वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 553
From जैनकोष
व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् ।चरणज्ञानयोर्बीजं सत्यसंज्ञं व्रतं मतम् ॥553॥
स्वच्छ हृदय से आत्मोन्नति ― सत्य नाम का व्रत समस्त व्रतों का, श्रुतों का, यम नियम का साधन है । जो पूजा करे, तपश्चरण करे, और मन में कपट हो, हृदय अशुद्ध हो, वाणी भी असत्य बोले, अप्रिय बोले तो काहे का व्रत रहा, काहे का पूजा रहा, क्या तपश्चरण रहा । हृदय में सरलता आना और सब जीवों के लिए अपने हृदय में स्थान होना यही है सबसे उत्कृष्ट आंतरिक उन्नति । कहीं दो चित्रकला वाले कारीगर आये, मान लो कोई जापान का है और कोई चीन का है, तो दोनों कारीगरों ने राजा से कहा कि महाराज हम बहुत बढ़िया चित्र बनाना जानते हैं । आप अपनी हाल में चित्र बनवायें और परीक्षा कीजिए । तो बड़े हाल में बीच में एक पर्दा डालकर एक साइड जापानी चित्रकार को दे दिया और एक साइड चीनी चित्रकार को दे दिया । तो अब जर्मनी कारीगर तो उस भींत को साफ करने में लग गया । बढ़िया कौड़ी के चूने से खूब घुटाई किया । 6 महिने तक उसने केवल भींत की घुटाई ही की । और, जापानी कारीगर ने 6 माह तक खूब रंग बिरंगे चित्र बनाये । जब 6 माह पूरे हो गये, राजा ने परीक्षा की तो जर्मनी चित्रकार ने कहा, महाराज परीक्षा तब होगी जब आप बीच में पड़ा हुआ पर्दा हटा दें । जब राजा ने उस पर्दे को हटाकर देखा तो जिस भींत में केवल घुटाई की गई थी उस पर दूसरों भींत की सारी चित्रकारी चमकने लगी और जापानी चित्रकार ने जो रंगबिरंगे चित्र बनाये थे वे बिल्कुल रूखे दिख रहे थे । तो आप यों ही समझिये ।
निर्मल परिणाम बिना शारीरिक क्रियायें व्यर्थ ― जो अपने ज्ञानाभ्यास द्वारा परिणामों को स्वच्छ बनाता है, बार-बार तत्त्व का विचार करके अपने हृदय को जो स्वच्छ बनाता है उसकी स्थिति भली है उसे धर्मलाभ होता है । और जो अपने हृदय को स्वच्छ बनाने का तो यत्न न करे और शारीरिक क्रियावों से व्रत, साधना, तपश्चरण, बहुत-बहुत यत्न कर डाले तो इससे कुछ सिद्धि नहीं हो सकती । कर्मबंध रुक जाय यह तो सिद्धि की बात है । कर्म जड़ पदार्थ हैं, और उनके बंधन का यही निमित्त है कि आत्मा में जैसा परिणाम बने उस प्रकार से वह बंध जाता है । तो कर्मबंध का संबंध आत्मपरिणाम से है । आत्मपरिणाम जिसका स्वच्छ है उसे तो कर्मबंध नहीं होता और जिसका दूषित परिणाम है उसे कर्म बँधते हैं ।
परिणाम स्वच्छता पर दृष्टांत ― गुरुजी सुनाते थे कि कटनी में दो भाई थे ― एक बड़ा और एक छोटा । छोटा भाई तो खूब पूजा करे, धर्मध्यान करे, दुकान वगैरह के कोई काम न करे, बस धर्मध्यान, स्वाध्याय, पूजन इन्हीं प्रसंगों में रहे । सारा कारोबार बड़ा भाई करता था । तो छोटा भाई बड़े को समझाने लगा कि कुछ धर्मध्यान तो करना चाहिए पूजा, स्वाध्याय वगैरह भी तो कुछ करना चाहिए । तो बड़ा भाई बोला कि तुम करते हो और हम खुश होते हैं, तुमको रोकते नहीं हैं, कभी कोई काम में लगाते नहीं हैं, यह हमारा धर्म नहीं है क्या ॽ तुम धर्म-धर्म चिल्लाते हो, तुम धर्म करो और समय पाकर बता देंगे कि तुमने कितना धर्म किया । दो चार बार