वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 131
From जैनकोष
जो हु हस्सं रदिं सोगं अरदिं वज्जेदि णिच्चसा।
तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ।।131।।
जो हुमुच्छा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसा।
तस्स सामाइगं ठाई इदि केवलिसासणे ।।132।।
जो पुरुष हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद सब नोकषायों को त्यागता है उसके सामायिक परिणाम स्थायी होता है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है।
नोकषायों का प्रवर्तन- संसारी जीवों की प्रवृत्ति नो कषायरूप हो रही है। चारित्रमोह के भेद में 16 तो कषायें हैं और नव नोकषायें हैं, उनमें प्रवृत्ति नोकषायों से होती है और उन नोकषायों में स्पीड देने वाली 16 प्रकार की कषायें हैं। जैसे थोड़ी देर को समझलो कि काम में आते हैं बल्ब और उन बल्बों में प्रभाव थोड़ा मिलना, बड़ा मिलना, यह डालता है करेन्ट। तो 16 कषायें तो करेन्ट जैसा काम करती हैं और ये नोकषायें मानों बल्ब, अँगीठी जैसा काम करती हैं। प्रवृत्ति में ये हास्यादिक आती हैं। अनंतानुबंधी कषाय हुई तो हास्य रति आदिक में इस प्रकार का असर हुआ। अप्रत्याख्यानावरण कषाय में हास्यादिक तो और तरह के होते हैं, प्रत्याख्यानावरण में हास्यादिक और किस्म के होते हैं और संज्वलन में ये अत्यंत मंद होते हैं। ज्ञानी पुरुष इन 9 कषायों की प्रवृत्ति से दूर रहते हैं। इन 9 कषायों के विजय के उपायों से सामायिक चारित्र का स्वरूप प्राप्त होता है।
नोकषायों में कषायों के अनुकूल तीव्रता व मंदता- इन हास्यादिकों का नाम यद्यपि नोकषाय है। नो का अर्थ है थोड़ा। यहाँ नो का अर्थ संख्या के 9 से नहीं लेना। नो शब्द संस्कृत का शब्द है और ईषत् अर्थ में आता है। नोकषाय में यदि कषायों के पुट ल मिलें तो इनमें कुछ दम नहीं रहती है। जैसे बल्ब को जो चाहे छू ले, उसमें क्या दम है? पर करेन्ट से जुड़ जाय तो उस ही बल्ब में तेज का असर हो जाता है, इस प्रकार इन नोकषायों के साथ कषायें जुड़ी हुई रहती हैं, ऐसा कहीं नहीं होता कि नोकषाय तो रही आए और कषाय न रहे, नोकषाय का असर रहे और कषाय रंच भी न हो ऐसा कोई जीव न मिलेगा। यह तो संभव है कि नोकषाय जरा भी नहीं है और कषाय का संक्लेश बना है। जैसे नवम गुणस्थान और दशम गुणस्थान में वहाँ हास्यादिक नोकषायें नहीं हैं, किंतु संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ बने हुए हैं। 9वेंगुणस्थान में हास्यादिक छ: नोकषाय रंच नहीं हैं। हास्यादिक 6 नोकषाय का उदय-विच्छेद अष्टम गुणस्थान में हो जाता है और ये कषायें रही आती हैं। नोकषाय में 6 कषायें तो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा- ये अष्टम गुणस्थान के अंत तक ही रहते हैं। पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद ये 9वें गुणस्थान के कुछ भाग तक चलती है और संज्वलन क्रोध वेद के उदयविच्छेद के बाद कुछ समय तक रहता है और वेद के उदयविच्छेद के बाद और देर तक मायने उससे भी अधिक देर तक मान और उससे भी अधिक देर तक माया व उससे भी अधिक देर तक लोभ रहता है। नोकषाय के बिना कषाय बेकार हैं और कषाय के बिना नोकषाय बेकार है।
कषायों की अहितकारिता- ये समस्त कषायें जीव को मोहित करती हैं, मोह उसे कहते हैं जिसके करते हुए भला लगे, किंतु परिणाम बरबादी का निकले, उसका नाम मोह है। मोह करते हुए भला लगे और परिणाम बरबादी का न हो उसे धर्मानुराग कहते हैं। वह मोह नहीं है, कषाय नहीं है। मोह में परिणाम बुरा निकलता है और वर्तमान में भला जँचता है। जैसे गृहस्थी के अनुभव में ही देख लो, स्त्री का स्नेह कितना भला लगता है, परंतु उसके परिणाम में 18-20 वर्ष के बाद जो बीतती है सो गृहस्थ जानते हैं। संतान हो गई, बच्चे हो गये, अब उनकी शादी करना है और खर्चे बढ़ गये हैं और यह ही दु:ख रहे तो भी कुछ अधिक हानि नहीं, लेकिन ये सब क्या अनुकूल चलते हैं? कोई प्रतिकूल चलते हैं, उनकी इस अनुकूलता और प्रतिकूलता को देखकर अज्ञानवश जो अंतरंग में क्लेश होता है उसे कौन मिटाने आए?
