वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 81
From जैनकोष
गीयते यत्र सानंदं पूर्वाह्णे ललितं गृहे।
तस्मिन्नेव हि मध्याह्ने सदु:खमिह रुद्यते।।81।।
एक दिन में एक ही घर में गान रुदन की घटना― जिस घर में प्रभात के समय आनंद और उत्साह के साथ सुंदर मंगलगीत गाये जा रहे हैं कहो मध्याह्न के समय में ही घर में दु:ख के साथ रोना सुना जाता है ऐसी स्थितियाँ प्राय: उस समय बहुत घटित होती हैं, जब किसी घर में कोई बालक पैदा हो तो बालक के उत्पन्न होने के समय बहुत खतरे रहते हैं। कुछ बिगड़ जाय या कोई रोग हो जाय या किसी के पहिली ही बार बालक पैदा हो तो बड़ा खतरा माना जाता है। बालक तो पैदा हो गया। पड़ौसियों ने, कुटुंबियों ने, मित्रों ने बड़ी खुशी मनायी प्रात:काल और कुछ गड़बड़ी होने से बच्चा गुजर गया अथवा माँ गुजर जाय तो थोड़ी ही देर बाद में उस ही घर में रोना ही रोना होने लगता है। ऐसी ही और भी घटनायें सोच लीजिये।
सांसारिक सुख में मग्नता का अनौचित्य― अनित्यता की बात यहाँ कही जा रही है। यहाँ कौन से सुख में मग्न होना? कोई सुख यहाँ सदा रहने का नहीं है। बल्कि सुख के बाद दु:ख ही आता है। ये सांसारिक सुख ऐसे हैं कि सदा न रहेंगे। जब सदा न रहेंगे तो इसका अर्थ यह है कि इन सांसारिक सुखों के मुकाबले में इसके बाद दु:ख ही आयेगा और कोई स्थिति नहीं है। ऐसे इस अनित्य संसार में हे कल्याणार्थी ! किसी भी सुख में मग्न मत हो। सुख काहे का? शांति तो वहाँ होती है जहाँ शांतस्वरूप सबसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र अपने आपका स्वरूप दृष्टि में होता है। यहाँ स्थिति नहीं है तो बाहरी पदार्थों का कितना भी समागम हो उन बाहरी पदार्थों पर दृष्टि देकर यह आत्मा क्षोभ ही पायेगा, शांति नहीं पा सकता है। उदार बनो। उदार बनने का अर्थ यह है कि सांसारिक सुखों में मग्न मत हो और कोई विपदा आ जाय तो उसमें अपना धैर्य मत खोवो। सुख है तो वह भी औपाधिक भाव है, दु:ख है तो वह भी औपाधिकभाव है। तू अपने आपमें अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि करके अंत:परमार्थ स्वाधीन बना रह।
संग से विषाद की नौबत― एक राजा ने जंगल में गर्मी के संताप से संतप्त किसी साधु को देखा और उस साधु से कहा तुम्हें हम एक छतरी देंगे बड़ी धूप लग रही होगी। साधु बोला दे देना, मगर नीचे की गर्मी को क्या करेंगे? महाराज रेशम के जूते बनवा देंगे। बनवा देना, पर खुला बदन रहेगा तो लू का क्या इलाज करोगे? महाराज कपड़े बनवा देंगे। अच्छा बनवा देना, फिर यह तो बतावो कि तिष्ठ-तिष्ठ कौन कहेगा? महाराज विवाह करा देंगे, स्त्री खाना बनायेगी। फिर उसका पालन कैसे होगा? महाराज 10 गाँव और लगा देंगे। फिर बच्चे भी तो होंगे उनका पालन कैसे होगा? महाराज 5 गाँव और लगा देंगे। फिर उन बच्चों में से कोई गुजर जायेगा तो रोवेगा कौन? महाराज और सब कुछ तो हम कर सकते हैं पर यह काम हम नहीं कर सकते। रोना तो उसे ही पड़ेगा जिसके ममता होगी। तो साधु बोला कि हमें ऐसी छतरी न चाहिये जिसके कारण रोने तक की भी नौबत आ जाय।
