वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 398
From जैनकोष
चतुर्धा गतिभेदेन भिद्यंते प्राणिन: परम् ।मनुष्यामरतिंचो नारकाश्च यथायथम् ॥398॥
संसारी जीवों की चतुर्गतिकता – संसारी जीव गति के भेद से चार प्रकार के हैं – मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारक । जिनके मन की उत्कृष्टता है उन्हें मनुष्य कहते हैं, यह शब्द व्याख्या से अर्थ हुआ और है भी सब जीवों से श्रेष्ठ मन मनुष्य का । हित, अहित का विवेक करे और हित अहित की प्राप्ति और परिहार का उपाय करे और इतना विशिष्ट ज्ञान बनाये जो ज्ञान निर्विकल्प दशा का भी कारण बन जाय, ये सब बातें मनुष्य में होती हैं इस कारण श्रेष्ठ मन का मनुष्य माना गया है । श्रुतकेवली समस्त श्रुत के वेत्ता मनुष्य ही होते हैं । तो श्रेष्ठ मन वाले जो हों उन्हें मनुष्य कहते हैं और सिद्धांत के अनुसार मनुष्यगति नामक नामकर्म का जिनके उदय हो, मनुष्य आयु का उदय हो उन्हें मनुष्य कहते हैं । और जो मनचाही नाना प्रकार की क्रीड़ा करें, रमण करें उन्हें देव कहते हैं । मनमाने भोग, मौज, खुशी के साधन देवों को मिला करते हैं । सिद्धांत के अनुसार देवगति नामक नामकर्म का जिनके उदय हो उन्हें देव कहते हैं । और जो ठेढ़े मेढ़े चलें उन्हें तिर्यंच कहते हैं । जो कुटिल भाव, छल, कपट करके रहें वे तिर्यंच कहलाते हैं । सिद्धांत के अनुसार जिनके तिर्यंच आयु नामक कर्म का उदय हो उन्हें तिर्यंच कहते हैं । शब्द व्याख्या से भी देख लो, तो टेढ़ मेढ़ तिर्यंचों में ज्यादा होती है । न जाने किस किस आकार के तिर्यंच पाये जाते हैं । मनुष्यों की तो एक सकल है । उसी में ही नाना भेद हो जायें पर आकार वैसा ही होता है । तिर्यंचों में देखो कितनी तरह के कीड़े मकोड़े, किस किस प्रकार के टेढ़े मेढ़े हुआ करते हैं, जिनका आकार बड़ा विचित्र होता है । देखने में लगता है कि यह पत्ता पड़ा है, पर जरा भी चलने फिरने लगा तो मालूम होता कि यह तो कीड़ा है । कोई कोई कीड़ा देखने में डोरे जैसा मालूम होता है तो टेढ़मेढ़ा इन तिर्यंचों में ज्यादा है । नारकी जीव उन्हें कहते हैं जो रत न रहें अथवा जो दूसरे जीवों को दुःखी करें । सिद्धांत के अनुसार नरक आयु कर्म का जिनके उदय है वे नारकी जीव होते हैं ।मनुष्यगति की श्रेष्ठता और उस अध्रुव पर्याय में ध्रुव तत्त्व का लाभ ले लेने का अनुरोध – इन चारों गतियों में श्रेष्ठगति मनुष्य की बताई गई है । वैसे जनसाधारण में लोग जो कुछ समझते सुनते हैं थोड़ा बहुत वे देवगति को अच्छा कह देंगे और धर्म करके प्रार्थना भी बहुत से करते हैं – हे भगवान हम स्वर्ग में उत्पन्न हों, देव बने, पर श्रेष्ठता तो मनुष्य भव में है जहाँ से विशिष्ट आत्मकल्याण की सिद्धि हो सके । थोड़ी देर को बन गये बड़े और पीछे बनना पड़े गधा तो उस बड़प्पन को कोई महत्त्व नहीं देता, न कोई चाहता है । इसीलिए तो जैनप्रक्रिया में किसी लड़के को भगवान रूप सजा देना विधि में नहीं बताया है । आज तो बना दिया किसी गरीब के लड़के को नेमिनाथ भगवान और नाटक पूरा होने के बाद इधर उधर भीख माँगता हुआ दिखे तो देखने वाले लोग उसे क्या कहेंगे । तो जैनप्रक्रिया में किसी पुरुष को तीर्थंकर साधु इनका भेष रखने की आज्ञा नहीं है । कोई कल्पना में बहुत बड़ा बन जाय और फिर उसमें घटती बात हो जाय तो उसमें लोग खेद मानते हैं । तो देव भी बन गए जहाँ सागर पर्यंत सुख भोगा, किंतु वहाँ से भी गिरना होता, मरण करना पड़ता । तो मरण करके होंगे क्या ? नीचे ही पैदा होंगे स्वर्ग वाले जीव । और, कहाँ जायेंगे पैदा होकर । वे साधारण वनस्पति तो होते नहीं मरकर कि चलों वहीं स्वर्ग में ही रह जायें साधारण निगोद बनकर । जैसे कोई कहने लगते कि हम तुम्हारे नौकर बनकर ही रह जायेंगे, यहीं रहने दो । तो कोई जीव ऐसी प्रार्थना करे कि चलो हम स्वर्ग में रह जायें, चलो निगोद बन कर रह लें तो निगोद नहीं बनते हैं । और जो वहाँ बने हुए निगोद हैं उन्हें क्या आराम है ? देव लोग या तो बनेंगे ठाठ के एकेंद्रिय जीव बढ़िया रत्न आदिक पृथ्वी प्रत्येकवनस्पति गुलाब के फूल या और और तरह के पेड़ों में प्रत्येकवनस्पति आदि या बनेंगे पंचेंद्रिय । ये देव दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय नहीं बनते मरकर । या तो बनेंगे मनुष्य या बनेंगे एकेंद्रिय । तो ये चार प्रकार के जीव हैं, जिनमें श्रेष्ठता मनुष्य की है। इससे हम आपको कुछ विशेष चिंतन करना चाहिए कि मनुष्य भव में आकर हमें ऐसी मनोवृत्ति बनाना चाहिए कि हम अपने उपयोग में गुण का ही ग्रहण करें, परमात्मस्वरूप की भक्ति करें, साधु संतों की भक्ति करें, धर्मात्मावों की संगति करें । प्रत्येक काम में हमारा उपयोग गुणग्राही बने । अपने शाश्वत गुणों की दृष्टि रखें । अपना कल्याण करना हो तो ऐसी आदत बनाना सर्वप्रथम आवश्यक है । ये असमानजाति द्रव्यपर्यायें हैं, चार प्रकार की गति की बातें हैं । इन सबमें परमार्थभूत तो जीवत्व है, जो परमार्थ है, वह सूक्ष्म है, अव्यवहार्य है, और जो कुछ व्यवहार्य है वह सब मायारूप है । इन सबको सही-सही श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व ध्यान का मुख्य अंग बताया है