अज्ञान का क्लेश- भैया ! सबसे बड़ा क्लेश बेवकूफी का है, आवश्यकता की आपूर्ति का नहीं है। जब कीड़ा-मकोड़ा भी अपना पेट किसी तरह से भर लेते हैं तो मनुष्य को अपना पेट भर लेने में कौनसा कठिन काम है? जो घास है, जिसे गाय, बैल, भैंस खाते हैं उसको ही हँसिया से महीन बनाकर छौंक दीजिए, नमक, मिर्च डाल दीजिए तो उससे भी पेट भरा जा सकता है, किंतु क्लेश है अज्ञान का। कल रास्ते में आ रहे थे देखा कि बहुत सी सफेद रेत पड़ी है, उसको ही बटोर-बटोर कर कोई बेचे तो उससे भी पेट भरा जा सकता है, पर रेत बटोरना, इतना श्रम करना, अपनी पोजीशन घटाना ये किसे पसंद है? बहुतसी कमजोर बुढ़िया छोटी-छोटी घास को खोदकर दिन भर में एक गट्ठा तैयार कर लेती हैं और आजकल के समय में वह डेढ़ रूपये के करीब का होता है, उसको ही बेचकर अपना पेट भरती हैं। जिस कर्म के उदयवश हम आपने यह शरीर पाया है और इतना ऊँचा शरीर पाया है तो क्या पेट की पूर्ति के लायक कर्म न होगा?
निर्मोहता की संभाल में क्लेश का विच्छेद- अपन लोग आवश्यकता की पूर्ति से दु:खी नहीं हैं, किंतु मानसिक व्यथा से दु:खी हैं। लोक में मेरी पैठ, मेरा सम्मान कुछ अधिक होना चाहिए, ऐसी जो अंतरंग में भावना बसी है यह दु:ख देती है। बहिर्मुखदृष्टि से बढ़कर कोई अपराध नहीं है। इतने विकट तो हम कसूर वाले हैं और चाहते हैं हम लोक में उत्तम अग्रणी कहलाना तो कसूर करके लोक में अग्रणी कहलाएँ यह अपनी एक धूर्तता है। पहिले तो थी बेवकूफी और अब यह है धूर्तता। जहाँ बेवकूफी और धूर्तता दोनों मिल जाये वहाँ आराम की आशा कहाँ रक्खी जा सकती है? यह समस्त जगत मोहनीय कर्मों के उदय से अथवा मोहभाव के अविर्भाव से परेशान है। अपने आपको संभाल लो तो कहीं परेशानी नहीं है। अरे ! कैसे संभाल लें? गृहस्थी तो अभी कच्ची है। यही तो बेहोशी है। पुराणों में लिखा है कि सुकौशल के जब ज्ञान जागृत हुआ तो यह नहीं देखा कि अभी गृहस्थी कच्ची है, गर्भ में बच्चा है दुनिया के लोग बच्चों को तरसते हैं, हम भी बच्चे का मुँह देख लें, ऐसा सुकौशल ने कुछ न सोचा था। अरे ! जहाँ ज्ञान जग गया वहाँ फिर क्लेश भी कुछ नहीं है।
साधनसमागम की उदयानुसारिता- भैया ! जिसका जैसा उदय है उसके अनुसार उसकी आजीविका का साधन मिल जाता है। कोई-कोई पुरुष ऐसे हीन पुण्य के होते हैं कि घर में रहने वाला बड़ा पुरखा या बड़ा भाई जो घर में बड़ा है कहो उसके रहने के कारण घर के छोटे भाई का, बच्चों का पुण्य विशद प्रकट न हो और यह घर का बड़ा, पुरखा मानता है कि मैं घर छोड़ दूँ तो घर के लोग बरबाद हो जायेंगे। संभव है कि वह घर छोड़ दे तो उन लोगों का पुण्य विशद प्रकट हो जाये और वे सुखी हो जाएँ, यह भी संभव है और यह भी संभव है कि बड़ा छोड़ दे तो घर के लोग बरबाद हो जाएँ, लेकिन कोई बरबादी हो जाय तो, आबादी हो जाय तो उसमें कारण उनका खुद-खुद का कर्म का उदय है, कोई किसी दूसरे जीव की जिम्मेदारी का कर्ता-धर्ता नहीं होता।
साधनसमागम की उदयानुसारिता पर एक दृष्टांत- एक कोई जोशी था। उसका काम था रोज रोज इधर-उधर से आटा-दाल मांगकर लाना और बच्चों को पालना। रोज 10, 11 बजे मांगकर लाता था तब रोटियाँ बनती थी । एक दिन एक घर आटा दाल मांग रहा था, एक साधुजी निकले, साधु ने पूछा- क्या कर रहे हो? तो जोशी बोला कि आटा-दाल मांगकर ले जायेंगे तो बच्चों का पेट पलेगा। साधु बोला कि तुम इस चिंता को छोड़ दो और 15 दिन के लिये मेरे साथ चलो, धर्मध्यान में रहो। उसे ऐसी ही बुद्धि आयी कि झोली फैंक फांक कर साधु के संग चला गया। अब-जब 10, 11 बजे तक वह मांगकर घर न आया तो उसकी स्त्री, बच्चे सब रोने लगे। पड़ोस के लोग जुड़ आए, किसी मसखरे ने यह कह दिया कि उसको एक व्याघ्र पकड़ कर ले गया और मारकर खा गया। अब लोग सोचते हैं कि वह तो मर गया है और ये अपने पडौस में हैं, छोटे-छोटे बच्चे हैं, यह तो भूखे न रहने चाहिएँ। सो किसी ने तीन-चार बोरा गेहूं दे दिया, किसी ने घी की टीन, किसी ने तेल की टीन दे दिया, किसी ने कपड़े के कुछ थान दे दिए, क्योंकि लोगों ने सोचा कि कम से कम 1 साल का बंदोबस्त तो कर ही दें। अब घर के सब खुश होकर मौज करें।
