वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 129
From जैनकोष
जो हु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि विच्चसा।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।129।।
जो पुरुष नित्य आर्तध्यान और रौद्रध्यान को तजते हैं उनके सामायिक स्थायी है, ऐसा भगवान के शासन में कहा है।
ध्यान का निर्देश- संसार में जितने भी जीव हैं वे किसी न किसी ध्यान में निरंतर रहते हैं। 12वें गुणस्थान तक तो ध्यान बताया ही है, 13वें और 14वें में उपचार से कहा है। ध्यान 16 होते हैं- चार आर्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार धर्मध्यान और चार शुक्लध्यान। आर्तध्यान में तो खेद का परिणाम होता है, रोद्रध्यान में क्रूरता का परिणाम होता है जिसमें मौज माना जाता है और धर्मध्यान में धर्म की बात का ध्यान होता है और शुक्लध्यान में रागद्वेषरहित केवल ज्ञाताद्रष्टा रहता है।
धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान में विशेषता- धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अंतर इतना है कि धर्मध्यान में तो विकल्प साथ रहता है- भगवान की भक्ति की, स्तवन किया, तत्त्व का चिंतन किया, स्वाध्याय किया, ये सब धर्मध्यान है। इनमें रागांश काम करता है। बिना राग अनुराग के धर्म ध्यान नहीं बनता है। राग तो है, किंतु अच्छी जगह राग है, धर्म की ओर राग है, उस मय का जो ध्यान है उसका नाम धर्मध्यान है और जहां रागद्वेष नहीं हैं, केवल एक ज्ञानप्रकाश का प्रवर्तन चल रहा है ऐसी जो स्थिरता है उसको कहते हैं शुक्लध्यान। यह संसारी जीव आर्तध्यान और रौद्रध्यान के कारण संसार में रुल रहा है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान तो मोक्ष के कारण हैं, किंतु आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसार के ही कारण हैं।
इष्टवियोगज आर्तध्यान- आर्ति का अर्थ है पीड़ा। उस पीड़ा सहित जो ध्यान है उसका नाम आर्तध्यान है। जैसे इष्ट का वियोग होना। जो बड़ा अनुरागी था, जिसमें चित्त रमा करता था ,ऐसा कोई अभीष्ट जीव का अथवा पदार्थ का वियोग हो गया, धन का वियोग, परिजन का वियोग, मित्र का वियोग हो गया तो उस वियोग के होने पर मन में क्लेश उत्पन्न होना और संयोग के लिए ध्यान बनाना, पूर्वकाल का संयोग बिछुड़ना, वर्तमान में संयोग की आशा रखना, ये सब इष्ट वियोगज आर्तध्यान हैं। यह आर्तध्यान भी इस जीव को उन्मत्त जैसा बना देता है। लक्ष्मण के वियोग में, सीताहरण में , श्री राम ने भी इष्टवियोगज आर्तध्यान माना था।
कर्मविपाकवश ज्ञानियों के भी किसी पद तक इष्टवियोगज आर्तध्यान की संभावना- यह आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक चलता है। इतना अंतर है कि छठे गुणस्थान में जो इष्टवियोगज आर्तध्यान है वह कुछ शुभ संकल्प की बाधा में हुआ करता है। जैसे कोई प्रिय शिष्य है, उसका वियोग हो जाय, मरण हो जाय अथवा अन्य प्रकार का वियोग हो जाय, उस वियोगकाल में खेद आना अथवा गुरु का वियोग हो जाय तो शिष्य साधु को खेद आना, यह इष्टवियोगज आर्तध्यान है। पंचम गुणस्थान में