वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2
From जैनकोष
भुवनांभोजमार्तंडं धर्मामृतपयोधरम्।
योगिकल्पतरुं नौमि देवदेवं वृषध्वजम्।।2।।
वृषभदेव को नमस्कार― प्रथम श्लोक में परमात्मतत्त्व को नमस्कार किया है, जिसमें किसी साकार व्यक्ति का ध्यान न रखकर केवल जो स्वरूप है, शुद्ध विकास है, उसकी दृष्टि से परमात्मा को नमस्कार किया है, क्योंकि यही ज्ञानानंदस्वरूप वह शुद्ध विकासरूप परमात्मतत्त्व ही एक नमस्कार करने योग्य है। नमस्कार कहते हैं झुकाव करने को। हम किस ओर झुकें, कौनसा जगत् में शरण तत्त्व है, जिस ओर झुकने से हमें शांति मिलेगी और संतोष का अनुभव होगा?वह है परमात्मतत्त्व।
जीव की वर्तमान परिस्थिति― यह जीव नामक पदार्थ निश्चयनय से स्वयं ही परमात्मा है। इसका स्वरूप एक प्रतिभास का है और वह प्रतिभास असीम है, परंतु अनादिकाल से कर्मों से आच्छादित होने के कारण यह जीव अपने स्वरूप की सुधि भूला है और बाहरी पदार्थों के विषयों में अटक गया है, इस कारण यह निरंतर बेचैन रहा करता है। कदाचित पुण्योदय से कुछ योग्य समागम मिल जायें, सुख का साधन वैभव मिल जाये, तब भी तो इससे कुछ पूरा नहीं पड़ता। प्रथम तो वैभव सुख का कारण बने, यह भी निर्णय नहीं है। वैभव पाकर कुछ ऐसी विचित्र कल्पनाएँ जगती हैं कि वह वैभव दु:ख का कारण बनता है, सुख का कारण बन नहीं पाता। और कदाचित् कल्पनावश कुछ सुख मान भी ले कोई तो आखिर वियोग तो होगा ही, उस वियोग के काल में यह जीव दु:खी होगा, क्योंकि संयोग के समय में ममता कीहर्ष माना। यों विविध संताप से पीड़ित यह संसारी हो रहा है।
त्रिविधात्मत्व― जब तक इसका बहिरात्मत्व रहता है अर्थात् ज्ञानातिरिक्त अन्यभाव व परपदार्थ आत्मरूप से दृष्टि में रहता है, तब तक इसका नाम प्रसिद्ध शब्दों में जीवात्मा है। जीव अनेक हैं। जो जीव कर्म काटकर सिद्ध हुये हैं, उनका स्वरूप जानकर और उन्हीं का जैसा अपना स्वरूप जाने तो यह अंतरात्मा हो जाता है, महात्मा हो जाता है। इस महात्मा के सहजस्वरूप के ध्यान के आलंबन से कर्म मुक्त होता है, तब यही परमात्मा हो जाता है। यह बात हम आपमें मौजूद है कि परमात्मा हो सकते हैं, अतएव हमारा झुकाव, हमारी दृष्टि परमात्मस्वरूप की ओरहोना चाहिये, जिससे विकल्प दूर हों और सहज विश्राम मिले।
वृषध्वज श्री वृषभदेव― यों प्रथम श्लोक में परमात्मतत्त्व को नमस्कार करके अब इस द्वितीय श्लोक में आज के युग में जो धर्ममार्ग चल रहा है, इसके जो आदि प्रवर्तक हैं ऋषभदेव, उनको नमस्कार किया है। ये ऋषभदेव वृषध्वज है। वृष नाम धर्म का है, वह जिस की ध्वजा है, वे वृषध्वज हैं। वृष कहते हैं बैल को। जिसके जन्मसमारोह के समय ध्वजा में बैल का चिह्न हो, उसे वृषध्वज कहते हैं। ऋषभदेव के चरणों में वृषभ का चिह्न नजर आया जब इंद्र की गोद में जन्मसमय आदिदेव को शची ने दिया और उन्होंने अपनी ध्वजा में वृषभ का चिह्न घोषित कर दिया, तब से ऋषभदेव का चिह्न वृषभ प्रसिद्ध हो गया। जिस ऋषभदेव ने धर्म की ध्वजा फहराई― ऐसे ऋषभदेव को मैं नमस्कार करता हूँ। जो देवाधिदेव कहलाते हैं, जो भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक इत्यादि सभी देवों के द्वारा पूज्य हैं, उन देवाधिदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।