अनावश्यक की पूंछ का अभाव- अब वह जोशी 15 दिन हो गए तो साधु से बोला- महाराज ! अब जाकर घर देख आएँ, कौन बच्चा मरा है, कौन जिंदा है? तो साधु बोला – अच्छा देख आवो, पर छुपकर जाना और पहिले निगरानी कर लेना कि घर में क्या हो रहा है? कहा- अच्छा महाराज ! सो अपने छत पर पीछे से चढ़ गया और एक ओर से देखने लगा तो वहां कड़ाही चढ़ी हुई थी, मंगौड़ी-पकौड़ी बन रही थी, बच्चे नये नये कपड़े पहिने हुए खेल रहे हैं, खूब आराम से हैं। वह जोशी देखकर खुश हो गया और मारे खुशी के सबसे मिलने के लिये अपने घर में कूद गया। बच्चों ने देखा तो सोचा कि वह तो मर गया था। यह तो भूत है, सो लूगर वगैरह उठाकर उसे सब मारने दौड़े। वह जोशी अपनी जान बचाकर साधु के पास पहुंचा, बोला- महाराज ! वहाँ तो सब ठीक है, पर मुझे सब मारने दौड़े, सो जान बचाकर भाग आया हूं। साधु बोला कि जब सब मजे में हैं तो तुझे कौन पूछे? तू तो धर्मध्यान कर। सबके साथ अपना-अपना उदय है।
मोह के बोझ का क्लेश- भैया ! सभी जीव अपने-अपने उदय के द्वारा अपना-अपना गुजारा करते हैं। अपने चित्त में किसी का जिम्मेदार समझना यह एक अज्ञान का बोझ है। क्यों न इतनी हिम्मत करें कि कुछ भी हो जाय तो भी मैं आत्मा अमूर्त निरापद हूं। क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा जो अनिष्ट माने जा सकते हैं उन सब अनिष्टों की कल्पना कर डालें, इतना तक भी हो जाय तो भी मेरे आत्मा का क्या नुक्सान है? यह तो ज्ञान के बल पर सुखी होता है; धन, वैभव के बल पर नहीं, धन, वैभव होने पर भी ज्ञान उल्टा है, कुबुद्धि है, कुमति है, तो झगड़ा है, विवाद है, परेशानी है, कुछ तत्त्व न मिलेगा और सुमति है, बुद्धि ठिकाने है तो दरिद्रता भी आ जाय तो भी अंतर में प्रसन्न रह सकता है। जितने भी क्लेश हैं वे सब मोह के कारण भोगने पड़ रहे हैं। इस मोह के परिणाम में जीव में 9 तरह की प्रवृत्तियां होती हैं, उन्हीं प्रवृत्तियों का नाम है नोकषाय।
हास्य नामक कषाय- अपने आपको भला मानने वाले लोगों से श्रेष्ठ समझने वाले मूढ़ जन दूसरे जीवों की प्रवृत्ति को देखकर हास्य करते हैं, मजाक करते हैं। हास्य दूसरे को तुच्छ माने बिना कैसे की जा सकती है? इस हास्य की प्रवृत्ति में यह जीव स्वरूप से च्युति किये है और इस आत्मच्युति की दशा में यह जीव हास्य की प्रवृत्ति करके अपने आपको रीता बना रहा है। जब कभी तेज हँसी आती है तो अपना पेट रीता सा हो जाता है, कुछ हल्कापन आ जाता है। तो जैसे हास्य का प्रभाव शरीर को रीता कर देने में होता है। उस हास्य से आत्मा भी गुणों से रीता हो जाता है। दूसरे पुरुष का क्या मजाक करना? खुद ही तो मजाक के लायक हैं। उस हास्यकर्म के उदय में, हास्यभाव की पीड़ा में इस जीव के समतापरिणाम हो ही नहीं सकता और समता-परिणाम के बिना यह जीव संसार में क्लेश भोगता रहता है। अनंतानुबंधी की पुट ले तो यह हास्य कठिन करता है और जैसे-जैसे पुट कम हो वैसे ही वैसे हास्य मंद होता जाता है।
रति नोकषाय व नोकषायों में कषायों का प्रभाव- रति कषाय उसे कहते हैं कि उत्कृष्ट वस्तु को निरखकर उसमें प्रीति का परिणाम हो। देखिये प्रवृत्ति हो रही है नोकषाय के द्वारा और इसमें प्रभाव भरा गया है कषाय के द्वारा, तो शंका यह हो सकती है कि प्रभाव भरने वाली कषायें भले ही चार प्रकार की हों- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, पर उनमें क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद क्यों हो गये? जब प्रवृत्ति हास्यादिक हो रही है तो होने दो। बात वहां यह है कि जैसे बिजलियों के करेन्ट में भी एक प्रकार का तार नहीं रहता, दो तीन प्रकार के तारों का बंधन रहता है, ऐसे ही ये यद्यपि सामान्यतया कषाय हैं, लेकिन इनमें भी विभिन्नता है और प्राय: उन करेन्टों के स्पर्श से इन नोकषायों में दो भाग हो गए हैं। कुछ कषाय हैं रागरूप जो माया और लोभ के प्रभाव से प्रभावित हैं और कुछ कषाय हैं द्वेषरूप, जो क्रोध और मान के प्रभाव से प्रभावित हैं। मायामयी प्रवृत्ति एक तार से नहीं चल सकती है। जैसे हम आपके खून की गति न केवल लाल खून से चलती है, न केवल सफेद खून से चलती है। लाल और सफेद दोनों प्रकार के खून इस शरीर के साथ बँध जाते हैं। सफेद खून में तो कीटाणुवों के नाश करने की सामर्थ्य है और इस लाल खून मे एक तेज देने की ताकत है और इन दोनों से फिर यह शरीर की गति चलती है। इस रागद्वेष की प्रवृत्ति में राग भी केवल राग रहकर नहीं चलता है, वह भी किसी न किसी ढंग में द्वेष को अंतर्निहित करके चलता है और इसी प्रकार द्वेष भी केवल द्वेष बनकर नहीं चलता है वह भी किसी ढंग में राग को अंतर्निहित करके चलता है। कैसा जालग्रस्त है यह, कितनी विडंबनाएँ इन कषायों में पायी जाती हैं?
