वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 135
From जैनकोष
मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि।
जो कुणदि परमभत्ति ववद्वारणयेण परिकहियं ।।135।।
व्यवहारनिर्वाणभक्ति- जो पुरुष मोक्ष में पहुंच गये हैं उनके गुणभेद को जानकर उनकी परमभक्ति करना, सो व्यवहार से निर्वाणभक्ति कही गयी है। इस भक्ति अधिकार में भक्ति के तीन स्थान जानना, परमभक्ति, निश्चयनिर्वाणभक्ति और व्यवहारनिर्वाणभक्ति। व्यवहारनिर्वाणभक्ति तो मुक्त हुए जीवों के परमात्मा के गुणों का स्तवन ध्यान उनके विकास का अनुस्मरण होना, सो व्यवहारनिर्वाणभक्ति है और निर्वाण के स्वरूप की, निर्वाण के मार्ग की भक्ति, उपासना, आराधना होना सो निश्चयनिर्वाणभक्ति है और जिस परमपारिणामिकभाव के आश्रय से, जिस सहजस्वरूप के आलंबन से निश्चयनिर्वाणभक्ति आती है, उस शाश्वत चित्स्वभाव की दृष्टि अवलंबन आश्रय अभेद आराधना होना, सो परमभक्ति है।
निर्वाणभक्ति का फल निर्वाणप्राप्ति- इस गाथा में व्यवहारनयनिर्वाणभक्ति का, सिद्धभक्ति का स्वरूप कहा गया है। सिद्ध उन्हें कहते हैं जिन्होंने अपने आत्मा को सिद्ध किया है। सिद्ध का अर्थ टिकने का है। जैसे ये चावल सिद्ध हो गए मायने पक गए। इसी को सीझना कहा गया है। जैसे लोग कहते हैं कि यह सीझ गया, ये चावल अग्नि से सीझ गए अर्थात् अग्नि का संयोग पाकर उस विधिविधान में अपनी कच्चाई की अवस्था को छोड़कर चावल पक्व अवस्था में आ गए हैं, इसको ही लोग भात कहते हैं। अब जो भाने लगा उसका नाम भात है। इस प्रकार यह जीव तप, व्रत, संयम, समाधि के योग से जब कोई कच्चाई का त्याग करे, सिद्ध परिपूर्ण विकासरूप पक्व अवस्था को प्राप्त हो जाय तब उन्हें सिद्ध कहते हैं। अब ये सिद्ध बड़े-बड़े योगीश्वरों को भाने लगे हैं। सिद्ध से पहिले अथवा संसार अवस्था में तब तक यह जीव रुलता था जब तक यह जीव चैतन्यप्रतपन से सीझ न पाया, भव्यत्वगुण का परिपाक न हो पाया था और तब तक यह भात न था, उपासना के योग्य न था। अब सिद्ध होने पर ये भव्यजन उपासना के योग्य हो गए हैं।
धर्मदृष्टि व धर्मरुचि- जिसकी धर्म की ओर दृष्टि होती है उसको अपने कुटुंब और संपदा से बढ़कर धर्म और धर्म का स्थान रुचता है। जिसको धर्म और धर्म के स्थान में घर वालों से भी अधिक प्रीति नहीं है, उसे अंतर में कैसे धर्म का रुचिया कहा जाय? जिस पर रुचि हो उसका ही यह श्रद्धान है। मोक्ष को प्राप्त हुए ये पुरुष जिनका कि स्वरूप, अनुभव, विकासपूर्ण एक समान है, उन आत्मावों को गुणभेद करके जानना, उनमें अनंतचतुष्टय प्रकट हैं, अष्टकर्मों का उनके विकास है। ये पहिले बलभद्र थे, चक्री थे, तीर्थंकर थे, योग्य चर्चा करना, उनके गुणों की दृष्टि देना, उनका स्तवन करना, उनके वर्तमान विकास को स्तवन में लेकर आनंदमग्न होना, यह सब व्यवहारभक्ति है।
