वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2015
From जैनकोष
निरुद्धकरणाग्रामं निषिद्धविषयद्विषम् ।
ध्वस्तरागादिसंतानं भवज्वलनवार्मुचम् ।।2015।।
निरुद्धकरण परमात्मा का स्मरण―लोक में शरण के स्थान केवल दो ही हैं । बाह्य में तो समझिये परमात्मतत्व का स्मरण और अंतरंग में निज ज्ञायकस्वभाव की उपासना । रूपस्थध्यान में स्थित ज्ञानी पुरुष परमात्मा का ध्यान कर रहा है । कैसे हैं वे प्रभु परमात्मा, जिन्होंने इंद्रियों के समूहों का निषेध किया है । प्रभु जब पहिले साधु अवस्था में थे उस अवस्था में इन्होंने इंद्रिय के समूहों का निरोध किया अर्थात् इंद्रियां जो चाहती हैं―जैसे स्पर्शनइंद्रिय स्पर्श चाहती है, रसना इंद्रिय रस चखती है, घ्राण इंद्रिय से गंध जाना जाता है, चक्षु से रूप देखा जाता है, कर्णों से शब्द सुने जाते हैं । तो प्रभु ने साधु अवस्था में इन इंद्रियों का विषय बाधा न पहुंचा सके इस प्रकार इंद्रियों को नियंत्रित कर दिया था । प्रभु की उपासना में हम उन विशेषणों से उपासना करते हैं जिससे यथार्थ शिक्षा भी मिलती है । हे प्रभो ! जगत के ये जीव इंद्रिय की अधीनता से परेशान हैं और उस परेशानी का मूल कारण तो यह भी है कि जितना भी संसारी जीवो का ज्ञान हो रहा है वह इंद्रियों के द्वार से हो रहा है । तब इंद्रियों में प्रेम होना प्राकृतिक ही बात है । जब इंद्रियों में प्रेम हुआ तो उन इंद्रियों के पोषने के लिए विषय और अनेक प्रकार के साधन जुटाना आवश्यक हो गया है और अब तो यह मन अनिंद्रिय इन समस्त इंद्रियों का सिरताज है । जिसका विषय सारे लोकभर में फैल रहा है । मैं इस सारे विश्व में एकछत्र राज्य करूँ, मैं सारे विश्व के जीवों में नामवरी उत्पन्न करूँ, इस प्रकार नाना प्रकार की कल्पनाएँ, शेखचिल्लीपने की बातें मोही जनों में उत्पन्न होती हैं, इसी से मोही जन परेशान होते हैं । हे प्रभो ! आपने इन इंद्रिय और मन छहों को अपने वश में कर डाला है, इनको पीड़ित कर दिया है । ऐसे परमात्मतत्व का यह ध्यानी पुरुष अपने उपयोग में ध्यान कर रहा है ।
निरुद्धविषय परमात्मा का स्मरण―देखिये प्रभु का शासन यदि प्राप्त किया है तो कुछ अपना उपयोग इस प्रकार का बनाये कि जिससे पाये हुए शासन का, समागम का लाभ प्राप्त कर लें । लोग तौ बहुत-बहुत चिंतायें करते हैं, दु:खी रहते हैं । अपने विवेक के द्वारा इन्हें दूर किया जा सकता है । ये सांसारिक लाभ विशेष न मिले, न सही, इनका क्या भरोसा? आज हैं कल नहीं, लेकिन अंतरंग में श्रद्धा करें, आत्मा के ज्ञान की दृष्टि करें, सत्पुरुषों के समागम में रहें, ज्ञानार्जन का यत्न करें तो वह अनूठा लाभ उठा लिया जाय, इस ओर से क्यों विमुख हुआ जाय? इस ही ज्ञान की परख से ये इंद्रियां और मन जो उद्दंड हो रहे हैं, इनका नियंत्रण हो जाता है । हे प्रभो ! जो ज्ञानी पुरुषों के ध्यान के विषयभूत होते हैं ऐसे तुमने विषय बैरी को ध्वस्त कर दिया