मोह, राग, द्वेष से संकट की उत्पत्ति का एक दृष्टांत- हाथी को वश में करने वाले शिकारी जंगल में एक गड्ढा खोदते हैं और उस पर बांस की पंचें बिछाकर पाट देते हैं, उस पर कागज की झूठमूठ हथिनी बनाते हैं और दूर में एक दौड़ता हुआ हाथी बनाते हैं। उस हथिनी से राग करके बनहस्ती दौड़ता हुआ उसके पास आता है और सामने आते हुए दूसरे हाथी को देखकर उससे पहिले पहुंचना चाहता है। वह यह नहीं जान पाता कि यह जमीन बनावटी है, सो उस पर आते ही वह गड्ढे में नीचे चला जाता है। तो ये राग और मोह दो आ गये। वह हाथी खूब तेजी से दौड़ता हुआ आता है इसलिए कि उस दौड़ते हुए हाथी से जल्दी उस हथिनी के पास पहुंचना है, तो यह द्वेष हो गया। यों उस हाथी के गिराने में अज्ञान, राग और द्वेष तीनों मदद कर रहे हैं।
मोह, राग, द्वेष का पारस्परिक सहयोग- मोह, राग और द्वेष- इन तीनों में एक जिगरी दोस्ती सी है। एक के बिना शेष दो व्याकुल हो जाते हैं। मोह न रहे तो राग द्वेष अपने प्राण खो देते हैं, राग द्वेष मंद हो जाएँ तो मोह को अपनी जान बचाना मुश्किल हो जाता है। ये तीनों एक दूसरे के अनुग्रह पर जीवित रहा करते हैं। यह रति नामक कषाय इष्ट पदार्थ में प्रीति करने वाली है। ये हास्य और रति दोनों रागभाव हैं। इन विकल्पजालों का जो परित्याग करता है उसके समता प्रकट होती है।
नोकषायों में अरति व शोक का स्थान- यह परमसमाधि अधिकार है। इस अधिकार में पूर्व गाथावों में अब तक परमसमाधि के पात्र की विशेषताएँ बताते जा रहे हैं और इन दो गाथावों में यह कहा जा रहा है के जो हास्यादिक 9 प्रवृत्तियों को नित्य ही त्यागते हैं, निरंतर त्यागे रहते हैं उनके परमसमाधि प्रकट होती है। हास्य और रति ये दोनों राग भाव हैं, इनके विपरीत जो प्रवृत्ति है वह है- शोक और अरति। जहाँ हास्य नहीं है वहां शोक है। किसी अनिष्ट प्रसंग में चिंतातुर हो जाना, शोकमग्न हो जाना, यह शोकभरी प्रवृत्ति है। कुछ बाहर की ओर मुड़ने पर ही यह नोकषाय प्रवृत्ति हुई है। रागभरे भावों से जब बाहर की ओर मुड़े तो हास्य आये और द्वेष भरे भावों से जब बाहर की ओर मुड़े तो शोक आये। इन दोनों ही दशावों में मूल एक पर्याय की पकड़ है। चाहे कोई जीव हास्य में मग्न हो अथवा शोक में मग्न हो, मूल में अपराध दोनों में एक है, वह है अपनी पर्याय में आत्मीयता की कल्पना करने का।
विषमता के परिहार में समाधिभाव का आविर्भाव- यों यह जीव शोक के वश में होकर अपने को विषमता में ला देता है। जो परम जिन योगीश्वर इस शोक को दूर करते हैं उनके ही परमसमाधि प्रकट होती है, ऐसे ही यह अरति परिणाम है, अनिष्ट पदार्थों को निरखकर अप्रीति का भाव होना सो अरति है। यह प्राय: क्रोध और मानकषाय के संस्कार में प्रकट होता है। जगत के सभी जीव अपनी ही तरह एक स्वरूप के हैं, फिर भी इन अनंत जीवों में से दो-चार को अपना मानकर उनमें हास्य रति की प्रवृत्ति करना और बाकी को गैर मानकर उनके प्रति अरति और शोक जैसी प्रवृत्ति रखना, यह अज्ञानभरा आशय है और जब तक यह आशय है तब तक संकट नहीं छूट सकते हैं। जो जीव हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इनको निरंतर त्यागते हैं, उनके ही परमसमाधि होती हैं। परमसमाधि में ही परमतृप्ति है ,विषमता में नहीं है।
ग्लानिभाव में समता का अभाव- जुगुप्सा ग्लानिपरिणाम को कहते हैं। जो मनुष्य थोड़ी-थोड़ी बात में भी ग्लानि करता है उसके समतापरिणाम की कैसे संभावना हो सकती है? आत्मस्वरूप में स्थिरता की कोई बात चाहिए और उसे परपदार्थ साधारण-साधारणसी दशा में भी अनिष्ट जँचने लगे तो समता कैसे आ सकती है? ग्लानिपरिणाम, द्वेषपरिणाम आए बिना नहीं होता है। द्वेष चेतन में भी होता है और अचेतन के विषयों में भी होता है।
