वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2206
From जैनकोष
दैव: सोऽनंतवीर्योद्दगवगमसुखानर्ध्यरत्नावकीर्ण:,
श्रीमांत्रैलोक्यमूर्ध्निप्रतिवसति भवध्वांतविध्वंसभानु: ।
स्वात्मोत्थानंतनित्यप्रवरशिवसुधांभोधिमग्न: स देव:,
सिद्धात्मा निर्विकल्पोऽप्रतिहतमहिमा शाश्वदानंदधामा ।।2206।।
प्रभु की अनंत चतुष्टयात्मकता―इस ज्ञानार्णव ग्रंथ में कर्ममुक्त अनंत आनंदमय ज्ञानस्वरूप देव को आदर्श मानकर उस पद में पहुंचने के उपायों का वर्णन किया गया है । तो ध्यान का वर्णन कर के उसके फल में जो स्थिति प्राप्त होती है उस स्थिति का यह एक अंतिम मनन है । देव वह है जो अनंत शक्तिमान है । अपने आपके गुणों के विकास को बनाये रहना, उससे न हटना, इस प्रकार के असीम कायरूप को बनाने के लिए अनंत बल काम दे रहा है । प्रभु का अनंत बल ऐसा बल नहीं है कि हम आपको भी कुछ सुख दुःख दे अथवा कुछ बनाये रहे । यहाँ उनके वश की बात नहीं चल रही है । यह तो वस्तुस्वरूप के विरुद्ध ही बात है, किंतु उनका बल उनके अपने आपके गुणों के विकास में जुटता रहता है, उससे हटने नहीं देता है, यह है प्रभु का अनंत बल । ये प्रभु अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत आनंदरूप अमूल्य रत्नों के पिटारे हैं ।
स्व के उद्धार के लिये उत्सहन―आत्मा को क्या चाहिए? शांति । वास्तविक शांति जिस उपाय के मिले उस उपाय में लगना ही तो कर्तव्य है, वास्तविक शांति तो ज्ञान और वैराग्य के मार्ग से प्राप्त हो सकती है। यद्यपि ज्ञान और वैराग्य से दूर रहे अनंतकाल व्यतीत हो गया और उन ही अवस्थाओं के संसार के कारण कुछ थोड़ा-थोड़ा ज्ञान वैराग्य पाकर भी बीच में शिथिलता होती है, गिरते हैं, उठते हैं, ऐसी बार-बार इच्छा करके भी उत्साह भंग नहीं करना है। आखिर गिरकर उत्साह भंग करके मन को खुला छोड़कर क्या सिद्धि कर ली जायगी? मार्ग तो एक यही हैजिस किसी प्रकार अपने स्वरूप को पहिचान कर उसमें मग्नता होती है। जैसे कोई चींटी भीत से गिरती है, फिर चढ़ती है, फिर गिरती है, पर हिम्मत न हारने के कारण वह ऊपर तक चढ़ ही जाती है इसी प्रकार हम आपमें गिरने की बात अनादिकाल से लगी ही रही आयी, उसमें यह नहीं सोचा जा सकता है कि हम अनादि से ही यों चले आये हैं, तो यह परिपाटी क्यों मिटायें? कोई पुरुष यदि कुल परंपरा से निर्धन चला आया है, गरीब चला आया है तो वह यह नहीं सोचता कि हम पुरखों से गरीब चले आये हैं, तो यह परिपाटी क्यों मिटायें, धनिक क्यों बनें? सभी धनिक बनना चाहते है। चाहे कुल परिपाटी चल भी रही हो किंतु गरीबी कोई नहीं पसंद करता, इसी तरह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याआचरण अपने स्वरूप को न पहिचान कर बाह्यवस्तु में आसक्तिपूर्वक लगना, यह गरीबी तो अनादिकाल से चली आयी है लेकिन जो गौरवशाली पुरुष हैं, जिनका अपने आत्मतत्त्व पर गौरव है, जो आत्मकल्याणार्थी हैं उन्हें तो इस गरीबी को मिटा करके अमीरी प्राप्त करना है, सो वे उस अमीरी को प्राप्त करके सदा के लिए संकट मुक्त हो जाते हैं। उसके लिए हमें आदर्श चाहिए। बच्चा भी यदि कोई चित्र बनाता है तो एक चित्र सामने रखा रहता है, वह है आदर्श। इसके माफिक हमें चित्र बनाना है, इसी प्रकार हमें अपने आपका उद्धार करना है, अपने को निर्मल ज्ञानप्रकाश में रखना है। तो उसके लिए आदर्श हैं ये प्रभु, सर्वज्ञ वीतराग ज्ञानपुंज। उनको निरख-निरखकर ज्ञानद्वारा अपने आपमें भी वही चीज बना लीजिए।
