वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 192
From जैनकोष
पाक: स्वयमुपायाच्च स्यात्फलानां तरोर्यथा।
तथाऽत्र कर्मणां ज्ञेय: स्वयं सोपायलक्षण:।।192।।
द्विविध निर्जरा―कर्मों की निर्जरा 2 प्रकार की होती है―एक तो स्वयंनिर्जरा और दूसरी सोपायनिर्जरा। जैसे आम आदिक फल दो तरह से पका करते हैं―एक तो स्वयं अपना समय आने पर डाल में पक जाते हैं और एक कच्चे फलों को तोड़कर भुस या पत्तों में दबाकर पकाया जाता है। जो अपने समय में खुद पक जाते हैं उन्हें कहते हैं स्वयंपाक और जो भुस पत्ते आदिक में दबाने के उपाय से पका करते हैं उन्हें कहते हैं सोपायपाक। जैसे वृक्ष के फलों का पकना एक तो स्वयं होता है और दूसरा पाल देने से भी होता है, इसही प्रकार कर्मों का पकना भी एक तो कर्मों की स्थिति पूरी होने पर स्वयं होता है अर्थात् कर्म अपने समय पर अपना फल देकर खिर जाया करते हैं और दूसरी प्रकार की निर्जरा यह है कि सम्यग्दर्शन आदिक परिणामों से सहित तपश्चरण किये जाने से जो कर्म नष्ट होते हैं, खिरते हैं वह है सोपायनिर्जरा।
निर्जराओं की विशेषता―स्वयं निर्जरा तो सभी जीवों के हो रही है। संसार के सभी प्राणी अपने परिणामों से कर्मों का बंधन करते हैं और उन कर्मों में कषायों के अनुसार जितनी भी स्थिति पडी है उस स्थिति के पूर्ण होने पर फल दिया करते हैं। ऐसा तो सभी जीवों के संसारियों के लग रहा है उसे उदय कहते हैं। इस स्वयंपाक रूप निर्जरा से जीव का हित नहीं है, वह तो फंसाव का कारण है। इसका फल होगा कि उस काल में अनेक नवीन कर्म और बंध जाते हैं। उससे आत्मा की कुछ सिद्धि नहीं होती। किंतु तपश्चरण, ज्ञानदृष्टि, तत्त्वमरण, आत्ममग्नता आदिक उपायों से जो बहुत काल आगे उदय में आने थे उन कर्मों का स्थिति खंडन करके अभी ही एकदम खिरा दे, चाहे उनका कुछ फल मिलकर खिरे और चाहे कुछ भी फल मिले बिना खिरे, वह सोपायनिर्जरा कहलाती है। इस सोपायनिर्जरा से मोक्षमार्ग प्रकट होता है।
कर्मविदारण की शक्यता―एक ऐसी कहने की रूढ़ि है कि जो कर्म बांधे हैं उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा पर बात पूरे नियम से यह नहीं है कि जो कर्म बांधे हैं उन्हें भोगना ही पड़े। प्राय: करके भोगना ही पड़ता है, पर कोई ज्ञानी संत पुरुष तपश्चरण, संयम, सम्यक्त्व अंत:रमण के प्रसाद से कर्मों को बिना फल दिये भी खिरा सकते हैं। कोई नियम नहीं लेकिन जिनको कर्म भोगने ही पड़ते हैं ऐसे जीव हैं अनंतानंत। उन अनंतानंत जीवों में से यदि 10-5 जीव ऐसे निकल आयें कि जो सम्यक्त्व, संयम, तपश्चरण आदिक के प्रभाव से कर्मों को नष्ट कर दें, बिना फल दिये खिरा दें तो वे कितनी गिनती के हैं। इस कारण यह कहा जाता है कि जिसने जो कर्म बांधे हैं उसको वे कर्म भोगने ही पड़ते हैं पर यह नियम की बात नहीं रही। सम्यक्त्व में, चारित्र में ऐसा प्रताप है कि कर्मों को बिना फल भोगे ही खिराया जा सकता है। इस प्रकार जो कर्म खिरा करते हैं उस निर्जरा का नाम है सोपायनिर्जरा।
सोपायनिर्जरा से लाभ―उपाय करके कर्मों को खिरा देना, इसमें सिद्धि है, आत्मलाभ है, किंतु जो स्वयंपाक है समय आने पर झड़ गया, फल देकर खिर गया ऐसी स्वयंपाक निर्जरा से आत्मा को सिद्धि नहीं है। बारह भावनाओं में यह निर्जरा भावना का प्रकरण है। स्वयंपाक निर्जरा से क्या लाभ है? उसमें तो सभी जीव बंधे हुए हैं, पर सोपायनिर्जरा का स्वरूप साधन यत्न सोचा जाय तो इस निर्जरा से लाभ है।