है, आतम के अहित विषय कषाय । हम आपका अहित करने वाले. विषय और कषाय हैं, अनुभव कर के भी देख लो, जब किसी जीव पर राग उठता है, जब किसी बात में प्रीति पहुंचती है तो चूंकि प्रीति किसी न किसी परपदार्थ में हुआ करती है, उसकी आशा लग जाती है, उसमें विरोधतायें बनती हैं, अपनी चाह के अनुसार दूसरा जीव माने अथवा न माने, परपदार्थ का परिणमन हो या न हो, तब कितनी व्यथा होती है, और जब इतना बड़ा दृढ़ संकल्प कर लिया जाय, साहस बना लिया जाय, जो कि बड़े आज्ञाकारी पुत्र, मित्र, स्त्री भी हों, तब यह जान लीजिये कि ये जीव भी सब उतने ही जुदे हैं जितने जगत के अन्य अनंत जीव हैं । प्रदेश उनके न्यारे, आत्मक्षेत्र उनके जुदे, कर्म उनके-उनके साथ, मेरे-मेरे साथ हैं । जब कुछ भी संबंध नहीं है, ऐसा ज्ञान होगा तो आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप के निकट बस सकेगा, ऐसी उसमें पात्रता होगी ।
विषयनिषेध से ही आनंदलाभ―भैया ! क्या होगा इन सांसारिक चीजों के लाभ से? लाभ तो अलौकिक लूटना चाहिए, अलौकिक लाभ तो अपने आप में ही लिया जा सकता है, इस पारमार्थिक आनंद के लाभ से किसी को वंचित न होना चाहिए । जिनके पुण्य के उदय चले जा रहे हैं उनके भी आत्मलाभ से वंचित होने में आपदा है, विडंबना है, क्लेश का सामना ही करना पड़ेगा, और जिनके पुण्योदय विशेष नहीं अथवा पाप का उदय होने पर कुछ सांसारिक आपत्ति भी सता रही है उनको भी इन दोनों दृष्टियों में इस आत्मनिर्णय में महान लाभ मिलेगा, इस लाभ की तुलना सांसारिक पराश्रित समागमों से नहीं की जा सकती है । इन बाह्य समागमों को क्या तरसना? जितने पौद्गलिक ठाठ हैं, बाह्यविभूति हैं इनकी बया चित्त में तृष्णा करना, इनसे कुछ फायदा है क्या? ये जहाँ जाते हैं वहाँ ही चित्त में कुछ मलिनता उत्पन्न करते हैं । जब उदय होता है तो किस तरह समृद्धि आती है, आती है आने दो, फिर भी उसमें इस पुरुष का कुछ संबंध नहीं है । केवल कल्पना से सुखी होने की बात है । चार लोगों में कुछ अपनी शान शौकत समझ लेने भर की बात है । वस्तुत: आत्मा का इन ठाठों से क्या संबंध है और वहाँ भी आवश्यकतावों को भी समझा जाय तो कितनी आवश्यकता है? एक क्षुधा तृषा निवारण के लिए दो चार रोटियां और शीत वेदना के निवारण के लिए दे। चार वस्त्र, इनके अतिरिक्त जीवन को चलाने के लिए क्या आवश्यकता है लेकिन तृष्णावश बड़े-बड़े भोगसाधनों का संग्रह लोग करते हैं, बड़े-बड़े मकान महल बनवाते हैं, इतनी सुकुमालता दिखाते हैं कि जरा भी पैदल नहीं चल सकते । भला बतलावो ऐसी चर्या करने बाले के हृदय में ये ज्ञान वैराग्य की बातें क्या समायेंगी जो कि उन भोग साधनों के शौकीन बन रहे हैं । वैसे तो बहुत-बहुत संपदा में रहकर भी भरत जैसे वैरागी भी रह सकते हैं, पर जो उस वैभव से शौकीन बन रहे हैं और शरीर के आराम में अपना सर्वस्व हित समझ रहे हैं उनकी बात कही जा रही है कि वे क्या इसके पात्र बन सकेंगे?
