वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 134
From जैनकोष
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्ति कुणदि सावगो समणो।
तस्स हु णिव्वुदिभत्ती होदित्ति जिणेहि पण्णत्तं ।।134।।
समता और भक्ति की निकटता- समाधि के बाद अब यह भक्ति का अधिकार आ रहा है। समाधि का अर्थ है समता और भक्ति का अर्थ है भजना, सेवन करना या यों कहो कि यह योगी समता का तो कर्ता है और भक्ति का भोक्ता है। इस भक्ति अधिकार में इस भक्ति को निर्वाणभक्ति के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है। भक्तियों में उत्तम भक्ति निर्वाणभक्ति है। किसकी सेवा करना है, किसमें लगना है, जिसमें अपना शरण है, यह हो तो वहाँ ही उत्तम भक्ति है। निर्वाण का अर्थ कुछ लोग बुझ जाना भी कहते हैं। जैसे दीपक बुझ गया, दीपक का निर्वाण हो गया। इस निर्वाण में समस्त संकट बुझ जाते हैं इसलिए इसे निर्वाण कहते हैं। जो पुरुष श्रावक हो अथवा साधु हो, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आचरण में भक्ति को करता हो उसके निर्वृत्तभक्ति होती है, ऐसा जिनदेवों ने कहा है।
आत्महित का कार्य- भैया ! काम एक है―पदार्थ अपने स्वरूप में रहे, यह आत्मा अपने स्वरूप में रहे, यही मोक्ष है, यही मोक्षमार्ग है। खुद खुद में रहे यह इतना कठिन काम हो गया है कि इसके लिए बडी भावनाएँ, बड़ा तत्त्वज्ञान, बड़े शास्त्राभ्यास आदि अनेक उपाय रचे जा रहे हैं। काम कितना करना था जिसके लिये इतने उपाय रचे गए? खुद-खुद में रह जाय, इतना करना था, पर हो क्या रहा है? यह उपयोग इस ही का है, पर यह उपयोग अपनी ओर रंच भी नहीं झुक रहा है और एकदम पर की ओर दौड़ा जा रहा है। वस्तुस्वरूप अब भी करुणा कर रहा है। उपयोग चाहे कितनी ही दूर पहुंच जाय, फिर भी उपयोग आत्मप्रदेश में ही बन रहा है। यह कहीं अपने आधारभूत आत्मा को त्यागकर बाहर नहीं जाता। यह जीव किसी भी बाह्य पदार्थ में ममत्व कर रहा हो, तिस पर भी इसकी कुछ भी अपनी अंतरंग पर्याय आत्मप्रदेश को छोड़कर बाहर नहीं जाती है। वस्तुस्वरूप मिटता नहीं है, न वह कभी धोखा दे सकता है, यह जीव कल्पना से स्वयं धोखा खाता रहता है, परपदार्थों से धोखा कुछ भी नहीं है। चतुर्गतिरूप संसार में जो जीव का भ्रमण चल रहा है इस भ्रमण का कारण अपने आपकी सुध न रहना और अपने उपयोग को बाहर में फैलाना है।
आत्मा का ऐश्वर्य- यह जीव ऐश्वर्यशाली है, आत्मा की ओर यह बढ़े तो बढ़ने का चमत्कार दिखाता है और बाह्य की ओर बढ़े तो अपने बिगाड़ का चमत्कार दिखाता है। विकृति और बिगाड़, इन दोनों का एक ही अर्थ है। बिगाड़ में भी वस्तुस्वरूप नहीं मिटता जैसे कि विकार में नहीं मिटता है। विकृति संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत शब्द है- वियडि, विगडि और उसी का बिगड़कर हिंदी में बिगाड़ शब्द रह गया। यह आत्मा बिगाड़ की ओर लगा तो ऐसा बिगड़ता है कि पेड़ों में फल-फूल पत्तियों में फैल जाता है, और उसका सन्निधान पाकर नोकर्म वर्गणाएँ फूल, पत्ते, मकरंद, केसर कितने ही प्रकार के परिणमन बन जाएँ यह क्या ईश्वर की कला नहीं है? यह ही परमेश्वर अपना ऐसा चमत्कार दिखाता है कि यह अपनी ओर मुड़ जाय, स्वरूप में प्रवेश करे तो यह लोकालोक का ज्ञाता विशुद्ध आनंद का भोक्ता परम आदर्श बन जाता है। जिसमें कला होती है वह कलावान् अपनी कला का विस्तार किए बिना नहीं रह सकता है। यह आत्मा भी परमकलासंपन्न है और इसी कारण यदि अपनी कला का विस्तार बिगड़ रहा हो तो वहाँ भी बनाता है और सुधर गया हो तो वहां भी बनाता है।
