वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 14
From जैनकोष
णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेह दोसिद्धा ।
लोयगठिदा णिच्चा उप्पादवयेहिं संजुत्ता ।।14।।
अन्वय―सिद्धा णिक्कम्मा, अट्ठगुणा चरमदेहो किंचूणा, लोयगठिदा, णिच्चा, उत्पादवयेहिं संजुत्ता
अर्थ―सिद्धभगवान अष्टकर्मों से रहित हैं, अष्टगुणों से सहित है, अंतिम शरीर से कुछ कम हैं तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं और उत्पादव्ययकरि संयुक्त हैं ।
प्रश्न 1―सिद्ध शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर―सिद᳭ध्ययति इति सिद्ध: । जो पूर्णविकास को प्राप्त हो गया उसे सिद्ध कहते हैं ।
प्रश्न 2―जीव का विकास क्यों रुका हुआ है ?
उत्तर―अपने विभाव परिणामों के कारण जीव का विकास रुका हुआ है ।
प्रश्न 3―जीव के विभावपरिणाम क्यों हो जाते हैं ?
उत्तर―कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव के मलिन संस्कार के कारण जीव के विभावपरिणाम हो जाते हैं । ये विभावपरिणाम, दुःखरूप है ।
प्रश्न 4―कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर―कर्म तो असंख्यातों प्रकार के हैं, किंतु उनके फल देने की प्रकृति की जाति बनाकर भेद करने से कर्म 8 प्रकार के हैं―(1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) आयु, (6) नाम, (7) गोत्र और (8) अंतराय ।
प्रश्न 5―ज्ञानावरणकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिनमें ज्ञान को प्रकट न होने देने के निमित्त होने को प्रकृति हो उन कर्मवर्गणाओं को ज्ञानावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 6―दर्शनावरण कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन कार्माणवर्गणावों में अंतर्मुख चैतन्य प्रकाश को प्रकट न होने देने के निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें दर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 7―वेदनीयकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन कर्मवर्गणावों में जीव के सुख दुःख होने के निमित्त होने को प्रकृति हो उन्हें वेदनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 8―मोहनीयकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन कर्मवर्गणावों में जीव के सम्यक्त्व और चारित्र फुट के विकृत होने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें मोहनीयकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 9―आयुकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन कर्मवर्गणाओं में जीव को नये भव में ले जाने में व शरीर में रहने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें आयुकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 10―नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिन कर्मवर्गणावों में शरीर की रचना होने के निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें नामकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 11―गोत्रकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिस कर्म के उदय से जीव उच्च नीच कुल में उत्पन्न हो व रहे उसे गोत्रकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 12―अंतरायकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिसके उदय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विश्व आवे उसे अंतरायकर्म कहते हैं ।
प्रश्न 13―कर्म किस उपाय से नष्ट होते हैं ?
उत्तर―निज शुद्धात्मा के अनुभव के बल से कर्म स्वयं अकर्म हो जाते हैं । कर्म का अकर्मस्वरूप होना ही कर्म को नाश है ।
प्रश्न 14―कर्म के नाश का क्या क्रम है ?
उत्तर―पहिले मोहनीयकर्म का क्षय होता है, पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय―इन तीन का एक साथ क्षय होता है । पश्चात् शेष के 4 कर्मों का एक साथ क्षय होता है । आठों कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा सिद्ध परमात्मा कहलाता है । सिद्धभगवान आठों कर्मों से रहित हैं ।
प्रश्न 15―सिद्धभगवान के गुण कितने हैं ?
उत्तर―विशेष भेदनय से सिद्धभगवान में गीतरहितता, इंद्रियरहितता, गुणस्थानातीतता, अनंत ज्ञान, अनंतआनंद आदि अनंत गुण हैं ।
प्रश्न 16―अभेदनय से सिद्धभगवान में कितने गुण हैं ?
उत्तर―साक्षात् अभेदनय से अचैतन्य एक गुण है । विवक्षित अभेदनय से सिद्धप्रभु में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन ये दो गुण हैं अथवा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य ये चार गुण हैं ।
प्रश्न 17―मध्यमपद्धति से सिद्धभगवान में कितने गुण हैं ?