ध्चस्तरागादिसंतान परमात्मा का ध्यान―प्रभु ने इन विषयों का पूर्ण परिहार किया है और रागादिक के संतान को ध्वस्त कर दिया है, राग ही तो सता रहा है सब जीवों को । दूसरे पुरुषों को मालूम पड़ती है दूसरे की बेवकूफी की बात, खुद नहीं समझ पाता । जैसे एक कहावत है कि वैद्य खुद अपना इलाज नहीं कर पाता, वह दूसरों से इलाज करवाता है, ऐसे ही ये मोही मलिन मूढ़ जीव दूसरे की बेवकूफी तो झट समझ लेते हैं पर खुद की बेवकूफी खुद नहीं समझ पाते । किसी के घर कोई गुजर गया, घर वाले लोग बहुत दुःखी हो रहे हैं तो दूसरे लोग समझाते हैं―अरे क्या है, मर गया तो क्या हुआ, उसके आत्मा से तुम्हारे आत्मा का कुछ भी तो रिश्ता नहीं है, तुम लोग खेद क्यों करते, आत्मा तो अमूर्त है । यों दूसरे की बेवकूफी तो झट समझ में आ जाती है, पर जब अपने ऊपर वही बात आ जाती है तो खुद बड़े दुःखी रहते हैं, तब अपनी बेवकूफी अपनी समझ में नहीं आ पाती । इन मोही जीवों की ऐसी हालत हो जाती है । जैसे खूब जंगल जल रहा है, इसके बीच एक पेड़ पर एक आदमी बेवकूफ (मूढ़) चढ़ा हुआ है । तो जंगल को जलता हुआ निरख रहा है और हँस रहा है―देखो वह आग लगी, देखो वह खरगोश जल गया, देखो वह हिरण जान बचाकर भाग गया, यों देखता है और खुश होता है, पर उसे यह पता नहीं कि यह जलती हुई आग यहाँ भी आयगी, यह वृक्ष भी जल जायगा और मैं भी जलकर मर जाऊँगा । ऐसे ही समझो―ये संसारी मोही प्राणी ऐसे हैं कि उन्हें दूसरों की बेवकूफी तो झट समझ में आ जाती है, पर खुद की बेवकूफी खुद की समझ में नहीं आती । दूसरों की विडंबना को तो झट निरख लेते हैं और उस पर हँसने लगते हैं, पर खुद पर अनेक प्रकार की विडंबनाएँ हैं पर उन्हें विडंबना नहीं समझ पाते । यह सब क्या है? यह सब राग अंधकार का प्रभाव है । प्रभु ने इन रागादि संतानों को ध्वस्त कर दिया है ऐसे वीतराग प्रभु का ज्ञानी भक्त ध्यान करते हैं ।
प्रभु की उपासना करने का कारण―वे प्रभु क्यों बने, हमें परमात्मा की उपासना क्यों करनी चाहिए, इसका निर्णय तो करिये । कोई यह कहे कि परमात्मा हमें पैदा करता है, मारता है, सुखी दुःखी करता है, इसलिए परमात्मा की हमें उपासना करनी चाहिए तो उसकी यह बात मिथ्या है । कुछ न हो और कुछ बना लिया जाय ऐसी बात यदि हो सकती हो तो कुछ उस पर विचार भी किया जा सकता है, किंतु ऐसा तो है ही नहीं । जब कोई कुछ उपादान हो, कुछ चीज हो, पहिले उसी का ही तो रूपांतर किया जा सकता है । तो जो चीज है वह स्वयं सत् है । उसमें यह स्वभाव पड़ा हुआ है कि उत्पाद व्यय करे और बना रहे, इसी को सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के रूप से कहा गया है, सत् रहे वह सत्वगुण है, बने वह रजोगुण है और पदार्थ मिट जाय