प्रभु की श्रीमत्ता―प्रभु अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद और अनंतशक्ति से संपन्न हैं। वह श्रीमान हैं अर्थात् ज्ञानवान हैं, तीन लोक के ऊपर बसते हैं, लोक के सिर पर बसते हैं। जो श्रेष्ठ होगा उसे ऊँचा ही आसन चाहिए ना। हम आपमें भी जो श्रेष्ठ होता है वह ऊँचे आसन पर बैठाया जाता है। वे प्रभु तो सर्व प्रकार के रागादिक विकारों से मुक्त होकर स्वभाव से ही तीन लोक के मूर्धा पर विराजमान होते हैं और कभी वहाँ से हट नहीं सकते। वे श्रीमान हैं। यहाँ जो गाली बोली जाती हैं वे तो स्तुति के शब्द हैं लेकिन छोटे आदमी को यदि बड़ी बात कह दी जाय तो वह छोटा तो गाली ही मान लेता है। यों वे शब्द गाली बन गए, मगर एक श्रीमान शब्द ऐसा है कि जो बड़ा ऊँचा शब्द है । जो आत्मा का आश्रय करे उसे कहते हैं श्री । तो श्री है विशुद्ध ज्ञान, केवलज्ञान विकास । किसी को यदि श्रीमान कह दिया जाय तो वह गाली नहीं समझता है । तो यह श्रीमान शब्द इतना विलक्षण शब्द है कि इसको किसी छोटे व्यक्ति ने भी बुरा नहीं माना । किसी कंजूस से कह दिया जाय कि आइये कुबेर साहब तो वह तो शरमा जायगा और समझ जायगा कि यह तो हमारी मजाक कर रहा है, यों वह उस शब्द को गालीरूप में मान लेगा । जो-जो भी इकहरे शब्द हैं वे स्तुति के शब्द हैं, पर किसी छोटे पुरुष को कहा गया तो उसने गाली समझ ली । जैसे पुंगा, लुच्चा, लफंगा, नंगा आदि । ये सब शब्द तो प्रशंसा के हैं पर छोटे लोगों को जब ये शब्द कहे जाने लगे तो गालीरूप में वे माने जाने लगे । लफंगा अर्थात् जिसके अंग नष्ट हो गए हैं, जो बड़ा विनयशील है उसका नाम है लफंगा, कितना ऊँचा शब्द है, पर लोग इस शब्द को सुनकर गाली समझ लेते हें ।लुच्चा, जो केशों का लोच करे अर्थात् मुनिराज । पुंगा अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष । स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुंगवाय । जिनेंद्र भगवान हैं पुंगा, मायने सबसे श्रेष्ठ । बुद्धू जिसकी बुद्धि खूब ठस-ठस कर भरी है उसका नाम है बुद्धृ, यों ही पचासों शब्द हैं जो बड़ा उच्च अर्थ रखते हैं, पर छोटे लोगों को वे शब्द बोले गए इसलिए गालीरूप में वे माने गए । गाली शब्द भी खुद बड़ा अच्छा शब्द है । गा ली, तुमने हमारी कीर्ति गा ली, स्तुति गा ली, प्रशंसा गा ली, गाने की बात जब कही जायगी तो प्रशंसा के लिए कही जायगी, पर एक यह श्रीमान शब्द ऐसा है कि जिसे सुनकर लोगों ने बुरा नहीं माना । शायद यह सोचकर बुरा न माना होगा कि आखिर यह श्री यह ज्ञान प्रभु की महत्ता बताता है । वे प्रभु श्रीमान हैं जो कि तीन लोक के मूर्धा पर निवास करते हैं ।
