वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 107
From जैनकोष
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जयेहिं वरिदित्तं।
अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि।।107।।
परमालोचना और उसका अधिकारी- जो प्राणी नोकर्म और कर्म से रहित, विभावगुणपर्याय से पृथक् आत्मा को ध्याता है, उस श्रमण के आलोचना होती है। इस अधिकार में आलोचना का वर्णन है। व्यवहार में लोग अपने पाप की आलोचना करते हैं, जैसे कि आलोचना पाठ में बहुत विस्तार से वर्णन है। निश्चय से आलोचना क्या कहलाती है? इसका वर्णन इस परम आलोचना अधिकार में किया जा रहा है। आत्मा का मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना, सो तो है वास्तविक परमार्थव्रत और ज्ञाताद्रष्टा न रहकर किसी अन्य विभाव को उपभोग में उलझाना, वह है इसका अपराध। निश्चयापराध की आलोचना करना, सो परमालोचना है और व्यवहारिक अपराध की आलोचना करना व्यवहारालोचना है। अपने आत्मा का जैसा यथार्थ स्वरूप है, उस स्वरूप की दृष्टि करें तो सच्ची आलोचना होती है।
शरीर से विविक्त आत्मा के प्रकाश में सहज परम आलोचना- आलोचना का प्रयोजन है दोषों की शुद्धि करना। जो दोष कर रहे हैं, उन दोषों का निराकरण करना, इसका नाम आलोचना है। व्यवहार में जो लोग अपने गुरुजनों के पास जाकर अपराध की आलोचना करते हैं कि मुझसे यह अपराध हुआ तो यह व्यवहार आलोचना है और निश्चय से अपने आपके प्रभु को रुचिपूर्वक निरखें तो इसमें परम आलोचना हो जाती है। यह मैं शरीर से न्यारा हूं। यदि मैं शरीर ही होऊँ तो फिर मरना तब कहलायेगा, जब कोई जबरदस्ती आग लगा दे और जला दे, क्योंकि शरीर ही तो मैं हूं। जब तक कोई जलाये नहीं, तब तक उसका मरना न होगा, क्योंकि लोक में जिसे लोग मरना कहते हैं, उसमें भी शरीर तो पूरा बना हुआ है। इस कारण शरीर का नाम जीव नहीं है। जीव शरीर से पृथक् कोई स्वतंत्र पदार्थ है।
एकक्षेत्रावगाही पर पदार्थों से भी आत्मा की विविक्तता- मैं शरीर से न्यारा हूं और कर्मों से न्यारा हूं। इस कथन में एक क्षेत्र में रहने वाले जो परपदार्थ हैं, उनका वर्णन चल रहा है। धन, मकान- ये तो प्रकट न्यारे हैं। ये मेरे आत्मा के साथ कहां चिपटे-फिरते हैं? आज जिस मकान में रह रहे हैं, उसे अपना मान रहे हैं; कल जिस मकान में रहेंगे, उसे अपना मान लेंगे। मरकर जहाँ जायेंगे, उसे अपना मान लेंगे। मकान-वैभव कहाँ चिपटे फिरते हैं? आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह में जो रह रहे हैं, उनकी बात सुनिये। पहिली चीज तो यह शरीर है। आत्मा जहाँ जाता है, भले ही किसी दिन छूट जाए, मगर जब तक संबंध है, तब तक तो आत्मा के साथ शरीर है, शरीर के साथ आत्मा है और एक क्षेत्र में रहने पर भी इस शरीर से मैं न्यारा हूं। फिर शरीर के बाद दूसरा नंबर आता है परपदार्थों में कर्मों का। इन कर्मों से भी मैं न्यारा हूं। शरीर का नाम नोकर्म है और कर्म का नाम कर्म है। नो का अर्थ थोड़ा है याने कर्म के बाद दूसरा नंबर आता है नोकर्म का। कर्म तो मरने पर भी साथ जाते हैं। नोकर्म नाम शरीर का है। शरीर यहीं रह जाता है, जीव चला जाता है। तो जीव के साथ जो कर्म बँधे हैं, वे कर्म भी चले जाते हैं, इसलिए कर्म अव्वल नंबर की उपाधि है और शरीर द्वितीय नंबर की उपाधि है, इसी कारण शरीर का नाम नोकर्म रखा है।
शरीरों का संक्षिप्त विवरण- शरीर 5 प्रकार के होते हैं- औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण। औदारिक शरीर मनुष्य व तिर्यंचों के होता है, वैक्रियक शरीर देव-नारकियों के होता है, आहारक शरीर ऋद्धिधारी प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मनुष्यों के जब कोई तत्त्व शंका हो या चैत्यालयो की वंदना का भाव हो, तब प्रकट होता है। ये तीन शरीर भोग में आते हैं, पर जिनका भोग न हो, ऐसे ये दो शरीर हैं- (1) तैजस (2) कार्माण। भोग का अर्थ है, जिसमें इंद्रियाँ लगी है, मन है इंद्रिय और मन से कुछ प्रवृत्ति होती है, वह है भोग वाला शरीर। तैजस शरीर कहते हैं इन मिले हुए औदारिक और वैक्रियक शरीर में जो तेज पैदा करे, कांति पैदा करे, जिससे यह जाँच लेते हैं कि इस शरीर में तेज है और इस शरीर कुछ भी तेज नहीं रहा, यह मर गया, ठंडा हो गया शरीर। तो जिस शरीर के न रहने पर यह औदारिक शरीर ठंडा हो जाता है, उसे तैजस शरीर कहते हैं। यह तैजस शरीर भी मरने पर साथ जाता है। औदारिक, वैक्रियक यहीं रह जाता है। 