वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 199
From जैनकोष
पवित्री क्रियते येन येनैवोद्ध्रयते जगत्नमस्तमै दयार्द्राय धर्मकल्पांघ्रिपाय वै।।199।।
धर्म से लोक की पवित्रता व उद्धार―जिस धर्म के द्वारा यह जगत् पवित्र किया जाता है, इस जगत् का उद्धार होता है और जो धर्म दयारूप परम रस से सदा हरा रहता है उस धर्मरूप कल्पवृक्ष के लिए हमारा नमस्कार हो। धर्म एक कल्पवृक्ष है। यदि धर्म से परिपूर्ण कोई है तो धर्म के प्रसाद से जो चाहे सो मिल सकता है। प्रथम तो इस धर्म की सेवा के एवज में जगत की कुछ भी चीज की वांछा न करना चाहिए। जैसे प्रभुभक्ति वही वास्तविक कहलाती है कि प्रभु की भक्ति करके प्रभुभक्ति के एवज में अन्य कुछ न चाहा जाय। यदि धनलाभ व मुकदमें की जीव या संतानलाभ यह कुछ चाह लिया गया प्रभुभक्ति के प्रसाद में, तो भी प्रभुभक्ति नहीं रही। प्रभुभक्ति निष्कपट भाव से होती है। केवल प्रभु की ही भक्ति रहे, प्रभु के गुणों का ही स्मरण रहे ऐसी निष्कपट भक्ति हो तो वह प्रभुभक्ति नहीं है। यदि धन की चाह में प्रभु की भक्ति की जा रही है तो वह प्रभुभक्ति नहीं है धनभक्ति है। हृदय में जिसका आदर हो भक्ति तो उसी की कहलाती है। यदि प्रभु का आदर है तो वह प्रभुभक्ति है। यों धर्म की भी भक्ति वास्तविक वह है कि धर्म करके संसार की कुछ भी चीज न चाही जाय। यदि संसार की वस्तु चाह ली गयी तो उस वस्तु की भक्ति हुई धर्म की भक्ति नहीं हुई। इस पद्धति से यदि धर्म का पालन किया जाय तो वह धर्म कल्पवृक्ष है।
धर्म कल्पवृक्ष का प्रसाद―यहाँ जिसको जो कुछ मिला है वह सब धर्म कल्पवृक्ष प्रसाद है। जिसने पूर्व जन्म में धर्म किया था, त्याग किया था, तपदान किया था उसका यह पुण्य फल रहा है जो कुछ आज अच्छी स्थिति मिली है। धर्म करने के योग्य हमें सब वातावरण मिला है आजीविका की अस्थिरता भी मिली है, करोड़ों मनुष्यों की अपेक्षा में अपनी स्थिति अच्छी है यह सब धर्म का प्रताप है। इस धर्म कल्पवृक्ष में वह अद्भुत प्रताप है कि इसकी छत्रछाया में बैठकर जो हित की बातें हैं वे सब सिद्ध हो जाती हैं। इस संसार में किन्हीं भी बाह्य वस्तुवों की ओर दृष्टि लगायी तो उससे कुछ सिद्धि नहीं है। प्रत्युत आकुलता ही आकुलता है, किंतु धर्म शरण गहने में सर्वत्र निराकुलता ही निराकुलता है।
जगत में दु:खों का प्रसार―जगत में सर्वत्र देखो दु:ख ही दु:ख छाया है। पशुओं की दशायें देखो, कैसे ये लाये जाते हैं, न चलें तो डंडों से पीटे जाते हैं। उन पशुवों के मारने वालों के चित्त में यह बात नहीं आ पाती कि किसे मार रहे हैं? ऐसा ही तो मेरा रूप था हम भी ऐसे पशु बने। और इन्हें मार रहे हैं तो इसके फल में हम भी ऐसे ही बनेंगे, पिटेंगे यह ध्यान नहीं जाता है पशुवों के मारने वालों के चित्त में। यह तो मारने की बात है। जो लोग पशुवों की हिंसा कर डालते हैं केवल एक मांस खाने के शौक में