वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 195
From जैनकोष
तत्र बाह्यं तप: प्रोक्तमुपवासादिषड्विधम्।
प्रायश्चित्तादिभिभेदैरंतरंगं च षड्विधम्।।195।।
तप के प्रकार―कर्मों का क्षय तपश्चरण से होता है। जो मनुष्य तपश्चरण में नहीं लगते अपनी शक्ति माफिक, उनका चित्त विषय कषायों में लगेगा। दो ही तो बातें हैं―या खोटी और चित्त लगे या तपश्चरण की ओर चित्त लगे। तपश्चरण से ही कर्मों की निर्जरा हो सकती है और उन तपश्चरणों में से 6 तो होते हैं बहिरंग तप जो दूसरों को दिख सकते हैं और जो दूसरे द्रव्यों के संबंध से होते हैं, जिन्हें दिखावटी धर्मवेशी भी कर सकते हैं, वे बहिरंग तप हैं और जो अपने अंतरंग के भावों से उठते हैं वे अंतरंग तप। अंतरंग तप 6 हैं―प्रायश्चित्त करना―कोई दोष हो जाय तो उन दोष का पछतावा करना, विनय रखना, दूसरों की वैयावृत्ति करना, स्वाध्याय करना, कायोत्सर्ग करना और ध्यान करना ये सब अंतरंग तप हैं। ये सब आत्मा के अधीन हैं और अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसत्याग, विविक्तशैयासन और कायक्लेश, ये बहिरंग तप हैं। ये परमागम में 6 प्रकार के तप कहे गए। इन सब तपों को भली प्रकार से तो साधु पालते हैं और गृहस्थ भी अपनी शक्ति के अनुसार इस तप का पालन करें।