वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1769
From जैनकोष
क्रीडागिरिनिकुंजेषु पुष्पशय्यागृहेषु वा ।
रमंते त्रिदशा यत्र वरस्त्रीवृंदवेष्टिता: ।।1769।।
देवों का स्वच्छंद क्रीडन, रमण―उन स्वरों के देव क्रीड़ा के स्थान जिन में बने हुए हैं ऐसी गुफावों में, कंदरावों में जिनके द्वारों पर तथा जिनके भीतर भी पुष्पलता आदिक की बड़ी सुगंध रहती है वहाँ वे देव अनेक देवांगनावों सहित नाना प्रकार की आनंदमयी क्रीड़ा करते हैं । विषय सुखों में सागरों पर्यंत की आयु भी नहीं जानी जाती है । यहाँ जो पुरुष जीवनभर सुखपूर्वक रहे वे सोचते हैं―अहो ! हमारे जीवन के ये 60 वर्ष कैसे निकल गए? पर जब दुःख आता है तो एक घंटा भी दिन और महीना जैसा लगता है, मुश्किल से व्यतीत होता है । बराबर घड़ी को निरखना पड़ता है, अरे वह समय काटा नहीं कटता है । लेकिन सुख में ऐसा समय व्यतीत हो जाता है कि जाना नहीं जाता । देवों की आयु नारकियों की तरह सागर पर्यंत होती है पर नारकी सदा दुःख भोगते रहते हैं और देव सदा सुखी रहते हैं । नारकियों का वह सागरों पर्यंत का समय काटा नहीं कटता है पर देवों का वह सागरों पर्यंत का समय उन्हें पता नहीं पड़ता कि कैसे निकल जाता है? अंत में जब उनकी आयु का पतन होता है तो उन्हें मध्यलोक में जन्म लेना पड़ता है, तो वे सभी देव विषय सुखों में अपना समय व्यतीत करते हैं । उन्हें काम क्या है? जैसे यहाँ ही कोई मनुष्य बड़े आराम में रह रहा हो, सभी काम नौकर लोग करते हों, उसे किसी बात की फिकर नहीं है तो वह अपने उपयोग को प्राय: करके विषयसुखों में लगाता है ऐसे ही वे देव भी प्राय: कर के अपने उपयोग की विषय सुखों में लगाते हैं । जैसे यहाँ पर बिरले ही ज्ञानी जीव ऐसे होते हैं कि जो धर्मचर्चा में, तीर्थयात्रा में, तीर्थंकरों की वंदना में और सधर्मीजनों के उपद्रवों के दूर करने में अपना कुछ समय व्यतीत करते हैं, बाकी तो सभी विषयसुखों में अपने उपयोग को लगाते हैं, ऐसे ही बिरले ही कुछ देवों को छोड़ कर बाकी सभी देव वहाँ अच्छी-अच्छी जगह ढूँढ़ते हैं और अपने मन माफिक वहाँ अपना मौज मानते हैं, यह पुण्यफल उन स्वर्गो में हुआ करता है ।