उनके चित्त में कितनी क्रूरता समायी हुई है और चूँकि वे मारने वाले भी जीव हैं तो उन्हें थोड़ा सा यह भी भान हो जाता है कि हम बुरा कर रहे हैं, पर बुरा काम करने की कितनी तीव्र कषाय जगी है और मिथ्यात्व का इतना गहरा रंग चढ़ा है कि रहे सहे डर को मिटाने के ख्याल से वे भगवान का नाम लिया करते हैं और कुछ भी धर्म के बहाने पाठ बना डालते हैं कि जिससे वे यह संतोष कर लेते कि हमने पाप नहीं किया। लेकिन पाप तो पाप ही हैं। कौन पूछता है कि इन कीड़े मकौड़ों को इन पक्षियों को जो चाहे शिकारी निर्दयता से मार डालता है तो सारा जगत् दु:खों से भरा हुआ है।
निगोद से निकलने की दुर्लभता―इस जीव का मूल आदि निवास निगोदभव था। निगोद निवास प्रसिद्ध नहीं है। जैन सिद्धांत में ही इसकी व्याख्या की गई है। इतने सूक्ष्म जीव होते हैं ये कि जिसके शरीर का आकार आप कुछ बना ही नहीं सकते। पानी का पतला बूँद जमीन पर गिर जाय, वह बूँद जिस जगह गिरता है उतनी जगह में तो अनंत निगोद के जीव समा जाते हैं और एक शरीर के अनंत निगोद जीव मालिक रहते हैं। जैसे हम आप यहाँ एक शरीर के एक मालिक हैं। हमारे शरीर के 50 मनुष्य तो मालिक नहीं हैं, लेकिन निगोदभव में तो शरीर एक है और वह अनंत निगोद जीवों का रहता है और इसी कारण जो जीव मरता है तो उसके साथ ही वे सब जीव मरते हैं और जन्मता है तो उसके साथ सब जन्मते हैं और एक बार नाड़ी के चलने में जितना समय लगता है उतने समय में 18 बार मरण हो जाता है। उनके दु:ख को कौन जान सकता है, ऐसा कठिन भव हम आप लोगों का सबका था प्रारंभ में। जितने सिद्ध भगवान हुए हैं उनकी भी प्रारंभ में निगोद अवस्था थी, वे भी तो संसार से मुक्त हुए। समस्त जीवों की प्रारंभिक दशा निगोद अवस्था थी। तो उस निगोद से ही निकलना बहुत कठिन था। अनंत निगोदिया जीव ऐसे अब भी निगोद में हैं जो कभी भी निगोद से नहीं निकले हैं। अब तक अनादिकाल से निगोद में चले आये है।
निगोद से निकलकर स्थावरों में भ्रमण―हम आपकी स्थिति देखो इस समय कितनी उत्तम मिली हुई है। हम आप कितनी कुगतियों से पार होकर आज मनुष्य हुए हैं। निगोद से निकले तो अन्य स्थावरों में निवास रहा। निगोद भी स्थावर जीव हैं और वह वनस्पति का भेद है। निगोद साधारण वनस्पति को कहते हैं। उस निगोद दशा से निकला तो यह जीव पृथ्वीकाय हुआ, जलकाय हुआ, अग्निकाय हुआ और प्रत्येक वनस्पतिकाय हुआ। इन स्थावरों में बहुत काल भ्रमण किया। वहाँ से भी निकलना कठिन था। सब एकेंद्रियों में सिर्फ एक स्पर्शनइंद्रिय है। उस स्पर्शनइंद्रिय के द्वारा वे अपना काययोग करते हैं और उसी को भोगा करते हैं जो कुछ भोगा जा सकता है।