ऐसी बातें हुई, अंतिम समय में छोटे भाई की जब मृत्यु होने लगी तो छोटा भाई कहता है बड़े से कि भाई ये छोटे-छोटे लड़के अब तुम्हारे सहारे हैं, हम तो जा ही रहे हैं, तो बड़ा कहता है कि तुमने तो बहुत-बहुत धर्म किया है, अब इस ममता में तुम मरोगे क्या ॽ तुम हमें बहुत समझाते थे । और,कहा देखो ― तुम्हारे कहने से हम सब कुछ कह दें कि तुम्हारे बच्चों को पालेंगे पोषेंगे और फिर हमने न किया तो तुम्हारा कहना तो व्यर्थ ही है । तुम तो ममता को त्यागो और अपना शुद्ध परिणाम करो । और, तुम्हें कोई शल्य हो तो जितना वैभव है सिवाय एक इस कुटी के कहो सब तुम्हें लिख दें अथवा तुम जिसे कहो उसे लिख दें । छोटे भाई की समझ में आ गया । कहा ― भाई हमारा कुछ नहीं है, अब हमने समझ लिया । वह छोटा भाई गुजर गया तो उसके नाम पर 30-40 हजार रुपया निकालकर कोई संस्था बना दी और उनके वंशज आराम से अब भी हैं । तो प्रयोजन यह है कि धर्म नाम है किसका ॽ बड़े भाई का कितना स्वच्छ परिणाम था । विशेष धर्मकार्यों को न करके भी वह धर्मात्मा है और अंत में उसने बता भी दिया, अपने भाई का मरण भी सुधार दिया ।
अंतरंग परिणामों से धर्म ― धर्म की बात अन्रंग से होती है । किसी भी प्राणी का अहित न सोचें, धर्म से सबसे पहिले तो यही आवश्यक है । इसे जो प्रेक्टिकल कर सके । भाई ने दु:खी कर डाला हो, रिश्तेदारों ने भी अनेक धोखे दिया हो, अथवा अन्य पड़ौसियों ने बड़ी विपदा डाली हो इतने पर भी सबका हित ही सोचें, किसी का अहित न विचारें । वहाँ है धर्म गंध और इसी प्रकार से धर्मपालन करने वाले दु:खी नहीं होते । उनका काम उनके साथ है, अन्याय करने वालों का काम उनके साथ है । हाँ, इतनी बात जरूर है कि अन्याय आक्रमण करने वाले के प्रति सावधानी पूरी रहनी चाहिए नहीं तो विवेक ही फिर क्या रहा । वह अपनी सावधानी तो पूरी रखे, पर हृदय से किसी का अहित न विचारे । इन दो बातों से जीवन में सुधार होता है । अपना बचाव रखें, उसके बहकाये में न आयें, अपनी सम्हाल बनायें, कोई कितना ही विरोध करे पर अंतरंग से किसी का अहित न सोचें कि इसका अकल्याण हो जाय ।
हित के चिंतन में जीवन की उन्नति ― इसका यों बुरा हो जाय ऐसी सावधानी और हित का चिंतन इन दो बातों से जीवन की उन्नति होती है । और, यही एक अपना सत्य कदम है, ऐसा पुरुष सत्यव्यवहार रखता है, यही सत्यव्रत विद्या और विनय का भूषण है । ज्ञान खूब हो, विद्वान खूब हो गए और झूठ बहुत बोले तो लोक में उसकी शोभा होती है क्या ॽ इसी तरह कोई विनय तो बहुत करे, मगर झूठ बोले, कपट रखे तो उसके विनय में कुछ शोभा है क्या ॽ विद्या और विनय सत्य वचन से ही शोभा को प्राप्त होती है, अर्थात् सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का बीज सत्य वचन ही है । सत्यव्यवहार निशंक रहता है । खुद का पाप, खुद की बात खुद तो जानते ही हैं, दुनिया जाने अथवा न जाने । जब खुद का पाप खुद की दृष्टि में है तो उस दृष्टि के कारण वह अपने में कायर बन जायगा, बलहीन हो जायगा । तो अपनी भलाई के लिए ऐसा व्यवहार रखें जो न्यायपूर्ण हो, किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाने के संकल्प वाला न हो ।