वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2011
From जैनकोष
ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितम् ।
निष्ठितार्थमजं नौमि परमात्मानमव्ययम् ।।
संसारी जीवों के ध्यान की स्थितियां―हम आप सब जीवों के कुछ न कुछ ध्यान निरंतर बना रहता है, चाहे वह बहुत ही थोड़े समय में बदलकर रहता हों, पर रहता है ध्यान सबके, और हम आप तो संज्ञी पन्चेन्द्रिय जीव हैं, जो असंज्ञी जीव हैं उनके भी किसी न किसी रूप में चित्त के बिना भी ध्यान बना रहता है, हाँ उसको एक प्रमुखता नहीं दी है, किन्तु संज्ञावों के बल पर जैसे कि सिद्धांत में बताया है कि आर्त रौद्रध्यान तो संसार के मिथ्यादृष्टि जीवों में सभी में पाया जाता है । विशेषतया चित्त वालों के, मन बालों के ध्यान की बात कही जाती है, और मनुष्यों के तो इस ध्यान की विशेषता है ही । हम आप करते हैं विचार, और वे सब विचार ध्यानों के रूप में बन जाते हैं । भाव ही हम आप कर पाते हैं, इसके अतिरिक्त और हम आप कर ही क्या सकते हैं? जरा अपने आपका जितना स्वरूप है उतने पर दृष्टि देकर निर्णय करिये । सभी पदार्थ अपने गुणपर्यायात्मक हैं, अपने प्रदेशों से बाहर कोई भी पदार्थ कुछ नहीं करता ।
वस्तु के निज क्षेत्र में वस्तुत्व का प्रभाव―लोक में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध तो है ही विकारपरिणमन के प्रसंग में । इस कारण लोगों को ऐसा ख्याल हो जाया करता है कि देखो अमुक पदार्थ ने अमुक दूसरे पदार्थ की यह क्रिया की, क्योंकि वहाँ ऐसा कुछ अन्वयव्यतिरेक देखा गया, निमित्त के सद्भाव में उपादान में कार्य देखा गया और ऐसे निमित्तों के असद्भाव में उपादान में यों कार्य नहीं देखा जाता है, इस तरह कार्य होने के कारण एक यह ख्याल लोगों को बन गया है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कुछ कर देता है । यही कारण है कि एक पदार्थ में किसी दूसरे पदार्थ का कर्तापन लाद दिया जाता है । जैसे मैं अमुक को सुखी करता हूँ, अमुक को दुःखी करता हूं―इसमें तो कुछ निमित्तनैमित्तिक भावों की स्थिति नहीं बन रही है तिस पर भी यह प्रतीत है । वस्तुत: सर्व परिस्थितियों मे प्रत्येक पदार्थ अपने गुणपर्याय में तन्मय रहा करता है । अतएव किसी भी पदार्थ का गुण या पर्याय उसके अपने क्षेत्र से बाहर नहीं होता ।
अशुद्ध परिणमन में भी वस्तुस्वातन्त्र्य की झलक―वस्तुस्वातन्त्र्य के निर्णय में कुछ दृष्टांत ले ले। । दीपक पदार्थ को प्रकाशित करता है । इसमें दो बातें कही गई हैं―दीपक और पदार्थ । आप यह बतलावो कि दीपक कितना बड़ा हैं, कोई तो उस लालटेन या दीपक को देखकर झट बता देंगे कि दीपक तौ कमरे के बराबर बड़ा है । पर दीपक उतना बड़ा नहीं है । दीपक तो उतना बड़ा है जितने में उसकी लौ है । यदि कहो कि नहीं बहुत बड़ा है दीपक, कमरे बराबर है, तो कमरे के जिस कोने में हाथ उठा दें तो वह सारा दीपक बुझ जाना चाहिए, पर ऐसा तो नहीं है । दीपक उतना बड़ा है नहीं । दीपक तो उतना ही बड़ा है जितना कि उसकी