वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 84
From जैनकोष
शरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न येऽणव:।
भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्यन्न ते संति तद्गृहे।।84।।
शरीराणु व आहाराणुवों की उच्छिष्टता― हे भ्रात: ! इस संसार में बहुत काल से भ्रमण करते आये हुये तेरे साथ शरीररूप से और आहाररूप से अनंत अणु प्राप्त होते आये हैं। सत्य समझ कि संसार में ऐसा कोई परमाणु नहीं बचा जो तेरे शरीररूप न हुआ हो और तेरे आहार में न आया हो। अर्थात् इस जीव ने अनंत परिवर्तन किये हैं। अनादि काल से यह जीव शरीरों को धारण करता हुआ चला आया है। तब संसार में जितने परमाणु हैं, स्कंध हैं, ग्रहण योग्य हैं, उन सबको यह जीव अनंत बार शरीररूप से परिणमा चुका और आहार करके ग्रहण कर चुका है।
पुद्गलों की अनित्यता व उच्छिष्टता का प्रकाश― इस कथन से दो बातों पर प्रकाश होता है― एक तो यह कि सब अनित्य है। सभी परमाणु तेरे ग्रहण में आये और अब नहीं रहे, ऐसे ही आज जो परमाणु तेरे शरीररूप हैं ये भी न रहेंगे, विनश्वर है सब कुछ। दूसरी बात प्रकाश में यह आती है कि तू किसमें ममत्व करता है? यह शरीर जो तुझे आज मिला है ऐसे-ऐसे शरीर अनंत बार तुझे मिले हैं और तेरे नहीं रहे, तू किनमें ममता करता है? कुछ दिन रहेगा यह शरीर। उतने दिन जो इनके प्रति ममता का परिणाम है वह परिणाम कितना कर्मों का बंधन कर रहा है? शरीर तो न रहेगा साथ, पर चिरकाल तक ये कर्म बँधे रहेंगे और इससे फिर परिणामों की परंपरा बनी तो यों ही संसार परिभ्रमण करते रहना पड़ेगा। इस कारण हे भ्रात: ! तू सच जान कि इस लोक में ऐसा परमाणु कोई भी नहीं बचा है जो परमाणु तेरे शरीररूप न हुआ हो और आहारपने को प्राप्त न हुआ हो। भोगों में भी मत दृष्टि दे। जो भोगा है आहाररूप या अन्य उपभोगरूप वह सब अनेक बार भोगा जा चुका है, उसमें सार की बात लेश नहीं है।