वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 110
From जैनकोष
कम्ममहीरुह मूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो।
साहीणो समभावो आलुच्छणमिदि समुद्दिट्ठं ।।110।।
आलुन्छन का स्वरूप- आलोचना के इस प्रकरण में आलोचना के लक्षण चार प्रकार से कहे गए हैं- आलोचन, आलुन्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि। इनमें से आलोचन का तो वर्णन हो चुका है। समभाव में स्थिर होकर अपने को दोष-रहित निरखना और इस ही परमविधि से अपने दोषों का अपने प्रभु से परम आलोचना कर लेना, सो आलोचन है। अब यहाँ आलुंछन का स्वरूप चल रहा है। आलुन्छन कहो या आलुंचन कहो दोनों एकार्थन शब्द हैं। जैसे साधु-संत इस देह के मलरूप केशों को विरक्तभाव से उखाड़कर फैंक देते हैं इस ही प्रकार परम योगीश्वर अपने आपके विकारभावों को, मलिन भावों को विरक्त होकर फैंक देते हैं। इस ही दोषों के उखाड़ देने का नाम है आलुन्छन।
आलुन्छन में परमभाव का अवलंबन- आलुन्छन आत्मा के परिणामों का ही नाम है, जो स्वाधीन है और समता-परिणाम से भरपूर है, कर्मरूप वृक्षों के मूल से उखाड़ देने में समर्थ है। कर्म दो प्रकार के हैं- एक भावकर्म और दूसरा द्रव्यकर्म। जो रागद्वेषादिक परिणाम होते हैं उनका तो नाम भावकर्म है और जो ज्ञानावरणादिक 8 प्रकार के कार्माणवर्गणारूप कर्म हैं उनका नाम द्रव्यकर्म है। जो पुरुष दोनों कर्मों से रहित सर्वविविक्त शुद्ध स्वरूपास्तित्त्वमात्र चैतन्यस्वभाव का अवलोकन करता है उसके दोनों प्रकार के कर्मरूप दोष दूर हो जाते हैं। यही है आलुन्छन। भावकर्म को और द्रव्यकर्म को उखाड़कर फैंक देना, यह आलुन्छन साम्यरस से भरपूर ज्ञायक-स्वरूप के आलंबन से ही बनता है। आलुन्छन के इस लक्षण में परम भाव के स्वरूप की प्रसिद्धि की गई है।
पारिणामिक भाव- जीवों में जो पारिणामिक भाव है वही परमस्वभाव है। प्रत्येक पदार्थ में पारिणामिक भाव होता है अर्थात् वह स्वरूप, वह स्वभाव जो पदार्थ की सत्ता के कारण पदार्थ में सहज शाश्वत रहता है उस स्वभाव का नाम है परम-पारिणामिक भाव। यह अवक्तव्य है, बताया नहीं जा सकता। उस पारिणामिक भाव को बताने का कोई उद्यम करे तो इस उद्यम का अर्थ यह है कि अभेद वस्तु का भेद कर दिया गया है और इस भेद-प्रभेद से फिर वस्तु का स्वभाव बताया जा रहा है। जैसे आत्मा में ज्ञानस्वभाव है, दर्शनस्वभाव है, चारित्रस्वभाव है, आनंदस्वभाव है, कितनी ही शक्तियों को बताते जायें तो प्रश्न यह होगा कि क्या आत्मा में ऐसा भिन्न-भिन्न स्वभाव पड़ा हुआ है? भेद-बुद्धि से तो भिन्न-भिन्न स्वभाव प्रतीत होता है, किंतु परमार्थवस्तु क्रियात्मक है, उसमें जो कुछ है वह एक है, अद्वैत है, अद्वैत स्वभाव है, अद्वैत वह पदार्थ है, अद्वैत ही उसकी प्रति समय में पर्याय है। ऐसे अद्वैतस्वरूप वस्तु का जब प्रतिपादन किया जायगा तो उसके भेद हो जायेंगे। इन्हीं भेदों का नाम है गुण। इन समस्त गुणों का जो अभेद करने वाला एक स्वभाव है उस स्वभाव को पारिणामिक-भाव कहते हैं।
पारिणामिक भाव की निरपेक्षता- जीव में एक पारिणामिक स्वभाव है, जिसको चैतन्यस्वभाव चित्स्वभाव इन शब्दों से कहते हैं। यह स्वभाव न औदयिक है, न औपशमिक है, क्षायिक है और न क्षायोपशमिक है अर्थात् यह मेरा स्वभाव मेरे सत्त्व के कारण अनादि से है। यह स्वभाव कर्मों के उदय से नहीं होता है। स्वभाव कर्मों के उदय से तो हो ही क्या? स्वभाव का जो अपूर्ण विकास है वह भी कर्मों के उदय से नहीं होता। जैसे लोग कहते हैं कि इसके कर्मों का अच्छा उदय है, खूब ज्ञान मिला, पर ज्ञान कर्मों के क्षयोपशम से मिला है, उदय से नहीं मिला है। कर्मों का उदय तो स्वभाव के रोकने का ही कार्य किया करता है, स्वभाव का विकास नहीं होने देता। तो जब स्वभाव का अधूरा विकास भी कर्मों के उदय से नहीं है तो स्वभाव तो उदय से होगा ही क्या? मेरा यह चैतन्यस्वभाव कर्मों के उदय से नहीं है।