आशय के अनुरूप प्रवृत्ति की दिशा- प्रवृत्तियों की गाड़ी आशय से चलती है। जैसे नाव के खेने वाले तो केवल नाव खेते हैं, बढ़ते हैं आगे, परंतु किस ओर नाव बढ़े, यह कर्णधार के आधीन है। जो पीछे करिया लगा रहता है उसके आधीन है कि नाव किस ओर बढ़े और खेने वाले तो खेते जाते हैं, ऐसे ही आचरण तो खेने वाले की तरह है। आत्मा में परिणति प्रतिक्षण चलती जाती है, पर किस ओर परिणति चले इसका कर्णधार है श्रद्धागुण। जिस प्रकार का आशय हो उस ओर ही इसकी परिणति बढ़ेगी। जब जीव के मिथ्या आशय रहता है तो उस आशय से इस जीव का चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण होता है। मिथ्याभाव का उल्टा है सम्यक्त्व। जब सम्यक्त्वभाव उत्पन्न होता है तो इसकी वह दशा भी बदल जाती है। अब यह आत्मा निज परमात्मतत्त्व का श्रद्धान और इस परमप्रकाश का ज्ञान और इस परमप्रकाश के अनुरूप प्रकाशमय आचरण करने लगता है। इस ही का नाम है शुद्ध रत्नत्रय परिणाम।
वस्तु का एकत्व- प्रत्येक वस्तु एक होती है, उसका स्वभाव एक होता है और उसका प्रति समय का परिणमन भी एक ही होता है। लोग कहते हैं कि आग का काम जलाना है, अग्नि का काम प्रकाश करना है, अग्नि का काम ठंड वाले को भला लगना है, अग्नि का काम संताप से पीड़ित पुरुष को पीड़ा देना है, कितने ही काम लोग बता डालते हैं, पर अग्नि के इतने काम है ही नहीं। अग्नि का काम अग्नि में केवल एक है, जिसको बताने का कोई शब्द नहीं है। उस अग्नि का निमित्त पाकर वस्तुवों में क्या-क्या परिणमन होता है उनका नाम लेकर लोग कहा करते हैं कि अग्नि का काम जलाना है, अग्नि का काम प्रकाश करना है, यह सब नैमित्तिक बातों की उपेक्षा से प्रतिपादन है। अग्नि का सन्निधान पाकर योग्य निकट में समागत पदार्थ अपने परिणमन से प्रकाश पर्यायरूप हो जाता है, अग्नि दूसरे को प्रकाशित नहीं करती है। अग्नि का निमित्त पाकर ठंड वाले पुरुष अपनी ठंड पर्याय को त्यागकर गरमाहट अनुभव करते हैं। अग्नि पुरुष को गर्म नहीं कर देती है, किंतु वह एक ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है जिसमें व्यवहार में यों ही कहना पड़ता है कि इसने ही यह सब कुछ किया।
आत्मकार्य- यह आत्मा वस्तुत: क्या करता है? जिसको करता है वह एक चिद्विलास है, आत्मा का एक स्वभाव है, क्या स्वभाव है? वह केवल अनुभवगम्य है। जिस काल में उस चिद्विलास का अनुभव हो रहा है उस काल में भी भेदरूप जानकारी नहीं चल रही है, वहाँ स्वभाव के अनुभवरूप तो सुध है, पर स्वभाव की विकल्पात्मक जाननरूप सुध नहीं है। यह आत्मश्रद्धान करता है, पदार्थों को जानता है आदिक भावरूप प्रतिपादन किया जा रहा है, पर आत्मा स्वयं में अपने आपका क्या कर रहा है? वह तो आकाश आदिक की तरह अपने आपमें शुद्ध अर्थपरिणमन कर रहा है। अंतर इतना है कि वह अचेतन है और यह आत्मा चेतन है। वह अचेतनात्मक विलास करता है और यह चिद्विलासात्मक विलास करता है, पर स्वयं में तो यह अपने अर्थपरिणमनरूप ही परिणम रहा है। उस एकत्व परिणमन में जो परिणत है उसे कहते हैं शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा। इस शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा का सेवन होना, भक्ति होना, आराधना होना, यही परमभक्ति है। इस परमभक्ति में क्षमागुण स्वत: प्रकट हो गया है, इस परमभक्ति में मान नष्ट हो चुका है और पूर्ण मृदुलता आ गयी है, इस स्वभावभक्ति में छल कपट का अवकाश नहीं है, इस स्वभाव की आराधना में तृष्णा का कहीं काम ही नहीं है।