5वाँ शरीर है कार्माण शरीर। कर्म और कार्माण दो अलग बातें नहीं हैं, किंतु उन बँधे हुए कर्मों का शरीराकार निर्माण हो जाए तो उसका नाम कार्माण शरीर। जैसे ईंट और भींत। ईंटों का ही समूह भींत है, पर ईंट नाम तो सामान्य है, बिखरी पड़ी है तिस पर भी ईंट हैं, सभी अलग-अलग हों, तब भी ईंट कहते हैं, भींत में लगी हों, उन्हें भी ईंट कहते अगर ईंटों को जड़वाकर मकान के रूप में रख लें, उसे भी भींत कहते हैं। ऐसे ही कर्म और कार्माण शब्द हैं। भींत की तरह तो है कार्माण शरीर और ईंट की तरह मान लो कर्म। ये दोनों शरीर सूक्ष्म होते हैं। मरने के बाद कैसी ही मजबूत छत हो, काँच लगे हुए कितने ही आवरण हों, यह तैजस शरीर, कार्माण शरीर और जीव उसमें से निकल जाता है और उस भींत को या काँच को किसी तरह की आँच नहीं आती है। कितना सूक्ष्म यह जीव है? वह तो अमूर्त है ही, किंतु तैजस कार्माण, पौद्गलिक होने पर भी सूक्ष्म है कि वज्र में से निकल जाये। इन पाँच प्रकार के शरीरों से रहित जो आत्मस्वरूप का ध्यान करते है, उसके परम आलोचना होती है।
कर्म का संक्षिप्त विवरण- कर्म 8 प्रकार के हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार आत्मा के गुणों का घात करने वाले हैं और इन चारों के काम में मदद दे सकें- ऐसे चार कर्म हैं- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। ये 8 प्रकार के द्रव्यकर्म हैं। कर्मों के बारे में सभी सिद्धांतों के अपनी-अपनी कुछ कल्पना किया करते हैं, पर यह है कर्म, उसका यह रूपक है- ऐसा मैटर है जिसे विशद जानना आवश्यक है। कोई कहते हैं कि तकदीर की रेखायें खोपड़ी में खिची रहती हैं। मगर पड़ी हुई कोई खोपड़ी दिख जाये तो उसमें देखोगे कि कुछ रेखाएँ होती हैं। स्वाभाविक है कि उसमें बहुत रेखायें दिखें, तो उनको ही देखकर कुछ लोग कहते हैं देखो, यह तकदीर लिखी है। तकदीर खोपड़ी में नहीं लिखी होती, न कोई रेखा का नाम है। तकदीर कहो, भाग्य कहो, कर्म कहो किसका नाम है सुनिये।
कर्म की रूपरेखा- कर्म दो तरह के होते हैं- एक भावकर्म, एक द्रव्यकर्म। भावकर्म तो जीव जो परिणाम करता है, राग के द्वेष के, विकल्प के जिस प्रकार के परिणाम करता है, परिणामों का नाम है भावकर्म। और उन परिणामों के कारण लोक में भरी हुई जो सूक्ष्म कार्माण वर्गणाएँ हैं, पुद्गल वर्गणाएँ है, जो जीव के साथ भी लगी हुई हैं, उनमें ऐसी शक्ति का आ जाना कि वे जब उदय में आयें तो उनका निमित्त पाकर यह जीव विह्वल हो जायेगा, ऐसी शक्ति वाले सूक्ष्म पुद्गल का नाम है कर्म। उन कर्मों का रंग रूप यद्यपि सूक्ष्म है तो भी श्वेत बताया गया है। इसका प्रमाण यह है कि जब यह जीव शरीर को छोड़कर जाता है तो रास्ते में इसके रूप का वर्ण शुक्ल बताया गया है। जीव में तो रूप है नहीं। वह शुक्ल रूप किसका है। जो तैजस व कार्माण शरीर पिंड है, उसका वह शुक्ल रूप है। जैसे इस दृश्यमान पुद्गल में रूप, रस, गंध, स्पर्श होता है- ऐसे ही इस कामार्ण शरीर में, इन कर्मों में भी रूप, रस, गंध, स्पर्श होता है, किंतु ये कर्म इतने सूक्ष्म होते हैं कि वज्र को, काँच को पार करते हुए चले जाते हैं। ऐसा यह मैं ज्ञानवरणादिक अष्ट कर्मों से भी रहित हूं। यों कर्मों से भी रहित जो आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम आलोचना होती है।
स्वभावदर्शन में परम आलोचना- यह आलोचना का पात्र ज्ञानी पुरुष अपने आपको दोषरहित अनुभव कर रहा है कि मुझमें किसी प्रकार का दोष नहीं है। यह दृष्टि स्वभाव की रख करके कही जा रही है। स्वभाव को निरखें तो स्वभाव में कोई दोष नहीं है। प्रत्येक पदार्थ स्वभावदृष्टि से शुद्ध हुआ करता है। स्वभाव ही अशुद्ध हो जाए तो फिर वह कभी शुद्ध हो ही नहीं सकता है। स्वभाव नहीं बिगड़ता है। पर की उपाधि के संपर्क में कुछ बाह्यवृत्ति बिगड़ जाती है। यों कर्म और नोकर्म से रहित आत्मस्वभाव को निरखने वाला ज्ञानी पुरुष परम आलोचना कर रहा है। व्यवहार की आलोचना गुरु से की जाती है और निश्चय से आलोचना अपने आपके स्वभाव के दर्शन में पूर्णरूप से बन जाती है। यह जिस दृष्टि में कहा जा रहा है, उस दृष्टि की परख बिना ये सब बातें अटपटी मालूम होंगी। क्या मुझमें कर्म नहीं हैं? क्या मुझमें विभाव नहीं है? अरे ! यह समस्त परपदार्थों की अपेक्षा छोड़कर निर्विकल्प आत्मा की जो सत्ता है, सत्ता को मुख्य करने वाला जो निश्चय द्रव्यार्थिकनय है, उसकी अपेक्षा से यह बात जानी जाती है।
निर्दोष अंतस्तत्त्व के दर्शन से दोषनिराकरण- यह मैं आत्मा इन कर्मों और नोकर्मों से रहित आनंदमग्न हूं, मेरे स्वरूप में दूसरे पदार्थ का स्वरूप नहीं घुसा है, मैं केवल अपने असाधारण चैतन्यस्वरूपमात्र हूं- इस तरह ये समस्त कर्म और शरीर से मुक्त अमूर्त ज्ञानप्रकाशमात्र अपने को निरखना परम आलोचना कहलाती है। यह अधिकार परम आलोचना का चल रहा है। अपने दोषों की कड़ी की आलोचना करना, जिसमें ये दोष फिर ठहर न सकें, इन दोषों को पूरा दंड देना, इसका नाम है परम आलोचना। दोषों का दंड दोषों से रहित अपने आपको निरखने में स्वमेव हो जाता है। ये दोष न रहें- ऐसा बनाना, यही तो दोषों का उत्कृष्ट दंड है। इस परम आलोचना में सर्वदोषों से रहित आत्मतत्त्व को निरखा जा रहा है। यों परपदार्थरूप कर्म और नोकर्म से रहित आत्मा को निरखता है। आत्मा में ही होने वाले विरूद्ध परभाव व विभावरूप परिणमन से भी भिन्न अपने आपको निरखने का उद्यम ज्ञानी करता है।