परमस्वभाव की सहज सनातन अहेतुकरूपता- जो कुछ मुझमें स्वभाव है वह अपने आप शाश्वत अहेतुक है। अग्नि में गरमी का स्वभाव पड़ा है तो गरमी का स्वभाव किसी वस्तु के संबंध के कारण नहीं है, किंतु अग्नि का स्वरूप ही इस प्रकार है कि वह गरमी के स्वभाव को लिए हुए है। ऐसे ही मुझमें जो भी एक स्वभाव है जिसे कि मुख से नहीं कह सकते और कहेंगे तो उसके टुकड़े करके कहेंगे। जैसे मेरे में ज्ञान का स्वभाव है, आनंद का स्वभाव है, यह सब टुकड़ा करके कहा जायेगा। मुझमें जो अखंड-स्वभाव है वह अवक्तव्य है। वह स्वभाव कर्मों के उपशम से नहीं होता है। पदार्थ में जो स्वभाव है वह उसमें सहज ही हुआ करता है, न किसी पदार्थ के संयोग से, न किसी पदार्थ के वियोग से स्वभाव हुआ करता है। भले ही आत्मा में कर्मों के विलय से केवलज्ञान हो जाय तो कर्मों के क्षय का निमित्त पाकर एक सर्वज्ञता हो गयी, इतने पर भी उस आत्मा में जो ज्ञानस्वभाव है वह ज्ञानस्वभाव कर्मों के विलय से नहीं होता है, क्योंकि यदि कर्मों के विलय से ज्ञानस्वभाव बनने लगे तो इसका अर्थ यह है कि जब तक कर्मों का क्षय नहीं हुआ तब तक इसमें स्वभाव ही नहीं था क्या? जो भी सत् है उस प्रत्येक पदार्थ में स्वभाव सहज है और अनादि से है।
सहज शाश्वत निजतत्त्व- आत्मा में यह चैतन्यस्वभाव अनादि से है, अनंत तक है। यह हम आपके सबके परमार्थ घर की बात चल रही हैं। जो निजी-घर है, वहाँ वास्तविक शरण मिला करती है, जहाँ परमार्थ-आनंद प्राप्त होता है उस निज घर की बात यह है। इस जीव ने कभी भी अपने इस सहज-स्वभाव को निधि-रूप में नहीं माना। बहिर्मुख दृष्टि होने से इन बाहरी जड़-विभूतियों को अपना सर्वस्व माना। यही कारण है कि जो देह पाया, जो संग पाया उसे ही सर्वस्व माना तो संसार में भ्रमण कर रहा है, कहीं विश्राम नहीं मिलता। जो जीव अपने आपमें बसे हुए परम-शरण रक्षक आनंद-स्वरूप स्वभाव को पहिचान लेता है उसने धर्म पाया। जो आंखें खोलकर बाहर में ही कुछ निर्णय किया करते हैं, धर्म के नाम पर विकल्प बनाया करते हैं उन्होंने धर्म का स्वरूप नहीं पाया। जो गुप्त रहकर परम विश्राम-पूर्वक अपने आपमें इस सहज चैतन्यस्वभाव का अनुभव करता हो उसने धर्म का स्वरूप पाया।
धर्मपालन- लोग यह देखकर कुछ हैरान रहते हैं कि अमुक लोग बड़ा धर्म करते हैं, इतने वर्षों से पूजा-पाठ, ध्यान, तिलक सभी कुछ लगाते चले आए हैं, हाथ में माला रहती है, जहाँ चाहे जपते रहते हैं, ये तो बड़े धर्मात्मा मालूम होते हैं, पर हो क्या बात? कि न तो वहाँ धर्म हो और न कोई लौकिक संपदा हो, न खुद संतुष्ट हो और मामूली सी घटनावों में क्रोध उमड़ आता हो तो इसकी वजह क्या है? इतना तो धर्म करते हैं, इतने वर्ष तो धर्म में लगा दिये और फिर भी ज्यों के त्यों अशांत हैं। इसकी क्या वजह है? अरे वजह क्या है, उतने वर्ष धर्म नहीं किया है, केवल अपने मन, वचन और काय का व्यायाम किया है। कोई धर्म करे और संतोष न मिले यह त्रिकाल नहीं हो सकता। धर्म जहाँ से उत्पन्न होता है और जो धर्म है उसका ही स्वरूप विदित नहीं है तो किसके आलंबन से धर्म प्रकट हो। यह बाहरी आलंबन तो एक साधन मात्र है। यह ही सब धर्म नहीं है। इन साधनों का कोई सदुपयोग करे और परमार्थ विधि से अपने धर्म-स्वभाव का आलंबन करे तो धर्म प्रकट होगा। वह धर्म है यही पारिणामिक स्वभाव, चैतन्यस्वभाव। मेरा स्वरूप किस प्रकार का है? कैसा स्वभाव है, कैसा उसका सहज रूपक है? क्या लक्षण है? उस स्वरूप पर दृष्टि जाय तो धर्मपालन हुआ।