मिथ्यादृष्टियों की तरह तो आर्तध्यान नहीं है, लेकिन कुछ झलक आती रहती है क्योंकि यह गृहस्थ भी आरंभ परिग्रह में पड़ा हुआ है जिससे ऐसे अनेक अवसर आते हैं जिसमें विषयों के साधनों में अथवा परिग्रहों में बाधा आ जाती है। उस काल में जो ध्यान होता है ऐसे श्रावक के भी इष्टवियोगज आर्तध्यान है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों के यह इष्टवियोगज आर्तध्यान पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक की अपेक्षा अधिक लंबे काल तक और कुछ अधिक शक्तिपूर्वक होता है। जैसे प्रसिद्ध है कि बलभद्र नारायण के वियोग में 6 महीने तक आकुलित हो जाता है।
मिथ्यात्व में इष्टवियोगज आर्तध्यान की प्रबलता- मिथ्यादृष्टि के आर्तध्यान का तो संस्कार बड़ा लंबा है। कहो इस जीवनभर भी न छूटे और मरण के बाद परभव में भी कहो साथ जाय। कैसा भी इष्ट का वियोग हो, पर ऐसा संस्कार यह अज्ञानी जीव बना लेता है कि परभव में भी साथ जाता है। जैसे सुकौशल की मां जब सुकौशल के पिता विरक्त हो गए थे तो सुकौशल की मां को केवल अपने पुत्र का ही आधार था और पुत्र को देख-देखकर राजी रहकर समय गुजारती थी, किंतु कुछ समय बाद ऐसा भी अवसर आया कि सुकौशल भी छोटी अवस्था में मुनि बन गया। अब मां के वियोग की सीमा और बढ़ गई। उस दु:ख में निरंतर वह संक्लिष्ट रहने लगी और इतना बड़ा संक्लेश हुआ कि मरण करके सिंहनी हुई और उसने परभव में अपना बदला लिया। काहे का बदला कि वियोग होने से जो उसे संक्लेश हुआ था तो उसकी दृष्टि में आया कि इसकी वजह से मुझे जीवन में क्लेश रहा, तो सिंहनी ने सुकौशल पर प्रहार किया। यद्यपि सुकौशल वीतराग संयमी पुरुष थे, सिंहनी के इस आक्रमण पर भी उन्होंने अपना ध्यान नहीं छोड़ा, उनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, वे सिद्ध हो गये। बाद में सुकौशल के पिता जो मुनि थे उन्होंने सिंहनी को संबोधा कि तूने बड़ा अनर्थ किया, वह तेरा ही तो पुत्र था। सिंहनी ने प्रतिबोध में आकर इतना प्रायश्चित्त किया कि उसी समय आजीवन अन्न-जल का त्याग कर दिया और संन्यास मरण से मरकर सिंहनी स्वर्ग में देव हुई। तो प्रयोजन यह है कि इष्टवियोगज आर्तध्यान मिथ्यादृष्टियों को जीवन में भी पीड़ा देता है और मरण के बाद परभव में भी दु:ख देता है। जो जीव इस आर्तध्यान को तजता है उसके ही तो समतापरिणाम हो सकता है।
अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान व इसकी ज्ञानियों के भी किसी पद तक संभावना- अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान भी पहिले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक रहता है, किंतु छठवें गुणस्थान में किसी उत्तम इरादे के मूल पर यह आर्तध्यान होता है। जैसे अपने ध्यान संयम में बाधा देने वाला कोई पुरुष सामने आ जाय तो उनके लिए वह अनिष्ट है। अनिष्टों का संयोग होने पर जो उनके कुछ खेद होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है अथवा कोई शिष्य खोटा निकल जाय, धर्म का कुछ विपरीत कार्य भी कर चुका हो तो उसे देखकर गुरु के चित्त में खेद हो जाना सो अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। पंचम गुणस्थान वाले श्रावकों के यह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कुछ विशेष डिग्री को लेकर होता है, क्योंकि इस गृहस्थ के आरंभ और परिग्रह लगा हुआ है, तो गृहस्थ श्रावक के जब आरंभ परिग्रह में बाधा देने वाले लोग सामने आते हैं, अथवा यह श्रावक मंदिर संस्थाएँ आदि धर्मकार्यों को संभालता है उन धर्मकार्यों में भी कोई बाधा देने वाला समक्ष आए तो ये सब पंचम गुणस्थान वालों के लिए अनिष्ट कहलाते हैं। ऐसे अनिष्ट व्यक्तियों के समागम होने पर जो खेद उत्पन्न होता उसे अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहते हैं। चतुर्थ गुणस्थान वाले के व्रतियों की अपेक्षा और विशेष होता है।
मिथ्यात्व में अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान की प्रबलता- अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों के यह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान इस जीवन भर क्लेश पहुंचाता है और मरण के बाद अन्य भव में भी क्लेश पहुंचाता है। मरुभूति और कमठ का चारित्र सुना ही होगा। कमठ बड़ा भाई अपने छोटे भाई मरुभूति की स्त्री पर कुछ अनुरागी हुआ और कुछ उपद्रव भी करना चाहा। मरुभूति उस समय राजा का मंत्री था। राजा ने इस खोटे विचार को सुनकर कमठ को गधे पर बैठा कर, मुँह काला करके नगर से बाहर निकलवा दिया। अब यह कमठ साधु-संन्यासी का भेष धारणकर भभूत लगाकर और हाथ के ऊपर एक वजनदार शिला रखकर खड़े होकर तप करने लगा। अज्ञानियों का तप लोगों के बहकाने के लिये होता है, जो बाहरी अपमान से दु:खी होकर अथवा कोई अपराध करके, हत्या करके उन अपराधों को मिटाने की गरज से जो साधुभेष रख लिया जाता है वह कुछ सही मायने की बात नहीं है। खैर, यहाँ तो कमठ तपस्या का ढोंग करने लगा, वहाँ मरुभूति को जब विदित हुआ कि कमठ इस तरह से घर छोड़कर भाग गया तो मरुभूति ने उसके अपराध का भी विचार नहीं किया और सीधा कमठ के पास पहुंचा और कहा- भाई मेरा कुछ अपराध हो तो क्षमा करो, घर चलो, लेकिन कमठ को ऐसा क्रोध आया कि जो मन, डेढ़ मन की शिला लिए हुए था उसी को मरुभूति पर पटक दिया। मरुभूति का देहांत हो गया।
मिथ्यात्व में कुध्यान की भवभवांतरों में भी पीड़ा- कमठ का यह रोष उस भव में ही शांत हो गया, सो भी नहीं। इस कमठ ने अनेक भवों में शेर, हाथी, सांप सब कुछ बन-बनकर मरुभूति को कष्ट पहुंचाया और मरुभूति के प्राणांत का कारण बना। उस कमठ को वह मरुभूति अनिष्ट जँचने लगा था कि इस मरुभति की वजह से हमारा अपमान हुआ। यद्यपि मरुभूति निर्दोष था, लेकिन कमठ ने अपनी कल्पना में मरुभूति को अनिष्ट माना और अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान इतना बढ़ा कि भव-भव में कमठ ने मरुभूति के जीव पर उपसर्ग किया। यहाँ तक कि मरुभूति का आत्मा जब पार्श्वनाथ के रूप में आया तो साधु अवस्था में ध्यान करते हुए पार्श्वनाथ पर जो कमठ अब ज्योतिषी देव बना हुआ था, अनेक उपसर्ग किया। फिर क्या हुआ, यह आगे की बात है, लेकिन अनिष्ट संयोग के ध्यान में कैसा परिणाम बन जाता है कि भव-भव में यह उससे होता रहता है। यों अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान को जो साधु तज देता है उसके ही समताव्रत स्थायी होता है।
