वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 925
From जैनकोष
पूर्वमात्मानमेवासौ क्रोधांधो दहति ध्रुवम्।
पश्चादन्यन्न वा लोको विवेकविकलाशय:।।925।।
क्रोधांध पुरुष द्वारा स्वयं आत्मदहन की निश्चितता― क्रोध में अंधा हुआ यह अविवेकी पुरुष पहिले तो निश्चय से अपने आपको ही जला देता है पीछे दूसरे को जलाये अथवा न जलाये, उसने अपने परिणामों से पहिले अपने ही परिणामों को दग्ध कर दिया। जैसे कोई दूसरे पर अंगार फेंक कर मारे तो उस मारने वाले का तो हाथ पहिले जल ही जाता है पीछे जिसके मारा है वह जले अथवा न जले। ऐसे ही जो दूसरे पर क्रोध करता है उसका तो बिगाड़ पहिले ही हो गया और जिस पर क्रोध किया उसका बिगाड़ हो अथवा न भी हो। बल्कि कभी-कभी तो उस क्रोध से जिस पर क्रोध किया जाता है उसका लाभ भी हो जाता है। और, जिसने क्रोध किया है उसका तो नियम से घात हो जाता है। अपना परिणाम बिगाड़ा, संयम का घात हुआ और सम्यक्त्व तक का भी घात हो जाता है। तो क्रोधी पुरुष पहिले अपने आपको भस्म कर लेता है पश्चात् दूसरा जले अथवा न जले। जगत में सभी प्राणी हैं, सबके साथ उनके कर्म लगे हुए हैं। भाग्य सबका साथ है, कोई किसी के भाग्य को बिगाड़ना चाहे तो बिगाड़ नहीं सकता। हाँ खुद का ही अगर भाग्य प्रतिकूल है तो भले ही उसमें कोर्इ निमित्त हो जाय, पर कोर्इ किसी के भाग्य को बना बिगाड़ नहीं सकता। कभी क्रोध करके किसी का सिर फोड़ दे तो कहो उसका भला हो जाय। अरे सिर में कोई रोग था बहुत दिनों से। फूट जाने पर कहो वह राग बिल्कुल दूर हो जाय। उस क्रोध करने वाले ने यद्यपि उसका रोग दूर करने के लिए नहीं उसका सिर फोड़ा, पर उसका रोग दूर हो गया इससे उसका भला ही तो हो गया। तो सबके जुदे-जुदे उदय की बात है। और, कहो कभी स्नेह करने वाला दूसरे पर स्नेह करने का यत्न करे और कहो उसी के यत्न से उस दूसरे का घात हो जाय। तो सबके साथ भाग्य है और अपने-अपने भाग्य के अनुसार वे अपना फल पाते हैं, पर पाप करने वाला पुरुष क्रोध के वशीभूत होकर अपने आपका घात तो कर ही लेता है।