लुटे-पिटे की तृष्णा- जब किसी बड़ी निधि वाले की बड़ी निधि हर जाती है तो उसको छोटी चीज में बड़ विकट तृष्णा उत्पन्न हो जाती है। कोई बड़ा पुरुष पापोदय से अपनी निधि को गँवा दे तो वह निधि को बड़े बेढंग ढंग से गँवा देता है। सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात को वह दूसरे के यहाँ गिरवी नहीं रखता है, दूसरों के हाथ से दूसरों के यहाँ गिरवी रखाता है। जब निर्धन हो जाता है और घर के खपरा बिकने लगते हैं तो वह उन खपरों को गिन-गिन कर देता है। अरे ! पहिले जब निधि लुट रही थी तब रंच भी परवाह न करता था, आज जब बडी निधि लुट गयी तो छोटे-छोटे विषयों के आनंद की तृष्णा हो जाती है। ऐसे ही यहां अनंत आनंद की निधि लुट गयी है तो छोटे-छोटे विषयों के आनंद की तृष्णा हो जाती है। अपने स्वभाव की भक्ति से सर्वविषयकषाय शांत हो जाते हैं और गुमी हुई आनंद की अनंत निधि प्राप्त हो जाती है।
श्रावकपद- इस स्वभावभक्ति को, शुद्ध रत्नत्रय के सेवन को साधु और श्रावकजन दोनों करते हैं। अब जितना जहां शुद्ध चारित्र प्रकट हुआ है, आत्मरमण का बल प्रकट हुआ है वह उतने रूप में इस शुद्ध रत्नत्रय की सेवा करता है। श्रावक 11 पदों में मिलते हैं, जिनके नाम हैं―दार्शनिक, व्रती, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्त त्यागी, रात्रिभुक्तित्यागी व ब्रह्मचारी, निरारंभी, परिग्रहत्यागी, अनुमतिविरत व उदि्दष्टाहारत्यागी-
इन ग्यारह पदों में आत्मरमण उत्तरोत्तर विशेष जाहिर होता है। यह पद सहज ज्ञान और वैराग्य के कारण हुआ है। यह पद ज्ञानी पुरुष के सहज होता है। जैसे सामायिक नाम का व्रत है। जो ज्ञानहीन पुरुष हैं, वैराग्यहीन हैं उन्हें सामायिक जानकर हठपूर्वक करना पड़ता है और ऐसी हठपूर्वक क्रिया में उनके भाव संक्लिष्ट रहते हैं, जबकि ज्ञानी पुरुष सामायिक के कर्तव्य को छोड़कर अन्य किसी कर्तव्य को आफत मानते हैं और सामायिक का काल आये, सामायिक की विधि करने लगे तो उसे परमविश्राम मिलता है और अज्ञानी की अंतर्ध्वनि यह निकलती है कि अब सामायिक करने का समय आ गया है। नियम लिया है इसलिए हमें करनी पड़ेगी, वह आपत्ति मानता है। सब आचरणों का मूलतत्त्व ज्ञान और तत्त्वश्रद्धान है।
श्रावकपदों में विभाजन- श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में ऐसा विभाजन है कि प्रथम 6 प्रतिमाएँ तो जघन्य श्रावक की मानी जाती हैं, बाद की 3 प्रतिमाएँ मध्यम श्रावक की मानी जाती हैं और उसके बाद की दो प्रतिमाएँ उत्तम श्रावक की समझी जाती हैं। जब तक पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य की साधना नहीं होती है तब तक श्रावक को जघन्य प्रतिभावान् कहा गया है, यद्यपि वह सचित्त का त्याग किए है, रात्रिभोजन का अनुमोदन भी नहीं करता, सामायिक और व्रत भी करता है। अब और शुभ प्रवृत्ति करने में कौनसी कसर है। इसके बाद यह निवृत्ति-निवृत्ति आयेगी, किंतु प्राय: काम तो 6 प्रतिमा तक है। बाद में तो निवृत्ति है, लेकिन जब तक ब्रह्मचर्य की परिपूर्ण साधना नहीं होती तब तक ये सब जघन्य श्रावक की प्रतिमा कहलाती हैं। इसके बाद जब तक अनुमोदन का संस्कार है अर्थात् घर वालों से किसी प्रकार का संबंध है तब तक मध्यम श्रावक कहलाता है, यद्यपि वह ब्रह्मचारी है, निरारंभी है, वस्त्र और बर्तन के सिवाय कोई परिग्रह नहीं रख रहा है। 9 वीं प्रतिमा में तो किसी ने बुलाया तो खा लिया, न बुलाया तो न खाया और भी कितनी ही स्थितियाँ हैं तब भी जब तक गृहकार्य की अनुमोदना कर रहा है तब तक वह उत्तम नहीं कहलाता। अनुमोदन तक का भी त्याग हो और केवल आत्मसाधना का समर्थन हो यह उत्तम श्रावक के होता है।