उत्तर―सिद्धभगवान में 8 गुण हैं―(1) परमसम्यक्त्व, (2) केवलज्ञान, (3) केवलदर्शन, (4) अनंतवीर्य, (5) अनंतसुख, (6) अवगाहनत्व, (7) सूक्ष्मत्व और (8) अगुरुलघुत्व ।
प्रश्न 18―परमसम्यक्त्व किसे कहते हैं ?
उत्तर―समस्त द्रव्य, गुण, पर्यायों के विषय में विपरीत अभिप्रायरहित सम्यक्त्वरूप परिणमन को परमसम्यक्त्व कहा है । इस सम्यक्त्व में चारित्रमोहजनित दोष का भी संबंध न होने से तथा उपशम, क्षय, क्षयोपशमादि निमित्त न रहने से एवं केवलज्ञान का साथ होने से परमसम्यक्त्व नाम कहा है । इसे परभावगाढ़ सम्यक्त्व भी कहते हैं ।
प्रश्न 19―परमसम्यक्त्व कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―शुद्धात्म रुचिस्वरूप निश्चयसम्यक्त्व की पहिले भावना व परिणति हुई, जिसके फल में यह परमसम्यक्त्व प्रकट हुआ ।
प्रश्न 20―केवलज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर―लोकालोकवर्ती समस्त पदार्थों को समस्त पर्यायों सहित एक साथ जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं ।
प्रश्न 21―केवलज्ञान कैसे प्रकट हुआ है ?
उत्तर―अविकार अखंड स्व के संवेदन की स्थिरता के फलस्वरूप यह केवलज्ञान प्रकट हुआ ।
प्रश्न 22―केवलदर्शन किसे कहते हैं ?
उत्तर―लोकालोकवर्ती समस्त पदार्थों में व्यापक सामान्य आत्मा के प्रतिभास करने वाले चैतन्य प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं ।
प्रश्न 23―केवलदर्शन कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―निर्विकल्प निज शुद्धात्मतत्त्व के अवलोकन के फलस्वरूप यह केवलदर्शन प्रकट हुआ ।
प्रश्न 24―अनंतवीर्य किसे कहते हैं ?
उत्तर―अनंत पदार्थों के ज्ञान आदि समस्त गुणविकास का अनंत सामर्थ्य प्रकट होने को अनंतवीर्य कहते हैं ।
प्रश्न 25-अनंतवीर्य कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―अखंडशक्तिमय निज कारणसमयसार के ध्यान में निज सामर्थ्य का उपयोग किया और स्वरूप से विचलित करने का कोई अंतरंग या बहिरंग कारण उपस्थित हुआ तो उस समय परमधैर्य का अवलंबन लिया व स्वरूप से चलित नहीं हुए । इसके फलस्वरूप यह अनंतवीर्य प्रकट हुआ ।
प्रश्न 26―अनंतसुख किसे कहते हैं ?
उत्तर―आकुलता के अत्यंत अभाव होने को अनंतसुख कहते हैं । इसका अपर नाम अव्याबाध भी है ।
प्रश्न 27―अनंतसुख कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―निज सहजशुद्ध आत्मतत्त्व के संवेदन से प्रकट हुई आनंदानुभव के फलस्वरूप यह अनंतसुख प्रकट हुआ ।
प्रश्न 28―अवगाहनत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर―एक सिद्ध के क्षेत्र में अनंतसिद्धों का भी अवगाहन हो जावे, इस सामर्थ्य को अवगाहनत्व कहते हैं ।
प्रश्न 29―यह अवगाहनत्व कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―अमूर्त निराबाध निज चैतन्यस्वभाव की पहिले भावना, उपासना की जिसके फल स्वरूप यह अवगाहनत्व प्रकट हुआ ।
प्रश्न 30―सूक्ष्मत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर―केवलज्ञान द्वारा ही गम्य अमूर्त प्रदेशात्मक होने को सूक्ष्मत्व कहते हैं ।
प्रश्न 31―यह सूक्ष्मत्व कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्मों से रहित निज शुद्धात्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान, आचरण से यह सूक्ष्मत्व प्रकट हुआ ।
प्रश्न 32―अगुरुलघुत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर―जिससे अन्य न कोई गुरु हो और इस सिद्धावस्था में रहने वाले अनंत जीवों से कोई न लघु हो ऐसी साम्य अवस्था के प्राप्त होने को अगुरुलघुत्व कहते हैं अथवा न ऐसे भारी हो जाये कि लोहपिंडवत् नीचे पतन हो जाये और न ऐसे लघु हो जायें कि आक के तूल की तरह भ्रमण ही होता रहे, ऐसे विकास को अगुरुलघुत्व कहते हैं ।
प्रश्न 33―यह अगुरुलघुत्व कैसे प्रकट हुआ ?