त्रिभुवन जीवानंदी― ये प्रभु तीन लोकरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य की तरह हैं। जैसे सूर्योदय होता है तो कमल प्रफुल्लित हो जाते हैं, इसी प्रकार ऋषभदेव का जब जन्म होता है तो तीनों लोक प्रफुल्लित हो जाते हैं। जन्मकाल पर स्वर्गों में घंटे अपने आप बजने लगे, शंखध्वनि अपने आप होने लगी, इंद्र के आसन कंपित होने लगे, जिससे लोगों ने यह जाना कि तीर्थंकर प्रभु का जन्म हुआ है। यह तो केवल एक सूचनामात्र थी, पर सभी लोग प्रसन्न होकर प्रभु सेवा में आये। उनके जन्म के समय मनुष्यों में बड़ा हर्ष छा गया था। तीनों लोक के प्राणीरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये ये ऋषभदेव सूर्य की तरह हुये। इस विशेषण ने भगवान के जन्मकल्याणक की प्रसिद्धि की। भैया ! आप यहीं की बात देख लो कि यहीं किसी परोपकारी पुरुष के पुत्र हो तो घर के लोग तो प्रसन्न होते ही हैं, किंतु गांव के लोग भी बड़ी खुशी मनाते हैं। फिर भला जो एक मोक्षमार्ग के विधाता हों, जिससे पहिले 18 कोड़ाकोड़ी सागर तक कोई धर्म का प्रसार न था, संयम की प्रवृत्ति न थी, भोगभूमि का काल था, इतने अधिक काल के विच्छेद के बाद ऋषभदेव का जन्म हुआ सोचिये वह कितने महान् आनंद का समय था?
दीर्घकालीन धर्मविरह के बाद भी ऋषभदेव का अवतरण― आज का यह समय जो चल रहा है अवसर्पिणीकाल है। इस अवसर्पिणीकाल से पहिले उत्सर्पिणीकाल था यह चतुर्थ काल जिसमें पंचमकाल और छठेकाल की स्थिति गर्भित है, एक कोड़ाकोड़ी सागर के आदि में ऋषभदेव का जन्म हुआ। इससे पहिले तीसरा काल था, उसमें 2 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति है। उससे पहिले द्वितीयकाल था, जिसकी स्थिति 3कोड़ाकोड़ी सागर है उससे पहिले प्रथमकाल था, जिसकी स्थिति 4 कोड़ाकोड़ी सागर है, यों 4 व 3 तथा 2 मिलकर कुल 9 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति है। इस प्रथमकाल के पहिले उत्सर्पिणी का प्रथमकाल था, यह पीछे की ओर बता रहे हैं। प्रथमकाल में 4 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति थी, उससे पहिले द्वितीयकाल में तीन कोड़ाकोड़ी की स्थिति थी, उससे पहिले तृतीयकाल में 2 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति थी, ये 9 कोड़ाकोड़ी सागर हुये। उससे पहिले चतुर्थकाल था और तीर्थ की प्रवृत्ति थी। यों 18 कोड़ाकोड़ सागर के बाद प्रथम धर्मप्रवर्तक ऋषभदेव भगवान भरतक्षेत्र में हुये। पुण्यनिधान तीर्थकर जैसी पुण्यप्रकृति वाले ऋषभदेव का उदय किसको हर्षकारी न हुआ होगा?