एकेंद्रिय से निकलकर विकलत्रिकों में भ्रमण―एकेंद्रिय से निकले तो दो इंद्रिय में जन्म हुआ। एकेंद्रिय की अपेक्षा दो इंद्रिय का जीवन जरा महान् है। यहाँ जिह्वा और उत्पन्न हो गयी, जैसे केंचुवा, लट, जोक, शंख, सीप, कौड़ी इनमें रहने वाले जो जीव हैं वे दो इंद्रिय जीव हैं। इसके रसना इंद्रियावरण का क्षयोपशम हुआ है। रसनाइंद्रियजंय ज्ञान के वे अधिकार बने। दो इंद्रिय से अब यह जीव त्रस कहलाता है। त्रस इंद्रिय के घात से मांस उत्पन्न होता है। एकेंद्रिय जीव के घात से मांस नहीं होता। वह उनका शरीर है। दो इंद्रिय से बड़ी कठिनाई से निकला यह जीव तो तीनइंद्रिय हुआ। अब यह ज्ञान का विकास जरा और बढ़ गया। घ्राणइंद्रिय से भी ज्ञान करने लगा। लेकिन मन बिना बेहोश है। केवल इंद्रियजंय ज्ञान को भोग रहा है, पर विवेक नहीं उत्पन्न हुआ। तीनइंद्रिय से निकलकर चारइंद्रिय हुआ। यहाँ एकेंद्रिय की प्राप्ति और हुई। नेत्रइंद्रियावरण का क्षयोपशम मिला, ज्ञान भी विशेष मिला लेकिन अब मन तक नहीं है। भँवरा, ततैया, मक्खी, मच्छर ये सब चतुरिंद्रिय जीव हैं। यह कहानी हम आप सबकी है, कैसे-कैसे भव पाये हैं, कैसे-कैसे क्लेश भोगे हैं और आज कुछ अच्छी स्थिति में आये हैं तो यहाँ ऐसी स्थिति बना ली है कि विषयवासनाओं में फँस गये हैं।
पंचेंद्रियों में जन्म की दुर्लभता―चारइंद्रिय जीव से किसी तरह से यह निकला तो पंचेंद्रिय हुआ। पंचेंद्रिय में कर्णेइंद्रियजंय ज्ञान की उपलब्धि हो गयी। सुन करके भी इसके ज्ञान होने लगा। पंचेंद्रिय में भी असैनी हुआ तो उन्हीं विकलत्रयों की भाँति अविवेकी रहा। कभी संज्ञा पंचेंद्रिय हुआ तो वहाँ विषयकषायों से मलिन वहाँ भी अविवेकी रहा तो उससे भी क्या लाभ हुआ? हम आप सब पंचेंद्रिय है, मन सहित हैं, और साथ ही यह भी निरख लें कि अनेक जीवों से हम आपकी बहुत अच्छी स्थिति है।
मनुष्यों में क्लेश का निर्माण―मनुष्य होकर भी जो जीवन एक बोझीला सा हो जाता है। वह सब तृष्णा का प्रसाद है। तृष्णा की तो कहीं हद ही नहीं है। 100 हों तो हजार, लाख हों तो करोड, यों इस वैभव के बढने से भी कभी संतोष नहीं मिलता और गजब की बात यह देखो कि उस धन से कुछ अपना लाभ नहीं। किसके लिए कमाया जाता है। सबको दो रोटियों से प्रयोजन है और थोड़ा ठंड, गर्मी से बचने के लिए कपड़े का प्रयोजन है, इससे अधिक धन का कोई खास काम नहीं है, सिर्फ दो रोटियों की पूर्ति सबके लगी हुई है, जो लोग धनी होने की होड़ मचा रहे हैं वे इस असार मायामयी दुनिया में अपना नाम जाहिर करने के ख्याल से होड़ मचा रहे हैं।
यथार्थ उद्देश्य के बिना भटक―यदि यह सही उद्देश्य बन जाय तो भला है कि हम मनुष्य हैं और हमें जैनशासन मिला है तो इसीलिए मिला है कि हम इस जैन धर्म से लाभ लूट लें, आत्मा में खूब ज्ञानप्रकाश बढ़ायें जिससे यह मेरा आत्मा मेरे आत्मा में ही मग्न होकर आनंदरस से छकित रहे, ऐसी हम प्रवृत्ति बनायें। यह काम करने के लिए हम मनुष्य हुए हैं, पर करने क्या लगे हैं? काम क्या था और करने क्या लगे हैं? तो जब तक धर्म का शरण नहीं मिला, धर्म के मार्ग पर हम आ नहीं सके तब तक तो अज्ञानी संसारी प्राणियों की भाँति अपना जीवन समझिये। लाभ कुछ नहीं हुआ।