सिद्ध भगवंतों का पूर्व कार्य- ये पुराण पुरुष सिद्ध हुए हैं। उन्होंने सिद्ध होने के लिए क्या काम किया था? सिद्ध होने के उपाय मर्म को न जानने वाले पुरुष तो एक बाहरी वृत्ति को निरखकर कहेंगे कि इन्होंने घर छोड़ा था, तपस्या की थी, जंगल में रहे थे, निर्ग्रंथ साधु बन गए थे, यों आहार करते थे, यों-यों किया था, मोक्ष जाने वाले पुरुषों ने, किंतु ज्ञानी पुरुष यह निरख रहा है कि उन्होंने एक ही काम किया था, दूसरा तो कुछ किया ही न था, वह काम था उनका कारणपरमात्मा को अभेदवृत्ति से अपने उपयोग में लेकर परिणमते रहना। वे जिस किसी भी अवस्था में थे, घर में बस रहे थे तो भी सम्यक्त्व में यही काम किया जा रहा था कभी श्रावक बना हो कोई तो वहाँ भी यही काम किया जा रहा था, साधु बनकर भी वही किया जा रहा था। इसके अतिरिक्त जो और कुछ काम करने को पड़े थे व्यवहारधर्म के, वे बड़े दोषों से निवृत्त होने के लिये छोटे दोषरूप होकर भी लक्ष्यसिद्धि की पात्रता के लिये करने पड रहे हैं ऐसा निर्णय पूर्वक किया गया था। उन्होंने उन मन, वचन, काय की क्रियावों को ये ही मेरा मोक्षमार्ग हैं, इनके ही आलंबन से मुझे सिद्धि होगी, ऐसा परिणाम न किया था। यह कारणपरमात्मतत्त्व का अभेद सेवन समस्त कर्मों के क्षय का एकमात्र उपाय है।
व्यवहारालंबन के प्रयोजन का एक दृष्टांत- ये मुक्तिगत पुरुष इस कारणपरमात्मतत्त्व की आराधना करके सिद्ध हुए थे, उनके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति इत्यादि गुण भेदों को जानकर जो पुरुष इस परमभक्ति को करते हैं, जो निर्वाण का परम कारण है उस पुरुष के व्यवहारनय से निर्वाणभक्ति होती है। जैसे कोई दूसरी मंजिल पर जाने की इच्छा करने वाला सब सीढ़ियों का आलंबन करता है, पर उसके लक्ष्य में सीढ़ियों का आलंबन करना नहीं है। सीढ़ियों का आलंबन करने का ध्येय उस मंजिल पर पहुंचने का है और इसी कारण सीढ़ियों का आलंबन करके छोड़ने की पद्धति में हो रहा है। कोई मोही पुरुष किसी बढ़िया संगमरमर की चित्रविचित्र सीढ़ी को निरखकर उस पर ही खड़ा रहे, ऐसा लोक में शायद न देखा होगा। कोई ऐसा करे तो लोग यह कह बैठेंगे कि इसका दिमाग बिगड़ गया है। ज्ञानी पुरुष की किसी भी व्रत, तप आदि व्यवहारसंयम के साधनों की पवित्रता और शोभा लोकआदर इत्यादि श्रृंगार देखकर कोई पुरुष उस बाह्य व्रत, तप को ही पकड़कर रह जाय, अपनी दृष्टि में क्रियाकांड ही अटकाकर रह जाय तो ऐसे पुरुष को ज्ञानी संतों ने विवेकी नहीं कहा है।
ज्ञानी के व्यवहारावलंबन का प्रयोजन- ज्ञानी पुरुष के समस्त बाह्य साधनों का आलंबन उस शुद्ध विकास के लिए होता है अथवा उस शुद्ध विकास का भी प्रयोजन न सोचकर चूँकि भूतार्थ तत्त्व है, यथार्थ बात है इसलिए वे भूतार्थ परमार्थ स्वभाव को जानते हैं, उसका आश्रय लेते हैं। एक वे पुरुष होते हैं जो व्यवहारधर्म की प्रभावना के लिए व्यवहारधर्म करते हैं, एक वे पुरुष होते हैं कि निश्चयधर्म के पालने के लिए व्यवहारधर्म का सेवन करते हैं और एक वे पुरुष होते हैं जिनके चित्त में निश्चयधर्म के पालन का भी विकल्प नहीं है, किंतु जो सहजस्वरूप है वह जानन से कैसे छूटे क्योंकि उस ज्ञान का आवरण रहा नहीं, इस कारण वे परमतत्त्व को जानते रहते हैं।
व्यवहारधर्म, निश्चयधर्म और परमधर्म- परमधर्म पाला नहीं जाता, परमधर्म के पालने को निश्चयधर्म कहते हैं। वस्तु का जो स्वभाव है उसे धर्म कहते हैं। स्वभाव तो स्वभाव है, शाश्वत है, वह पालनेरूप नहीं है। शाश्वत स्वभाव का जो अवलंबन लेना है, पालना है उसे निश्चयधर्म कहते हैं और निश्चयधर्म के पालने के लिए जो मन, वचन, काय के शुभ परिणमन करने होते हैं उन्हें व्यवहारधर्म कहते हैं। जिनके परिणामों में ये व्यवहारधर्म रूप शुभ परिणाम भी नहीं हैं, किंतु चित्त में