वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2057
From जैनकोष
त्रैलोक्यानंदबीजं जननजलनिधेर्यानपात्रं पवित्रम् ।
लोकालोकप्रदीपं स्फुरदमलशरच्चंद्रकोटिप्रभाढ्यम् ।
कस्यामप्यग्रकोटौ जगदखिलमतिक्रम्य लब्धप्रतिष्ठं,
देवं विश्वैकनाथं शिवमजमनद्यं वीतरागं भजस्व ।।2057।।
प्रभुभजन का मर्म―रूपस्थध्यान के प्रकरण का यह अंतिम छंद है । इसमें प्रभुभक्ति की बात चली आ रही थी । आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसे वीतराग प्रभु की सेवा करो, अर्थात् उनका भजन करो । भजन करना और सेवन करना दोनों का एक अर्थ है । भज सेवायां, भज धातु का सेवा अर्थ है । पर लोक में भजन नाम तो रख दिया अच्छे काम का और सेवन नाम रख दिया साधारण अथवा निकृष्ट काम का । लेकिन यहाँ भी देखो कि सेवन में पद्धति क्या होती है? जिसको सेवन करे उसमें अनुराग और एकमेकपना तन्मयता अनुभूति कैसी विशिष्ट होती है, जो बात भजन शब्द के कहने पर विदित नहीं हो पाती है । भजन में तो अब भी द्वैत जैसी बात लगती है । ये प्रभु हैं, ये भक्त हैं और यह भगत प्रभु का भजन कर रहा है, वह भजन ऐसा मालुम होता है कि जैसे ऊपरी पृथक्सी बात की जा रही हो, लेकिन भजन का भी अर्थ सेवन है जिससे यह अर्थ लगाये कि प्रभु के गुणो का ध्यान रखकर उन गुणों के सदृश जो गुण हैं स्वयं के अथवा स्वयं के क्या, प्रभु के क्या, गुण तो गुण हैं, ऐसे गुणस्वरूप में उपयोग को तन्मय कर देवे, उसका नाम है वास्तविक भजन । तो ऐसी अभेदबुद्धि से, सेवन पद्धति से वीतराग प्रभु का भजन करें ।
प्रभु की त्रैलोक्यानंदकारणता―कैसे हैं वे वीतराग प्रभु? जो तीन लोक के जीवों के आनंद का कारण हैं । देखो ना, कितने पकार के भक्त हैं, कोई सम्यक्त्व नहीं पा सके ऐसे भी भक्त हैं, कोई सम्यक्त्व प्राप्त कर चुके हैं ऐसे भी भक्त हैं और कोई उस गुण प्राप्ति के योग में लग रहे ऐसे भी भक्त हैं । इन सब भक्तों को आनंद मिल रहा है, किसी को किसी ढंग से और किसी को किसी ढंग से । इसमें तीन दृष्टांत दिये है, एक मिथ्यादृष्टि पुरुष जो कि प्रभु की भक्ति कर रहा है उस भक्ति में भी चाहे वह समस्या उसने नहीं सुलझा पायी लेकिन सांसारिक विषयों में आनंद पा रहा है, और ऐसे सम्यग्दृष्टिजन जिन्होंने तत्व का निर्णय किया है वे विवेक के साथ प्रभु के गुणों को चितार कर चुके, वैसे ही गुण अपने में हैं तो एक उन गुणों के चिंतन में स्वयं के गुणों में विकास हुआ, अतएव वह उस प्रकार का विशुद्ध आनंद पा रहा है । और योगीश्वर लोग जो प्रभु के गुणों में अभेद होकर उपासना करते हैं वे अपने में विशिष्ट आनंद पाते हैं, जिसे हम आनंद से परे आनंद कह सकते हैं । आनंद में फिर भी एक विकल्प की कल्पना कर लिया, मैं आनंदमय हूँ और इससे पर आनंद जो आकुलतारहित होने से आनंद है, पर आनंद का विकल्प तक भी नहीं है । जिसे कोई लोग असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं । आनंद से परे भी एक उच्च आनंद की स्थिति में पहुंच जाते हैं ये योगीश्वर । ये समस्त जीवों के आनंद के बीज हैं । और आप पूछ सकते हैं कि जो कीड़ा मकोड़ा है उनके लिए वे आनंद के कैसे कारण पड़े? तो प्रभु का उपदेश हुआ, उन उपदेशों का पालन किया विवेकी पुरुषों ने । उपदेश में बात आयी है कि जीवों को रक्षा करो, किसी जीव को सतावो नहीं । तो इन भक्तों ने प्रभु की आज्ञा मानी, वे किसी जीव को सताते नहीं । तो इन भक्तों ने उस उपदेश का पालन किया जिससे उन जीवों की रक्षा हुई । ये प्रभु तीनों लोक, अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक में रहने वाले भक्तों के आनंद के कारणभूत हैं ।
