वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1802
From जैनकोष
इदं रम्यमिदं सेव्यमिदं श्लाध्यमिदं हितम ।
इदं प्रियमिदं भव्यमिदं चित्तप्रसत्तिम् ।।1802।।
देवों का दृश्यमान समागमों के प्रति विवेक―जैसे-जैसे क्षण व्यतीत होते हैं वैसे ही वैसे इन दृश्यमान समागमों के प्रति उसका निश्चयसा बन जाता है । सभी वस्तुवें जो भी नजर आ रही हैं उन उनके प्रति यह निश्चय करता है कि ये वस्तुवें तो बड़ी सुंदर हैं, बड़ी रमणीक लग रही हैं, ये सब वस्तुवें मेरे सेवने योग्य हैं, मेरे उपयोग के योग्य हैं, इनके सेवन से मेरा हित है, भलाई है, सुख है, आनंद है और मौज है, ये वस्तु सराहनीय हैं, प्रशंसनीय हैं । वहाँ चेतन अथवा अचेतन सभी वैभव नजर आ रहे हैं, पर वे सब एक वैभवरूप में नजर आ रहे हैं । यह वैभव प्रशंसा के योग्य है, यह वैभव हितरूप है, यह प्रिय है, मन को आकर्षित करने वाला है । धीरे-धीरे जिन पदार्थो के प्रति उसे भ्रमसा था, कुछ निश्चयसा होता जा रहा है । जैसे बहुत समय तक किसी स्थान पर रहने से एक परिचयसा बढ़ता है, विश्वाससा होता है, चित्त नि:शंकित रहता है, इस प्रकार नवीन उत्पन्न हुआ देव उस नवीन समागम के प्रति निश्चय कर रहा है । यहाँ तो किसी नवीन अपरिचित जगह में किसी सोते हुए व्यक्ति को उठा ले जाय तो उसके जगने पर उसका क्या हाल होगा, सो तो विचारो । वह तो सोचेगा―ओह ! मैं कहाँ आ गया, यहाँ तो कोई मेरी पूछ करने वाला भी नहीं, कोई यहाँ मेरा अपमान न कर दे, कोई मेरा बहिष्कार न कर दे, आदि । पर वह देव उत्पन्न होकर उस स्थानपर जितने अधिक क्षण गुजरते हैं निश्चय होता है और उसका चित्त नि:शंकित हो जाता है ।