पारिणामिक भाव की अविकारस्वरूपता- विशुद्ध निज-स्वरूपदृष्टा पुरुष के अशांति रह नहीं सकती। जिसने समस्त परद्रव्यों से भिन्न केवल ज्ञायकस्वरूपमात्र आत्मतत्त्व का अनुभव किया हो, जो अनुभव कर रहा हो, उसे जब बाह्य विकल्प ही कुछ नहीं रहा, किन्हीं परपदार्थों पर उपयोग ही नहीं रहा तो उसे अशांति कहाँ से प्रकट होगी। यों यह जीव के 5 भावों में से पारिणामिक भाव नामक पंचमभाव है। जो विभाव-स्वभाव के अगोचर है ऐसा यह चैतन्यस्वरूप है, इसके आश्रय में ही वह सामर्थ्य है कि भव-भव के बाँधे हुए द्रव्य-कर्म और रागद्वेष आदिक भावकर्म, ये क्षणमात्र में ध्वस्त हो सकते हैं। इस मेरे स्वभाव में न उदय का विकार है, न उदीरण का, न उपशम का, न क्षय का, न क्षायोपशमिक का।
आत्मा में परिणाम और पारिणामिकता- भैया ! आत्मा में कितने ही प्रकार का संयोग-वियोगरूप विकारभाव भी है, फिर भी यह तो अद्वैत है, अपने स्वरूप सत्त्व के कारण शाश्वत सत् है। यह तो यह ही है। इस ही भाव को लक्ष्य में लेकर कुछ लोगों ने ब्रह्म को सर्वथा अपरिणामी कह दिया है। अरे यह स्वभाव अपरिणामी है, पर स्वभाव स्वभाववान को छोड़कर तो नहीं रहता। इस स्वभावमय जो पदार्थ है आत्मा, यदि उपाधि दशा में इस आत्मा में रागद्वेष आदि परिणमन न हो तो फिर मोक्ष किसे दिलाते हो? जो लोग मानते हैं कि आत्मा तो सर्वथा अपरिणामी है उनके गंतव्य से फिर मोक्ष कुछ नहीं रहा, क्योंकि आत्मा तो अपरिणामी है वह तो सदा शुद्ध है, उसमें तो रागद्वेष ही नहीं है, फिर मोक्ष किसे दिलाते हो? दु:खी कौन है? जो दु:खी हो उसको ही तो मोक्ष दिलाना होगा। आत्मा तो दु:खी है नहीं, शरीर दु:खी है, जड़ दु:खी है। तो जड़-पदार्थों का मोक्ष हुआ, फिर तो चैतन्य का मोक्ष नहीं हुआ, यह भी संगति नहीं बैठती क्योंकि जड़-पदार्थों में दु:ख आ ही नहीं सकता। लक्कड़-काठ जलकर राख हो जाते हैं, इनमें कोई दु:ख की वेदना ही नहीं होती। ये तो पुद्गल हैं। किसी भी अवस्था-रूप बन जायें उनसे क्या हानि है।
अनाकुलस्वभाव की विमुखता में आकुलता- आत्मा एक पदार्थ है, उसका स्वभाव अपरिणामी है, शाश्वत है, निरपेक्ष है, निर्विकार है, किंतु परउपाधि के संबंध में यह आत्मा अपना उपयोग इस निर्विकार निरपेक्ष स्वभाव का नहीं कर सकता है, इसी कारण इसमें रागद्वेष कषायों की तरंगे उठती हैं, इसी से आकुलित है। इस आकुलता को दूर करने के लिए मोक्ष का उपाय बताया गया है। जितने भी धर्म के प्रसंग हैं उनमें धर्म का रूप तब ही पा सकते हैं जब इस धर्म करने वाले की दृष्टि में अपना यह अविकारीस्वभाव नजर में रहे।
आत्मा का वैभव से पार्थक्य- भैया ! मैं सबसे न्यारा चैतन्यस्वभावमात्र हूं, इसकी परीक्षा भी कर लो, धन, वैभव आदि जड़-पदार्थों से तो न्यारे हैं ही। आप लोग मंदिर में बैठे हैं, इस समय न आपके साथ मकान चिपका है, न कुटुंब चिपका है, आप अकेले यहाँ बैठे हैं। ज्यादा से ज्यादा आप इतना कह सकते हैं कि हम शरीर के साथ बैठे हैं। शरीर को छोड़कर और कुछ भी साथ है क्या? घर, घर की जगह खड़ा है, वह पत्थर-मिट्टी का ढेला है, उसका उसमें उसके कारण परिणमन चल रहा है, आप यहाँ विराजे हैं, आज अपनी कल्पना में उसे मानते हो, भव बदल जाय तो जहाँ उत्पत्ति होगी वहां जो मिलेगा उसे अपना मान लोगे। फिर इसकी खबर क्या रहेगी? और जिंदगी में भी कुछ से कुछ विचित्र घटना बन जाय, मकान बिक जाय तो फिर इसे अपना नहीं मान सकते। तो यह आत्मा बाह्य-वैभव से तो प्रकट भिन्न है। अब देह की बात निरखो।