अचेतनविषयक ग्लानि- कहीं गंदी जमीन है अथवा हड्डी थूक आदिक पड़ा हुआ है, मलमूत्र पड़ा है वहां भी जो भीतर में घृणा का परिणाम उठता है वह परिणाम भी वास्तव में कुछ द्वेष हुआ तब उठता है जब द्वेष परिणाम परिणत में हुआ करता है। उसे जो कुछ अनिष्ट होगा उसही में द्वेष होता है। इस जीव को शौक श्रृंगार प्रिय है, शौक शान वाला है, अपनी बड़ी महत्ता समझता है, झूठा बड़प्पन मानता है, अपने शरीर को बहुत ही स्वरूपवान् और सब कुछ समझता है। उसे जब ये अन्य चीजें दिखती हैं तो घृणा आने लगती है। जिसकी प्रकृति घृणा करते रहने की बने उसके समता कैसे विराजेगी?
अन्य चेतनविषयक ग्लानि- इसी प्रकार दूसरे प्राणियों में, मनुष्यों में घृणा का परिणाम रक्खे तो समता कहां ठहरेगी? दुराचारी नीच पुरुषों का संग इसलिये दूर रक्खा जाता है कि कहीं उसके दुराचरण का प्रभाव मेरे ऊपर न आए। अपने को सुरक्षित रखने के लिए उनसे बचा जाता है, पर कोई उनसे अंतर में घृणा का भाव करे, उनसे द्वेष करने लगे तो यह जुगुप्सा है, यह हितकारी भाव नहीं है। अपनी रक्षा के लिए दूर रहना यह घृणा में शामिल नहीं है, किंतु रक्षा का तो जहां ध्यान नहीं है, अपने पर्याय को बहुत आदर्श और महत्त्वपूर्ण मानता है, लोक में श्रेष्ठ समझता है और इस ही बात पर अन्य पुरुषों से घृणा करता है तो वह घृणा है, पाप है और इससे आगे चलो तो अपने समान कुल वाले उच्च पुरुषों में भी अपनी पर्यायबुद्धि के संस्कारवश अपने को बड़ा समझकर दूसरों को जो तुच्छ, मंदबुद्धि मानता है वह भी जुगुप्सा का पाप कर रहा है। ऐसे पुरुषों में समतापरिणाम कहाँ विराज सकता है? जो जुगुप्सा परिणाम से रहित है उसके ही समतापरिणाम हो सकता है।
विभावविचिकित्सा– अच्छा और आगे चलिये- अपने आपमें जो विपरीत वृत्तियां उठती हैं, जो अपना स्वभाव नहीं है ऐसे विकार, ऐसी वेदनाएँ जो उत्पन्न होती हैं, स्नेह हुआ, द्वेष हुआ, क्षुधा हुई, तृषा हुई आदिक परिणाम होते हैं उन वेदनावों में ग्लानि करना याने दु:खी होना, कायरता आ जाना, जुगुप्सा का परिणाम बनना, ये वृत्तियां अगर चलती हैं तो वहां समता कहां विराज सकती है और इससे भी आगे देखो कि इस जुगुप्सावान् पुरुष ने किसी परपदार्थ पर घृणा नहीं की, किंतु अपने आपके प्रभु से ही घृणा की है। जो अपने परमात्मा से घृणा करे उसके लिए उसकी रक्षा का ठिकाना कहां रह सकता है? जो पुरुष जुगुप्सा का परित्याग करता है उसके ही समाधिभाव स्थायी है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है।
भय में समता का अभाव- जैसे जुगुप्साभाव इस जीव का अहितकारी परिणाम है, इसी प्रकार भय का परिणाम भी जीव का अहित करता है। यह संसारी प्राणी अपनी निधि आनंदस्वरूप का परिचय नहीं पा रहा है, इस कारण छोटी-छोटी घटनावों के प्रसंग में भी यह भय किया करता है। सबसे बड़ा भय इसको यह होता है कि कहीं मैं मिट न जाऊँ। कहीं तो यह मरने को मिटना समझता है और कहीं अपनी धन-संपदावों में भंग पड़ने को मिटना समझता है। जहां भय है वहां न धैर्य है और न समता है। भय के मूलकारण दो होते हैं- एक तो धन से मोह होना और दूसरा जीवन से मोह होना। जिस पुरुष को न धन से मोह है, न जीवन से मोह है उसको भय कहां से आयेगा? ज्ञानी पुरुष जानता है कि यह धन क्या वस्तु है? अनेक परमाणुवों का मिलकर एक स्कंध बन गया है और इस स्कंध को लोग धन कहा करते हैं, यह धन मायास्वरूप है, मिट जाने वाला है, मेरे से भिन्न है, इसके परिणमन से मेरे में कुछ सुधार अथवा बिगाड नहीं आता है, ऐसा यह ज्ञानी पुरुष निरख रहा है, इसके धन में मोह का परिणाम नहीं होता है।