ज्ञानप्रकाश का सातिशय महत्त्व―प्रभु भवरूप अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य की तरह हैं । यहीं ही मोह ममता रागद्वेष आदि कर के रचे पचे जा रहे हैं, यही है संसार का अंधकार । इस अंधकार को प्रभु ने पूर्णरूपेण नष्ट कर दिया । ये प्रभु अपने आत्मा में उत्पन्न अनंत और सदाकाल रहने वाले उत्तम मोक्षामृत रूप समुद्र में मग्न हें, जिनको कोई विकल्प नहीं, जिनकी महिमा अप्रतिहत है । जो लोग नहीं जानते वे प्रभु की महिमा नहीं कह सकते । तो इससे प्रभु की महिमा, महत्व, बड़प्पन, श्रेष्ठता तो न मिट जायगी । गधे मिश्री खा लेते हैं तो उससे झट जुकाम हो जाता है, उन्हें वह पचता नहीं है, पर बड़े लोग तो उसका सेवन करते ही हैं । तो जो कला की बात है, आत्मतत्त्व की बात है उसे असार समझकर यदि ये संसार के व्यामोही जन इससे अलग रहते हैं तो रहें, लेकिन इस अनुभव कला का अवधारण करके अनेक पुरुषों ने निर्वाण प्राप्त किया जो कि अनंत आनंदमय है और अब भी उस कला का आश्रय लेकर महापुरुष अपना उद्धार कर रहे हैं ।
ज्ञानसमुद्र में अवगाहन का संदेश―देखिये―अपने आपमें भी यह आत्मा ज्ञानसमुद्र है। यहाँ कोई स्वरूप की दृष्टि से छोटा बड़ा नहीं है। जिसे आज हम बालक समझते हैं―कहो वह हमसे भी शीघ्र निष्कलंक बन सकता है। यह आत्मा ज्ञानसमुद्र हे और इसमें आनंद का जल परिपूर्णरूप से भरा है, इसमें समस्त गुण रत्न बस रहे हैं। पदार्थसमूह, यथार्थज्ञान, अनेक अनंत गुण आदिक इसमें रत्न बस रहे हैं, मगर कुछ मगरमच्छों ने जैसे समुद्र को गंदा कर दिया इसी तरह रागद्वेष मोहरूपी इन जंतुवों ने इस ज्ञानसमुद्र को मलिन कर दिया। सो इन जंतुवों का निवारण करें, रागद्वेष मोह छोड़ें, ये न अपने में पनपने पायें तो ज्ञानस्वरूप मुझमें ही हे। ऐसे निर्मल ज्ञानसमुद्र में अपनी शक्ति सम्हाल करके अवगाहन कीजिए, मग्न होइये, नहाइये। भीतर प्रवेश करके कुछ खोज करके जो तत्त्व है उसको उत्कृष्टरूप से उभार कर मोक्ष में पधारिये तथा समस्त संकटों से दूर होइये।
निजशक्ति की सम्हाल की अनिवार्यता―देखिये―साहस जगाये बिना किसी भी उत्कृष्ट काम में सफलता नहीं मिल सकती। व्यापार में तो लोग लाखों रुपये लगा देते हैं, उसमें तो ऐसा नहीं सोचते कि अरे टोटा हो जायगा तो फिर क्या होगा, काम चलेगा कि न चलेगा आदि। लोग लाखों रुपये उस व्यापार में खर्च करते हैं और एक साहस बनाकर उस कार्य को करते हैं, ऐसे ही इस आत्मशांति महान कार्य के लिए यदि कुछ लौकिक हानियां होती हैं, तो उनकी भी परवाह न करके अपने में एक साहस बनाना है, अपनी इस ज्ञानभूमि में एक ऐसा साफ स्वच्छ एक रस बनाना होता है कि उसमें किसी पर का मोह न बसे। ऐसा करने में साहस रखना होगा तब शांति की प्राप्ति हो सकेगी। क्यों जी, कोई एक दो भव तो लगा ही इस निर्मोह निराकुल दशा को बनाने के लिए, या एक भी भव नहीं लगाना चाहते और मोक्ष मिल जाय क्या ऐसी मन में इच्छा है? अरे, जब मोक्ष हो जायगा तो फिर एक भी भव न रहेगा, फिर अपना प्यारा भव कहाँ से लाओगे? तो चिंतन मनन करके अपनी जिम्मेदारी समझ करके, अन्य किसी भव में करेंगे ऐसी अपेक्षा न करके इस ही भव में अपने इस करने योग्य काम को कर जाइये। आज जो भव मिला है, यदि आज महाप्रसाद किया जा रहा है तो आज जो दशा मिली है, आज जो स्थितियाँ मिली हैं वे कभी न मिल पायेंगी। इन समस्त अच्छे साधनों के बीच रहकर एक धर्म कर्म करने की ही बात अपने मन में ठान ले तो उससे सफलता मिलती है। आत्मसाधना के लिए धन की अपेक्षा नहीं है कि इतना धन मिल जाय तो हम धर्मसाधना कर सकेंगे। धर्म तो ज्ञान से संबंधित है, आत्मदृष्टि से संबंधित है, यह हर एक कोई कर सकता है। तो अपनी-अपनी शक्ति सम्हालकर अपने आपमें अपना अवगाहन करके तत्त्व को धारण करके इन समस्त संकटों से दूर होने का प्रयत्न कीजिये।
