वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 929
From जैनकोष
अनादिकालसंभूत: कषायविषमग्रह:।
स एवानंतदुर्वारदु:खसंपादनक्षम:।।929।।
क्रोध की अन्नतदुर्वारदु:खसंपादन क्षमता― यह कषायरूपी विषमग्रह अनादिकाल से इन प्राणियों के पीछे लगा है। अनादि से ही कषाय लगी है सब जीवों के। जैसे खान में जो स्वर्ण है वह पहिले सही हो, पीछे अशुद्ध मिट्टीरूप बना हो ऐसा नहीं है किंतु वह पहिले से ही मिट्टी ही है। और, उसे उपाय करके भट्टियाँ बनाकर स्वच्छ करते हैं तो स्वर्ण निकल आता है, ऐसे ही जीवों के साथ कषाय अनादि से लगी हैं, जब स्वरूपदृष्टि से देखते है तो ऐसा लगता है कि बेचारा जीव कसूर वाला नहीं है, हो रहा है परिणमन ऐसा, पर यह आत्मा अपराधस्वभावी नहीं है और ऐसी ही बात निरखकर यह नीति बनी है कि पाप से तो घृणा करें, पर पापी से घृणा न करें। उसका तथ्य यह हे कि जिस जीव ने पाप किया है वह जीव स्वयं पापस्वभावी नहीं है। तो घृणा के योग्य पाप हुआ न कि जीवस्वरूप, तो अनादि से ही यह जीव कषायवान है। और, ये विषय कषाय इस जीव को दुनिर्वार दु:खों की प्राप्ति कराते रहते हैं। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य के दोनों कंधों पर शैतान चढ़े रहते हैं और आगे पीछे भी शैतान रहते हैं। चार शैतान बताये हैं एक आगे-आगे चलता है एक पीछे लगा रहता है और दो कंधों पर सवार रहते हैं। तो वे शैतान और हैं क्या? जो मनुष्य के आगे-आगे चलता है वह है इच्छा। यों सामने दिखता है, कल्पनाएँ होती हैं तो इच्छारूपी शैतान तो आगे चलता है और शंकारूपी पीछे से चलता है क्योंकि शंका का विवरण पीठ पर किया जाता है, परोक्ष होता है भय। सो कंधों पर जो शैतान हैं वे हैं विषय और कषाय। निरंतर इसके अंत: परिणमन में ये विषय और कषाय बने रहते हैं। तो यह जीव अनादिकाल से ही कषायरूपी विषमग्रह से पीड़ित है और ये ही विषय कषाय अनंत दुनिर्वार दु:खों को प्राप्त कराते हैं जिनका निवारण करना कठिन है। जब जो कषाय जगती है उसके आवेश में फिर वही-वही उसकी परिणति रहती है, विवेक नहीं रह पाता। में उस कार्य को सम्हाल लूँ, उसका आना रोक दूँ, यों नाना कारण ऐसे बन जाते हैं कि जिनसे इसकी कषाय युक्त परिणतियाँ होती हैं। हाँ तत्त्वज्ञानी पुरुष में तो यह सामर्थ्य है कि कषाय आने का क्षण हो तो ऐसा विचार बना लेता है कि फिर वह कषाय नहीं जगती है लेकिन सारा जगत तो प्राय: कषायग्रह से ही पीड़ित है। और इन कषायों से केवल दु:ख ही मिलता है। घर में जो लोग होते हैं महिलायें या अन्य कोई भाई बंधु परस्पर में क्रोध मचाते हैं, जरा से काम पर, जरासी चीज पर एक दूसरे का भाव देखकर क्रोध जगता है, तो उस वातावरण में तो सभी परेशान से रहते हैं। घर अच्छा है, आजीविका ठीक है, खाने-पीने की भी असुविधा नहीं है, सब कुछ ढंग होकर भी यह क्रोध बना रहता है सभी में, तो वह कुटुंब कितना दु:खी रहता है। तो यह क्रोध अनंत दुनिर्वार दु:खों को उत्पन्न करता है।