लौ है । दीपक के प्रदेशों से बाहर दीपक का कुछ नहीं है । ये पदार्थ दीपक से बहुत दूर हैं, किन्तु निमित्तनैमित्तिक सम्बंध न मेटा जा सकेगा । प्रकट दिख रहा है कि दीपक का निमित्त पाकर ये पदार्थ अपनी अंधकार अवस्था को त्यागकर प्रकाश अवस्था में आये हैं । लेकिन इतना सम्बंध होने से कहीं यह बात न बन जायगी कि दीपक ने अपना स्थान छोड़ छोड़कर पदार्थों में आ आकर इन्हें प्रकाशित किया है । अब जरा एक दृष्टांत और लीजिये । यहाँ प्रकाश के मध्य में जो यह छाया रूप परिणमन है यह किसका छायारूप परिणमन है? इस बाबत तो निमित्तनैमित्तिक सम्बंध देखकर लोग कह देते हैं कि यह हाथ की छाया है, किन्तु यह बतलावो कि हाथ कितना है? जितने में ये अंगुलियां हैं, हथेलियां हैं उतना ही तो हाथ है । तो हाथ के प्रदेशों में हाथ का ही सब कुछ है । हाथ से बाहर हाथ की कोई चीज नहीं है । पर यह छायारूप परिणमन कैसे हुआ? यह पुस्तक है, यह चौकी, यह पृथ्वी जो भी वहाँ कुछ चीज प्रकाश के अवरोधरूप हो रही है छायारूप परिणम रही है, वह परिणमन पदार्थ का है ।
निज में स्वातन्त्र्य का अनुभव―यहाँ दृष्टांत केवल इसलिए दिया है कि अपने आप में यह निर्णय कर लीजिए कि मैं सबसे निराला शरीर से भी जुदा केवल ज्ञानानन्दस्वरूप को लिए हुए चेतन पदार्थ हूँ । यह मैं पदार्थ अपने में अपना ही सब कुछ करता रहता हूँ, मैं किसी दूसरे पदार्थ का कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं हूँ । मैं तो केवल एक भाव बनाता हूँ, और वे सब भाव ध्यानरूप में हो जाया करते हैं । तो हम आप सबके ध्यान ये निरन्तर रहते हैं । अब उन्ही ध्यानों से हम अपनी बरबादी कर लेते हैं और ध्यान से ही हम अपने को उन्नति के पथ पर ले जा सकते हैं ।
सोलह ध्यानों में आठ अशुभ ध्यान―ध्यान 16 बताये गए है―4 आर्तध्यान, 4 रौद्रध्यान, 4 धर्म्यध्यान और 4 शुक्लध्यान । आर्तध्यान इष्टवियोगज, अनिष्टसयोगज, वेदनाप्रभव और निदान―ये चार हैं । इष्ट का वियोग होने से उसके संयोग के लिए जो चिन्तन चलता है वह इष्टवियोगज आर्तध्यान है । किसी अनिष्ट का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए जो कल्पना होती है वह अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है । शरीर में पीड़ा होने पर जो चिन्तन चलता है वह वेदनाप्रभव आर्तध्यान है । अन्य वस्तुवों की प्राप्ति के लिए जो आशा चलती है वह निदान नामक ध्यान है । ये 4 आर्तध्यान इसलिए कहलाते हैं कि इन ध्यानों में पीड़ा उत्पन्न होती है । पीड़ा के कारण इन ध्यानों को आर्तध्यान कहते हैं । जैसे कि खोटे ध्यान, ये चार बताये हैं ऐसे ही खोटे चार रौद्रध्यान हैं-हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषयसंरक्षणानन्द । हिंसा में आनन्द मानना, हिंसा करने में, कराने में, करते हुए को देखकर किसी भी प्रकार हिंसा के प्रसंग में आनन्द मानना हिंसानन्द रौद्रध्यान है । झूठ बोलने में, बुरा मानने में, झूठी गवाही देने में, हँसी मजाक में आनन्द मानना मृषानन्द रौद्रध्यान