आलोचना के पुरूषार्थ में कार्यसमयसार व कारणसमयसार का ध्यान- जो पुरूष शरीर से रहित, कर्म से रहित और विभावगुणपर्याय से रहित आत्मा को ध्याता है, उस साधु के आलोचना प्रकट होती है। ध्यान से सुनने की बात है। इसमें ऐसे आत्मा का ध्यान किया गया है, जो शरीर से रहित है, कर्मों से रहित है, विभावगुणपर्यायों से रहित है- इन तीन विशेषणों में से दो जगह दृष्टि जाती है। सिद्धभगवान भी शरीर से रहित हैं, कर्मों से रहित हैं और विभावगुणपर्यायों से रहित हैं और अपने आपमें अनंत विराजमान् जो चैतन्यस्वभाव है, वह स्वभाव भी ऐसा है कि शरीर से रहित है, कर्मों से रहित है और गुणपर्यायों से रहित है। ऐसे इस आत्मा का ध्यान करना, इसमें श्रमण के आलोचना होती है। इसमें भी विश्लेषण करके देखो तो परपदार्थरूप जो शुद्ध सिद्धात्मा हैं, उनके ध्यान में जो आलोचना होती है, उससे भी अभेदरूप आलोचना निज चैतन्यस्वभाव के ध्यान से होती है।
विभावगुणपर्याय की व्याख्या व ज्ञानगुण पर उसका उदाहरण- भैया ! विभावगुणपर्याय क्या है? इसके संबंध में इसका विवरण देखिये। विभावगुणपर्याय में तीन शब्द है- विभाव, गुण और पर्याय। विभाव का अर्थ है, जो स्वभाव नहीं है, किंतु किसी परोपाधिका निमित्त पाकर परिणमन हुआ है, उस परिणमन का नाम विभाव है। गुण नाम है पदार्थ की अनादि अनंत शक्ति का। उस गुण की जो पर्याय है, उसका नाम गुणपर्याय है। जो गुणपर्याय विभाव है, उसका नाम विभावगुणपर्याय है। आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनंद, श्रद्धा, चारित्र आदिक अनेक गुण हैं। उन गुणों का जो निरुपाधि परिणमन है, वह तो है स्वभावगुणपर्याय और उपाधि निमित्त को पाकर उन गुणों का जो परिणमन है, उसका नाम है विभावगुणपर्याय। जैसे ज्ञानगुण के विभावपरिणमन हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान- ये 7 विभावगुणपर्याय हैं और केवलज्ञान स्वभावगुणपर्याय है। इसमें अंतर इतना है कि मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्याय- ये चार तो हैं सम्यक्विभावगुणपर्याय, क्योंकि ये सम्यग्दृष्टि के होते हैं और कुमति, कुश्रुत, कुअवधि- ये हैं मिथ्याविभावगुणपर्याय, पर हैं तीनों विभावगुणपर्याय। क्योंकि मति, श्रुत के होने में भी कर्मों का क्षयोपशम निमित्त पड़ता है, उसमें देशघाती स्पर्द्धक का उदय है। जिसमें कर्मों के उदय का निमित्त पड़े, वह सब विभाव है। क्षयोपशमिक भाव में देशघाती स्पर्द्धक का उदय निमित्त होता है। जिसमें किसी भी प्रकार का रंच भी उदय निमित्त हो, वे सब विभावपर्यायें हैं।
दर्शन, श्रद्धा व चारित्रगुण पर विभावपर्यायों का उदाहरण- दर्शनगुण में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन- ये तीन विभावगुणपर्यायें हैं और केवलदर्शन स्वभावगुणपर्याय है। श्रद्धागुण का मिथ्यात्व, सासादन, सम्यक्मिथ्यात्व- ये विभावगुणपर्याय हैं और औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व- इनमें दो तो स्वभावगुणपर्याय हैं, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी स्वभावगुणपर्याय हैं, किंतु वहाँ जो एक सम्यक्प्रकृति का उदय रहता है, जिससे चल, मलिन, अगाढ़ दोष होते हैं- ऐसा वेदक सम्यक्त्व सम्यक्विभावगुणपर्याय है। औपशमिक सम्यक्त्व भी कर्म के अभाव में नहीं है, कर्मों के उपशम में है, वह मिट जाता है, किंतु सम्यक् है, सो सम्यक् विभावगुणपर्याय है। इसी प्रकार अन्य गुणों में भी ले लो। जैसे चारित्रगुण में स्वभावगुणपर्याय तो अकषाय है, जो 26वें नंबर पर कषायमार्गणा में आप लोगों ने पढ़ा है। कषायमार्गणा में और 25 जो कषाय है, ये चारित्रगुण के विभावगुणपर्याय हैं। यह ध्येयभूत आत्मा विभावगुणपर्यायों से रहित है।
परमतत्त्व का विभावव्यन्जनपर्याय से रहितपना- इस गाथा में विभावगुणपर्यायों से रहित है- ऐसा शब्द दिया है, पर जो विभावगुणपर्यायों से रहित है, वह विभावव्यन्जनपर्याय से भी रहित हो जाता है व होता है। ऐसी दृष्टि रखकर यह भी चौथा विशेषण समझना कि विभावव्यन्जनपर्याय से रहित आत्मा के ध्यान में आलोचना होती है। व्यन्जनपर्याय का अर्थ है जिस पर्याय का आकार से संबंध रहे। जैसे नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव- ये जो चार गतियाँ हैं, इन चार गतियों में शरीर को जो ढाँचा है, जिसे निरखकर हम यह जानते हैं कि यह मनुष्य है, यह मनुष्य है, यह तिर्यंच है इत्यादि, वह व्यन्जनपर्याय कहलाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ- ये विभावगुणपर्याय हैं और मनुष्य, पशु, पक्षी- ये सब विभावव्यन्जनपर्याय है। यहाँ दो शब्दों पर ध्यान दो-गुण और व्यन्जन। क्रोध, मान आदिक के आकार नहीं होता। क्या किसी का क्रोध तीखा या चौखूटा आदि होता है? क्या किसी के मान, माया, लोभ आदि गोल-मटोल होते हैं अथवा लंबे-चौड़े होते हैं? नहीं। गुणपर्याय में कोई आकार नहीं होता है, विभावव्यन्जनपर्याय में आकार होता है। यह पशु इतना लंबा है, इतना चौड़ा है; यह पक्षी इतना लंबा है, इतना ऊँचा है- इस तरह ऐसे व्यन्जनपर्याय में आकार होता है।
