वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2115
From जैनकोष
तस्मच्च्युत्वा त्रिदिवपटलाद्दिव्यभोगावसाने,
कुर्वंत्यस्यां भुवि नरतुते पुण्यवंशेऽवतारम् ।
तत्रैश्वर्यं परमवपुषं प्राप्य देवोपनीतै―
र्भोगैर्नित्योत्सवपरिणतैर्लाल्यमाना वसंति ।।2115।।
धर्मध्यान का अंतिम परिणाम―आचार्यदेव अब स्वर्ग सुख की विडंबनाओं से उस जीव को निकाल रहे हैं । स्वर्ग के देव दिव्य भोगों को भोगकर स्वर्गपटल से च्युत होते हैं और इस भूमंडल में अवतरित होते हैं और ऐसे पुण्य वंश में जन्म लेते हैं जहाँ लोग नमस्कार करते हैं ।देखिये―थोड़ासा फर्क है पहिले के कथन से, जो स्वर्गो के सुखों में आसक्त रहते हैं ऐसे देवों को यह मौका नहीं रहता, जो स्वर्गों में रहने पर भी, उन सुखों के बीच रहकर भी उनसे उदास रहते हैं, ऐसे देवों को यह मौका मिलता है । उनका उस आयु के पूर्ण करने के बाद पवित्र वंश में, उच्च घराने में जन्म होता है जहाँ लोग नमस्कार करते हैं । तत्वज्ञान का प्रभाव है यह । जैसे ये नारकी जीव यदि कोई सम्यग्दृष्टि है तो वह नरक के दुःखों को भोगकर भी अंतरंग में अनाकुल रहता है, क्योंकि यथार्थ ज्ञान का प्रकाश हुआ है, वहाँ ऐसे ही जो तत्वज्ञानी देव हैं उन्हें अनेक प्रकार के समागम मिले हों तिस पर भी उन सुखों से वे उदासीन रहते हैं । वे करें क्या, धर्म-ध्यान के फल में देवगति में, जन्म लिया, वही धर्मध्यान का संस्कार वहाँ भी है ।
देवगति में धर्मसंस्कार―यहाँ इस काल में जो अनेक ऋषिराज हुए हैं―कुंदुकुंदस्वामी, अमृतचंद्राचार्य, समंतभद्राचार्य, अकलंक देव, विद्यानंद स्वामी आदि, कल्पना तो ऐसी आती है कि वे ऐसे विशुद्ध भाव वाले थे कि इस काल में मोक्ष तो उनका नहीं हो सका, पर गये हैं वे स्वर्गों में, तो ये ऋषि संत वीतराग भाव में रहते होंगे । उनपर क्या गुजर रही होगी कि अनेक देवांगनायें उनके पास आकर नृत्य कर रही होंगी, उनके मन को लुभा रही होंगी, और कभी वे ऋषिराज हाथ की ताली भी बजा देते होंगे, सिर भी हिलाते होंगे, उनके रागरंग में सहयोग भी देते- होंगे, कल्पना तो आती है कि ऐसा हो भी सकता है लेकिन जो तत्वज्ञान तपश्चरण उन ऋषिसंतों ने यहाँ किया था उसका संस्कार वहाँ होगा । वहाँ के उन सभी प्रसंगों में वै उदास चित्त रहते होंगे और तत्व की भावना भाते रहते होंगे । तीर्थंकरों के कल्याणकों में, अनेक धर्म समारोहों में जिनका गमनागमन रहता है, दिलचस्पी रहती है ऐसी आयु को पार करके इस भूमंडल में जन्म लेते हैं और ऐसे पुण्यवश में जन्म लेते हैं कि जहाँ से फिर वे धर्म-ध्यान कर विशिष्ट संयम धारण कर निर्वाण भी प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे वे देव यहाँ परमऐश्वर्य को पाते हैं, उत्कृष्ट शरीर प्राप्त करते हैं और उनके भी जीवन में नित्य उत्सव रहा करता है । महापुरुषों के प्राय: नित्य उत्सव समारोह होते रहते हैं, वे देव अनेक भोगों में अपना निवास करते थे । अब देवगति से आकर होते हैं मनुष्य, पर वहाँ भी अनेक पुण्यवंत पुरुषों को वे देव अपने यहाँ से भोग सामग्री लाते हैं, वस्त्र लाते हैं और दिव्य भोजन भी लाते हैं ।