समागम की स्वप्नवत् मायारूपता―जितना जो कुछ भी यहाँ नजर आ रहा है यह सब स्वप्न की तरह है, जैसे स्वप्न में स्वप्न देखने वाले को कुछ भी पता नहीं है, मगर वह स्वप्न देख रहा है और स्वप्न में इसे सब चीजें सच-सच लग रही हैं। स्वप्न की ये बातें सच नहीं हैं। यह कब विदित होता है जब स्वप्न भंग हो जाता है, जब नींद खुलती है तब मालूम पड़ता है कि ओह ! यह सब कोरा स्वप्न था। इसी तरह ये सब चीजें इस मोही जीव को मोहनींद में सच-सच लग रही हैं, है तो यह मेरा ही बढ़िया मकान, मेरे ही तो हैं ये पुत्र, स्त्री वगैरह। मेरा ही तो देखो कितना नाम और यश दुनिया में चल रहा है, सारी बातें इसे बहुत-बहुत सच लग रही हैं, लेकिन है कुछ नहीं यह बात कब विदित होती है? जब मोह की नींद टूटे, ज्ञान का प्रकाश मिले तब यह विदित होता है―ओह ! मेरा कुछ भी तो नहीं था। जैसे आप लोगों का जो-जो समागम विघट गया है अब तक भी कौनसा घर बचा जिस घर में मृत्यु न हुई हो किसी की, तो अपने ही कुटुंब में जिन-जिन प्रियजनों की मृत्यु हो गयी है उनके विषय में कुछ-कुछ यह ख्याल बनता है कि मेरा कुछ नहीं था, यह सब एक स्वप्न की चीज थी, तो जैसे बीती हुई बातों में कुछ-कुछ इतना अंदाजा बनने लगता है कि कुछ न था, वह सब स्वप्न की जैसी बात थी, ऐसे ही जिनका समागम आज मिला हुआ है उनके बारे में इतनी दृष्टि बन जाय कि ये भी मेरे कुछ नहीं हैं। यह सब केवल कल्पनाओं से मान लिया गया है स्वप्नवत्। यह सब ही स्वप्नवत्, मालूम किया जाने लगे तो अभी भी देख लो संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो सकेगा और हम धर्मधारण की ओर लग सकेंगे।
धर्म के बिना शरण्यता का अभाव―यह जगत कठिन है, क्लेशमय है। इस संसार में हम आपकी रक्षा करने वाला सिर्फ धर्म है, और किसी का सहारा तकना सब व्यर्थ की बात हैं। अमुक हमारा बड़ा मित्र है। अरे कषाय से कषाय मिल गयी तो उसे मित्र मान लिया। थोड़ी सी बात प्रतिकूल हो जाय तो वह ही मित्र पूरा बदल सकता है और मित्रता के बजाय वह शत्रुता अंगीकार कर सकता है। किसको मित्र मानते हो? किसको शत्रु मानते हो। आज जिससे आपकी कषाय मिल नहीं रही है और जिसको आप शत्रु समझ रहे हैं, कोई घटना होने पर कहो एकदम चित्त बदल जाय और वह आपका सब मित्रों से भी भला निष्कपट हार्दिक मित्र बन जाय। तो दुनिया में शत्रु भी कौन है, ये सब जीवों के अपने-अपने परिणमन हैं। इन परिणमनों में अपना कोई निर्णय न बनायें, इन सबके ज्ञाताद्रष्टा रहें। किसका शरण गहते हो इस लोक में? जिसे सोचते हैं कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी आज्ञाकारिणी स्त्री है या मेरा यह निकट संबंधी है, ये कोई मेरे विपरीत हो ही नहीं सकते, वे ही के वे ही कोई अचानक प्रतिकूल घटना घटने पर ऐसे प्रतिकूल हो जायेंगे जिसे अपने कहने लगते कि इससे तो कोई शत्रु ही भला था, किसका शरण आप गहते हैं?
