वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1770
From जैनकोष
मंदारचंपकाशोकमालतीरेणुरंजिता: ।
भ्रमंति यत्र गंधाढ्या गंधवाहा: शनै: शनै: ।।1770।।
स्वर्गलोक में सुगंधित मंद समीरसंचरण―उन स्वर्गों में मंदार, चंपक, अशोक, मालती आदि पुष्पों की रज से रंजित भ्रमर विहार करते हैं । यह एक अलंकार रूप से कहा जा रहा है और उन सुगंधित पुष्पों से छू-छूकर बड़ी शीतल पवन चला करती है । मनुष्य जैसे जब मौज में होता है तो कुछ बेकार विषयों की रुचि करता है, जैसे भोजन करना, सुधा मेटना, ये कुछ काम वाले विषय हैं । विषय तो नहीं कहते मगर उनमें भी यदि रसास्वादन की भावना है, वासना है तो वे भी बेकार हैं, लेकिन जैसे खाना पीना अति आवश्यक है ऐसे ही अन्य बातें तो आवश्यक नहीं हैं । जैसे अनेक सुंदर स्थान सुंदर रूप निरखना यह क्या आवश्यक है इस शरीर के लिए? लेकिन जब मौज में होता है यह मनुष्य तब उसकी ये लिप्सायें बढ़ती हैं । अब चलो सुंदर गाना सुनना है, अब चलो कोई सुंदर रूप निरखना है, सुगंधित तैल लगाना है, सुगंधित जगह पर जाकर मन बहलाना है । तो ये लिप्सायें मौज में बढ़ती हैं । पर जैसे बिना बाधा के, बिना किसी वेदना के कोई औषधि का सेवन नहीं करता इसी प्रकार बिना मन में वेदना हुए इन विषयों का कौन सेवन करता? तो ये विषय सुखों की चीजें मानव मात्र को प्राप्त हैं । पुण्य के जो विशेष फल हैं उन्हें यहाँ बताया जा रहा है कि स्वर्गों के ये फल जगह-जगह पाये जाते हैं । अशोक, मालती, चंपक, मंदार आदिक वृक्ष हैं तथा नाना प्रकार की लतावों वाले सुगंधित वृक्षों से वह स्थान सुशोभित है और वहाँ सुगंधित वायु निरंतर बहा करती है जो मन को प्रसन्न करने वाली है । वहाँ वे देव बड़ा मौज मानते हैं । देखो इस मनुष्यलोक के थोड़े से दुःखों से घबड़ाकर यदि अपने न्याय से गिर जाय और थोड़े से सुखों के लिए अपने विचारों को पतित कर दे तो समझिये कि ऐसे बड़े स्वर्गों के सुखों से वह वंचित हो जाता है । और कोई इन सुखों में न ललचाये और दुःखों से न घबड़ाये, अपने मन का संतुलन रखे तो ऐसे पुण्य का बंध होता है कि उसे सागरों पर्यंत ऐसे-ऐसे सुख प्राप्त होते हैं । यह पुण्यफल का वर्णन चल रहा है ।