वह तमोगुण है । इसी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में माना गया है । लोग मानते हैं कि पदार्थ की उत्पत्ति का कारण हैं ब्रह्मा, पदार्थ की रक्षा करने में कारण हैं विष्णु, और पदार्थ के विनाश कारक, संहारक हैं महेश । पदार्थ में प्रति समय पर्यायों का उत्पाद व्यय होता रहता है, फिर भी सदैव उस पदार्थ का सत्व रहता है, इस ही तत्व से पदार्थ त्रिगुणात्मक है, पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, पदार्थों की रचना प्रभु ने की नहीं, बताई है । प्रभु तो परमज्ञानानंदस्वरूप हैं, उनके उत्कृष्ट स्वरूप का, आदर्श का ध्यान करने से अपने ज्ञानानंदस्वरूप का शुद्ध विकास होता है । इस कारण हम प्रभु की उपासना करते हैं ।
राष्ट्रीय ध्वज का वस्तुस्वरूप की ओर संकेत―पदार्थ की त्रिगुणात्मकता को बताने वाला आज भारत का राष्ट्रीय झंडा है । उसमें तीन रंग हैं, ऊपर है लाल रंग अथवा कुछ केसरिया रंग जो लाल का ही प्रकार है, बीच में सफेद रंग है और सबसे नीचे हरा रंग है । ये तीनों रंग भी वस्तु के स्वरूप की बराबर घोषणा कर रहे हैं । किस शासन की? चौबीसवें तीर्थंकर के शासन की जिस झंडे में बीच में 24 आरे का चक्र भी है । वह चक्र 24वें तीर्थंकर के शासन की घोषणा करता है, और वह सारा तिरंगा झंडा इस बात का सूचक है कि प्रत्येक द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है । साहित्य में लाल रंग को व्यय का संकेत कहा है । जब कभी युद्ध का वर्णन होता है, उसमें नरसंहार की बात आती है तो रक्त रुधिर लालिमा आदिक रंग का वर्णन किया जाता है । तो वह लाल रंग व्यय का सूचक है । साहित्य में किसी की वृद्धि को बताने के लिए हरे रंग की बात कही जाती है, सो यह हरा रंग उत्पाद का सूचक है तो यों व्यय और उत्पाद ओर छोर पर हैं, जैसे कि ध्वज में इन दोनों में समानता से रहने वाला जो श्वेत रंग है वह ध्रौव्य का सूचक है । जहाँ लाल रंग भी चढ़ता, हरा रंग भी चढ़ता, जिस ध्रुव के कारण उत्पाद भी होता और व्यय भी होता, प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने स्वभाव से उत्पन्न होता है, व्यय होता है और सदा बना रहता है ।
वस्तुस्वरूप के निर्णय में शांति के मार्ग का लाभ―देखिये इस उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता के निर्णय में शांति का मार्ग बसा है । मैं सत् हूँ । मैं प्रतिसमय नवीन पर्याय से उत्पन्न होता हूँ और वर्तमान पर्याय का व्यय कर डालता हूँ, तिस पर भी मैं सदा बना रहता हूँ, ऐसी बात प्रत्येक पदार्थ में है । जब प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने में उत्पादव्ययध्रौव्य करते हैं, उनकी क्रिया उनके ही अर्थ चलती है तो किस