वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2027
From जैनकोष
पादपीठीकृताशेषत्रिदशेंद्रसमाजिरम् ।
योगिगम्यं जगन्नाथं गुणरत्नमहार्णवम् । ।2027।।
प्रभु का त्रिलोकाधिपतित्व―ऐसे प्रभु जिसने समस्त त्रिदशेंद्रों की सभा को सिंहासन रूप कर दिया है अर्थात् सबके पूज्य, सबमें एक शिरोमणि जो योगियों के द्वारा गम्य है, योगी ही जिसको स्पष्टरूप से जानते हैं, हम भी जब योगियों की तरह कुछ-कुछ योग अपनाते हैं ज्ञान योग विशुद्ध आशय रखकर उस सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि अपनी शक्ति पद माफिक जब हम अपनाते हैं तो हमें भी उस परमात्मस्वरूप का कुछ प्रतिभास होता है, पर योगी जन तो अपने उस विशुद्ध आशय के कारण अभीष्ट परमात्मतत्व के दर्शन कर सकते हैं । यह प्रभु जगन्नाथ हैं, जगत के नाथ हैं । वे प्रभु नाथ जो वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, और हम आप भी नाथ हैं । नाथ का मतलब=न अथ, जिसका आदि नहीं, हम आप सबका स्वरूप कैसा है? अनादि है, हम भी नाथ हैं । वे प्रभु जगन्नाथ हैं क्योंकि वे वीतराग हुए हैं, सर्वज्ञ हुए हैं, उनकी कला सातिशय प्राप्त है ।
प्रभु की गुणरत्नमहार्णवता―प्रभु गुणरूपी रत्नों के महान समुद्र हैं । समुद्र में कैसे-कैसे रत्न पड़े हैं, कितने रत्न पड़े हैं? इसी प्रकार इस ज्ञान महार्णव में, जो मात्र ज्ञानपुंज है, बड़े रत्न पड़े हैं, जहाँ परमशांति है, विशुद्ध आनंद है वहाँ तो सब कुछ है । चाह तो केवल सबकी आनंद की ही है, चाहे वह किसी तरह का है । पर किसी तरह क्या, आनंद के प्रकट होने का रास्ता एक ही है, और वह है अपने आपको जानना और अपने आप में रमना । यही एक रास्ता है उस विशुद्ध आनंद के प्रकट करने का । वह प्रभु ज्ञानानंद के परमविकास के कारण गुणरत्न महार्णव हैं, ऐसे प्रभु की ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष रूपस्थ ध्यान में उपासना कर रहा हे ।