है । चोरी में आनन्द मानना चौर्यानन्द है और पंचेन्द्रिय से विषयों के संरक्षण में आनन्द मानना सो विषयसंरक्षणानन्द रौद्रध्यान है । इसे रौद्रध्यान क्यों कहते हैं? यह रुद्र भाव को लिए हुए होता है, क्रूरता को लिए हुए होता है और आनन्द इसके साथ यों लगा है कि वह उसमें मौज मानता है । ये 8 छोटे ध्यान हैं, इनसे तो आत्मा की बरबादी है, पर धर्मध्यान और शुक्लध्यान―ये संसार के संकटों से छुटकारा कराने के साधन हैं ।
धर्म्यध्यान―4 धर्मध्यान हैं―आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । भगवान की आज्ञा मानकर जो धर्मध्यान बना हो वह आज्ञाविचय धर्मध्यान है । इसमें मात्र आज्ञा मानकर श्रद्धानी बना हो इतनी ही बात नहीं है, श्रद्धान तो उसके श्रद्धान के ढंग से है, विवेकपूर्वक है वह आत्मदर्शी है, पर जिस किसी भी समय भगवान की आज्ञा की प्रमुखता से विचार होता है वह आज्ञाविचय धर्मध्यान है । ये रागादिक विकार कैसे दूर हों, ये ही जीव की बरबादी के हेतुभूत हैं । इस प्रकार रागादिक के अपाय का चिन्तन करना सो अपायविचय धर्मध्यान है । कर्मों के फल का चिन्तन करने को विपाकविचय कहते हैं । संस्थानविचय धर्मध्यान इन ध्यानों में विशेष महत्व का ध्यान है, और इसके सम्बंध में यह भी कथन चलता है कि मुख्यता से संस्थानविचय धर्मध्यान निर्ग्रन्थ साधुवों के हुआ करता है । वैसे तो सम्यग्दृष्टियों के चार ध्यान हैं पर मुख्यता की अपेक्षा देखा जाय तो संस्थानविचय साधु जनों के हो पाता है । इसका एक मुख्य रूपक यह समझ लीजिए कि तीन काल तीन लोक की रचना उपयोग के सामने चित्रितसी रहे, ऐसी स्थिति होने को संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं । लोक कितना बड़ा है? 343 घनराजू प्रमाण है, इसमें यह जीव सर्वत्र जन्मा है । इतने बड़े लोक की सुधि बने । संस्थानविचय धर्मध्यान साधु जनों के चिन्तन रहा करता है । फिर संस्थानविचय धर्मध्यान में उनके जो भेद किए गए हैं उनके भेद से उनका महत्व और अधिक ज्ञात होता है । संस्थानविचय के इन चार प्रकारों को देखिये―पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । पिण्डस्थध्यान में अपने आपके सम्बन्ध में जो चिन्तन चलता है वह पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी व तत्त्वरूपवती धारणा में है और वह यद्यपि एक कल्पना के आधार पर चलता है, परन्तु उसमें क्रियागौरव का अभाव होने से आत्मनिर्भर अपने को अनुभव करता है और उस स्थिति में निष्कलंक आत्मा को ध्यान में लेता है । पदस्थध्यान में मंत्रों के सहारे अपना ध्यान जमाना है । रूपस्थध्यान में क्या होता है? उसके सम्बंध में आचार्यदेव कहते हैं ।
आर्हंत्यमहिमोपेतं सर्वज्ञं परमेश्वरम् ।
ध्यायेद्देवेंद्रचंद्रार्कसभांतस्थं स्वयंभुवम् ।।2011।।