वेदनाप्रभव आर्तध्यान- तीसरा आर्तध्यान है वेदनाप्रभव। शरीर में कोई रोग की वेदना हो जाय, उसके कारण जो पीड़ा का निरंतर ध्यान बना रहता है और यह पीड़ा अधिक न बढ़े, ऐसी जो शंका बनी रहती है उस पीड़ा को दूर करने के लिए जो अनेक प्रकार के ध्यान बना करते हैं ये सब हैं वेदनाप्रभव नामक आर्तध्यान।
निदाननामक आर्तध्यान- ऐसे ही निदान नामक आर्तध्यान है। यह पंचम गुणस्थान तक ही रहा करता है। किसी भी भविष्य की घटना के लायक मन में भाव बनाना, आशा रखना, इसका नाम है निदान। सम्यग्दृष्टि जन तो उत्तम बात का निदान रखते हैं। मैं विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होऊँ, ऐसा तप का योग करूँ, मुझे संसार से मुक्ति मिलने का अच्छा साधन मिले, वज्रवृषभनाराच व संहनन मेरे हों, मनुष्यभव की प्राप्ति हो आदिक कल्पनाएँ करना, ये सब निदान हैं। शुभ निदान हो तो भी निदान में पीड़ा तो होती ही है। कैसी भी भविष्यकाल की आशा बनाने में थोड़ा तो क्लेश रहता ही है। चाहे शिव लाभ की आशा करें और चाहे विषयों के लाभ की आशा करें।
मोह में अशुभनिदान- मिथ्यादृष्टि जीवों के अशुभ निदान होता है। वे सांसारिक मौज के लिये इंद्र, राजा सब कुछ बनना चाहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव तपस्या भी करे उस तपस्या का प्रयोजन कोई ऊँचा देव बनूँ, राजा महाराजा होऊँ, ऐसी कामना रहती है। आशा करने से कहीं सिद्धि नहीं हो जाती, परंतु पुण्य यदि किया हो अधिक और निदान में मांगा हो छोटी बात तो जैसे बड़ी पूँजी वाले को छोटी चीज खरीद लेना आसान है ऐसे ही बड़े पुण्य के होने पर मामूली जो इच्छा की, उसकी प्राप्ति हो जाना आसान है और इसी कारण शास्त्रों में अनेक जगह ये आया है कि मुनि ने निदान बाँधा कि मैं अमुक सेठ का लड़का होऊँ तो वह वहाँ लड़का हुआ। इसका अर्थ यह लेना कि मुनि के इतना विशाल पुण्य था कि वह यदि यह मांग न रखता तो इससे कई गुणी विभूति में वह होता। ये चार प्रकार के आर्तध्यान इस जीव को संसार में रुलाने के कारण हैं।
हिंसानंद रौद्रध्यान- रौद्रध्यान भी संसार के कष्ट ही देने वाला है। हिंसा करते हुए आनंद मानना, किसी ने हिंसा की हो, उसको शाबासी देना, हिंसा देखकर बड़ा खुश होना, बड़ा अच्छा मारा, किसने मारा, बड़ा बहादुर है। मन से, वचन से, काय से, करके, कराके, अनुमोद के हिंसा में आनंद मानना सो हिंसानंद रौद्रध्यान है। इसमें यह मानता तो मौज है, परंतु आशय बड़ा क्रूर है, रुद्र है। रुद्र आशय वाला जीव आर्तध्यान से भी अधिक पाप करता है और इसी कारण रौद्रध्यान छठे गुणस्थान में जरा भी नहीं पाया जाता है जबकि तीन आर्तध्यान छठे गुणस्थान में भी हो सकते हैं।
मृषानंद रौद्रध्यान- झूठ बोलकर आनंद मानना, किसी का मजाक करके, किसी को फँसा करके, किसी की निंदा करके, अप्रिय वचन बोलकर इत्यादि अनेक प्रकार के कार्यों में आनंद मानना, सो मृषानंद नामक रौद्रध्यान है। कितने ही लोग इस बात से ही खुश रहा करते हैं कि इनकी बात उन्हें भिड़ाई, उनकी बात इन्हें भिड़ाई, दोनों को लड़ा दिया, ऐसी चुगलखोरी करके मौज मानना, यह सब मृषानंद रौद्रध्यान है।