आत्मा का देह से पार्थक्य- भैया ! इतना तो स्पष्ट ध्यान में आता कि मर जाने के बाद यह देह कोरा एक जड़ जैसा है तैसा ही रह गया, जीव निकल गया। वहां तो पूर्ण श्रद्धा है ना कि जीव इसमें नहीं रहा, जीव इसमें से निकल गया। अगर यह श्रद्धा न हो तो आप मुर्दा नहीं जला सकते। वहां तो यह श्रद्धा बन जाती हैं कि जीव न्यारा है शरीर न्यारा है। अब जीव नहीं रहा इसमें से जीव निकल गया तो इसे अब जला देना चाहिए। जो शरीर निर्दयता-पूर्वक अग्नि में जला दिया जायगा। उस शरीर को अपना मानना यह कितनी बड़ी भूल है? आज शरीर में हैं, इसकी फिकर रखते हैं, खिलाते हैं, सजाते हैं। अनेक इस शरीर के लिए श्रम किया करते हैं, मगर इस मुर्दा शरीर में दूसरे हाथ-पैर न बन जायेंगे। यह शरीर ऐसे ही किसी दिन मित्रों द्वारा, बंधुवों द्वारा जला दिया जायेगा।
परिजनों का रवैया- करते क्या हैं कुटुंबीजन या मित्रजन, लौकिक देास्त कि इसके द्वारा पाप कराते हैं और फिर अंत में इसे जला डालते हैं। ये कुटुंबीजन पाप कार्य करवाते हैं, अंतर में कुछ धर्म की बात नहीं प्रकट करवाते हैं। यदि कोर्इ धर्म की बात ये लौकिक-मित्र प्रकट करते हों तो बतलावो- पाप करवायें, विकल्प मचवायें, कर्मबंध करायें और अंत में इसे जला डालें। ऐसे पशु-जीवन व नर-जीवन में कुछ अंतर है। जैसे पशुवों के मालिक-लोग पशुवों से खूब कमाते हैं, खूब बोझा लादते; वे पशु बीमार हो जाते तब भी फिकर नहीं, कंधे सूज जायें तो भी गाड़ी में जोतते, हर तरह से काम कराते। जब पशु बेकार हो गया तो कषायी के हाथ बेच दिया, वहाँ उसका गला कटवा दिया। पशुवों के प्रति पशुवों के मालिक का यह रवैया है तो मनुष्यों के प्रति इन मनुष्यों के मालिक का क्या रवैया है? इन मनुष्यों के मालिक कौन हैं, जो-जो इनसे काम करवायें वे सब मालिक हैं, जिन-जिन कुटुंबीजनों के लिए, मित्रजनों के लिए यह जुतता है, काम करता है, श्रम करता है वे सब इसके मालिक हैं। यह मोही-जीव मानता हैं कि मैं इनका भी मालिक हूं और हो रहे हैं वे खुद इसके मालिक, उतने मालिक इस मनुष्य के खूब काम कराते हैं, जोतते हैं। यह जब बेकार हो जायगा, मृत्यु हो जायेगी, केवल ढांचा रह जायेगा तो ये ही सब उसे शीघ्र जला डालते हैं। कौनसे कुटुंबी, कौनसे मित्रजन उपकार करते हैं सो बतावो- उपकारी तो वास्तव में देव, शास्त्र, गुरु हैं, इनके सिवाय कोई वास्तविक उपकारी हो तो बतावो। बाकी लोग तो सब खुद विषय-कषायों में फँसना, दूसरों को फँसाना- यह एक काम किया करते हैं।
परमशरण परब्रह्म के दर्शन बिना जीव की विडंबना- यह परमस्वभाव, यह परमशरण, यह हमारा रक्षक खुद खुद ही में विराजमान् है किंतु इसे न पाकर इसके दर्शन बिना कितना भटका है यह जीव? कितना दूर-दूर के पदार्थों में इसने अपना उपयोग लगाया है, बस यही बहिर्दृष्टिपना इस जीव को संसार में जन्म-मरण करा रहा है। यह चैतन्यस्वभाव इसी कारण से परम कहलाता है और इस स्वभाव के अतिरिक्त अन्य समस्त भाव अपरम कहलाते हैं, हम किसका सहारा लें कि हमें धोखा न मिले और नियम से शुद्ध-ज्ञानानंद का पद प्राप्त हो जाय। उस सहारे का नाम तो लीजिए। मकान, दुकान तो प्रकट असार हैं, इनमें उपयोग लगाने से तो आकुलता ही मचती है। बतावो- जब पैदा हुए थे तब क्या चीज संग में लाये थे? और जब मरण करेंगे तो क्या चीज संग में ले जायेंगे? अरे जितने दिनों तक जीवित हैं उतने दिन भी कोई चीज संग में नहीं है। आत्मा के प्रदेश में कौनसा पदार्थ प्रवेश कर सकता है? सब जुदे हैं, लेकिन मोह का पिशाच ऐसा बुरा लगा हुआ है कि यह जीव उसके उद्यम में कारण यथार्थ-बात पर टिक नहीं सकता।
