वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 28
From जैनकोष
णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण ।
चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ।। 28 ।।
(138) ज्ञान दर्शन चारित्र तप के साथ भावसंयम गुण का समायोग होने पर मोक्ष का लाभ―इस गाथा में यह बताया है कि मोक्ष कैसे प्राप्त होता है ꠰ ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र और इनके साथ संयम गुण हो तो इन चारों के समायोग होने पर मोक्ष होता है, ऐसा जैन शासन में कहा गया है । ज्ञान मायने जो पदार्थ जिस तरह से अवस्थित है उसको उसरूप में सही जानना और केवल जानना ही, उसके अंदर इष्ट अनिष्ट बुद्धि न जगना, क्योंकि इष्ट अनिष्ट की जो कल्पनायें बनती हैं वह रागद्वेष का काम है, ज्ञान का काम नहीं है । ज्ञान की वृत्ति तो केवल प्रतिभास हो गया । तो ऐसा पदार्थों का प्रतिभास होना, जानना होना यह कहलाता है ज्ञान दर्शन, जान लिया कि यह पदार्थ इस ही तरह है । और, ऐसा जानने के साथ यह भी जानन सहज बना हुआ है कि यह आत्महित है । तो आत्मतत्त्व को आत्महित रूप से निरखने की जो एक स्वच्छता जगी है वह है दर्शन, चारित्र । अविकार स्वभाव ज्ञानमात्र जो आत्मतत्त्व है उसमें रम जाना यह कहलाता है चारित्र । तो इसके साथ जो संयम गुण बना भावसंयम, अपने आपके आत्मा में संयत होना, यहां ही जब एक अलौकिक आनंद जगा है तो उपयोग यहाँ से क्यों हटेगा? आत्मा में ही उपयोग रम रहा, ऐसे भावसंयम से सहित स्थिति बने तो उस जीव का मोक्ष होता है ।
(139) केवल स्वस्वरूप की दृष्टि न रति से कैवल्य का लाभ―मोक्ष होने में बात क्या बनती है ? जीव अकेला रह गया इसका नाम है मोक्ष । जीव के साथ अब एक अणु का भी संबंध न रहा, संसार अवस्था में तो संबंध बना है, मनुष्य कहीं जायेगा तो शरीर साथ जायेगा उसके साथ कर्म परमाणु जायेंगे, ऐसा बंधन बंधा है, वहां न बंधन है, न किसी प्रकार की उपाधि है, ऐसा यह जीव अकेला हो गया उसको मोक्ष कहते हैं ꠰ जब दूसरा पदार्थ साथ ही नहीं है तो उस पर उपाधि का निमित्त ही क्या? फिर विकार कुछ नहीं होता । तो जो विकार भाव से रहित हो गया, कर्मों से रहित हो गया, शरीर से रहित हो गया, केवल ज्ञान ज्योति ही रह गयी उसको कहते है मोक्ष । जो कोई संसार के प्रेमी हैं वे इस स्थिति में शंका करेंगे । मगर जहाँ दुःख रंच नहीं रहता, कल्पनाओं का मूलत: अभाव है शांत तो उसको कहेंगे । तो जहाँ केवलज्ञानज्योति ही विराज रही है, दूसरे पदार्थ का संबंध नहीं तो वहाँ भूख कहाँ से लगेगी? शरीर हो तो भूख लगे । शरीर है तो उसके साथ सारे कष्ट हैं, पर शरीररहित केवल ज्ञानज्योति रह गई, धर्म, अधर्म, आकाशद्रव्य की तरह बिल्कुल शुद्ध स्वच्छ रह गया अब उसको कोई कष्ट नहीं हो सकता । तो ऐसे अनंत सुखों का स्थान यह मोक्ष है । यह मोक्ष इन उपायों से प्राप्त होता है । इन उपायों में सबसे प्रधान बात यह है कि अकेला रह जाना है तो वह किस साधन से अकेला रहे? वह जीव संसारभव में भी चरम शरीर में भी अपने आपको ऐसा ही अविकार अकेला निरखता है बद्धदशा में भी, जीव तो केवल चैतन्यस्वरूप है । ऐसा अकेला यहाँ निरखा तो उस अकेला निरखने की साधना से यह प्रकट अकेला हो जाता है । तो ऐसे इन दर्शन ज्ञान चारित्र के उपायों से ऐसा अकेला रह जाना इस ही को जिनशासन में भाव कहा है ।