यश की वान्छा, कुटुंब-परिवार के सुख चाहने की इच्छायें जिनके विकल्प हैं उनको लेकर जो धर्म के नाम पर क्रियाकांड हो रहे हैं उन्हें व्यवहारधर्म भी नहीं कहते हैं। लोग इस मर्म को दृष्टि में न लेकर चूँकि व्यवहारधर्म वाले भी जो करते हैं वही काम यह मोही भी कर रहा है। इस कारण प्रवृत्ति की समानता निरखकर लोक में व्यवहारधर्म कहा जाता है। इसका नाम उपचार व्यवहार भी कह लीजिए। यों परमभक्ति के आश्रय में उत्पन्न हो सकने वाली निर्वाणभक्ति के इच्छुक व्यवहारनिर्वाणभक्ति करते हुए जो निश्चयनिर्वाणभक्ति करते हैं वे सिद्ध होते हैं।
मुक्तिवरण का उद्योग- सिद्ध जैसे विविक्त हुए उसको निरखकर और उसके विधि-विधान को अपने लिए सुगम समझकर यह किया जा सकता है और देखो निकट काल में यही तो होना है, ऐसी भावना से हर्ष बढ़ता है। जिसने कर्मसमूह को खिरा दिया है, जो सिद्धि के स्वामी हैं, जो सर्वगुणसंपन्न हैं, शिवमय हैं, जो स्वयं शिवमय हैं, कल्याण के घर हैं, ऐसे सिद्ध भगवंतों का नित्य वंदन करता हूं। हे मुमुक्षु ! तुम्हें भी यदि मुक्ति का वरण स्वीकार हो तो देखो उस मुक्ति के वरण में बाधक तत्त्व बहुत हैं, उन बाधकों से हटकर उनका मुकाबला करके इस मुक्ति का वरण किया जा सकता है। सो अपनी बरात तो सजा, ज्ञान की गैसों का उजाला तेज कर ले, बारह भावनावों की प्रबल सवारी पर बैठ लो और निश्चय आवश्यक कर्तव्य का तू अपने प्रदेश में श्रृंगार सजा ले, तिस पर भी एक बात ध्यान में रख, तू अपनी इस बरात में बहुत बड़े बलिष्ट बरातियों को संग में ले जा, नहीं तो सफलता न मिलेगी। वे बलिष्ट बराती हैं ये अनंत सिद्ध। इन अनंत सिद्धों को अपने संग में, अपने उपयोग में ले जा तो ये बाधक मुक्ति में बाधा न कर सकेंगे। यों इन अनंत सिद्धों को यह ज्ञानी पुरुष अपने उपयोग में विराजमान् कर रहा है, यह है व्यवहारनय की भक्ति। केवल थोड़ा कह देने मात्र से कि मुझे सुख देना, मेरे दु:ख मेटना, तुम सुख न दोगे, दु:ख न मेटोगे तो तुम्हारी बान खत्म हो जायेगी, केवल कहने मात्र से आनंदलाभ न होगा। जिस पथ से जिनेश्वरदेव चलकर मुक्त हुए हैं उस पथ पर कदम रखने से ही सिद्धि होगी। यह है निश्चय निर्वाणभक्ति।
कर्तव्य के भान और पालन का एक दृष्टांत- जैसे टाइमटेबुल की पुस्तक देखते हैं, अमुक लाइन कहाँ से गई, कितने बजे छूटेगी, कितने बजे पहुंचेगी? ये सब बातें टाइमटेबुल से निरखते हैं, अब गाड़ी चले और बैठें तो पहुंचेंगे और टाइमटेबुल को ही देखते रहें तो कैसे पहुंच जायेंगे? टाइमटेबुल ज्ञात होने पर अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान हो जाता है कि इतने बजे तैयार होना है, इतने बजे बैठना है और यों पहुंच जायेंगे और टाइमटेबुल साथ में रहे चलते हुए में भी तो घड़ी को ही देखकर यह सब अंदाजा कर लिया जाता है कि इतनी दूर हम निकल आए हैं, अभी इतनी दूर और जाना है और जब मालूम हो जाता है कि अब 10 मिनट या 15 मिनट के बाद में हम पहुंच जायेंगे तो बिस्तर वगैरह संभाल लेना और पहिले से ही तैयारी कर लेना होता है, ऐसे ही स्वाध्याय, चर्चा, पूजन, भवन, तप, त्याग आदि से अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान रहता है। फिर मोक्षमार्ग में कदम रखते भी, चलते हुए भी इस टाइमटेबुल को न छोड़ना, उससे अंदाज रहेगा कि हम कितनी दूर बढ़ गए हैं, अभी कितना चलना है और इस भान में सही-सही गमन होने लगेगा।
