनायें हैं, जहाँ के उत्पन्न हुए मनुष्य तपश्चरण कर के संयम धारण कर के मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं । यों मध्यलोक का कुछ वर्णन कर के अब आचार्यदेव ऊर्ध्वलोक का वर्णन करते हैं ।