विश्राम और धर्म का आश्रय- यह मुग्धजीव अपने स्वरूप से च्युत होकर बाह्य अर्थों में दृष्टि लगाकर अनाप-सनाप भटक रहा है, इसे विश्राम नहीं मिलता। कहाँ से विश्राम मिले? विश्राम का कहीं ठौर ही नहीं हो सकता है। ऐसा यह परमचैतन्यस्वभाव परमभाव कहलाता है, इसके अतिरिक्त जो औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव हैं इन चारों को अपरम कहते हैं। इसही शुद्ध परमस्वभाव का चैतन्यस्वभाव का आलंबन संसार विष-वृक्ष के मूल को उखाड़ने में समर्थ है। समस्त संकटों का अपहरण करने वाले अपने आपके इस चैतन्यप्रभु का आश्रय करने में ही कल्याण है। इसके आश्रय में धर्म प्रकट होता है।
सर्वजीवों में परमस्वभाव की विद्यमानता- यह चैतन्यस्वभाव समस्त कर्म विष-वृक्ष के मूल को उखाड़ देने में समर्थ है। यह परमस्वभाव मिथ्यादृष्टि के भी सतत् प्रकाशमान् रहता है, लेकिन उसके उपयोग में वह स्वभाव नहीं है इसलिए उपयोग में अविद्यमान है, किंतु चैतन्यस्वभाव में तो सदा विद्यमान ही रहता है। वह परमात्मतत्त्व त्रिकाल निरावरण है और अनंतचतुष्टयसंपंनतारूप पर्याय का कारण है। मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव के श्रद्धान नहीं रहता है इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव के यह चैतन्यस्वभाव अविद्यमान है फिर भी निश्चय से सदा विद्यमान ही रहता है। नित्य निगोद के जीव हैं उनके भी शुद्ध निश्चय से यह परमभाव बना हुआ है। सर्वजीवों के यह चैतन्यस्वभाव है। जो एकेंद्रिय आदिक हैं उनके भी यह कारण-परमात्मतत्त्व हैं, जो संज्ञी भी हैं किंतु मिथ्यादृष्टि हैं अथवा इस परमस्वभाव का लोप करने वाले हैं, जिनका मंतव्य नास्तिकता-रूप है ऐसे जीवों के भी यह कारण-परमात्मतत्त्व विद्यमान है।
भव्य और अभव्यों में परमस्वभाव की एकरूपता- आत्मस्वभाव का आलंबन करने से मिथ्यात्व का छेदन होता है और द्रव्यकर्म, भावकर्म सभी प्रकार के विष-वृक्ष के निर्मूलन में सामर्थ्य प्रकट होती है। इस पारिणामिक भाव के भेद नहीं है, वह अभेद है। भव्य जीव हो उसके भी पारिणामिक-भाव उस ही प्रकार है जिस प्रकार अभव्यजीव के है। भव्य और अभव्य का भाव स्वभाव से नहीं उठा हुआ है। इस कारण पारिणामिक भाव सभी जीवों के एक समान रहता है। जैसे मेरुपर्वत के नीचे भाग में जो स्वर्णराशि हो, स्वर्ण पाषाण हो उसमें भी स्वर्णपना है। यद्यपि यह निकल कैसे सके, मेरुपर्वत के मूल भाग में नीचे पड़ा हुआ स्वर्ण का ढेर यद्यपि प्रकट नहीं हो सकता, किंतु वहाँ तो स्वर्णराशि है ही। इसी प्रकार अभव्यजीवों के यह परमस्वभाव विकासरूप में प्रकट नहीं हो सकता है किंतु परमस्वभाव उस वस्तु में अवश्य है, व्यवहार में न आ सकेगा, यह बात अलग है। यह परमस्वभाव शुद्ध परिणमन से परिणत न हो सके, फिर भी चूँकि यह चैतन्यद्रव्य है और चेतन में चेतनत्व का होना शाश्वत है इस कारण यह चैतन्यस्वरूप अभव्यजीवों के भी निरंतर बना रहता है। परमस्वभाव का जो आश्रय कर सकने योग्य हैं उन्हें भव्य-जीव कहते हैं और जो इन परमस्वभाव का आश्रय करने योग्य नहीं हैं उन्हें अभव्य जीव कहते हैं, लेकिन यह परमस्वभाव सभी जीवों के शाश्वत रहता है।