धर्मामृतपयोधर― ये ऋषभदेव धर्मरूपी अमृत बरसाने के लिये मेघ के समान हैं। जब ऋषभदेव प्रभु विरक्त होकर तपस्या में लीन हुए तो उसके प्रताप से उनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। केवलज्ञान उत्पन्न होते ही तीर्थंकर प्रकृति का उदय आ जाता है।13वें गुणस्थान से पहिले तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं होता, लेकिन जिस पुण्यशाली जीव के, जिस मोक्षगामी जीव के तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ है, वह प्रकृति अभी सत्ता में ही है, फिर भी ऐसी विशिष्ट प्रकृति पुण्य के साथ पड़ी हुई रहती है, जिससे गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, तपकल्याणक― ये तीन कल्याणक इंद्र आकर मनाता है। अभी तो तीर्थंकर का उदय नहीं है। तीर्थंकर प्रकृति का उदय 13वें गुणस्थान में हुआ करता है, लेकिन जो तीर्थंकर होगा, जिसको तीर्थंकरप्रकृतिकी सत्ता है, वह इतना पुण्यशाली होता है कि उसके गर्भ में आते ही बड़े समारोह मनाये जाया करते हैं। इन प्रभु ने केवलज्ञानी होकर धर्मरूपी अमृत को बरसाया था। इस विशेषण से ज्ञानकल्याणक पर दृष्टि दी गई है।
योगिकल्पतरु― ये प्रभु योगियों के लिये कल्पवृक्ष तुल्य हैं। योगीजनी इनका ध्यान करके, इनके कर्तव्यों का स्मरण करके अपने आपमें ज्ञानज्योति का अनुभव किया करते हैं। ऐसे योगिकल्पतरु ऋषभदेवस्वामी को यह मैं नमस्कार करता हूँ। तीर्थंकर प्रभु बहुत समर्थ होते हैं। यद्यपि लोग यह कहते हैं कि जब भोगभूमि का काल था, कल्पवृक्ष सब फलरहित होने लगे थे, तिर्यंचों में सिंहादि जानवर क्रूर होने लगे थे, जब आजीविका का कोई साधन न रहा था, ऐसी विकट परिस्थिति में ऋषभदेवस्वामी ने बहुत ऊँचा कार्य किया, जो कार्य सबसे नहीं बन सकता। सबको विधियाँबतलाई, सबको अभयदान दिया। वह सब तो प्रभु के लिये लीलामात्र की बात थी। क्या-क्या ज्ञान दिया? लोगों को बड़ी-बड़ी विधियाँ बता दीं, लेकिन उनके लिये तो कुछ कठिन काम न था, पर हम लोग चूँकि समर्थहीन हैं, अतएव यह एक बहुत बड़ा कार्य लगता है। उन्होंने इस लौकिक दृष्टि से बहुत ऊँचा कार्य इस कर्म भूमि की आदि में किया। केवलज्ञानी प्रभु हुए, तब इनका जो वीतरागस्वरूप सर्वज्ञता का स्वरूप जो मूर्ति के रूप में साक्षात् दर्शन में आया करते हैं, उन प्रभु का ध्यान करके योगीजन अपने योग की सिद्धि करते हैं। कल्पवृक्ष उसे कहते है कि जो चाहे सो मिल जाये। अब योगी ऋषिराज प्रभु को निरखकर क्या चाहेंगे? आत्मशांति, मोक्षमार्ग, भेदविज्ञान, आत्मरमण― ये सब बातें ऋषभदेव के ध्यान से योगीजन प्राप्त किया करते थे। अतएव ऋषभदेवस्वामी योगिकल्पतरु हैं, ऐसे देवाधिदेव ऋषभदेवस्वामी को यहाँ नमस्कार किया है।