धर्म की वास्तविक शरण्यता―शरण तो भैया एक धर्म का ही सत्य है, जो धर्म कभी भी छल नहीं करता। किसी भी समय आपको कोई भी धोखा नहीं दे सकता। धर्म का परिणाम है तो वहाँ नियम से शांति है। यदि चित्त में अशांति है तो समझो कि हम धर्म से विमुख हो रहे हैं इसीलिए अशांत हैं। बाहरी उपद्रवों से अशांति नहीं हुआ करती, किंतु खुद के हृदय की कल्पनाओं से अशांति बनती हैं। यदि बाहरी घटनाओं से अशांति हुआ करती होती तो सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार आदि बड़े-बड़े सुकुमार समृद्ध महापुरुषों को कैसे-कैसे उपद्रव तिर्यंचों ने, मनुष्यों ने किया। गजकुमार के सिर पर गजकुमार के ही स्वसुर ने मिट्टी की पाट बाँधकर कोयला जलाया। सुकौशल की माता ही सिंहनी बनकर सुकौशल को भक्षण करने लगी थी। सुकुमाल की भावज ही स्यालिनी के रूप में आकर सुकुमाल को विदीर्ण करने लगी थी। ऐसे उपद्रवों से भी उन्होंने अपना स्वरूप सँभाला, अपने धर्म की रक्षा की, बाहरी विकल्पों में न पड़े तो उनका कल्याण हुआ। तो दूसरों का क्या बर्ताव है, क्या प्रतिकूलता है, क्या परिणति है, उससे अशांति नहीं मिलती, खुद में कल्पनाएँ जगें उससे अशांति मिलती है। तो अपनी अशांति मेटने के लिए बाहर में उद्यम करना है? अपने अंतरंग में उद्यम करना है। वह उद्यम है धर्म। धर्म का शरण गहो, नियम से शांति होगी।
धर्म में शांति का स्वरूप―धर्म वहीं होता है जहाँ हृदय में दया बसी रहती है। दया से जो भरपूर है हरा-भरा है ऐसा मनुष्य अपने में कभी अशांति का अनुभव नहीं करता। यह मैं आत्मा तो अपने स्वरूप में ऐसा ही एकाकी हूँ स्वयं ज्ञानानंद स्वरूप हूँ। मेरे इस आत्मा को कौनसी मुसीबत है? मेरा ज्ञानानंद स्वरूप है, मैं सब तरह से समृद्ध हूँ, अधूरा नहीं हूँ, अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अपने आपके सत् रूप हूँ। मुझमें कोई कमी नहीं, ऐसी अपने आपके स्वरूप की दृष्टि जब नहीं रहती और बाहर इन जड़ पदार्थों में दृष्टि फँसा करती है तब इस जीव को अशांति उत्पन्न होती है। इस वेदना की रक्षा करने में समर्थ एक धर्म ही है। इस धर्म के द्वारा लोकपवित्रता होती है। जहाँ धर्मात्माजन निवास करते हैं वह क्षेत्र पवित्र हो जाता है। जहाँ से अनंत चतुष्टसंपन्न अरहंत भगवान का विहार हो जाता है वह क्षेत्र पवित्र हो जाता है। धर्म की ही कृपा से संसार से उद्धार होता है। अनेक पापों में व्यसनों में पड़े हुए इस मलिन जीव का उद्धार क्या पाप करेगा? मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, काम इन 6 बैरियों से सारा यह जीवलोक आक्रांत है, पीड़ित है। इन मलीमस, विकार पीड़ितों का उद्धार क्या कोई विकार करेगा? धर्म करेगा।
धर्म के प्रताप से संकटों का विनाश―अपना जो एक विशुद्ध स्वरूप है अर्थात्, अपने आपकी सत्ता के कारण जो कुछ मेरे में तत्त्व पाया जाता है उस तत्त्व की दृष्टि करें, उसकी ओर अपना झुकाव बनायें, उसकी ही आस्था रखें, उसमें लीन होने का यत्न करें, ऐसा करना ही एकमात्र अपना कर्तव्य समझें तो इस धर्मपुरुषार्थ के प्रताप से मोक्ष का मार्ग मिलेगा, संसार के संकटों से छूटने का रास्ता मिलेगा और अपनी रफ्तार वैसी ही बेढंगी बनी रही जो अब तक चली आयी है तो उस रफ्तार में रहने पर हम आपका मनुष्य होना न होना सब बराबर है। कर्तव्य है अपना कि धर्म का शरण गहें। धर्मरूपी कल्पवृक्ष समस्त संकटों को दूर कर देगा। उस धर्म रूप कल्पवृक्ष को नमस्कार हो।