आलुन्छन में आश्रेय परमस्वभाव- जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं, अति आसन्न भव्य जीव हैं जिनका मोक्ष निकट है उनको तो यह परमस्वभाव प्रतिभासित हो जाने के कारण, अनुभव में आने के कारण सफल बना हुआ है। ज्ञानी-जीव को यह परमात्मस्वरूप सदा स्पष्ट व्यक्त रहता है और इस ही कारण इस परम-पारिणामिक भाव के आश्रय के द्वारा इन भव्य जीवों को आलुंछन नाम का पुरुषार्थ प्रकट होता है, ज्ञायकस्वरूप का उपयोग करना यह आलुंछन है। इस उपाय के द्वारा समस्त दोष, समस्त कर्म दूर हो जाते हैं। कौनसा ऐसा जगत् में तत्त्व है जिसका आश्रय करने से यह जीव नि:शंक, निर्भय होकर परम-आनंद को प्राप्त होता है। ये धन, वैभव, मकान सब प्रकट असार हैं, भिन्न हैं, अचेतन हैं, इनसे मेरे आत्मा में कोई परिणति प्रकट नहीं हो सकती है। यह मैं आत्मा अपने गुणों स्वरूप हूं, इसमें मेरे ही गुणों का विकास संभव है। किसी अन्य पदार्थ के विकास से मेरे गुणों का विकास नहीं हो सकता है। आत्मगुणों का विकास शुद्ध होता है। जब यह शुद्ध आत्मगुणों का आश्रय करे। जब आत्मा गुणों का आश्रय न करके मिथ्यात्व परिणामवश बाह्य-पदार्थों में हित-बुद्धि करता है, रुचि रखता है तो इस जीव को विपरीत भाव प्रकट होता है जिसके कारण संसार में रुलना पड़ता है।
ज्ञानी की भक्ति का स्थान- यह परमस्वभाव कर्मों से अत्यंत दूर है, कर्मों का इस स्वभाव में प्रवेश नहीं है, किसी भी वस्तु का स्वभाव किसी अन्य वस्तु के कारण न बनता है, न बिगड़ता है और न परिणमता है, स्वभाव तो पदार्थ में सदैव नियत रहता है। यह वस्तु की प्राकृतिक व्यवस्था है। अपने आपमें बसा हुआ अपना लाल, अपना चिंतामणिरत्न अपने आपको नहीं मालूम है। इस कारण यह जीव दर-दर भिखारी हुआ भटकता रहता है। कभी किसी पुरुष का आश्रय करता है, कभी किसी पुरुष का आश्रय करता है। जो आत्मा साधु, योगी, संत हैं उनके लिए एकदम स्पष्ट प्रकट है अपने आपका परमात्मा। मोहीजन इस निज परमात्मतत्त्व को न समझकर पुत्र-स्त्री आदिक में अपने हित-भाव की आशा करते हैं, वे ही मेरे सर्वस्व हैं, इनसे ही मुझे सुख मिलेगा, इनके लिए ही मेरा जीवन है, जो कमाया वह सब इस कुटुंब के लिए है। शरीर का जो श्रम किया जाता है वह सब इस कुटुंब के लिए है। इस अज्ञानी-जीव ने धर्म के साधनों की सेवा नहीं की। चेतन धर्मस्थान और अचेतन धर्मस्थान किसी के भी प्रति धर्म-रूप से उमंग भी उत्पन्न नहीं हुई।
परमार्थ धर्मस्थान- यह परमार्थ धर्मस्थान सहज परमात्मतत्त्व मुनियों को प्रिय है। मुनिजन निर्जन जंतुवों से भरे हुए वन के अंदर रहते हुए भी सदा-संपन्न रहा करते हैं, उन्हें ऐसी कौनसी निधि मिली है जिसके कारण वे तृप्त, संतुष्ट और आनंदमग्न रहा करते हैं। न उनके साथ फौजफाटा है, न वैभव है, और की तो बात जाने दो खाने-पीने का भी रंचमात्र साधन नहीं है, फिर भी बड़े-बड़े महाराज, चक्रवर्ती अपने वैभव को त्यागकर निर्ग्रंथ अवस्था में रहकर प्रसन्न रहा करते हैं। ऐसी कौनसी निधि है जिस निधि के कारण वे प्रसन्न रहा करते हैं? वह निधि है इस कारणसमयसार का अनुभव। यह चैतन्यस्वरूप एकाकार है। एक ज्ञानानंदरस से भरपूर है, अनादि-अनंत है, इसका न कभी आदि होता है और न कभी अंत हो सकेगा। वह शुद्ध है।
पारिणामिक भाव के आश्रय का जयवाद- यह पंचमभावरूप परम-पारिणामिक भाव सदा जयवंत हो। इसका ही आश्रय संसार के समस्त संकटों को नष्ट कर सकने वाला है, अन्य किसी का भरोसा झूठा है। किसका सहारा लें कि आत्मा चैन में रह सके। अब तक चैन में नहीं रह सका यह जीव और आश्रय लिया अनगिनते पदार्थों का, अनगिनते जीवों का, पर कहीं भी इस जीव को तृप्ति नहीं मिल सकी। यह अब तक भी आकुल बना हुआ है। जो शांति होने की पद्धति है उसके विरुद्ध कोई चले तो उसे शांति कैसे मिल सकती है? अपना ही तो यह उपयोग है और अपना ही यह स्वभाव है। यह अपना उपयोग अपने ही अंतर में शाश्वत प्रकाशमान् इस स्वभाव को ग्रहण करे, इसका ही आलंबन ले तो आज भी कोई आकुलता नहीं हो सकती है किंतु जब अपने इस शुद्धस्वरूप से चिगकर बाह्य-पदार्थों में दृष्टि फँसाते हैं तो नाना आकुलताएँ होना प्राकृतिक ही बात है।
