वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 22
From जैनकोष
सहजुपण्णं रूवं दुट्ठं जो मण्णएण मच्छरिओ ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ।। 22 ।।
(117) यथाजातरूप निर्ग्रंथ साधु को देखकर आदर न करने वालों व मात्सर्य रखने वालों की मिथ्यादृष्टिता―जो पुरुष यथाजातरूप निर्ग्रंथ भेष, निरारंभ, निष्परिग्रह गुरुवों के रूप को देखकर उनका आदर नहीं करता बल्कि उनसे मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष रखता है वह पुरुष चाहे महाव्रत पालता हो, संयम धारण करता हो और कुछ इस अहंकार में उस संयम के योग्य बाहरी चेष्टायें भी करे तो भी वह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी ही है । साधु का रूप सहज उत्पन्न रूप होता हैं । जैसे कोई बालक उत्पन्न हुआ तो उसका क्या रूप है, न उसके शरीर पर वस्त्र हैं न आभूषण केवल शरीर मात्र है, ऐसे ही जो-जो शरीर रहित आत्मा की सुध व उपासना करते हैं वे तो उपयोग में शरीर वाले भी नहीं हैं, पर शरीर जाये कहां ? रहेगा तो शरीर । तो उनका भेष केवल शरीर मात्र है, उस पर किसी दूसरी चीज का प्रसंग नहीं? सहज उत्पन्न रूप है, ऐसे रूप को देखकर जिसमें आदर बुद्धि न जगे कि मोक्षमार्ग तो यही है, तीर्थंकरों ने इसी मार्ग को अपनाया था, तो आदर तो करे नहीं किंतु मात्सर्य भाव रखे, अहंकार रखे, उससे द्वेष रखे और माने कि अच्छा तो मैं हूँ । देखो मैं कैसा शोभा वाला हूँ, मैने कितनी बढ़िया चद्दर पहिन रखा है जैसी कि अन्य गृहस्थों के पास भी न होगी । कैसा बढ़िया डिजाइन बनाकर कंधे पर रखा है, ऐसा तो कोई बंगाली भी न रखता होगा, यों एक चित्त में अहंकार रखना और निर्ग्रंथ यथाजात रूप को देखकर मात्सर्य रखना ऐसा जो पुरुष व्यवहार करता है, उसने चाहे संयम पाल रखा हो तो भी वह मिथ्यादृष्टि है । निर्ग्रंथ भेष के प्रति जिसको अरुचि हो वह चाहे कितना ही संयम की बात कहे तो भी वह प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि है । और कदाचित् निर्ग्रंथ भेष वाला साधु ही कोई अन्य निर्ग्रंथ साधु का आदर न करे, बल्कि अन्य साधुवों से ईर्ष्या रखे, तो भले ही उसने संयम का प्रतिपादन किया हैं लेकिन वह मिथ्यादृष्टि है । भले ही आगम में बताया है कि जो पहले के दीक्षित हो उसकी वंदना करे नवदीक्षित या यह बात एक कर्तव्य के नाते से बताया मगर पहले दीक्षित पुरुष भी यह हिसाब चित्त में न रखें कि मैंने पहले दीक्षा ली है, इसने बाद में दीक्षा ली है, यह मुझे पहले वंदना करे, अगर ऐसी भावना जगे उस पहले के दीक्षित पुरुष में तो वह तो अपने पद से गया । कर्तव्य में तो है अन्य नवदीक्षित पहले वाले को वंदना करें मगर पहले का दीक्षित यह न सोचे कि यह नवदीक्षित मेरी वंदना करे । वह तो उस नवदीक्षित का आदर ही करेगा, धन्य है यह स्वरूप । कभी-कभी आप लोगों ने देखा होगा कि कोई-कोई बड़े पुरुष भी अपने से छोटे लोगों से पहले ही जयजिनेंद्र करते हैं । वे यह नही सोचते कि ये छोटे लोग हैं । तो संयमधारियों के प्रति भीतर में विनय होना यह है कल्याण का मार्ग ।