रूपस्थध्यान में ध्येय―जो प्रभु आर्हंत्य की महिमा से सहित हैं, रूपस्थध्यान में उस सकलपरमात्मा का ध्यान किया जाता है । ये परमात्मा चार घातिया कर्मों से रहित हैं, किंतु अभी शरीर से रहित नहीं हो सके, ऐसे सकलपरमात्मा का ध्यान होता है । यों समझ लीजिए कि जिस पुरुष ने ज्ञान और वैराग्य किया है, ज्ञान और वैराग्य की जब सीमा बढ़ती है तो वह परिग्रह को नहीं लपेट सकता, सबसे छुटकारा पाता है, निर्ग्रंथ अवस्था को धारण करता है । केवल एक आत्मा की धुनि ही उसके बनी रहती है । आत्मदर्शन के अनेक अवसरों को आत्मानुभव के रस से तृप्त होकर उस महान आनंद के प्रताप से वह चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देता है । ज्ञानावरण―जो ज्ञान को रोके, दर्शनावरण―जो दर्शन को न प्रगट होने दे, मोहनीय―जो दर्शन और चारित्र को बिगाड़ दे, अंतराय―जो विघ्न का कारण हो, ऐसे चार घातिया कर्मो का उसके विनाश होता है । रागद्वेषादिक का वहाँ अभाव है और तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थो के जानने की शक्ति वहाँ प्रगट होती है, ऐसी आर्हंत्य की महिमा कर के सहित हैं ये सकलपरमात्मा ।
दिव्यसभास्थ प्रभु का ध्यान―रूपस्थध्यान में वह सब दृश्य भी विचारना है जो समवशरण में हुआ करता है । पृथ्वी से कुछ कम 5 हजार धनुष ऊपर समवशरण की रचना शुरू होती है । जमीन पर इस समवशरण को कहाँ बनायें? 10-12 कोश का ऐसा मैदान, जहाँ लोग जा सकें, कहीं पर्वत है, कहीं नदी है । तो यह रचना देख लो, ऊपर रचना होती है, सीढ़ियों से मनुष्य तिर्यंच आदि पहुंचते हैं । अनेक रचनायें जो मन को हरने वाली हैं उनको निरखते हुए जहाँ भगवान विराजे हैं, उनके निकट बारह सभायें होती हैं, उनमें मनुष्य तिर्यंच देव आदिक सभी विराजमान होते हैं । तीनों लोकों के इंद्र देवेंद्र राजा महाराजा चक्रवर्ती सभी के सभी उस वीतराग प्रभु की प्रभुता को निरखकर वहाँ खिंचे चले आते हैं । अरे उन देव देवेंद्रों को, बडे-बड़े चक्रवर्तियों को कौन से सांसारिक वैभव की कमी है, क्यों वे प्रभु के समक्ष जाते हैं? अरे वे सभी आत्महित के अभिलाषी हैं, और आत्महित है वीतरागता में । तौ उस वीतरागता से अपने परिणामों को निरखकर, अपने ज्ञानबल को देखकर वह वीतरागता प्राप्त की जाती है । उस वीतरागता की ऐसी महिमा है कि तीन लोक के इंद्र खिंचे हुए चले आते हैं । रूपस्थ ध्यान में उस परमात्मा का स्मरण करना है जो आत्मविश्वास, आत्मज्ञान और आत्म-रमण के प्रकाश से अनेक भव्य साधु वीतराग और सर्वज्ञ बन गए हैं, वीतराग सर्वज्ञ होने पर अब उनसे मनुष्य इस तरह बातें नहीं कर सकते । वे परमात्मा हैं, यों उनसे शंका समाधान नहीं हो सकता, कोई उनसे घर की चर्चा नहीं कर सकता । वह तो एक दर्शनीय मुद्रा है, वे अपने अनंत आनंद में विराजमान हैं, ऐसे परम ज्ञानानंदस्वरूप में विराजमान सर्वज्ञ, परमेश्वर को जो देवरचित सभा के मध्य में विराजमान हैं उनका ध्यान रूपस्थध्यान में होता है ।
