वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 788
From जैनकोष
तत्त्वे तपसि वैराग्ये परां प्रीतिं समश्नुते।
हृदि स्फुरति यस्यौच्चैर्वृद्धवाग्दीपसंतति:।।
सत्संग से तप, तत्त्व व वैराग्य में परमप्रीति की संभूति- जिस पुरुष के हृदय में सज्जन पुरुषों के वचनरूपी दीपक की परिपाटी प्रकाशमान रहती है उस पुरुष के तत्त्व में, तप में, वैराग्य में उत्कृष्ट प्रीति बनती है। सब प्रीति का ही तो फल है। यदि तपस्वी के तप में, ज्ञान में, ज्ञानियों में प्रीति लग जाय तो उसका बड़ा मधुरफल मिलता है। ज्ञान स्वच्छ रहता है, चित्त प्रसन्न रहता है, शुद्धमार्ग सूझ जाता है, फिर वह अंधकार में नहीं रहता। और जिन पुरुषों की प्रीति विषयों में लग जाय तो इस प्रीति के कारण वह अपने को बरबाद कर डालता है, तो सब एक प्रीति पर निर्भर है। हमारी प्रीति तपश्चरण, ज्ञान वैराग्य में बने इसके लिए यह चाहिए कि जो वृद्ध पुरुषों के वचन है, सत्पुरुषों की वाणी है वही है दीपक की तरह। उस दीपक का प्रकाश अपने हृदय में फैलाये तो अच्छे काम में रुचि जग सकती है। यह बहुत बड़ी विभूति है। और, जिनकी खोटी बातों में रुचि चले वे अपना मनोबल, वचनबल और कायबल सब समाप्त कर देते हैं। जिसके आत्मा में ज्ञानबल नहीं रहा, आत्मा में कमजोरी आयी तो उसे फिर विषयकषाय और सताने लगते हैं। तो इन संतपुरुषों की वाणी अपने हृदय में रहे तो फिर कहीं भूलभुलैया नहीं है। है क्या, कहीं बैठे बैठे अपने को मान लो कि मैं सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र हूँ, यह मैं ज्ञानमय पदार्थ अकेला ही उत्पन्न होता हूँ और अकेला ही रहूँगा, अकेला ही सुख-दु:ख भोगता हूँ। ऐसे ऐसे इस अकेले ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मा की भावना बनायें और उस ज्ञान को अपने अंदर में देखें, अनुभवें तो अच्छे कार्यों में रुचि जगेगी। शुभ कार्यों में रुचि जगने से आत्मा प्रसन्न रहता है और विषयकषायों में रुचि जगने से वह कायर अप्रसन्न दु:खी रहा करता है। तो अपने आपको सुखी करने का यही एकमात्र उपाय है कि हम सत्संग करें और अपने आपकी रुचि धर्म में बढायें, तपश्चरण में बढायें तो इसमें आत्मा पवित्र होगा और भावीकाल में हमें फिर भी धर्म का समागम प्राप्त होगा। और उस धर्मपालन के प्रसाद से हम अपने आपको पवित्र बना लेंगे। इससे कर्तव्य है कि हम ज्ञानी संत पुरुषों की रुचि करें, उनका अधिक समागम बनायें, उनके उपदेश श्रवण करें, और उन उपदेशों का मनन करके अपने को प्रसन्न बनायें।