उत्तर―सर्व जीवों में एकस्वरूप निज चैतन्य सामान्यस्वरूप की अभेद उपासना की, उसके फलस्वरूप यह अगुरुलघुत्व प्रकट हुआ ।
प्रश्न 34―ये आठों गुण त्रैकालिक तो नहीं हैं, ये किसी समय से ही प्रकट हुये, फिर इन्हें गुण क्यों बताया ?
उत्तर―ये आठों किसी समय से ही प्रकट हुये अत: पर्यायें हैं । यहाँ गुण शब्द का अर्थ है विशेषता । सिद्धों की विशेषता इन 8 विकासों द्वारा बताई है ।
प्रश्न 35―सिद्धभगवान चरमशरीर से कुछ ऊन क्यों होते हैं ?
उत्तर―इसके दो कारण है―(1) शरीर के अग्र नख, केश और ऊपरी सूक्ष्म त्वचा में आत्मप्रदेश नहीं होते हैं, सो शरीर से मुक्त होने पर पूर्व शरीर से, जिसमें नख, केश, त्वचा भी थे, कुछ कम अवगाहना है । (2) सयोगकेवली के अंतिम समय में शरीर व अंगोपांग नामकर्म के उदय की व्युच्छित्ति हो जाती है । इस कारण अयोगकेवली के प्रथम समय में ही नासिकाछिद्र आदि समाप्त हो जाते हैं । इसलिये किंचित् ऊनपना हो जाता है । यही ऊनपना सिद्धभगवान के प्रदेशावगाहना में है ।
प्रश्न 36―शरीर का आवरण समाप्त होने पर आत्मप्रदेश फैलकर लोकप्रमाण क्यों नहीं हो जाते ?
उत्तर―आत्मप्रदेशों का विस्तार आत्मा का स्वभाव नहीं है, विस्तार शरीर नामकर्म के आधीन है । शरीर नामकर्म के अभाव से विस्तार का भी अभाव है ।
प्रश्न 37―जैसे दीपक के आवरण का अभाव होने से दीपक का प्रकाश एकदम फैल जाता है, क्या इसी तरह आत्मप्रदेश भी फैल सकते हैं ?
उत्तर―दीपक तो पहिले भी निरावरण हो सकता है, पीछे आवरण आ सकता है, अत: दीप का आवरण न होने पर दीप प्रकाश फैल सकता है, किंतु आत्मा पहिले शरीररहित हो पश्चात् शरीरबद्ध हो, ऐसा नहीं है, अत: शरीर का आवरण हटने पर भी आत्मा शरीरप्रमाण रहता है ।
प्रश्न 38―जो दीपक पहिले से आवरण के भीतर जला हो उसे फिर बाहर निकाल दिया जाये तो जैसे वह फैल जाता इस तरह आत्मा क्यों नहीं फैलता ?
उत्तर―दीपक तो निरावरण भी रह सकता यह आत्मा तो अनादि से शरीर में ही रहा, अत: दृष्टांत विषम है । और दूसरी बात यह है कि लोक में रूढ़ि ऐसी है जो कहते हैं कि दीपक का प्रकाश फैल गया । वास्तव में दीप-प्रकाश दीप-शिखा के बाहर नहीं है ।
प्रश्न 39―तो वह प्रकाश किसका है जो सारे कमरे में फैला है ?
उत्तर―जिस पदार्थ पर प्रकाश है वह उस ही पदार्थ का प्रकाशपरिणमन है । हां वह प्रकाशपरिणमन दीपक को निमित्त पाकर हुआ है ।
प्रश्न 40―तब दीपक के सामने के बहुत दूर के पदार्थ क्यों नहीं प्रकाशपरिणमन के प्राप्त करते ?