पदार्थ का किसके साथ तात्विक संबंध रहा? जब कभी पर- पदार्थ का निमित्त पाकर कोई पदार्थ विकृत बनता है, विकारी बनता है तो वहाँ यह भी तो तथ्य है कि विकाररूप परिणमन की योग्यता रखने वाला पदार्थ निमित्त को पाकर अपनी परिणति से अपने में ही प्रभाव उत्पन्न करके विकृत बन गया है, क्या वहाँ निमित्तभूत पदार्थ में अपनी द्रव्य गुण अथवा पर्याय कुछ भी उस दूसरे पदार्थ में लगायी है, क्या ठोकर दी है, क्या मार की है? अपने-अपने प्रदेशों में प्रत्येक पदार्थ अवस्थित हैं ।
परमात्मा की उपासना का प्रयोजन―यहाँ एक आशंका हो सकती है जब यह स्वरूप है तो फिर परमात्मा मुझे न सुख देता, न दुःख देता, न पाप कराता, न पुण्य कराता, तब फिर मैं परमात्मा को किसलिए पूजूँ? इसका समाधान स्वयं अंतर्दृष्टि कर के भी पा लिया जा सकता है । परमात्मा को पूजने का कारण यह है कि हम जिन कारणों से, जिन करतूतों से दुःखी हैं, रागादिक भावो से हम दुःखी हैं, सो दुःख दूर करने का मार्ग प्रभु के गुणस्मरण से मिलता है । कोई पुरुष दुःखी हो उसका दुःख दूर होने का उपाय तो उपदेष्टा बता देंगे, पर करना उसका काम है । हम भी जब दुःखी होंगे तो उसका उपाय तो ऋषियों ने बता दिया, पर करने का हमारा काम है । जितने भी दुःख होते हैं वे किसी न किसी पदार्थ में राग करने के कारण होते हैं । आप समस्त दुःखों की परीक्षा कर लें । जितने भी दुःख होंगे वे किसी न किसी परपदार्थ में राग है तब दुःख होंगे, राग बिना दुःख न होंगे । तो इन दु:खों के मेटने का उपाय क्या है? राग दूर कर लिया दुःख मिट जायगा । बात तो बिल्कुल सही है, पर सुनने में यों भद्दा लग रहा होगा―तो क्या यह घर छोड़कर चले जायें, क्या बच्चों को यों ही छोड़कर चल दें, ऐसी जो नाना आशंकायें भर गई हैं उनके कारण यह उपाय कुछ फीकासा जंच रहा होगा । लेकिन वीतराग ऋषि संतों ने बहुत अनुभव कर के यह बात बतायी है कि जितने भी क्लेश होते हैं वे राग के कारण होते हैं । वीतराग प्रभु की उपासना से अपने उपादान में सामर्थ्यं प्रकट होता है जिससे रागभाव का विरण होता है ।
अपने-अपने सुख में अपने-अपने पुण्योदय की कारणता―कदाचित् कोई घरबार छोड़कर भी चल दे तो बच्चों का पुण्योदय है तो बिगाड़ नहीं हो सकता । कहीं कोई बच्चों को छोड़कर चला जाय तो बच्चों का उदय उससे भी अधिक विकसित हो जाय । एक जोशी गांव में रोज आटा मांगकर लाता था, 10 बजे घर में आटा देता था तब रोटियां बनती थीं, और घर के 8-10 लोग छोटे बड़े बच्चे तब अपना पेट भर पाते थे । रोज-रोज का उसका यही काम था । एक दिन नगर में वह भिक्षा मांग रहा था, वहाँ से एक संन्यासी निकला―कहा जोशी जी क्या कर रहे हो? जो मुहूर्त वगैरह बताते हैं वे पहिले जोशी ज्यादा रहते थे । जोशी ने कहा कि हम भिक्षा मांग रहे है ताकि हम घर ले जायें और घर के लोगों का गुजारा चले । तो वह संन्यासी बोला―क्या तुम घर के सभी लोगों का गुजारा चला रहे हो ?....