प्रभुमक्ति में भक्त की आंतरिक चाह―यहां तीर्थंकर देव के प्रति चिंतन कीजिये कि नाथ ! जब आप स्वर्ग से भी यहाँ न आये थे तो यहाँ की नगरी उससे 6 माह पहिले से ही स्वर्गमयी बन गई थी, आये न देवलोक से थे आप यहाँ पर, फिर भी वह नगर स्वर्ग संपदा का घर बना दिया था । तब हे नाथ ! जब भक्तिभाव से आपको हृदय में विराजमान कर रहा हूँ, और तिस पर भी मैं आप से कोई चीज नहीं मांगता हूँ । ईमानदारी की बात तो यह थी कि आप नगर में न आ पाये थे और 6 माह पहिले से ही संपदा का घर बन गया था । अब यहाँ आप विराजे हो तो अब तो न जानें यहाँ पर मेरे हृदय आसन पर क्या न बन जाना चाहिए, लेकिन वह भी मैं कुछ नहीं मानता हूँ । केवल इतना ही चाहता हूँ, आपका सुख न चाहिए । मैं यह चाहता हूँ कि इतना तो हो जाय कि मेरा जो वैभव है, मेरी जो निज की निधि है वह तो मुझे मिल जाय । जानूँ प्रभो तुम्हें प्रभु व दया जब मेरा जगजाल मिट जाय । तो प्रभुभक्ति कर के धर्मध्यानी पुरुष अन्य कुछ नहीं चाहता । केवल यह भावना रहती है कि मेरा जन्म मरण का संकट दूर हो ।
सांसारिक क्लेश व उससे मुक्ति का उपाय―संसार में कौनसा पदार्थ ऐसा है जो चाहने योग्य हो? किंतु जब महापाप का उदय आया तब इस जीव की बुद्धि किसी दूसरे के प्रति प्रेम और स्नेहभाव में लग गयी । वहाँ समझिये कि यह मोह भी एक दुःख देने वाली वस्तु है । दुःख देने वाला अन्य कोई पदार्थ नहीं है, केवल एक मोह ही है । मोह को निद्रा बताया है ।निद्रा में जैसे पुरुष अचेत हो जाता है ऐसे ही मोह में यह अचेत हो जाता है । उस मोह का दुःख कौन मिटाये, किसी दूसरे में सामर्थ्य नहीं । खुद ही जग जाय, मोह को दूर करे तो सुखी हो सकता है अन्यथा उसके सुखी होने का औषधि दुनिया में कहीं नहीं है । एक सेठ को अपने महल में नींद आ गई और स्वप्न आ गया कि मुझे बड़ी गर्मी लग रही है, मुझे आज गंगा नदी में नाव से सैर करने चलना चाहिए । स्त्री बोली कि हमें भी गर्मी लग रही है, हमें भी ले चलो, पुत्र, पुत्री व पहरेदार सभी कहने लगे कि हमें भी तो गर्मी लग रही है, हम भी सैर करने चलेंगे । सो घर में ताला लगाकर सभी लोग सैर करने चले गए । नाव में बैठकर मजधार में पहुंचे । यह स्वप्न की बात बताई जा रही है । एक भंवर ऐसी आयी कि नाव डगमगाने लगी ।सेठ दुःखी होने लगा । ओह! सब मरे । यह धन भी गया । मल्लाह से कहता है―बचावो, बचावो हम तुम्हें 500) रु0 देंगे । ....अरे कहाँ बच सकते हो ?....अरे 5000) रु0 देंगे बचावो ।...अरे जब हम ही न रहेंगे तो ये रुपये कौन लेगा? हमें छुट्टी दो, नाव अब नहीं बचेगी, हम तो अपने भुजबल से तैरकर निकल जायेंगे । अब उस सेठ के दुख का क्या ठिकाना? देखा पड़ा तो है वह महल में और कितना दुःखी हो रहा है? अब उसके दुःख दूर होने का क्या इलाज है सो तो बतावो? क्या पास में खेलने वाले उसके बच्चे, अथवा पास में ही बैठे हुए मित्रजन अथवा अन्य परिजन लोग उसके उस दुःख को मेट सकेंगे क्या? अरे उसके दुःख को मेटने में कोई समर्थ नहीं है । हाँ, वह स्वयं जग जाय, उसकी निद्रा भंग हो जाय तो उसका सारा दुःख मिट सकता है । वह सेठ जग गया और देखा कि अरे यहाँ तो कुछ भी दुःख नहीं है । हम तो अपने महल में पड़े हैं, वह दुःख तो सब एक स्वप्न का था, लो वह सुखी हो गया, तो ऐसे ही मोह की नींद में अचेत पुरुषों को स्वप्न आ रहा है, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र, मेरा घर, मेरा वैभव । ये मरे जा रहे हैं, नष्ट हुए जा रहे हैं, यों सोचकर ये अचेत प्राणी दुःखी हो रहे हैं । इनका यह दुःख कैसे मिट सकेगा ?....अरे इनके इस दुःख को मिटाने में कोई भी समर्थ नहीं । हाँ केवल एक ही उपाय हैं कि ये स्वयं जग जायें, इनकी मोह-निद्रा भंग हो जाय ।