वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2054
From जैनकोष
येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहक: ।
तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ।।2054।।
यंत्रवाहक की भावानुसार तन्मयता―यह मंत्रवाहक जीव जिस-जिस भव में युक्त होता है उस-उस भव से तन्मयता को प्राप्त होता है । जैसे स्फटिक मणि जिस रंग वाली उपाधि से युक्त होती है उस प्रकार से उस रंग में तन्मय होती है, अथवा उस उपाधि की तो युक्त क्या होता है, वह तो निमित्त मात्र है । वह उसका निमित्त पाकर अपने आप में जिस रंग छाया परिणमन से युक्त होती है उस रंग छाया में तन्मय होता है । इस ही प्रकार यह यंत्रवाहक जीव जिस भाव को करता है उस भाव में तन्मय होता है । इस जीव को यंत्रवाहक कहा है, एक यंत्र को ढोने वाला । यह शरीर यंत्र है, और जैसे किसी भी मशीन का चलाने वाला कोई नहीं हो, चाहे वह कितनी ही आटोमैटिक मशीन हो, फिर भी और नहीं तो बटन का खोलने वाला किसी का निरीक्षण करने वाला कुछ भी मूल में न हो तो उस यंत्र की गति नहीं होती । इसी प्रकार इस शरीर यंत्र में एक जीव तत्व है, उस जीव के संयोग से यह यंत्र भी ढोया जा रहा है । तो यह यंत्रवाहक जीव जब जैसा भाव करता है तब उस भाव में तन्मय होता है । प्रभुभक्ति के प्रसंग में कहा जा रहा है कि यह योगी जब इस भाव में अपने आपको लगाता है, प्रभु के गुणों का चिंतन कर के यह मैं सर्वज्ञ हूँ, यह मैं इस ही स्वरूप वाला हूँ, इस प्रकार का जब उस भाव में अपने उपयोग को तन्मय करता है, भले ही देखा अपने को शक्तिरूप से और प्रभु को देखा व्यक्तिरूप से, किंतु संबंध बनाया और उस भाव से अपने को नियत किया तो यह भी इस प्रकार के उपयोगमय होता है कि मैं सर्वज्ञ हूँ या प्रभुसम विकासवान हूँ, इस प्रकार उस दृष्टि में यह तन्मयता को प्राप्त होता है ।