पर्यायबुद्धि का पर्दा- अनादि काल से यह समस्त जीव-लोक तीव्र-मोह में सदा मत्त बना हुआ है। कितना संकुचित इसका लक्ष्य हो सकता है, इने-गिने कल्पित-पदार्थों के लिए अपनी जान भी न्यौछावर कर देते हैं, यह नहीं समझ पाते कि इस जगत में 6 जाति के द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य अपनी जाति में पूर्ण समान है। चैतन्यद्रव्य से सर्व समान हैं। इस चैतन्य-पदार्थ में से कौनसा पदार्थ अपना है, कौनसा पदार्थ पराया है, सभी पर हैं। भले ही कुछ कल्पना की अनुकूलता में मोहीजनों से अनुराग बना हुआ है लेकिन इस अनुराग का भी तो विश्वास नहीं है। आज कषाय की अनुकूलता है तो विश्वास बना हुआ है, कषाय की अनुकूलता न रहे तो यह भरोसा भी नहीं रह सकता है। यह सारा जीव-लोक पंचेंद्रिय और मन के वश होकर भ्रष्ट बना हुआ है। जो संज्ञी हैं वे मन से भी मूढ़ हैं, जो असंज्ञी हैं, जिनके जितना इंद्रिय परिणाम है वे उन इंद्रियों से मूढ़ बने हुए हैं। जब पर्याय-बुद्धि का मोह दूर हो तो यह ज्ञान-ज्योति प्रकट हो सकती है। एक अज्ञान के पर्दे से इतना बड़ा अंतर हो गया है। इस पर्दे के अंतर तो सुखसागर उपस्थित है और पर्दे के बाहर में सर्वत्र क्लेश-जाल मौजूद है।
आत्मा का अशुद्ध-तत्त्वों से पार्थक्य- भैया ! इस जीव को कहाँ है क्लेश? यह स्वयं है क्या, इसका निर्णय करके परखें तो जीव को कहीं भी क्लेश नहीं है। यह विभावों से परे है, यह देह से भी न्यारा है, रागादिक भाव से भी यह दूर है, भले ही ये रागादिक-भाव इस आत्मा के ही एक क्षेत्र में हो रहे हैं, लेकिन स्वभाव में त्रिकाल भी ये प्रवेश नहीं कर सकते हैं, अर्थात् जीव का स्वभाव रागादिक रूप कभी हो ही नहीं सकता, इस कारण परमस्वभाव रागादिकस्वभाव से अत्यंत दूर है। यह दूरी भाव-अपेक्षा से हैं, क्षेत्र अपेक्षा से बात नहीं कहीं जा रही है। ऐसा यह कारणसमयसार रागादिक भावों से भी दूर है, ज्ञानियों को सदा संकट है, अज्ञानियों को यह अप्रकट है, इसका सहारा जिन्हें नहीं मिलता है वे इस जगत में परवस्तु के आशावान् होकर भटकते रहते हैं। आशा के प्रकार अनेक होते हैं। कोई मनुष्य तीव्र मोह में घर-कुटुंब को ही अपना समस्त वैभव जानकर उनके लिए सब प्रकार की आशा किया करते हैं। कोई पुरुष अपने आपकी इज्जत-पोजीशन को अपना सब कुछ महान् जानकर उस पोजीशन के रखने के लिए परजीवों की आशा रखा करते हैं। कोई पुरुष परवस्तु से धर्म होता है ऐसा परिज्ञान करने के कारण धर्म की धुन में धर्म के स्थानभूत बाह्य निमित्तों का आश्रय किया करते हैं। आशा के अनेक प्रकार हैं। ये सर्वप्रकार की आशाएँ वहाँ शांत हो सकती हैं जहाँ यह कारणसमयसार शुद्ध चैतन्यतत्त्व दृष्टि में आ गया हो।