स्वभावव्यन्जनपर्याय- सिद्धभगवान के व्यन्जनपर्याय को स्वभावव्यन्जनपर्याय कहते हैं। उनके शरीर के आलंबन से आकार नहीं निरखा जाता है, किंतु जिस शरीर से वे मोक्ष गये हैं, उस शरीर प्रमाण ही अब वे रह गये हैं। न उससे हीन हैं, न उससे अधिक हैं। इसका कारण यह है कि जो मुनि जितने लंबे चौड़े शरीर को छोड़कर मुक्त होता है तो जीव जो अपना लंबा-चौड़ा आकार बनाता था, वह कर्मों के उदय से बनाता था, अब मुक्त होने पर कर्म तो रहे नहीं। तो जो भी आकार उसका आखिरी समय में था, वह आकार अब बतावो कैसे घटे या बढ़े। घटने का कारण भी कुछ नहीं है और बढ़ने का कारण भी कुछ नहीं है। जीव के आकार में घटने और बढ़ने का कारण कर्मों का उदय था, अब वह रहा नहीं। इस कारण जिस शरीर से मोक्ष गए हैं, उस शरीर प्रमाण उनका आत्मा रहता है। तो उस आकार में जो शुद्ध अमूर्त जीवद्रव्य का फैलाव है, वह है स्वभावव्यन्जनपर्याय और यह संसारावस्था में जो जीव का फैलाव है, वह है विभावव्यन्जनपर्याय।
परम आलोचना में शुद्ध शक्ति का आश्रय- जो पुरुष विभावव्यन्जनपर्याय से रहित परमात्मतत्त्व का ध्यान करता है, उस श्रमण के आलोचना होती है। स्वभावव्यन्जनपर्याय में भी जो चैतन्यस्वरूप का ध्यान करता है, उसके भी निश्चयालोचना होती है, पर अभेद निश्चयालोचना , परमालोचना तो जीव के आकार-प्रकार पर दृष्टि न देकर केवल एक शुद्ध शक्ति पर दृष्टि हो तो विशुद्ध परम आलोचना होती है।
गुण और पर्याय का दिग्दर्शन- गुण और पर्याय क्या हैं? इसे भी देखिए। कोई पदार्थ है, वह पदार्थ किसी स्वभाव को लिये हुए अवश्य है, क्योंकि पदार्थ में कुछ भी स्वभाव न हो तो वह पदार्थ क्या? पदार्थ का जो स्वभाव है, उसको यथार्थरूप में प्रतिपादन करने का कोई साधन नहीं है कि किसी को बता सकें कि पदार्थ का यह स्वभाव है। तब उस पदार्थ के स्वभाव को हम जिन-जिन परिणमनों में निरखते हैं, उन-उन कार्यों को बता-बताकर पदार्थस्वभाव के शक्तियों के रूप में जो हम भेद कर डालते हैं, उसे गुण कहते हैं। जैसे आत्मा में ज्ञानशक्ति है, दर्शनशक्ति है, आनंदशक्ति है- ऐसे ही अनेक शक्तियाँ बताना, यह एक अखंडस्वभाव को भेद करके बताने की बात है। तब जैसे स्वभाव पदार्थ के साथ शाश्वत रहता है, एक साथ रहता है, इसी प्रकार ये समस्त गुण ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिक समस्त शक्तियाँ इस जीव में एक साथ रहती हैं। गुण तो सदा एक साथ रहता है, किंतु पर्याय क्रम में रहती हैं। जैसे हम आप सबमें चारित्रगुण है तो चारित्रगुण की पर्याय क्रोध, माया, लोभ आदि अनेक हैं और कषायरहित भी चारित्रगुण की पर्याय है, किंतु प्रत्येक जीव में एक समय में कोई एक बात होगी। क्रोध है तो मान, माया, लोभ आदि नहीं हैं, मान है तो क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं हैं, तभी तो क्रोधी पुरुष को कषायस्थान बताना है तो उसके सभी क्रोधों को बता देंगे, पर मान, माया और लोभ को नहीं बता सकते। पर्यायें सब क्रम से हुआ करती हैं।
गुणपर्याय की अवश्यंभाविता- इन समस्त गुणपर्यायों से भिन्न, किंतु स्वभावगुणपर्यायों से सहित त्रिकाल निरावरण निरन्जन परमात्मा का जो ध्यान करता है, उस श्रमण के निरंतर परम आलोचना चलती रहती है। यहाँ बताया गया है गुणपर्याय का विवरण। इसमें इतना और जानों कि जब विभावगुणपर्याय नहीं होता है, तब पदार्थ में स्वभावगुणपर्याय अवश्य है। कुछ भी विभावगुणपर्याय न हो, तब पदार्थ में स्वभावगुणपर्याय अवश्य है। कुछ भी गुणपर्याय न हो तो पदार्थ रह नहीं सकता। उल्टा परिणमे या सही परिणमे, कुछ न कुछ परिणमता रहे, तब तो पदार्थ है और कुछ भी परिणमन न हो तो वह पदार्थ नहीं है। तो जब विभावगुणपर्याय को न देखा या जिस पदार्थ में विभावगुणपर्याय नहीं है तो उसमें कैसा गुणपर्याय होता है, यह देखने चलें तो वहाँ स्वभावगुणपर्याय दृष्ट होती है।