प्रभुध्यान के समय आत्मप्रभुता का स्मरण―प्रभु के ध्यान के समय अपना भी ध्यान चलता रहता है तब आनंद मिलता है । जैसे ये प्रभु हैं वैसी ही शक्ति मुझ में है, इस प्रकार का विश्वास हो तब ध्यान चलता है, नहीं तो जैसे यहाँ किसी बड़े महाराज के समक्ष पेशी में आया हुआ कोई गरीब एक दीन और स्वामी का नाता अनुभव कर के दुःखी रहता है, उसमें किसी न किसी प्रकार की दीनता ही बनी रहेगी, ऐसे ही प्रभु का ध्यान करने वाले लोग मैं दीन हूँ, ये मालिक है यों विचारे तो दुःख ही रहता है । तत्त्ववेदी भक्तजन अपने स्वरूप के साथ भी जोर लगाया करते हैं, वही शक्ति मुझ में है जो प्रभु में है, तभी तो अपनी शक्ति का विचार कर के हर्ष होता है और वर्तमान जो किया है, परिणमन है उन्हें देखकर विषाद होता है तो आनंद और पश्चाताप दोनों जब एक जीव के बनते हैं उस स्थिति में कुछ ठंडे आँसू, कुछ गर्म आँसू इस तरह और गद्गद् वाणी में मानो कुछ बोल रहा है, प्रभु से तो कुछ बोला नहीं जाता है, मगर गद्गद् वाणी में भीतरी भक्ति का पराग निखरता है । जैसे 4-5 वर्ष के तोतले बालक की जो आवाज होती है उससे भी अधिक तोतली बोली में मानो वह कुछ प्रभु से कहना चाहता है वह एक प्रभु के ध्यान की स्थिति है ।
रूपस्थध्यान में प्रभुशरण ग्रहण―इस शुभध्यान के प्रसंग में उत्तरोत्तर विशुद्धि बढ़ाते हुए इन ध्यानों का क्रम रखा गया है । पूर्व में जो ध्यान बताये गए हैं उनसे अधिक प्रभु की निकटता इस रूपस्थध्यान में चल रही है । यह उपासक जगत में किसी को अपना शरण नहीं समझता । कैसे समझे शरण? सब कुछ देख लिया, भोग लिया । जहाँ यह जीव गया, जिसके निकट पहुंचा, जिसको इसने शरण माना वहाँ ही इसे धोखा मिला, ठोकर ही मिली । जैसे बाल'क लोग जब फुटबाल खेलते हैं तो जिस बालक के पास वह फुटबाल पहुंची उसी बालक ने पैर की ठोकर मारकर उसे वहाँ से भगा दिया । वह बेचारी फुटबाल एक जगह स्थित नहीं रह पाती । इधर उधर जहाँ कहीं भी पहुंची वहाँ ही ठोकर लगी, ऐसे ही यह जीव जिसे अपना शरण समझकर जिसके पास पहुंचता है वहीं इसे ठोकर मिलती है, शांति से स्थिर बैठ नहीं पाता । सर्वत्र इसे धोखा ही धोखा मिलता है । तब फिर किसको शरण माने, किससे अपने हित की आशा करें? सर्व से विमुख होकर एक उस वीतराग सर्वज्ञदेव की शरण गहें, उन्हीं के दर्शन, गुणस्मरण में अपना समय लगायें । रूपस्थध्यान में उस समवशरण का ध्यान करें, जहाँ पर वीतराग प्रभु विराजे हैं, जिनकी वीतरागता को निरखकर देव देवेंद्र, मनुष्य, तिर्यन्च सभी पहुंच रहे हैं । सभी वीतराग प्रभु के चरणों में झुक रहे हैं । यों रूपस्थध्यान में अनेक विधियों से अनेक बातें बतावेंगे । उससे हम आप अपना रूपस्थध्यान बनाने का प्रयत्न करेंगे तो उस रूपस्थ ध्यान के मर्म को हम आप पहिचान सकेंगे ।
रूपस्थध्यान में स्वयंभू परमात्मा का ध्यान―अर्हंत परमात्मा को स्वयंभू कहते हैं, स्वयं में स्वयं के द्वारा जो होता है उसका नाम स्वयंभू है । वह प्रभुता बाहर की बातों को जोड़ जोड़कर नहीं उत्पन्न की जाती है, किंतु बाहर की बातें जो कुछ आ गई हैं उनको घटाने से वह प्रभुता व्यक्त होती है । जैसे किसी पत्थर में से केई कारीगर मूर्ति निकाल रहा है, उसे बता दीजिये कि ऐसी मूर्ति इस पत्थर में बनानी है, तो वह कारीगर कुछ चीज यहाँ वहाँ से ला कर के जोड़ जाड़कर मूर्ति नहीं