हाँ-हां, हम रोज देखते हैं, जब आटा माँगकर घर ले जाते हैं तब रोटियां बनती हैं । संन्यासी बोला―जोशी जी यह बात तुम्हारी मिथ्या है । तुम किसी को नहीं पालते हो, तुम मेरे साथ चलो, तुम भी आनंद में रहोगे और तुम्हारे घर के सभी लोग आनंद में रहेंगे । जोशी सरल पुरुष था, झोला वगैरह डालकर संन्यासी के साथ चला गया । जब 11-12 बजे तक जोशी न आया तो गाँव के एक मस्खरा ने कह दिया कि उसको तो एक सिंह पकड़कर ले गया, खा डाला होगा । लो उसके मरने की बात सुनकर घर के व पड़ौस के सभी लोग दुःखी । पड़ोस के लोगों ने सलाह की कि इसके घर में कमाने वाला वह एक ही पुरुष था, अब इनका गुजारा कौन चलायेगा? अपन लोग ऐसा करें कि इनकी सहायता करें ताकि ये भूखे तो न मरें । सो जो अनाज वाले थे उन्होंने दो-दो चार-चार बोरा अनाज दे दिया, घी वालों ने एक आध घी के कनस्तर दे दिये, कपड़ा वालों ने कुछ थान कपड़े दे दिये, शक्कर वालों ने शक्कर दे दी, तेल वालों ने तेल दे दिया । अब क्या था, वे बड़े मौज में रहने लगे, रोज पूड़ी कचौड़ी पकौड़ी आदि बनें, खूब अच्छे नये-नये कपड़े पहिने । जब 15 दिन बीत गए तो जोशी बोला संन्यासी से कि अब महाराज जी हमें घर जाने की इजाजत दो, जाकर देखें तो सही कि कौन बच्चा जिंदा है और कौन मर गया है? संन्यासी ने जाने की आज्ञा दे दी, पर जाते समय कह दिया कि देखो उन्हें छिपकर देखना, सीधे यों ही घर न चले जाना । तो वह पहुंचा घर । घर के पीछे की छत से ऊपर चढ़ गया । घर में झांकने लगा, तो क्या देखता है कि घर में सभी बच्चे नये-नये कपड़े पहिने हैं, बड़े खुश हैं, हृष्टपुष्ट हैं, पूड़ी कचौड़ी पक रही हैं । वह सोचता है कि अरे यह क्या हो गया? मारे खुशी के वह घर में उछलकर कूद गया अपने बच्चों से गले मिलने के लिए । घर के लोगों ने जब उसे देखा तो समझा कि अरे यह तो भूत आ गया, वह तो मर गया था, सो घर के सभी लोग आग के ढेलों से, लूगरों से मार मारकर भगाने लगे । बेचारा जोशी अपनी जान बचाकर भाग गया । संन्यासी के पास पहुंचा, बोला―महाराज वहाँ ऐसी-ऐसी हालत थी और मैं किसी तरह से जान बचाकर आपके पास भाग आया हूँ । तो संन्यासी बोला कि अरे जब वे सब सुख में हैं तो तुझे कौन पूछे? तू उनका विकल्प छोड़ । तो एक ही बात नहीं । अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे कि जिस घर में पुण्य बरसने की बात चली आ रही है कदाचित् कोई छोड़कर चला गया अथवा गुजर गया तो उसका घर ज्यों का त्यों है और उससे भी अधिक सम्हला हुआ है । तो चिंता किस बात की?