स्वभावगुणपर्याय का अवलोकन- अब इस स्वभावगुणपर्याय को दो जगह देखो। सिद्ध में कैसा स्वभावगुणपर्याय है और हम आप सब जीवों में सहजस्वरूप का अवलोकन करें तो वहाँ कैसा स्वभावगुणपर्याय होता है? तो हम आप सबके इस सहजस्वरूप में, ज्ञानगुण में जो शुद्ध अर्थपरिणमन हो रहा है, षड्गुणहानिवृद्धि के कारण जो वहाँ अर्थपरिणमन हो रहा है, वह स्वभावगुणपर्याय है। सिद्ध के यह दोनों प्रकार का स्वभावगुणपर्याय चल रहा है- षड्गुणहानिवृद्धि के कारण होने वाले परिणमन और समस्त विश्व को एक साथ स्पष्ट जानने का परिणमन। वहाँ स्वभावगुणपर्याय से संयुक्त आत्मा को देखें तो भी आलोचना है और यहाँ स्वरूप में स्वभावगुणपर्याय से संयुक्त आत्मतत्त्व को देखें तो वहाँ भी आलोचना चलती है।
त्रिकाल निरावरण निरन्जन परमतत्त्व- यह मेरा परमात्मा त्रिकाल निरावरण है। जिस पर आवरण है, उसको नहीं निरखना है। आवरण होते हुए भी अंतर में जो स्वरूपसत्त्व के कारण स्वभाव पड़ा हुआ है, उसे देखना है। तो यह त्रिकाल निरावरण है अर्थात् मेरे स्वरूप पर आवरण तक नहीं अर्थात् स्वभाव बदल न सका, वही का वही रहा। वह स्वभाव व्यक्तरूप से शुद्ध परिणमन न कर सका, यह बात जरूर है, किंतु अभी तक यह नहीं कहा जा रहा है। स्वभाव तो स्वभावरूप में निरंतर रहता है, यह कुछ अन्य नहीं बन जाता, यह बताया जा रहा है। सहज तत्त्व त्रिकाल निरावरण है अर्थात् आत्मा की यह शक्ति अबाधित बनी रहती है।
स्वभाव की शुद्धता- जैसे भगोनिया में पानी में रंग घोल दिया, रंग घोलने के बाद भी यद्यपि वह सारा पानी रंगीला हो गया है, लेकिन वहाँ पर तत्त्व दोनों मौजूद हैं। जो पुड़िया में सूखा रंग था, आधा तोला वह डाल दिया गया है ना पानी में। उस आधा तोला रंग के परमाणु पानी का आश्रय पाकर बहुत बिखरकर उस आकार में फैल गये हैं, फिर भी रंग उन-उन रंग के परमाणुवों में ही है, पानी में नहीं है और पानी में केवल वह पानी ही है। उसमें रंग डाल देने पर भी पानी का स्वभाव नहीं बदला, पानी का स्वभाव नहीं ढका। यद्यपि पानी का वह उज्ज्वलस्वभाव इस समय प्रकट नहीं है, न हो प्रकट, फिर भी पानी में पानी का स्वभाव तो प्रकाशमान् ही है। ऐसे ही इस ज्ञान के साथ राग-द्वेष, विषय-कषायों का रंग फैल गया है, फैल जाने दो, फिर भी विषय-कषाय इस आत्मा के ज्ञानस्वभाव में नहीं प्रवेश कर गये हैं। यद्यपि उन विषय-कषायों के प्रसार के कारण आत्मा का ज्ञानस्वभाव व्यक्त नहीं हो पा रहा है, न होने दो व्यक्त, फिर भी इस आत्मा में अंत:प्रकाशमान् यह चैतन्यस्वभाव बराबर है। ऐसा यह स्वभाव, ऐसा यह कारणसमयसार त्रिकाल निरावरण है और त्रिकाल निरन्जन है। आवरण और अन्जन- ये दोनों परमतत्त्व हैं। आवरण से यहाँ अर्थ लेना कर्मों का। इस पर कर्मों का आवरण नहीं है। अन्जन से अर्थ लेना विषय-कषायों का। इस स्वभाव में विषय-कषायों का प्रवेश नहीं है। इस प्रकार त्रिकाल निरावरण और निरन्जन यह परमात्मतत्त्व है।
निज में परमात्मतत्त्व का दर्शन- भैया ! कहाँ खोजते हो इस परमात्मतत्त्व को जगह-जगह अन्यत्र? उसका दर्शन अपने आत्मा में मिलेगा। मूर्ति में मंदिर के समक्ष जो हम परमात्मा की भक्ति करते हैं, वह एक आलंबन है। यह बाह्य में स्थित मूर्ति ही स्वयं परमात्मतत्त्व नहीं है, किंतु हम अपनी असक्त परिस्थिति में मंदिर की मूर्ति का सहारा लेकर प्रथम तो हम उस स्वभावशुद्धपरिणमनरूप अरहंत सिद्ध परमात्मा का ध्यान करते हैं और फिर अरहंत सिद्ध परमात्मा का ध्यान करते हुए उनके विकास को सूक्ष्मदृष्टि से देखते हैं तो विकास और स्वभाव चूँकि वहाँ एकरूप हैं, इस कारण वह विकास की दृष्टि ओझल होकर केवल स्वभाव में उपयुक्त हो जाती है। और जैसे ही परमात्मप्रभु के स्वभाव में दृष्टि गयी कि तुरंत ही वहां पर व्यक्ति भेद न रहकर अपने ही स्वभाव में यह बुद्धि लग जाती है। यों अपने में बसे हुए इस परमात्मतत्त्व की उपासना के लिए हम व्यवहार में मंदिर-मूर्ति इन सबकी उपासना करते हैं।
परमात्मतत्त्व के दर्शन का अमोघ साधन परमसमाधि- यह परमात्मतत्त्व त्रिकाल निरावरण और निरन्जन है। इसका ध्यान परमसमाधि के द्वारा हो सकता है। हमारा उपयोग जब परपदार्थों के विकल्प से रहित हो, एक निर्विकल्प परमविश्राम को प्राप्त किए हुए हो तो वहां समता का भाव प्रकट होता है। उस समताभाव से इस कारणपरमात्मतत्त्व का ध्यान बनता है। यह समताभाव , मन, वचन, काय- इन तीन क्रियावों के गोपने से होता है। यों तीन गुप्तियों में गुप्त किए हुए परमसमाधि के द्वारा जो परमश्रमण परमात्मतत्त्व का ध्यान करता है, उस भावमुनि के निरंतर परम आलोचना होती रहती है। जिस समय इस परमसमाधि के द्वारा इस त्रिकाल निरावरण निरन्जन चैतन्यस्वरूप का ध्यान होता है, उस काल में सब वचनरचना खत्म हो जाती है। व्यवहार में गुरु के सम्मुख विनयपूर्वक बैठकर अपने अपराध की आलोचना तो वचनों से की जा सकती है, किंतु परम आलोचना जो कि समाधिभाव के द्वारा निज परमात्मतत्त्व के ध्यान में होती हैं, उस आलोचना में वचनरचना काम नहीं देती है, बल्कि जब तक वचनरचना चलती है, तब तक परम आलोचना नहीं होती है। यों इस भाव श्रमण के सतत परम आलोचना होती है।