प्रभु की संसारतारणता―ये प्रभु संसारसमुद्र के जहाज हैं । जैसे जहाज में चलकर यात्री समुद्र पार कर सकते हैं ऐसे ही प्रभु के गुणो का सहारा लेकर उसके स्मरण ध्यान और मनन के प्रसाद से संसारसमुद्र पार कर लिया जाता है । है कितना संसार? भक्त कहता है कि जब मैंने अपने स्वरूप को यथावत् निरख लिया तो फिर इस संसारसमुद्र का क्या तिरना यह तो एक चुल्लू बराबर है, इसके पार करने में क्या कठिनाई? एक छोटासा योग है । कोई कहे कि हमें निर्वाण के मार्ग की बात, मुक्ति कैसे मिले उसकी बात थोड़े शब्दों में बता दीजिये―तो थोड़े शब्दों में भी सुन लो―करने वाले करें चाहे न करें, पर शब्द तो सुन ही लो । ‘जित पिट्ठा तित दिट्ठा, जित दिट्ठा तित पिट्ठा।’ जहाँ पीठ किए हैं, जिस तत्त्व के लिए हम पीठ किए हैं उस तत्त्व के लिए दृष्टि हो और जिस पर हम दृष्टि लगाये हैं उस पर हमारी पीठ हो, कितना एक भीतरी योग है । केवल एक ज्ञान की दिशा भर ही तो बदलनी है । लो निर्वाण का कितना सुगम उपाय मिला । तो ये प्रभु संसारसमुद्र से तिरने के लिए जहाज की तरह पवित्र हैं ।
प्रभुप्रकाश―लोक और अलोक को जानने के लिए उत्कृष्ट प्रदीप हैं । जैसे दीपक बहुत प्रकाश कर देता है ऐसे ही ये प्रभु अपने ज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक को प्रकाशित करते हैं । जिनकी निर्मल शरद चंद्र की किरणें शरदकालीन चंद्रमा की प्रभा की तरह स्फुरायमान हो रही है । शरदकालीन चंद्रमा अर्थात् असौज सुदी पूर्णिमा का चंद्र जैसे एक निर्मल कांति और शृंगार को लिए हुए है ऐसी किरणों की तरह जिनकी प्रभा स्फुरायमान है ऐसे वीतराग प्रभु को भजो । ये प्रभु किसी भी चंद्रकांति में समस्त संसार का उल्लंघन कर के अपनी प्रतिष्ठा को पाये हुए हैं । ये प्रभु समस्त गुणसंपन्न हैं । ऐसे सर्व गुणसंपन्न सर्व दोषों से रहित तीनों लोक के नाथ निर्दोष वीतराग प्रभु का भजन करो ।
प्रभु की सकलगुणसंपन्नता―श्रीमन् मुनि मानतुंग जी ने कहा है कि हे प्रभो ! आपमें यदि सारे के सारे गुण समा गये, समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय ले लिया तो इसमें आश्चर्य क्या है? हम तो इसमें कुछ भी तारीफ की बात नहीं समझते । क्यों? ये सारे के सारे गुण इन सारे संसारी जीवों के पास पहुंचे तो उन्होंने उन बेचारे गुणों को आश्रय ही न दिया, जावो जावो यहाँ तुम्हारे लिए जगह नहीं है ऐसा कहकर हटा दिया । सो वे बेचारे गुण कहीं स्थान न पा सकने से आप में आ गये । और सारे दोषों को इन संसारी जीवों ने आश्रय दिया और कहा―आवो खूब आवो, तुम्हारे लिए सारी जगह खाली है । तो सारे दोष तो इन संसारी जीवो में बस गए, पर इन बेचारे गुणों को किसी संसारी जीव ने आश्रय न दिया तो वे बेचारे सारे के सारे गुण झक मारकर आपके पास आ गए । तो हे प्रभो ! इसमें क्या आश्चर्य की बात है? यह एक प्रभु की भक्ति का ढंग है । प्रभु की भक्ति में गद्गद् होकर वह भक्त इस तरह से कह रहा है । तो ये प्रभु सर्वदोषों से रहित सर्वगुणसंपन्न हैं । ऐसे वीतराग ज्ञान की मूर्ति अरहंत प्रभु का रूपस्थध्यान में ज्ञानी पुरुष ध्यान कर रहा है ।
(रूपातीतध्यानवर्णन प्रकरण 40)