संसार में सुख का अभाव― संसार के सभी जीवों पर ये बातें बीत रही हैं। जिसके भी क्लेश है उसे मोह ममता के कारण क्लेश है। चाहे कोई समाज से मोह करे, चाहे परिजनों से, चाहे धन वैभव से, चाहे अपने शरीर से पर क्लेश का कारण मोह है। क्लेश बिना राग के, बिन मोह के हो ही नहीं सकता। शांति प्राप्त करने के लिए हम आपका कर्तव्य यह है कि अपने भीतर गुप्त ही गुप्त अपने स्वरूप को सर्व परभावों से न्यारा निरख-निरखकर उस राग मोह की रस्सी को तोड़ दें, इसके अतिरिक्त अन्य कोई शांति का शाश्वत उपाय नहीं मिल सकता। कोई भी मनुष्य चाहे धनी हो, नेता हो, किसी को भी लगातार दो चार घंटे सुखी होते क्या देखा है? कोई सुख की कल्पना की बात आयी तो सुखी हो रहे थे, इतने में ही कोई भाव ऐसा बन गया कि दु:खी होने लगा। लगातार कोई भी पुरुष एक घंटा भी सुखी नहीं रह सकता।
संसार का अर्थ सुख दु:ख का चक्र― करणानुयोग में भी यह बताया है कि निरंतर साता का उदय किसी के नहीं होता। 13 वें गुणस्थान में वहाँ निरंतर साता का उदय बताया है, जबकि वहाँ सुख भोगने का राग ही नहीं रहा। असाता भी सातारूप परिणम कर उदयक्षण में आता है। सयोग-केवली की साता वेदनीय का उदय चलता है। यह सुविधा वहाँ है जहाँ कुछ इच्छा ही नहीं है। इच्छावान् जीवों के किसी के भी घंटा आधा घंटा भी लगातार सुख नहीं रह सकता। कोई बात तुरंत ऐसी चित्त में आयेगी कि कितने ही अंशों में वह दु:खरूप भाव बना देगी।
सांसारिक सुखों की क्लेशगर्भितता― संसार के सुख दु:खों से व्याप्त हैं। मोटेरूप में देखो किसी के बच्चे की शादी होती है तो उस शादी की खुशी मनाई जा रही है मगर यह बाप कोई आध घंटा भी अच्छी तरह सुखी रह सकता है क्या? उसे बीच-बीच में कितने ही दु:ख आते हैं? सब रिश्तेदारों को निमंत्रण भेजे, कोई प्रतिकूल हो तो उसे मनायें, कितनी ही बातों में क्रोध आ जाये, कितनी ही बातों में आर्थिक परेशानी हो जाये, और पहिले जैसा जमाना हो तो पंचों के हाथ जोड़-जोड़कर ही परेशान हो जायें कितने क्लेश भोगने पड़ते हैं और इतना ही नहीं, विवाह हो चुकने के बाद भी अनेक उलाहने आयेंगे। कहाँ सुख मिला? केवल कल्पना से सुख माना सो उसके बीच-बीच, कल्पनाओं से बीच-बीच में अनेक दु:ख भी भोगने पड़ते हैं। ये सांसारिक सुख रमने के योग्य नहीं हैं। वैभव और परिग्रह के संचय होने से कल्पना में बसाये गए ये सुख भी एक संसार की पद्धति हैं, व्यर्थ की बात है। संसार में यदि सुख होता तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी इसे त्यागते क्यों? एक अणु भी यहाँ राग करने के योग्य कुछ नहीं है।
शरीर की अरम्यता― यह शरीर जिस बंधन में पड़ा है, जिसके बिना यहाँ सरता नहीं, खाये बिना काम न चले, इसमें फोड़ा फुँसी, जुखाम, बुखार कुछ भी हो जाये तो उसकी चिकित्सा किये बिना काम नहीं सरता, ऐसा अतिनिकट संबंध वाला यह देह भी रमने के योग्य नहीं है। इसकी प्रीति से इस जीव को अलाभ ही है। हे आत्मन् ! सांसारिक सुखों में आसक्त मत हो।