स्वयं के निर्भारता की स्वयं ही संभवता―अपने आवरण के भार का परिहार अपने को ही करना पड़ेगा। घर में किसी कमरे की छत गिर गई, मलबा गिर गया तो अब उसे उठाने कौन आयगा? अरे उठाना तो खुद को ही पड़ेगा। किसी दूसरे के सहारे बैठे रहें तो यों बैठने से तो काम न चलेगा। उसे उठाकर फैंकना होगा, अथवा उठवाना होगा। ऐसे ही समझिये कि अपने आपमें जो यह रागद्वेष विषय कषाय आदिक का मलबा इकट्ठा हो गया है, इसे भी कोई दूसरा दूर करने न आयगा, इसे खुद को ही दूर करना होगा। एक कथानक हे कि कोई एक धनिक की लड़की थी, उसका नाम था द्रोपदी। शादी होने के बाद थोड़े ही दिनों में वह विधवा हो गयी थी। तो समय बड़ा नाजुक है, स्वार्थियों से भरा हुआ हे तो उसे घर वालों ने आश्रय न दिया। वह अपने पिता के घर रहने लगी। वहाँ रहते-रहते उसका थोड़ा चलन खराब हो गया। बहुत समय गुजरा, अचानक ही उसे अपने कृत्य पर पछतावा हुआ और एकदम उसके ऐसी ज्ञप्ति जगी, बस इस नगर को ही अब छोड़ दें और चले किसी तीर्थ में और वहाँ चलकर अपने परिणाम सुधारे। यों जब तीर्थ चलने के लिए उसने अपना प्रोग्राम रखा तो बहुत से लोग उसे कुछ दूर तक पहुंचने के लिए चले। किंतु उसके चारित्र की बात गांव में काफी फैल चुकी थी, सो हंसने वाले लोग यही कहे कि देखो बिल्ली सो चूहे खाकर अब यह हज करने जा रही है। हुआ क्या था कि उसके दुश्चारित्र के कारण उसके बाग़ के फल कडुवे हो गए थे, बावड़ियों के जल में कीड़े पड़ गए थे, तो लोग बाग जब उसकी मजाक कर रहे थे तो उस समय उसने बड़ा साहस करके लोगों को ललकारा और कहा कि तुम सब लोग मूढ़ हो, परिणामों की गति नहीं जानते हो, तुम मजाक करते हो। जावो उन बगीचों के बड़े मीठे फल हैं, जावो, खावो और उन बावड़ियों का बड़ा मीठा जल पियो, मैं तो उस तीर्थधाम पर जाती हूं, वहाँ जलधारा देते हुए में मेरे प्राण विसर्जन होंगे। वह तो तीर्थधाम गयी, लोगों ने उन बगीचों के फलों व बावड़ियों की जल की परीक्षा की तो वास्तव में वह बड़े मीठे हो गए थे। आखिर उसकी परीक्षा के लिए बहुत से लोग उस तीर्थस्थान पर भी गए, वहाँ उस लड़की ने उस देवी का पूजन अर्चन भी किया, जलधारा की और उसके पश्चात् ही उसके प्राण विसर्जन उसी जगह हुए। तो देखो जीवन पतित हो भी जाता है तो उसका उद्धार भी किस तरह होता है? ज्ञान किरणें फैले, अपना प्रकाश फैले तो इस प्रकार उद्धार होता है। मांसभक्षी राजा भी अहिंसा धारण करके उसी भव में मोक्ष गए । हम इस बात से कायर न बनें कि हमारा तो जीवन बड़ा खराब है । हमारा कैसे उद्धार हो सकता है । हम तो अभी यों ही रहेंगे, अगले भव में उद्धार की बात देखी जायेगी । तो ठीक है अभी न साहस बनाओगे फिर का क्या पता? अरे केवल एक भाव ही तो बनाने का काम है । तो इस ज्ञानसमुद्र में अवगाहन करके यहाँ उस तत्त्व का उद्धारण कीजिए और उन तत्त्वों के मनन से अपने आपको कर्मों से मुक्त करिये ।