दोषदूरीकरण के लिए आलोचना की प्रधान आवश्यकता- आलोचना नाम है अपने वर्तमान दोषों को दूर करना। मनुष्यों में यह कमजोरी रहती है कि उनसे कोई दोष बन जाए तो वे अपने दोषों को जाहिर नहीं कर सकते। उन्हें यह भय है कि मैं अपने दोष दुनिया में जाहिर कर दूं तो मेरी इज्जत खत्म हो जाएगी, फिर इस लोक में मेरा जीना न बन सकेगा, सो वे दोषों को छुपाया करते हैं। इस लोक में जो श्रमण, जो ज्ञानी पुरुष अपने दोषों को दुनिया में प्रकट कर देते हैं, उनके धैर्य और साहस का अनुमान आप कर सकते हैं कि उनमें कितना ज्ञान है और कितनी विरक्ति है? दोषों को जाहिर करने से वे किए हुए दोष बहुत अंशों में तो जाहिर करने से ही समाप्त हो जाते हैं और फिर थोड़ा बहुत संस्कार रहता है तो उसका प्रायश्चित्त करने से वह समाप्त होता है, किंतु दोषों को छुपाते रहने से दोष निकल नहीं सकते, दोष बढ़ते रहेंगे। आलोचना में अपने दोषों को प्रकट किया जाता है।
व्यवहार आलोचना और परमार्थ आलोचना- गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना व्यवहार आलोचना है, इससे दोष दूर किए जाते हैं और जो ज्ञानी श्रमण एक शुद्ध स्वभाव पर दृष्टि देकर अभेद उपासना में मग्न हो जाता है, उससे ये दोष तो स्वयं विदा हो जाते हैं। जिस समय ये सब दोष सहज ही विदा हो जाते हैं, उस समय उसके परम आलोचना कही गई है। ऐसे इस परम आलोचना के अधिकार में इस प्रथम गाथा में यह बताया गया है कि जो श्रमण शरीर और कर्मों से रहित, विभावगुणपर्याय और विभावव्यन्जनपर्याय से रहित आत्मा का ध्यान करता है, उस श्रमण के परम आलोचना होती है।
ज्ञानी की निजतत्त्व में रुचि- ज्ञानी पुरुष अपने आपमें चिंतन कर रहा है कि जितने भी ये भावकर्म हो रहे हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयकषाय जो प्रवर्त रहे हैं, ये सब मोह के विलास से उठकर उदित हो रहे हैं। यह सब मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे उन समस्त भावकर्मों की आलोचना करके यह ज्ञानी पुरुष अपने में शिवसंकल्प करता है कि मैं अब इससे हटकर चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा के द्वारा नित्य ही बर्तता हूं। जो अपनी चीज है, उससे प्रेम करना चाहिए। पर की वस्तु से क्या प्रेम करना?
अभिमत निज में रुचि का लोकदृष्टांत- जैसे लोक में मोही पुरुषों ने जिन्हें अपना नहीं माना, गैर माना, उनसे नेह नहीं मानते, किंतु परिजनों में जिनमें अपनी कल्पना कर रक्खी है, उनसे स्नेह करते हैं। वही पुरुष कुछ प्रसंगवश इन परिजनों से भी हटता है। कोई परिवार का सदस्य कषाय के अनुकूल न रहे, उनमें मन न रहे तो वह परिजनों से हटता है, उन्हें गैर मानता है और अपने शरीर को अपनी चीज मानता है, तक वह कुटुंब से हटकर अपने शरीर में लगता है।
धर्मक्षेत्र के प्रसंग में रुचि का विषय- भैया ! कभी सत्संग हुआ, कुछ ज्ञानी की वार्ता सुनी तो कुछ बोध हुआ कि शरीर भी मिट जाने वाला है। यह मैं नहीं हूं, यह पर चीज है। जब शरीर को भी पर जानने लगा मोटेरूप से तो शरीर से भी हट गया और व्रत, उपवास, कार्यक्लेशों को अपना समझने लगा। अब अपने को व्रत करना, कल्याण का काम करना- इस ओर धुन लग गई है। अब उसे नाम निक्षेपत: समझ लीजिए और आत्मकल्याण की धुन लग गई है। अब आत्मकल्याण की इच्छा से संगति ज्ञानाभ्यास अनेक कार्यों को करते हुए जब यह ध्यान में आता है कि अहो, ये राग, द्वेष, वितर्क, विचार मोहनीय कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं, यह मैं नहीं हूं, मैं तो एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हूं, जब यह प्रतिबोध होता है तो उन रागादिक विभावों से हटकर एक चैतन्यस्वरूप अपने आत्मा में वर्तने की धुन बनाता है। एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश तो निष्कर्म तत्त्व है, इसमें क्रियाचेष्टा नहीं है और न किसी प्रकार का दोष है। इसके अतिरिक्त जितने भी विषयकषायों के परिणाम हैं, इनमें कर्म बसे हुए हैं। उन सब कर्मों से हटकर मैं इस निष्कर्म चैतन्यस्वरूप में बर्तता हूं। यह निश्चय आलोचना की बात कही गई है, अब व्यवहारचारित्रविषयक एक प्रक्रिया को देखिये।
व्यवहार आलोचना के अवसर- यह जीव आत्मशुद्धि के लिए अपने जीवनभर व्रत, तप, संयम की खूब साधना करता है और उन साधनावों में जब जैसा जो कुछ करना चाहिए आगम के अनुकूल, वे सब साधन किए जाते हैं। जब अंतिम समय होता है, मरण सन्निकट होता है, उस समय यह जीव क्या करता है? निष्कपट होकर अपने जीवनभर जो भी इससे बना है पाप का कार्य या दोष, चाहे वह खुद किया हो, चाहे कराया हो, चाहे समर्थित किया हो याने उसका समर्थन किया हो, उन समस्त पापों की यह आलोचना करता है। इस जीव ने जीवन में रोज-रोज आलोचना की है और प्रत्येक पक्ष की समाप्ति के दिन आलोचना की और चार-चार मास गुजरने के बाद भी आलोचना की, पूरा वर्ष गुजरने के बाद पूरे वर्षभर की आलोचना की। कितने ही बार जब भी दोष किया, तब रोज-रोज आलोचना की। 15 दिन तक जो दोष हुए, उनकी पुन: आलोचना की, फिर चार महीने में एक साथ उन सबकी आलोचना की, फिर वर्षभर के दोषों की आलोचना की। एक ही दोष को वह चार बार बता चुका, लेकिन अब मरणकाल आया है तो जन्म से लेकर उस समय तक के जितने भी दोष हैं, उन सबकी फिर से आलोचना करता है।