बनाता, किंतु कारीगर ने ऐसी विकृत दशा में जहाँ मूर्ति नहीं प्रकट है ऐसे पत्थर में उस मूर्ति के दर्शन कर लिये, अन्यथा उसके हाथ नहीं चल सकते हैं उस ढंग से कि जिस ढंग से हाथ चलाकर पत्थर को निकालकर मूर्ति को प्रकट कर सके । कारीगर करता क्या है, उन छेनियों से मूर्ति का आवरण करने वाले उन पाषाणखंडों को अलग करता है । मगर करने की भी पद्धति देखिये । पहिले बड़े-बड़े खंडों को वह बड़ी छेनी हथौड़े से अलग करता है, लेकिन सावधानी वहाँ भी है, उसके बाद उससे सूक्ष्म छेनी हथौड़ी से उससे अधिक सूक्ष्म आवरणों को वह हटाता है, फिर अत्यंत सूक्ष्म छेनी हथौड़ी से अत्यंत सूक्ष्म आवरण करने वाले पत्थरों को वह हटाता है । देखने वाले लोग तो यही कहेंगे कि व्यर्थ में यह खर्चा ले रहा है, काम कुछ नहीं हो रहा है मगर वह कारीगर उन समस्त स्थितियों में बाह्यतत्वों को दूर कर रहा है, जोड़ कुछ नहीं रहा है । वे सब बाह्य खंड जब दूर हो जाते हैं तो वह मूर्ति प्रकट होती है । इसी प्रकार कुशल कारीगर सम्यग्दृष्टि जीव इस स्थिति में भी जहाँ कि ये बातें गुजर रही हैं, शरीर में बँधा है, कर्मों से दबा है, रागादिक विकार भी चल रहे हैं, ऐसी स्थिति में भी सम्यग्दृष्टि जीव परमात्मतत्व के दर्शन कर लेता है और उस परमात्मतत्व की उपासना के प्रसंग में प्रज्ञाछेनी से, भेदविज्ञान से, विशुद्ध ज्ञानोपयोग से इन रागादिक विकारों को बाह्य तत्वों को हटाता है, किंतु बाह्य तत्वों के परभावों के हट जाने से वहाँ क्या प्रकट होता है, जो था वही प्रकट होता है, इसी कारण इस स्थिति को स्वयंभू कहते हैं ।
अंतरंग में स्वयंभुत्व शक्ति का ध्यान―रूपस्थ ध्यान में किन-किन विशेषणों से ध्यान किया जा रहा है, वे विशेषण विशेषता भी बताते हैं और शिक्षा भी देते चले जा रहे हैं । हमें उस अद्भुत आनंद की प्राप्ति के लिए क्या करना है, हमें बाह्य में किस पर दृष्टि कराना है? अंतर्दृष्टि करना है, अंत: अनुभव करना है, ज्ञानमात्र निजस्वरूप जब ज्ञान में ज्ञात होता है तो ज्ञानानुभूति का रूप रखकर एक अद्भुत आनंद को प्रकट करता है, उस आनंद के प्रताप से यह स्वयंभू अवस्था प्रकट होती है, ऐसे स्वयंभू परमेश्वर परमात्मा को रूपस्थध्यान में निरखा जा रहा है । देखिये जिन-जिनकी शरण में हम अपना उपयोग लगाये रहते हैं वे हमें शरण-भूत न होगे । वे आकुलता के ही हेतुभूत हैं । शरण ढूंढों ऐसों का, जिनकी शरण गहने से अद्भुत आनंद की प्राप्ति हो, यही आत्मा की उत्कृष्ट स्थिति है । संसार के संकट न चाहने वाले लोगों को ऐसे प्रभु के दर्शन, गुणस्मरण करना चाहिए । यों रूपस्थ ध्यान में यह सम्यग्दृष्टि पुरुष अरहंत को स्वयंभू के रूप में निरख रहा है । अपने आप में भी उस स्वयंभुत्व का प्रत्यय कर रहा है । यह बात इस मार्ग में बराबर है जिस मार्ग में प्रभु ने प्रभुत्व प्रकट किया है । यह ज्ञानानंद के विकास का पद अवश्य ही प्रकट होता है । यों एक परिचय के साथ भक्त प्रभु के ध्यान में लीन हो रहा है । यह रूपस्थ ध्यान की एक झलक है ।