चौर्यानंद रौद्रध्यान- कितने ही लोग चोरी करके मौज मानते हैं। चोरी का उपाय बता देते हैं, किसी का बैर निरोध हो तो चोरों को सारा उसका भेद बता देना, यह सब चौर्यानंद रौद्रध्यान है या अन्य किसी रूप में चोरी करके मौज समझना सब चौर्यानंद रौद्रध्यान है। ये सभी रौद्रध्यान संसार में रुलाते हैं, विकट कर्मों का बंध कराते हैं।
विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान- चौथा रौद्रध्यान है विषयसंरक्षणानंद। विषयों के जितने साधन हैं उन साधनों की रक्षा करते हुए आनंद मानना सो विषयसंरक्षणानंद है। स्पर्शनइंद्रिय के विषय, ठंडे-गर्म पदार्थों के विषय, इनकी रक्षा करते हुए मौज मानना, रसनाइंद्रिय के विषय सरस, स्वादिष्ट भोजन के साधनों की रक्षा करते हुए आनंद मानना, इसी प्रकार घ्राणेंद्रिय के विषय इत्र, फुलेल इत्यादि को सजाकर रखने में आनंद मानता, सो रसनाविषयक विषयसंरक्षणानंद है। जो नेत्रों को प्रिय लगें ऐसे रमणीक पदार्थों को देखकर आनंद मानना सो नेत्रइंद्रिय का विषयसंरक्षणानंद है। इसी प्रकार संगीत, गायन, राग भरी बातें इनके सेवन में आनंद मानना सो कर्णेंद्रिय का विषयसंरक्षणानंद है। इन विषयों के अतिरिक्त एक मन का विषय है, वह बड़ा विकट विषय है। इसने तो सीमा ही तोड़ दी है। कोई यश चाहता है, पोजीशन चाहता है, सभी लोग मुझे महान् मानें यों अपने बड़प्पन के लिए जो नाना कल्पनाएँ करता है और कुछ बात कभी सिद्ध हो गयी तो उसमें बड़ा मौज मानता है, ये सब उसके मन के विषयसंरक्षणानंद हैं। यों इस रौद्रध्यान के कारण यह जीव संसार में जन्म-मरण करके दु:खी हो रहा है।
आर्त रौद्रध्यान के त्याग में सामायिक व्रत- इन 8 प्रकार के खोटे ध्यानों का जो परित्याग करते हैं उनके ही निरंतर सामायिक व्रत चलता है। ये योगीश्वर जीव हमेशा इस निरन्जन निज कारणसमयसाररूप जो अपना आत्मतत्त्व है उसके आलंबन से एक वीतराग शुद्ध आनंद प्रकट होता है उस आनंद में ही तृप्त रहा करते हैं। यह जीव आर्तध्यान और रौद्रध्यान का निरंतर त्याग रखता है। आर्तध्यान के फल में तो यह जीव पशु-पक्षी आदिक तिर्यन्चों में जन्म लेता है, मुख्यता से कहा जा रहा है, किंतु रौद्रध्यान के फल में तो यह जीव नरक आदि गतियों में उत्पन्न होता है। इन दोनों प्रकार के ध्यानों को जो नित्य छोड़ता है उसके ही निरंतर सामायिक व्रत होता है। इस प्रकार जिनेंद्र भगवान के शासन में यह बात प्रसिद्ध की गई है कि जो मुनि इन दोनों प्रकार के ध्यानों को छोड़ता है उसके सामायिक नाम का व्रत होता है। इस ही सामायिक का जो उत्कृष्ट रूप है वह है- परमसमाधि महाव्रत। परमसमाधि का अधिकारी एक त्यागी महापुरुष ही हो सकता है। हमें भी अपने जीवन का उद्देश्य बदलना चाहिए और ऐसे आत्महित के लिए ही मेरा जीवन है ऐसा अंतरंग में निर्णय रखना चाहिए। सांसारिक काम तो पुण्य-पाप के अनुसार हमारे थोड़े ही उपयोग से स्वत: बन जाते हैं। अपने पुरुषार्थ का प्रयोग आत्महित के लिये ही हो, ऐसी भावना और यत्न होना चाहिए।