ज्ञानी का स्वच्छ हृदय- ज्ञानी पुरुष कैसा स्वच्छ हृदय का होता है कि उसे उस लौकिक यश, अपयश की परवाह नहीं है। कोई क्या कहेगा कि उसे इसकी चिंता नहीं है, किंतु स्वयं में अपना कल्याणमार्ग सही बने, इसी की परवाह है। ऐसे पुरुष मरणकाल में समस्त जीवन के दोषों की आलोचना करके फिर अंत तक के लिए महाव्रत को धारण करते हैं अर्थात् सर्वपरिग्रहों का, पाप का परित्याग करते हैं।
स्वदोष आलोचना का महत्त्व- जो पुरुष अपने दोषों की आलोचना ही नहीं करते, उनके दोष कैसे छूटेंगे? कितने ही व्यामोही जीव तो ऐसे विपरीत होते हैं कि वे दोषों में ही चतुराई मानते हैं, दोषों को दोष भी नहीं समझते हैं, जबकि बड़े ज्ञानी, विवेकी सकलसंयमी साधुजन अपनी व्रत-तपस्यावों में की जाने वाली चेष्टावों को पर मानते हैं। लोग लालायित होकर व्रत करते हैं, तप करते हैं, जाप करते हैं, सामायिक करते हैं, स्वाध्याय भी करते हैं, किंतु साधु पुरुष उन क्रियावों को करते हुए यह जानता है कि यह भी एक अपराध है, यह आत्मा का गुण नहीं है, किंतु बड़े अपराध से बचने के लिए छोटा अपराध भी कुछ मंजूर कर लिया जाता है। जैसे हजार रुपये का दंड हुआ हो और किसी तरह से दस रुपये ही दंड के रह जायें तो वह 10) दंड के खुश होकर दे रहा है, पर भीतर में यह श्रद्धा है कि यह भी दंड है, यह भी न देना पड़ता तो भला था। ऐसे ही यह व्रती, ज्ञानी, साधु पुरूष समितिपूर्वक चलना, समितिसहित आहार लेना, समिति से बोलना, जीवों पर दया करना, संयम से रहना, शुद्ध आचरण रखना, आरंभ परिग्रह न करना- इन सब बातों को कर रहा है, पर यह सब कुछ करते हुए भी यह जानता है कि यह भी अपराध है। मेरा कार्य तो सर्वथा शुद्ध निर्विवाद वह है, जो सिद्धप्रभु किया करते हैं। जो सिद्धभगवान् नहीं कर रहे हैं, वह सब यदि कर रहा हूं तो अपराध है। कोई बड़ा अपराध होता है, कोई बड़े अपराध को मेटने की गरज से छोटे अपराध होते हैं। तो दोषों को दोष समझ लेना- यह भी धर्मपालन है।
परमार्थ कला- भैया ! अपने में गर्व न आने दो। मैं बहुत कलाएँ समझता हूं, धन भी अच्छा कमाता हूं, व्यवहार भी मैं इतना बढ़िया करता हूं, जो सबसे नहीं बन सकता है इत्यादि किसी भी प्रकार की चतुराई का गर्व न आना चाहिये, क्योंकि इस लोक में जितनी भी चतुराई हैं, वे सब दोष हैं, अपराध हैं, ये वास्तव में कलाएँ नहीं हैं। वास्तविक कला अरहंत और सिद्धप्रभु में जागृत हुई है। सारा विश्व जिसके ज्ञान में आ रहा है, किंतु रागद्वेष रंच भी न हो, वह है वास्तविक कला। जो कला शुद्ध आनंद को प्रकट करे, वह तो है ठीक कला और जो किसी प्रकार का अंधकार बनाए, दोष बनाए, भ्रम में डाले, संसार में रुलाये, वह कला ही कला नहीं है। अपने इस निष्कर्म चैतन्यस्वरूप की दृष्टि करना, यही एक परमार्थभूत हितकारी कला है।
ज्ञानी का साहस और प्रक्रम- अज्ञानी पुरुष अपने दोषों को एक बार भी मुख से नहीं प्रकट करना चाहते, किंतु यह ज्ञानी बार-बार उन दोषों की आलोचना करता है। अज्ञानी जन जिन्हें पुण्य का कारण मानते हैं, ज्ञानी उन्हें संसार विषवृक्ष का कारण मानता है और जिन्हें लोग पाप कहते हैं, वे तो संसार विषवृक्ष का कारण हैं हीं। ऐसे इस घोर संसार के जड़रूप जो पुण्य और पाप के कार्य हैं, उन सब कार्यों को आलोचित कर करके यह मैं स्वाभाविक शाश्वत शुद्ध आत्मा को अपने आत्मा के द्वारा ही आलंबता हूं- ऐसी भावना यह ज्ञानी पुरुष कर रहा है।
मोह, माया और विवेक- भैया ! एक इस निजतत्त्व से हटे कि सर्वत्र अंधकार ही अंधकार है। जैसे स्वप्न में देखी हुई बात स्वप्न में सच मालूम होती है, यों ही मोह-कल्पना में की गई बात सब सच मालूम होती है। किंतु जैसे जिसकी नींद खुल गयी है, वह स्वप्न में देखी हुई बात को झूठ समझ बैठता है- ऐसे ही जिसने निज ज्ञानस्वरूप का प्रकाश पाया है, जिसके नेत्र खुल गए हैं, जब ज्ञान ज्ञान को जानने लगा है, उस समय यह ज्ञानी जानता है कि ओह, सारी प्रवृत्तियाँ, ये समस्त संबंध झूठे हैं और मायारूप हैं।