संकटहारी निर्वाणभक्ति- ये सभी श्रावक शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं और परमतपस्वी जन तो संसार के संकटों से अलग होना चाहते हैं, परमनिष्कर्म अवस्था में जिनकी वृत्ति है, ऐसे परमतपस्वी जन इस शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते है। यही भक्ति उनकी निर्वाणभक्ति है, मोक्षस्वरूप लक्ष्मी की भक्ति है। परमभक्ति में यह बताया है कि भक्ति करो उत्कृष्ट रूप से तो वह भक्ति निर्वाण की हो सकती है, उससे पहिले जितनी भी भक्ति हैं वे सब भक्ति निर्वाण की प्रयोजिका हैं, परमभक्ति तो निर्वाण की भक्ति है। जो जीव इस सम्यक्त्व की, ज्ञान की और चारित्र की निरंतर भक्ति करते हैं वे संसार के संकटों से निवृत्त हो जाते हैं। भवभयहारी यह भक्ति, किसी बड़े की भक्ति भय से निवृत्त होने के लिए ही की जाती है। समस्त भय दूर हो जाएँ, ऐसा बड़ा कौन है जिसकी भक्ति से ये सब संकट टलें? वह है निर्वाण अथवा सदाशिवमय आत्मतत्त्व। इस विमुक्त एकत्वस्वरूप की भक्ति में सर्व प्रकार के भय दूर हो जाते हैं। जो इस शुद्ध रत्नत्रय की निरंतरभक्ति करते हैं वे श्रावक हों अथवा संयमी हों, वे काम, क्रोध, मान, माया, लोभ सब बैरियों से मुक्त हो जाते हैं।
सुरक्षित स्वधाम में विश्राम का अनुरोध- इस जीव ने विकल्प किया कि कषाय बैरियों ने आक्रमण किया, विकल्प न किये जायें तो ये बैरी कहां से आक्रमण करें? किसी खरगोश के पीछे शिकारी कुत्ते छोड़े जाते हैं तो खरगोश छलांग मारकर, भागकर किसी झाड़ी में जा छिपता है, पर वह यह कल्पना बनाता है कि कहीं कुत्ते आ तो नहीं रहे हैं सो उन्हें देखने के लिए वह झाड़ी से बाहर निकलता है, अपने गुप्तस्थान को छोड़ देता है और शिकारी कुत्ते उसे देखकर उसका फिर पीछा करते हैं। अरे खरगोश ! तू धैर्य रख, शंका करना छोड़ देता तो फिर तुझ पर कोई आफत न आती। तू तो स्वरक्षित हो गया था, पर वह गुप्त स्थान पर गुप्त नहीं रहता है। ऐसे ही यह आत्मा जब अपने गुप्त स्थान में पहुंच जाता है और इन बैरियों के आक्रमण से बच जाता है तो इसकी स्वरक्षा हो रही है, किंतु यह आत्मा अपनी स्वरक्षा का विश्वास न करके बाहर में ढूकने लगता है। जैसे ही बाहर की ओर ढूका कि ये काम क्रोधादिक बैरी इस पर आक्रमण कर देते हैं। अरे तू एक बार तो अपने स्वरक्षास्थान में आ। सर्व प्रयत्न करके स्वरक्षागृह में ही बसा रहे तो इसके समस्त संकट दूर हो जायेंगे। बस इस स्वरक्षित आत्मधाम की सेवा ही परमभक्ति कहलाती है।
परमभक्ति व निर्वाणभक्ति का संबंध- इस परमभक्ति अधिकार में किसकी भक्ति की है? परम की भक्ति की है। परम का अर्थ है- पर मायने उत्कृष्ट, मा मायने लक्ष्मी, जहां उत्कृष्ट लक्ष्मी पायी जाय उसका नाम परम है। लौकिक समस्त पदार्थों में उत्कृष्ट स्वरूपवान् है आत्मा और इस आत्मा में भी उत्कृष्ट स्वरूप है सहज परमपारिणामिक भाव। उस ही का नाम परम है। उस परम की भक्ति करने से निर्वाणभक्ति होती है, निर्वाण प्राप्त होता है। परमभक्ति तो कारण है और निर्वाणभक्ति कार्य है। परम की भक्ति करना, इसका अर्थ है परमभाव का आश्रय करना। अमुक पुरुष ने अमुक की भक्ति की, इसका अर्थ है अमुक का आश्रय लिया। निर्वाण की भक्ति करना, निर्वाण के आनंद का सेवन करना। अमुक पुरुष ने भोजन की भक्ति की, इसका अर्थ है भोजन का सेवन किया। परमभक्ति में तो परम का आश्रय है और निर्वाणभक्ति में निर्वाण के आनंद का सेवन है। यों परमभक्ति के प्रसाद से निर्वाणभक्ति प्राप्त होती है, उस ही का वर्णन इस अधिकार में चल रहा है।