ज्ञानी का निरापद ज्ञान- धन्य है वह ज्ञानी का ज्ञान जिस ज्ञानप्रकाश में अपना केवल ज्ञानप्रकाश ही नजर आ रहा है और इस परिज्ञान के कारण उसके चित्त में किसी भी प्रकार की विह्वलता नहीं होती है। धन बिगड़ता है तो वह मायास्वरूप है, उससे इस ज्ञानपुन्ज आत्मतत्त्व की कुछ हानि नहीं है। यश बिगड़ता है तो वह मायामय पुरुषों के हृदय की चीज है, मेरा कुछ नहीं है। उसमें मेरा कुछ बिगाड़ नहीं है। जीवन बिगड़ता है तो यह एक पुराने घर को छोड़कर नये घर में जाने का उद्यम है। इससे भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं है, ऐसे यथार्थस्वरूप के परिचय के कारण जो पुरुष साहसंवत होते हैं उन पुरुषों के ही सामायिकव्रत स्थायी हो सकता है।
भय की कल्पनावों के रूपक- कल्पना ही भय का मूल आधार है। जीव तो नि:शंक ज्ञानानंदस्वरूप मात्र है। इस अंतस्तत्त्व में जिसका उपयोग जाय उसको किसी भी प्रकार का संकट और भय नहीं रहता है, भय तो कल्पना से उत्पन्न किया जाता है। भय को जो ज्ञानी पुरुष छोड़ देता है उसके ही यह सामायिक व्रत स्थायी होता है। भयों की जाति मूल में 7 प्रकार की कही गयी है―इहलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय व आकस्मिकभय। मेरी आजीविका न बिगड़ जाय, मेरी परभव में दुर्गति न हो जाय, रोगादिक की पीड़ा न हो जाय, मेरा कोई रक्षक नहीं हैं क्या होगा? मेरा घर दृढ़ नहीं है, मेरी कैसे रक्षा होगी? मेरा मरण न हो जाय, कहीं अचानक कोई संकट न बन जाय, वे सब भयों के रूपक हैं। भय का विनाश होने पर ही समताभाव ठहर सकता है।
ऐहिक भय- किसी को इसी जीवन में आजीविका का विकट भय लगा है, कहीं मेरी आजीविका नष्ट न हो जाय, फिर मेरा क्या हाल होगा, मैं रहूंगा अथवा नहीं, इस भयशील अज्ञानी पुरुष को यह विश्वास नहीं है कि मैं आत्मा सत् हूं, सत् का कभी विनाश नहीं होता है। इस आत्मा को यह खबर नहीं है कि पुण्य-पाप कर्म सभी इस संसारी जीव के साथ लगे हैं, उनके अनुकूल जीवों के सुख-दु:ख होते हैं। बाहरी साधनों को जुटाकर क्या मैं कर्म बदल लूँगा? कर्मपरिवर्तन होता है तो आत्मा की विशुद्धि का निमित्त पाकर होता है। यह मोही जीव बहिर्मुखदृष्टि करके बाह्यपदार्थों को जोड़कर अपनाकर अपना भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहता है, पर ज्यों-ज्यों यह बाह्य प्रसंगों में भिड़ता जाता है त्यों-त्यों भय के साधन बढ़ते जाते हैं। जो पुरुष भय नामक नोकषाय का सर्वथा त्याग कर देते हैं उनके ही सामायिक व्रत स्थायी हो सकता है।
वेद नोकषाय की विडंबना- इन नोकषायों में बहुत विकट प्रवृत्ति है वेद की। स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद- इन वेदभावों में कामविषयक, मैथुनविषयक प्रवृत्ति और अभिलाषा रहती है। जो जीव काम प्रवृत्ति के भी योग्य नहीं हैं। नपुंसक हैं ऐसे जीवों के भी यह कामविषयक पीड़ा रहती है। जो जीव पंचेंद्रिय भी नहीं है, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय अथवा चार इंद्रिय हैं उनमें भी यह कामव्यथा पायी जाती है, वे भी जीव हैं। परिणाम उनका उनके साथ है। किसी की अंत: पीड़ा को हम आप कैसे जाने? अन्य की तो बात जाने दो, जो एकेंद्रिय जीव हैं, जो खड़े रहते हैं, जिनके कुछ उद्योग भी नहीं है ऐसे जीवों में भी वेद व्यथा पायी जाती है। कितना यह विडंबित लोक है?