ज्ञानी की नि:शंकता- जिसको अपना यह चिंतामणि सर्व-संकटों से दूर अपने आपमें शाश्वत विराजमान् अनुभूत हो जाता है उस पुरुष को संसार की फिर शंका नहीं रहती है, जो अपने को एकाकी मानता है उसको कष्ट नहीं है। जो अपने को पर से मिला-जुला हुआ मानता है उसको ही कष्ट हुआ करता है। कोई कष्ट की बड़ी से बड़ी परिभाषा रख लो जरा- कहीं ऐसा न हो जाय कि मेरा जितना भी वैभव है यह सब वैभव सरकार छुड़ा ले, ऐसी भी कल्पना करो तो भी विचार करके तो देखो- आकाशवत्, निर्लेप, अमूर्त, ज्ञानमात्र इस आत्मतत्त्व में कौनसा बिगाड़ हो जायगा? यदि सारा वैभव भी कोई छीन ले। रही यह बात कि क्षुधा, तृष्णा की वेदना मिटाने का क्या साधन न होगा? अरे इसकी क्या चिंता करना? जिन कर्मों के उदयवश यह जीवन पाया है क्या वहाँ और कर्मों का उदय नहीं चल रहा है? सबका गुजारा किसी न किसी प्रकार हो ही रहा है। जिनका लोक में कोई सहारा नहीं है ऐसे भिखारीजन भी अपने आपका जीवन चला लिया करते हैं। जिनसे कोई वचन व्यवहार भी करने वाला नहीं है ऐसे कीड़े-मकौड़े भी अपना जीवन बराबर चला लिया करते हैं। क्या चिंता करना? जो सत् है वह किसी न किसी रूप परिणमता रहेगा, यह मर्मज्ञानी को ज्ञात है। चिंता की क्या बात है? जो भी स्थिति आए उसही स्थिति में प्रसन्न रह सकें ऐसा ज्ञानबल प्रकट हो तो उसे शांति हो सकेगी। ज्ञानबल से हीन पुरुष पर की आशा लगाकर दोषों के पुन्ज बन रहे हैं।
निर्भ्रांति में यथार्थ संतोष- यहाँ यह ज्ञानीसंत क परमस्वभाव चिद्रूप के ध्यान के प्रताप से समस्त दोषों को उखाड़ रहा है। यही है उसका आलुंछन। जब जीव के मोह का अभाव होता है तब नि:शंकता, निर्भ्रांतता और निर्व्याकुलता ये सभी अभीष्ट तत्त्व प्रकट हो जाते हैं। भ्रम से बढ़कर अन्य कोई दु:ख नहीं है। जैसे किसी को रस्सी में सांप का भ्रम हो जाय तो यद्यपि रस्सी-रस्सी की जगह है, वह मनुष्य अपनी जगह है किंतु कल्पना में आने से इस मनुष्य की शंका भी बढ़ गई, व्याकुलता भी बढ़ गई और वह भ्रांतचित्त भी हो गया। कभी-कभी किसी उपाय से यह रस्सी का यथार्थ परिज्ञान कर ले, समझ में आ जाय कि यह तो कोरी रस्सी ही है तो इस भ्रम के मिटने से ही तत्काल ही शंका भी दूर हो गयी, व्याकुलता भी दूर हो गयी और चित्त भी व्यवस्थित बन गया। ऐसे ही प्रकट भिन्न असार परपदार्थों में जब तक यह भ्रम लगा हुआ है कि यह पदार्थ मेरा है, हितकारी है तब तक यह जीव शंकित भी रहता है, व्याकुल भी रहता है और भ्रांतचित्त भी रहता है। इसका उपयोग किसी भी अन्य पद में फिट नहीं बैठ पाता है कि जहाँ इसे संतोष हो जाय। जिस भूल-भरी प्रवृत्ति से क्लेश बढ़ रहा है उस ही प्रवृत्ति से यह क्लेश के नाश का उपाय मानता है।
आलुन्छन का आधार और प्रसाद- आलुंछन के प्रसंग में यह परम आलोचक भव्यजीव परमशरण, निज परमपारिणामिकभाव का शरण ले रहा है जिसका आश्रय करने से निश्चय समस्त संकट टल जाते हैं। कल्पना का संकट है। विकल्पजाल का क्लेश है। ये समस्त विकल्पजाल और भ्रांति भरी कल्पनाएँ नष्ट हो जाती हैं, यों उसके समस्त संकट समाप्त हो जाते हैं। ऐसा यह आत्मवस्तु में बसा हुआ पंचम परमपारिणामिक भाव जो समस्त शुद्ध-पर्यायों का मूल है, जिसका आश्रय करने से शुद्धपर्यायों की संतति चलती रहती है, उस शुद्धचैतन्यस्वरूप अपने आपको अनुभवो। लोगों में अपने आपके संबंध में किसी न किसी रूप में अनुभव करने की परिणति पड़ी हुई है। कोई अपने को गृहस्थ मानता है, कोई साधु मानता है, कोई कोई धनी मानता है, कोई किसी प्रकार समझता है। अरे ये सब उपाधियां मायास्वरूप हैं। इन उपाधियों रूप अपने को मानने से कोई सुधार न होगा। संसार में रुलना वैसा ही बना रहेगा। अपने आपको मानो उस रूप, जो यह मैं अपने आप स्वत: सहज, पर की अपेक्षा बिना शाश्वत होऊँ ऐसा यह मैं हूं। ऐसा शुद्ध ज्ञायकस्वरूप अपने आपको लखने से ये समस्त दोष उखड़ जाते हैं। इस प्रकार आलोचना के चार लक्षणों में यह आलुंछन नाम का लक्षण कहा गया है। इस आलुंछन के प्रसाद से यह संसारी जीव संसार-संकटों से मुक्त होकर शाश्वत निर्वाणपद को प्राप्त होता है।