उत्तर―यह परिणमने वाले पदार्थ की योग्यता है कि यह कितने दूरवर्ती और कितने तेजोमय पदार्थ को निमित्त पाकर प्रकाशरूप परिणमे । पदार्थ अपनी योग्यता के अनुसार प्रकाशपरिणत होते हैं । तभी तो कांच विशेष प्रकाशरूप परिणमता है, दीवार आदि साधारण प्रकाशपरिणत होते हैं ।
प्रश्न 41―शरीर से मुक्त होने पर आत्मा का अवस्थान कहां रहता है ?
उत्तर―शरीर से मुक्त होने पर इस परमात्मा का अवस्थान लोक के शिखर पर हो जाता है ।
प्रश्न 42―जहाँ शरीर से मुक्त हुए वहीं अवस्थान क्यों नहीं रहता ?
उत्तर―आत्मा का ऊर्ध्वगमनस्वभाव होने से आत्मा देहमुक्त होते ही एक समय में सबसे ऊपर चला जाता है ।
प्रश्न 43―सिद्धप्रभु और ऊपर चलते ही क्यों नहीं जाते ?
उत्तर―गमनक्रिया के निमित्तभूत धर्मास्तिकाय का लोक के अंत तक ही सद्भाव है अत: वहाँ तक ही गमन है ।
प्रश्न 44―तब आत्मा की क्रिया क्या पराधीन नहीं हुई ?
उत्तर―नहीं, आत्मा अपनी क्रिया से ही क्रियावान् होता है, किंतु ऐसा ही सहज निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि धर्मास्तिकाय को निमित्त पाकर आत्मा अपनी स्वतंत्र क्रिया से क्रियावान हुआ ।
प्रश्न 45―सिद्धप्रभु सिद्धावस्था में कब तक रहते हैं ?
उत्तर―सिद्धपर्याय नित्य है अर्थात् सदैव अनंतानंत काल तक रहेगी । अत: सिद्ध नित्य हैं ।
प्रश्न 46―सिद्धपर्याय निलय क्यों है पर्याय तो अनित्य होती ?
उत्तर―सिद्धपर्याय स्वाभाविक और अनैमित्तिक है इसलिये सदा रहती है । सूक्ष्मदृष्टि अथवा वस्तुस्वभाव से प्रतिसमय नया-नया परिणमन होता ही है, किंतु वह अनैमित्तिक और स्वाभाविक होने से पूर्ण समान ही होता है । अत: सिद्धपर्याय को नित्य कहा ।
प्रश्न 47―नया-नया परिणमन सिद्धों में क्या होता है ?
उत्तर―जैसे आधा घंटा तक बिजली जली तो वहाँ प्रतिक्षण नयी-नयी बिजली हुई । लगातार होने से व समान प्रकाश होने से उसमें अंतर मालूम नहीं होता । वैसे सिद्धों के प्रतिसमय के परिणमन में अंतर नहीं होता । प्रतिसमय शक्ति का उपयोग तो हो ही रहा है ।
प्रश्न 48―प्रतिसमय उत्पाद व्यय होने का कारण क्या है ?
उत्तर―अगुरुलघु गुण के 6 वृद्धिस्थानों में व 6 हानिस्थानों में परिणमन होने से उत्पाद व्यय होता रहता है ।
प्रश्न 49―क्या सिद्धभगवान में स्थूलरूप से भी कोई उत्पाद व्यय होता है ?
उत्तर―व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से स्थूल उत्पादव्यय भी है अर्थात् संसारपर्याय का तो विनाश हुआ और सिद्धपर्याय का उत्पाद हुआ । यहाँ जीवद्रव्य ध्रौव्यरूप से रहा ।
प्रश्न 50―सिद्धप्रभु के स्वरूप जानने से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिये ?
उत्तर―अनंत आनंद आत्यंतिक शुद्ध सिद्धपर्याय की जिस स्वभाव के साथ एकता हुई है वह स्वभाव मुझमें भी अनादिसिद्ध है । इस स्वभाव की भावना, उपासना और इसी स्वभाव के अवलंबन से शुद्ध निर्मल सिद्धपर्याय प्रकट होती है । एतदर्थ निज सहजसिद्ध चैतन्यस्वभाव में अपनी वर्तमान ज्ञान पर्याय जोड़नी चाहिये ।
।। इस प्रकार जीवतत्त्व के प्ररूपण में प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।।