वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 902
From जैनकोष
एतत्समयसर्वस्वं मुक्तेश्चैतंनिबंधनम्।
हितमेतद्धि जीवानामेतदेवाग्रिमं पदम्।।
रत्नत्रय की श्रेयप्रधानता- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यही सिद्धांत का सर्वस्व है, मुक्ति का कारण है। जैसा अपना आत्मस्वरूप है वैसा श्रद्धान् आ जाय इसका नाम है सम्यग्दर्शन। जैसे मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हूँ; शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर से विविक्त एक परम ज्योति हूँ। इस प्रकार अपने आपका परिचय बने और ऐसा ही ख्याल बनाकर जब ऐसा ही ज्ञानस्वरूप का अनुभव जगे तो उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन। और, ऐसा ही फिर उस आत्मा का ज्ञान बनाये रहना। कभी भी इस प्रकार की प्रतीति न जगे कि मेरा सुख किन्हीं बाह्यपदार्थों से आयगा। एक यह दृढ़ निर्णय रहे कि मैं ज्ञानरूप हूँ। मेरा ज्ञान मेरे से अपने आप प्रकट होता है। विषयकषायों के परिणाम इस ज्ञान में बाधा डालते हैं। यदि ये विषय आदिक परिणाम न हों तो यह ज्ञान अपने आप अधिक से अधिक विकसित हो जायगा। ज्ञान कमाने के लिए हमें अन्य श्रम न करना पड़ेगा, पर विषयकषायों के परिणाम दूर हों तो यह ज्ञान अपने आप पूर्ण विकसित होगा। मान लो कि किसी परिस्थिति में यह ज्ञान बहुत थोड़ा है। जो लौकिक कलायें है उनका ज्ञान नहीं है, तो नहीं है न सही, लेकिन यह ज्ञानी विरक्त होकर जब केवल अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा का ध्यान बनायेगा तो कर्मों का क्षय होकर इसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जायेगा और केवलज्ञान से फिर लोकालोक का कोई पदार्थ अज्ञात नहीं रहता। जब हम किसी भी दूसरे पुरुष में, जीव में, परिवार में, मित्र में स्नेह न बसायें, किन्हीं दूसरे जीवों में अपने यश की वांछा न करें, लोकेषणा न करें तो ऐसी स्थिति में एक बड़ा विश्राम मिलता है। यह जीव दु:खी है केवल दूसरे जीवों के स्नेह से। लोकेषणा का, यशकीर्ति का, सर्व पर का स्नेह हटे तो अपने आत्मा को अपने आपमें ही एक अपूर्व विश्राम मिलता है और उस उस विश्राम के बल पर इसे शुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव होता है। तब इस ही प्रकार ज्ञानस्वरूप अपने आपका आलंबन निरंतर बनाये रहे तो कर्मों का क्षय होकर वह आनंद सदा के लिए प्राप्त हो जाता है। तो यह रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है और यही जीवों का हित है और यह रत्नत्रय ही एक प्रधान साधन है। इस जगत में हम किसकी शरण गहें जिससे हमको निराकुलता प्राप्त हो? यह सारा संसार मायारूप है। हम आप सभी जीव अनादिकाल से नाना शरीरों को धारण करते हुए भटकते चले आये हैं और ऐसे ही संसार आगे अनेक जीवों का चलता रहेगा, उसमें सारभूत, शरणभूत कोई भी पदार्थ नहीं है। आज जो कुछ पास में है वह जब तक है तब तक भी सुख का कारण नहीं है, और अपने में बिछोह नियम से होगा। तो जगत में किसका शरण गहें कि शांति प्राप्त हो? एक अपने आपका ही शरण सच्चा शरण है। और, प्रभु का शरण भी हमें अपने आपकी शरण पा लेने का एक कारण है। अत: प्रभु का ध्यान भी शरण है। प्रभुभक्ति, आत्मा की उपासना इन दो कार्यों के अलावा कोई भी कार्य इस जीव को शांति उत्पन्न नहीं कर सकता। तो यह रत्नत्रय ही इस जीव का प्रधानपद है।