वेदवृत्ति में समता की असंभावना- स्त्रीवेद के उदय में स्त्री को पुरुषविषयक अभिलाषा और पुरुषवेद के उदय में पुरुष को स्त्रीविषयक अभिलाषा हुआ करती है परंतु विडंबना तो देखा, यदि पुरुष के भी स्त्रीवेद का उदय आ जाय तो शरीर से यद्यपि वह पुरुष है तो भी स्त्री के समान अपने परिणाम मलिन बनायेगा। स्त्री शरीर वाले जीव के यदि पुरुषवेद का उदय आ जाय तो वह स्त्री भी पुरुष की तरह अपने परिणाम बनायेगी। ये कितनी विपरीत वृत्तियां हैं? कहां तो यह आत्मा स्वतंत्र, निश्चल, निष्काम मात्र ज्ञातादृष्टा रहने का विरद वाला है और कहाँ उसकी इतनी मलिन प्रवृत्ति जग गयी है। जो जीव इन वेद नोकषायों के सताये हुए हैं उनके समाधिभाव प्रकट नहीं हो सकता है।
विषयप्रसंग की अहितकारिता- इन नोकषायों से जिनका आत्मा कलंकित है, जिस कीचड़ में सब प्रकार के विकार पनपा करते हैं उन समस्त विकारों के मूल मोहभाव को जो परमतपस्वी त्याग देता है, उसके यह परमसमाधि प्रकट होती है। जीव को पारमार्थिक आनंद समाधिभाव में ही मिलता है। समाधिभाव से उल्टा परिणाम है विषम प्रसंग। 5 इंद्रियां और एक मन, इन 6 के विषयों से दूर होने पर ही समाधिभाव प्रकट होता है। इन विषय प्रसंगों में कदाचित् काल्पनिक सुख मिल जाता है परंतु वह सुख भी दु:ख से भरा हुआ है, वहां भी आकुलता मची हुई है। इन नोकषायों से कलंकित समस्त विकारजालों को जो पुरुष दूर कर देता है उसके ही परमसमाधि का आनंद प्रकट होता है।
योगी की निश्चयरत्नत्रयात्मकता- यह परमतपस्वी निश्चयरत्नत्रयात्मक है। जैसे किसी पुरुष को निरख कर लोग नाना रूपों में पकड़ते हैं, यह पुरुष क्रोधी है, यह पुरुष मायावी है, यह लोभी है आदि। तो ये मोक्षमार्ग के प्रमुख नेता, प्रमुख पथगामी योगीश्वर कैसे हैं? इसका उत्तर इतना ही जानो कि ये निश्चयरत्नत्रयात्मक हैं। आत्मा का जो सहजस्वरूप है उसका यथार्थ श्रद्धान और उसका यथार्थ ज्ञान और उसमें ही आत्मरमण बना रहना, ऐसा जो तीनों परिणमनों का एकत्त्व है, जिसको किसी एक शब्द से भी नहीं कहा जा सकता है, ऐसे पवित्र रत्नत्रयस्वरूप ये योगीश्वर हैं, ये रत्नत्रयात्मक योगीश्वर इन विकल्पजालों को परमसमाधि के बल से त्यागते हैं और इन ही रत्नत्रयात्मक संन्यासी जनों के यह सामायिक नाम का व्रत शाश्वत रहा करता है, यह केवली भगवान के शासन में प्रसिद्ध किया गया है।
विवेकमयी चिंतना- ज्ञानी संत बाह्य वृत्तियों से हटकर अंतर्वृत्ति में प्रवेश करने के लिए साहसपूर्ण चिंतन कर रहा है। मैं इन समस्त सुख-दु:खों की वृत्ति को त्यागता हूं। यह कषायभाव दु:ख स्वरूप है, इन कषायों से दु:ख होता है, इतना भी विलंब मत डालो, किंतु यह कषाय स्वयं दु:खरूप है, ऐसा निर्णय रक्खो। कषाय करके कोई जीव क्या सुखी हो सका है? लोग द्वेष में आकर कलह बढ़ाते हैं, पर कलह बढ़ाकर कभी विद्रोह शांत हो सका है क्या? कलह में तो कलह बढ़ता ही चला जाता है। उन सब कलंकों के भूल की बात अत्यंत छोटी होती है, किंतु मूल में तो भयभरी छोटीसी बात है और उसका विस्तार इतना फैल जाता है कि उसका मिटाना कठिन हो जाता है। घर में भी कोई झगड़ा बढ़ जाता हैं तो बढ़ता ही चला जाता है, किंतु इतना बढ़ा हुआ उत्पन्न नहीं होता है। झगड़ा जिस किसी भी समय शुरू होता होगा वह अत्यंत तुच्छ बात रहती है। बाद में फिर वह झगड़ा बढ़ता जाता है। झगड़ा बढ़ते-बढ़ते इतनी सीमा तक बढ़ जाता है कि जिसका निपटारा करना कठिन हो जाता है। कोई अपने मन पर विजय प्राप्त कर ले तो उसके कलह नहीं बढ़ सकती है।