प्रभु की उपासना से भवज्वलन के संताप की शांति―भैया ! अन्य प्रयोजन से प्रभु की उपासना नहीं की जाती है । प्रभु की उपासना तो केवल इस कारण की जाती है कि जो दुःख का कारण मुझ में है वह कारण प्रभु में नहीं है । तब उनका स्वरूप निरखकर मुझे पथ मिलेगा, शांति मिलेगी, उपयोग निर्मल होगा, ये रागादिक के संतान क्लेश के ही कारण हैं । ये रागादिक भाव प्रभु के रंच भी नहीं हैं । यदि वीतराग ज्ञानस्वरूप प्रभु में उपयोग बसे, लगे, तो यह उपयोग भी बहुत विशुद्ध होता है, शांति प्राप्ति होती है और पाप झड़ जाते हैं, पुण्यरस बढ़ता है, धर्मं का पथ दिखता है, कल्याण ही कल्याण है, और उस प्रभु को छोड़कर जिस किसी में भी चित्त लगाये तो क्या कल्याण होगा? किसमें चित्त लगायेंगे, किस पर विश्वास करेंगे कि यह मेरा उद्धार कर देगा? इन प्रभु ने तो रागादिक संतान को ध्वस्त कर डाला और यह प्रभु संसाररूप संताप के लिए मेघ के समान हैं । जैसे बहुत बड़ी आग लगी हुई हो जंगल में तो उसके बुझाने का क्या उपाय है? क्या कुवों से तालाबों से पानी भर भरकर बुझाने से जंगल की आग बुझ जायगी? अरे आजकल की ये आग बुझाने वाली मशीनें भी जंगल में लगी हुई आग को बुझाने में समर्थ नहीं हैं । हाँ मेघ बरस जायें तो जंगल में लगी हुई आग शीघ्र ही बुझ जायगी । इसी प्रकार यह संसार की ज्वलन बहुत तीव्र ज्वलन है, किसी पदार्थ से कुछ लेन-देन नहीं, कोई संबंध नहीं, कोई प्रयोजन नहीं, मगर ये मोही जीव जड़ से भी जड़ बन रहे हैं, ये सर्व पदार्थ यद्यपि है इससे भिन्न, फिर भी ये मेरे हैं, ये गैर हैं, ये मुझे सुखी दुःखी करते हैं, ये मेरे विरोधी हैं इस प्रकार की कल्पनायें किए हुए बैठे हैं ये मोही जीव । अरे यहाँ कौन अपना कौन विरोधी? विचार न मिला, जिसकी जैसी कषाय है उसके अनुरूप दूसरे का परिणमन न मिला तो उसे अपना बैरी समझ लिया और जिससे कषाय से कषाय मिल गयी उसे अपना मान लिया । तो इस संसार की दोस्ती में रखा क्या है? इतनी ही तो बात है कि कषाय से कषाय मिल गई तो वह दोस्त बन जाता है, इससे अधिक और नाता क्या है? इस दुनिया में जो एक दूसरे के दोस्त बन रहे हैं उनमें और बात ही क्या है सिवाय इसके कि जैसी कषाय एक की है वैसी ही कषाय दूसरे की है । किसी को सनीमा देखने जाना है और दूसरा कोई मिल जाय सनीमा देखने जाने वाला तो वे आपस में मित्र बन गए, वे दोनों एक दूसरे के गले में हाथ डालकर बड़े आनंद से जाते हैं जैसे मानो वे दोनों परस्पर में एक दूसरे के बड़े मित्र बन गए हैं । क्या दम है इस संसार की दोस्तों में? इसी प्रकार विरोध की भी बात है । विरोध भी किस बात का? कषाय से कषाय न मिली तो बस विरोध बन गया । यह सब क्या है? यह सब संसार की तीव्र ज्वलन है, राग में जल रहे हैं ये प्राणी । उस तीव्र आताप को बुझाने में समर्थ एक ज्ञानमेघ की वृष्टि है । प्रभु ने अपने उस ज्ञान के द्वारा जिसने ज्ञानस्वभाव को जाना, उस ज्ञानपरिणमन के द्वारा जिस ज्ञान में ज्ञान का विशुद्ध स्वरूप बसा हुआ है उस ज्ञान के बल से उन्होने रागद्वेष आदिक की ज्वलन को शांत कर दिया है । हम में जो ज्वलन है, जो दुःख है वह किसके पास जाये कि मिट जाय? जिसके रागद्वेष की ज्वलन न हो, जो परमशांत हो उसके निकट पहुंचें, उसके स्वरूप को उपयोग में ले तो हमें शांति मिल सकती है, इसी कारण हम परमात्म- स्वरूप का ध्यान किया करते हैं ।