यथार्थ आराम का उपाय- भैया ! लोग चाहते हैं कि मुझे आराम मिले, पर आराम वास्तव में है कहाँ? आराम धनसन्चय से नहीं मिलता, आराम लौकिक-संपदा की व्यवस्था में नहीं मिलता, आराम अपने इष्टजनों से प्रेमपूर्ण वार्तायें करने से नहीं मिलता, आराम इंद्रिय के विषयों की साधना करने से, इंद्रिय-विषयों को पोषने से नहीं मिलता। मिलता हो तो अनुमान कर लो। आराम तो अपने शुद्ध स्वभाव के दर्शन में मिलता है। आराम में बाधा डालने वाले राग और द्वेष हैं। ये रागद्वेष न रहें तो आराम सामने है। जब तक राग और द्वेष की वृत्ति उठ रही है, तब तक आराम नहीं है। मान लो हजारों का धन सन्चय कर लिया है और उसे कुछ आराम मान लिया है, पर थोड़ी ही देर बाद किसी विपदा में पड़ गए तो कहाँ रहा आराम? सांसारिक सुख में तो सारे दु:ख ही दु:ख भरे हुए हैं। किसमें मौज मानी जाए? आराम तो वास्तव में एक शुद्धस्वरूप के ज्ञान करने में है, किंतु मोही जीव आराम के खातिर परपदार्थों के सन्चय के लिए तन, मन, धन, वचन सब कुछ समर्पण कर देते हैं, किंतु जो एक सही मार्ग है, सही निधि है, उस ज्ञानदृष्टि के लिए आलसी बना हुआ है, कंजूस बना हुआ है, ज्ञानवृत्ति बनाने का साहस भी नहीं लाता है, उस ओर दृष्टि भी नहीं करता है।
ज्ञानी का आलंबन और विलास- यह ज्ञानी पुरुष इन दोषों की आलोचना कर-करके अपने आत्मा का अवलंबन लेता है। इस परम आलोचना के प्रसाद से द्रव्यकर्मरूप सारी प्रकृतियों का अत्यंत विनाश हुआ है। ये प्रकृतियाँ संक्षेप में 148 प्रकार की हैं। उन समस्त कर्मप्रकृतियों को नष्ट कर दिया है और इसके प्रसाद से अनुपम ज्ञानलक्ष्मी को प्राप्त करता है, जो सहज विलास कर रही है। सारे विश्व को सुगमतया निरंतर जान रहा है- ऐसे ज्ञान को प्राप्त करता है।
आत्मदया का अनुरोध- निज में और पर में, निज की ओर के झुकाव में और पर की ओर के झुकाव में मूलस्थान में जरा सा अंतर है। उपयोग भीतर की ओर न रहा तो इस भीतर से कुछ बाहर की ओर चला गया, किंतु फिर इस बाह्य उपयोग की दौड़ इतनी तेज हो जाती है शीघ्र ही कि जिसके फल में सब विडंबनाएँ बन जाती हैं। अपने आप पर परमार्थ दया कीजिए। यह कुटुंब ही सब कुछ नहीं है। सब कुछ क्या? ये दूसरे कुछ भी नहीं हैं, ये परिजन, ये धन-संपदा कुछ भी नहीं है। शांति का जिस किसी प्रकार उदय हो सकता हो, वह तो तेरा सत्पथ है और जिसमें अशांति ही बसी हुई है, वह सब कुमार्ग है। जरा दृष्टि पसार कर भी निहारो, जो आज की दुनिया में प्रसिद्ध लोग हैं। सेठ, अधिकारी, नेता- इनकी ओर दृष्टि देकर देख लो, कहां शांति विराज रही है? इस जीवन में भी जो सर्वस्व मानकर अपनी वृत्ति कर रहे हैं, उनका इस जीवन के बाद फिर कौन सहाय होगा? यदि अपने ज्ञानस्वभाव को लिया जाए तो यह ज्ञानसंस्कार अगले भव में भी सहायक होगा।
आत्मसंस्कार के लाभ का उदाहरणपूर्वक समर्थन- जैसे जो इस भव में उत्पन्न हुआ है, वह बालक कभी कभी बचपन से ही बड़ी कला लिए हुए, चतुराई लिए हुए, थोड़ा भी अध्ययन करे तो बहुत सीख जाए- ऐसा विलास लिए हुए होता है। उस बच्चे ने यह कला कहां से पाई, यह ज्ञानसिद्धि कहां से पाई? बतावो। यह उसके पूर्वजन्म की कमाई है। पूर्वजन्म में ज्ञानसंस्कार पाया, धर्मपालन किया, वह संस्कार आज देखो 2-4 वर्ष के बालक के भी कितनी विशाल एक निधि उत्पन्न कर रहा है? कोई बालक करोड़पति के घर पैदा हो गया, वह भी करोड़पति बन गया। उसने कहां धन कमाया है, कैसे करोड़पति बन गया? अरे, यह सब पूर्वजन्म की करनी का प्रताप है। वहां उदारता की, त्याग किया, दान किया, सम्यग्ज्ञान रखा, उस सबका जो ज्ञानसंस्कार बना, उसका यह प्रताप है। तो यहां की बात देखकर भी यह ध्यान में नहीं लाया जाता कि यदि अच्छे ढंग से, उदारता से, विवेक से अपना जीवन चलाया तो यह आगे भी काम देगा। यह संबंध, यह स्नेह, यह अंधेरा काम न देगा, इस कारण सब कुछ प्रयत्न करके एक इस ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व के दर्शन में, वैराग्य में लगा जाए। विश्वास बनाया जाए कि मेरा यहाँ संसार में कुछ भी नहीं है तो ये विपत्तियाँ फिर कैसे हो सकती हैं।
खोना, कमाना- जो पुरुष ज्ञान और वैराग्य से वासित नहीं हैं, उन्होंने सब कुछ खोया है, कमाया कुछ नहीं है। जिसने चारित्र स्वरक्षित रखा है और धन खोया है, उसने कुछ नहीं खोया, उसने पाया ही सब कुछ है। इस सबका कारण यह है कि जिसने अपना चारित्र खोया है और धनसन्चय बनाया है तो ज्यादा से ज्यादा इस जीवनकाल तक कल्पित मौज मान लिया, मरण होने पर बाद में एकदम साफ न्याय हो जाएगा। उसने सब कुछ खो दिया, जिसने अपने श्रद्धान्, ज्ञान और चारित्र को खोया है। उसने सब कुछ पा लिया, जिसने अपना श्रद्धान्, ज्ञान और चारित्र पाया है।
आलोचना और आलंबन- यह ज्ञानी संत अपने आपके समस्त दोषों की आलोचना करके शिवसंकल्प कर रहा है कि मैं अब इस चैतन्यात्मक शुद्धआत्मा को आत्मदर्शन के द्वारा आलंबन करता हूं। यों इस आलोचना अधिकार में प्रथम गाथा में कहा गया है कि जो साधु नोकर्मों से रहित, कर्मों से रहित, विभावगुणपर्यायों से रहित, विभावव्यन्जनपर्यायों से रहित आत्मतत्त्व का ध्यान करता है, उस श्रमण के आलोचना प्रकट होती है।