वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 238
From जैनकोष
त्यक्त्वा विवेकमाणिक्यं सर्वाभिमतसिद्धिदम्।
अविचारितरम्येषु पक्षेष्वज्ञ: प्रवर्तते।।238।।
अज्ञानी का प्रवर्तन―किसी भी स्थान से यह भ्रष्ट हो, लेकिन देखो तो आश्चर्य की बात कि सर्वप्रकार की मनोवांछित सिद्धि को देने वाला विवेक पाया था। उस विवेकरूपी चिंतामणि रत्न को छोड़कर जो यों केवल देखने में भले लगते हैं, ऐसे मतों में लोग प्रवृत्ति करने लग जाते हैं। यही तो मार्ग से भ्रष्ट होना है। जैन दर्शन ने कैसा सुयोग्य विधि से इस जीव को बाहरी कुतत्त्वों से छुटाकर, अज्ञान अंधकार से हटाकर अपने ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा में स्थिर कराया है। यह दृश्यमान सारा संसार, ये सभी पदार्थ इसके संबंध में जब तक सही निर्णय न हो तब तक इससे रागद्वेष नहीं हट सकते। भले ही कोई किसी भी लोभ से भगवत्भक्ति के लोभ से किसी भी प्रकार से रागद्वेष से दूर हटने का अपना रूपक बनाये, लेकिन जब तक पदार्थ का हमें सही स्वरूप ज्ञात न हो जाय तब तक कैसे राग हट सकता है? प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपने ही स्वरूप से है, किसी का किसी पर अधिकार नहीं है। जितने उनके प्रदेश हैं, जितना उनका एरिया है निज का उतने में ही मेरा सब कुछ है। ऐसे ही मेरे भी जितने प्रदेश पुंज हैं उनमें ही मेरा सब कुछ है। गुण है, परिणमन है, सब कुछ मेरा उतने में ही है, इससे बाहर नहीं है। यों ही समग्र वस्तुवों का स्वरूप जिस ज्ञाता की नजर में रहता है उसका राग स्वयं हटा हुआ होता है।
परवस्तु में परिणमन करने की अशक्यता―मैं परवस्तु में क्या कर सकता हूँ? कौन मेरा है? आज मान लिया किसी वस्तु को कि यह मेरी है, कल के दिन इस जीवन तक मान रहे हैं कि यह वैभव मेरा और मरण के बाद किस पर विश्वास रखते हो कि यह वस्तु मेरी है। प्रथम तो उदय अनुकूल न होने पर इस जीवन में भी कोई आँखें दिखा सकता है। तो मेरा तो इस जगत में देह तक भी नहीं है। कौन चाहता है कि शरीर बूढ़ा बन जाय? सभी लोग चाहते होंगे कि शरीर स्वस्थ और जवान रहे, पर इस शरीर पर किसी का वश चला है क्या? कौन चाहता है कि मेरा शरीर दुर्बल हो जाय, यत्न भी बहुत-बहुत करते हैं, पर शरीर पर कुछ वश चलता है क्या? भले ही निमित्तनैमित्तिक वश शरीर की स्थिति है, बलवान है लेकिन वह मेरे करने से नहीं है। वह उसका निमित्तनैमित्तिक भाव है। जब जैसा निमित्त उपादान, जब जैसा परिणमन तब तैसा होता रहता है। मेरा अधिकार नहीं है। जब किसी वस्तु पर मेरा अधिकार नहीं है तो किसको माने कि यह मेरा है? यह अज्ञान सबसे जबरदस्त विपदा है। किस पदार्थ को माने कि यह मेरा है।
वस्तुस्वरूप के यथार्थ बोध से मोहादिक दोषों का परिहार―जब वस्तुस्वरूप का सही बोध होता है तब ही मोह और राग मिट सकते हैं, अन्यथा अनेक उपाय करें, राग और मोह न मिट सकेंगे। कुछ लोभ दे दिया, तुम राग छोड़ दोगे तो स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा। भले ही कोई स्वर्ग और मोक्ष के लोभ से यहाँ के घर का वैभव का राग छोड़ दें अर्थात् त्याग कर दें, छूट जाने पर भी छोड़ा तो नहीं गया। यथार्थ ज्ञान हुए बिना राग और मोह छूट नहीं सकते। सही ज्ञान होने पर राग मोह को छोड़ने के लिए कुछ श्रम भी नहीं करना पड़ता है। सही ज्ञान होने का ही नाम है मोह छूट जाना। शुद्ध ज्ञान का नाम है निर्मोह होना। तो निर्मोहता से तो धर्म का प्रारंभ है और निर्मोहता यथार्थ ज्ञान बिना हो नहीं सकती, इसलिए यथार्थ ज्ञान करने का उद्यम करना चाहिए।