विडंबनाविस्तार- यहां भी संसार में देखो, कितनी विडंबनाएँ बढ़ी हुई हैं, किसी का मनुष्य जैसा शरीर है, किसी का पशु-पक्षी जैसा शरीर है, जलचर जीवों का अन्य प्रकार का शरीर है; पृथ्वी, कीड़ा, मकोड़ा, पेड़, सभी जीव कैसे-कैसे विचित्र विभिन्न शरीर वाले हैं, यह तो है शरीरों की कथा। उन जीवों के भीतर के परिणाम भी कितने विचित्र-विचित्र हैं? ये सब विचित्र विडंबनाएँ कैसे हुई हैं? इसका जब कुछ साधन सोचते हैं तो अंत में सोचते-सोचते बहुत छोटी बात मिलती है। वह क्या? इस जीव ने अनात्मतत्त्व को आत्मारूप से मान लिया। बस कसूर इतना ही मिलता है, इस पर अपराध का विस्तार कलह, विडंबना, विपदा इतनी बढ़ गई कि आज इस विडंबना को मिटाना कठिन हो रहा है। यह जीव शरीर और कर्म से छूटकर अपने में विश्राम पा ले, ऐसा उद्यम करना बड़ा कठिन मालूम हो रहा है।
मोह में कुमतिप्रसार- अहो ! जिस मोह के कारण यह जीव दु:खी है वही मोह इसे आसान जँच रहा है। यह मोही रागद्वेष को तो आसानी से कर लेता है जो कि विभाव हैं, विकार हैं, पराधीन हैं और अपना धर्मपालन और स्वभाव की दृष्टि जो कि सुगम है, स्वाधीन है उसे करना कठिन प्रतीत हो रहा है। ये समस्त नोकषायों के विकार इस मोही अंधे जीव को सुलभ मालूम हो रहे हैं। जो वस्तु अपनी नहीं है, जो परतत्त्व है उसके मोह में किसने आराम पाया है? पुराणों को देखो- जिन-जिन जीवों ने जिनसे मोह बढ़ाया था उनके निमित्त से उनको केवल क्लेश ही मिला है। कौरव पांडवों का कितना विकट युद्ध था? वह एक राज्य के स्नेह में ही तो हुआ था। किन्हीं भी महापुरुषों ने जो-जो विडंबनाएँ सहीं उन सबका मूल कारण एक स्नेहभाव था। चाहे लोकनीति का स्नेह किया हो, चाहे अन्याय का स्नेह किया हो पर उस स्नेह का परिणाम नियम से क्लेश ही है।
सुगम और दुर्गम कार्य- जो जीव अज्ञान और मोह से अंध हो गए हैं उन जीवों को ही ये मोह और भोग के साधन रुचिकर और सुलभ मालूम होते हैं, किंतु जो ज्ञानी हैं, जो सहज ज्ञानप्रकाश से समृद्धिशाली हैं, आनंदमग्न हैं, उन पुरुषों को तो केवल यही निज ज्ञानप्रकाश का दर्शन ही रुचिकर होता है। उन्हें विदित है कि यह धर्मपालन कितना सुलभ है, अपना ही तो यह उपयोग है और अपना ही स्वयं यह शाश्वत परमात्मतत्त्व है। यह उपयोग अपने आपको ग्रहण कर ले तो इसमें कौनसी अटक आती है? यह तो सुगम काम है। इस ज्ञानी पुरुष को अपना यह स्वानुभवरूप कार्य सुलभ लग रहा है और इन विषयप्रसंगों में चित्त जाना यह उन्हें कठिन लग रहा है।
ज्ञानी का धैर्य और अविचलितपना- ज्ञानी पुरुष के अनेक प्रकार के भोग साधन भी उपस्थित हों तो भी वे नहीं सता सकते हैं। शास्त्रों में सुनते हैं, देखते हैं कि अमुक पुरुष के प्रति सुंदर देवांगनावों ने भी मन को चिगाने का काम करना चाहा तो भी न चिगे । सुदर्शन सेठ को कामविह्वला रानी ने कितना डिगाना चाहा तो भी न डिगे। ऐसी अडिगता की बात सुनकर मोहीपुरुष आश्चर्य करने लगते हैं, क्योंकि उन्हें तो यह कामविजय बड़ा कठिन मालूम होता है। ऐसे-ऐसे भी बलवान पुरुष जो अपने बल से बड़े क्रूर हस्ती और सिंहों को भी वश कर लें, हजारों सुभटों को भी अपनी लीलामात्र से ही परास्त कर दें, ऐसे सुभट भी इस कामवाण से व्यथित हो जाते हैं और-और भी रागद्वेष मोह के विकारों से त्रस्त हो जाते हैं। ये विकारभाव अज्ञानीजनों को त्यागने कठिन हो रहे हैं, किंतु ज्ञानी संतजनों को तो ये एक लीलामात्र ही मालूम होते हैं। वे तो इन विकारभावों से अपने उपयोग को हटाकर शीघ्र ही अपने आपकी परमप्रभुता का दर्शन पा लेते हैं।
आत्मनिधि के अधिकारी- जो जीव वस्तुस्वरूप के अध्ययन से भेदविज्ञान प्राप्त करते हैं और भेदविज्ञान के अभ्यास से परपदार्थों की उपेक्षा करके निज तत्त्व में रत होने का यत्न करते हैं, ऐसे पुरुषों के ही यह परमसामायिक स्थायी होती है। ऐसी जिसके सामायिक स्थायी हो चुकी है ऐसे भगवंत पुरुषों ने यह प्रदर्शित किया है। यह परमशरण तत्त्व समाधिलीन जीवों को जो आनंदरस से समृद्धिशाली हो रहे हैं ऐसे पुरुषों को सुलभ है। जो कषायों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं उन्हें आत्मनिधि सुगमता से प्राप्त हो जाती है।