वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 52
From जैनकोष
असद्विद्याविनोदेन मात्मानं मूढ वंचय।
कुरू कृत्य न किं वेत्सि विश्ववृत्तं विनश्वरम्।।52।।
असद्विनोद से वंचना का निषेध―हे मोही प्राणी ! तू अनेक असत् विद्यावों के विनोद से अपने को प्रसन्न कर रहा है। खोटी कलावों से, अनेक आविष्कारों से, धनार्जन की कलावों से, चतुराई से, श्रृंगारों से और शास्त्रों से भी जो परिज्ञान करता है वह एक विनोद के लिये करता है। हे आत्मन् ! अब मोक्षमार्ग में प्रमाद करके अपने आत्मा को मत ठगो। अहो स्वकला से अपरिचित इस मोही जीव ने अपनी कैसी-कैसी चतुराईयाँ मानी हैं? दूसरों को हैरान करने और दूसरों को दु:खी करने में अपने को कुछ सफल समझ ले, अर्थात् अपनी बड़ी चतुराई समझे, किसी भी स्वार्थसाधना में कोई छल का काम करे और उस छल से कुछ अपनी स्वार्थसाधना बन जाय तो उसमें अपनी चतुराई मानते हैं। हे आत्मन् ! अब स्वहित का कार्य करो।
छली का घात― भैया ! जब मिथ्या आशय बन जाता है तो यह मोही प्राणी अपना ही घात करने वाली प्रवृत्तियों में चतुराई समझता है। यदि किसी के प्रति छल किया गया, छल करने वाले ने धोखा देकर कुछ अपनी विषयसाधना की है तो यह तो बतावो कि जिसने छल किया? वह घाटे में रहा या जो छला गया वह घाटे में रहा? देखने वालों को तो यही दिखेगा कि जो छला गया वह घाटे में रहा। इतना वैभव, इतनी दुकान, इतना गहना यह तो सब उससे निकल गया, लेकिन भावदृष्टि से, बंधदृष्टि से भविष्य में जो फल मिलेगा इस दृष्टि से देखो तो छल करने वाले ने अपने आपको ठग डाला। अपनी प्रभुताका, अपने ज्ञानानंद के विकास का घात कर डाला। यह छल न करता, अपने निश्छल-निश्चलस्वरूप की आराधना में लगता तो यह कितना विकसित होता, कितना समृद्ध होता? बजाय इसके कि अब यह अधोगति को प्राप्त होगा। इन असत् प्रवृत्तियों से अपने आत्मा को मत ठगावो।
कौतूहलों से वंचना का निषेध― घर भरा पूरा है, सुनने को रेडियो भी है और बैठक भी खूब सजा है, मित्रजन आते हैं तो बड़े नाज के साथ वार्ता भी की जाती है, चलने उठने बैठने में भी देह से कलायें टपकती हैं, इन असद् विद्यावों के विनोद से अपने आपको खुश बनाने का यत्न रखते हैं किंतु है भव्य आत्मन् ! इन असद् विद्यावों ने तेरे इस ज्ञानानंद निधान परमात्मतत्त्व को ठगा है। इन कौतूहलों से तुम अपने को मत ठगो।
प्रायोगिक भेदविज्ञान― बच्चे को गोद मेंखिलातेहुए भी अथवा खिलाती हुई स्थिति में भेदविज्ञान का आशय बनाने में मदद और ज्यादा मिल सकती है, जिससे अपने आपको भिन्न समझना है, अपने अंतरंग में उससे बात करके अपने को भिन्नता के बोध में लाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में समागमों के बीच रहकर उससे भेदविज्ञान बन सके तो समझिये कि मेरा मौलिक ज्ञान है। जैसे कोई भोजन करने बैठ जाय और डींग मारे कि मेरे तो आज उस चीज का त्याग है जो चीज थाली में न आये। तो यह कुछ त्याग नहीं है। लेकिन कोई इतना भी त्याग सच्ची श्रद्धा से करे तो वहाँ भी त्याग है और थाली में न आये मगर कल्पना जग रही है कि अमुक चीज नहीं परोसी तो यह कोई त्याग नहीं है।खैर, यह भी बड़ी बात है कि न भी कोई चीज थाली में आये पर उसको कल्पना से त्याग दे तो यह भी तो त्याग है। परंतु वास्तविक व उत्तम त्याग वह है कि सामने चीज मौजूद हो और फिर भी त्याग कर दे। ऐसे ही पाये हुए समागमों में भेदविज्ञान बने, ऐसा करने का तो गृहस्थों को बड़ा मौका है। तू अपनी असद्विद्यावों से, चतुराईयों से अपने को मत ठग। तेरे लिये जो कार्य हितकर न हो उसे तू मत कर। जगत् के समस्त कार्य विनाशीक हैं, क्या तू इस संसार की असारता को नहीं जान रहा है? सम्यग्ज्ञान कर और आत्मकल्याण में लग, यही तेरी भलाई का मार्ग है।