व्यवहार धर्मों में उद्देश्य की लक्षितता―हमारे जितने भी धर्म के काम हैं पूजा, स्वाध्याय, विधान, समारोह जितने भी धर्म के कार्य हों उन सब धर्मों के कार्यों में हमारा यह लक्ष्य होना चाहिए कि हम यह सब इसलिए कर रहे हैं कि मुझे यथार्थ ज्ञान मिले। रोज-रोज पूजा करने की जरूरत क्यों पड़ती है? इसलिए कि हमारा शेष समय रागद्वेष के बीच गुजरता है और जीव इसका जो कुछ ज्ञान कर पाया था उस पर आवरण हो जाता है। तब उस ज्ञान को फिर से जागृत करने के लिए हम प्रभुदर्शन को प्रभुपूजन को आया करते हैं। यहाँ भी हमारा लक्ष्य यह हो कि हम सही जानकारी करने के लिए आ रहे हैं। सही जानकारी में ही प्रभु की भक्ति करना है। यदि अन्य कुछ भाव बनाया, हमारा काम है, हमारा नियम है, मंदिर जाना इसलिए जा रहे हैं, हमारे कुल की यह परंपरा है इसलिए जा रहे हैं, अथवा मंदिर जाने से ये सब धर्म के काम होते रहने से परिवार में सुख साता रहती है हमारे आजकल बहुत अच्छे दिन गुजर रहे हैं यह सब इन्हीं भगवान की कृपा है, तो ऐसा अपना रोज-रोज प्रभुभजन का काम रहना चाहिए। इन बातों में ही यदि हम मंदिर में आते हैं तो हमें मोक्षमार्ग का लाभ नहीं मिला। भले ही कुछ मंद कषाय होने से पुण्यबंध हुआ अथवा इसका भी क्या ठिकाना? यह भी मंदकषाय है या तीव्र इसका भी सही निर्णय नहीं है क्योंकि जो अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिए प्रभुभजन करते हैं संभव है कि मोह और तृष्णा की वृद्धि का कारण हो, तब वहाँ पुण्य की भी आशा क्या? लक्ष्य अपना यह विशुद्ध होना चाहिए कि हम मंदिर आते हैं तो अपनी और पर की सही जानकारी बनाने के लिए आते हैं और निज को निज पर को पर जानकर, पर से छूटकर निज में मग्न होने का यत्न करने के लिए आते हैं। यह हमारा भाव होना चाहिए प्रत्येक धार्मिक कार्यों के करने में।
वर्तमान समागम का सदुपयोग व आत्महित के उद्यम का अनुरोध―बोधि दुर्लभ भावना में यहाँ यह बतला रहे हैं कि ऐसी अत्यंत दुर्लभ चीज पायी, जैन शासन पाया, बुद्धि शुद्ध पायी, सब कुछ सही मिला, जिससे कुछ थोड़ा ही और विशुद्ध उद्यम बने कि पूर्ण अभीष्ट जो आत्मा वहाँ स्थित है वह प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन ऐसा पाप का उदय आता है कि अच्छे साधनों को भी त्यागकर केवल एक अविचारित रम्य अर्थात् जो बिना विचारे ही भले से लग रहे हैं ऐसे पक्षों में यह अज्ञानी जीव प्रवृत्त होता है। यहाँ बारबार यह चेतावनी देने की प्रेरणा की है कि हे मुमुक्षु पुरुष अथवा हे शांति चाहने वाले पुरुष ! आज जो कुछ तुम्हारी परिस्थिति है, जो कुछ तुमने पाया है यह बहुत अच्छी स्थिति है इसका सदुपयोग करो। विषय कषायें सांसारिक बाधायें न चाहकर केवल एक आत्महित में उद्यमी बनो। यदि यह अवसर छोड़ दिया तो पुन: ऐसा सुंदर अवसर आना श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ कुल, श्रेष्ठ संगति इन सबका मिलना बहुत कठिन हो जाएगा।