कर्तव्य का भान और पालन- भैया ! कहीं ऐसा न हो कि टाइमटेबुल और घड़ी दोनों ही साथ न रहें नींद आ जाय तो कहीं के कहीं भटक जायें। ये हमारे व्यवहारसाधन और हमारी आत्मा का निरीक्षण अपनी घड़ी का देखना- ये दोनों न रहेंगे तो किसी जगह ऐसा न सो जाएँ कि उस स्थान पर ही न पहुंच पायें और भटक जायें। इसके भटकने का बहुत बुरा हाल है। थोड़ा चुके और भटके तो भटकने में भटकना बढ़ता चला जाता है। किसी भी प्रसंग में थोड़ा क्रोध आ जाय अथवा कोई हठ बन जाय तो वह क्रोध और हठ कहो कभी धर्म की भी तिलांजलि दिला दे। जैसे कोई गृहस्थ किसी धर्म के प्रसंग में किसी पर थोड़ा नाखुश हो जाय तो कहो हठ कर दे कि अब हम मंदिर ही न जायेंगे, अब हमें कुछ मतलब ही नहीं है मंदिर जाने से और बढ़ता जाय। हठ से धर्म को छोड़कर विधर्मी बन सकता है। तो थोड़ी भी गफलत बहुत बड़ी गफलत बन जाती है। ऐसी प्रमाद की मन में वासना रहनी ही न चाहिए।
आत्मबल का प्रसाद- यह सिद्धपना व्यवहारनिर्वाणभक्ति में निरखा जा रहा है। इस सिद्धि के स्वामी परमात्मा समस्त दोषों से दूर हैं, केवल ज्ञान आदिक शुद्ध गुणों के ये निलय हैं। यह पद इन्हें कैसे मिला? इतनी बड़ी जगह वे कैसे आ गए, किसने मदद की? किसी ने मदद नहीं की। दूसरे की मदद का भ्रम छोड़कर अपने शुद्धस्वरूप का आलंबन लिया, उस शुद्ध उपयोग के फल में ऐसी सिद्ध अवस्था उनके प्रकट हुई है। जड़ संपदा को चित्त में बसाये रहना बहुत बड़ी कलुषता की बात है। जिस हृदय में शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप परमब्रह्म विराजमान् हो उसमें ये रूप, रस, गंध आदि कहाँ विराजेंगे? कितनी अनहोनी बात की जा रही है- बाह्यपदार्थ विराज भी नहीं सकते हैं और इन्हें यह मोही जीव जबरदस्ती बैठाल रहा है और जो यहाँ से दूर नहीं हो रहा, भाग नहीं रहा, उसका आदर नहीं किया जा रहा है। आत्मा के सहजस्वरूप के फल में यह पूर्ण शुद्ध विकास की अवस्था प्रकट हुई है।
सिद्धों का आवास- जो शुद्ध आत्मा लोक के शिखर पर निवास करते हैं, जिन्होंने संकटों से व्याप्त इस भवसमुद्र को पार कर लिया है, जो निर्वाणस्वरूप के अभेदपरिणमन से परम आनंदमय हो रहे हैं, ऐसे कैवल्य संपदा के महागुण वाले पापरूपी वन को जलाने के लिए अग्नि के समान उन सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमन करता हूं। ये सिद्ध प्रभु गुरु होकर भी ऊपर उठ गए हैं, जो वजनदार चीज होती है, गुरु होती है तो वह ऊपर नहीं जाती है, मगर ये सिद्ध सर्वोत्कृष्ट गुरु होकर इतने ऊपर उठे हैं जहाँ के बाद फिर आकाश के सिवाय और कुछ है ही नहीं। इस ज्ञान में त्रिलोक, त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेय प्रतिबिंबित होते रहते हैं।
अनंतनिधि की प्राप्ति के लिये त्याग की आवश्यकता- हमारा आनंद परमस्वाधीन है, किसी भी परतत्त्व की आशा में आनंद का विघात होता है, आनंद नहीं मिलता है। जैसे नाबालिक की लाखों की जायदाद सरकार कोर्ट करके 100, 200 रु. माह देवे तो विवेक जगने पर वह इससे संतोष नहीं मानता, ये 100, 200 रु. लाखों की निधि के बाधक हैं, जब तक इनको लेते रहेंगे तब तक निधि नहीं मिल सकती। यों ही आत्मा के अनंत आनंद की निधि के बाधक ये विषयसुख हैं। जब तक इन विषयसुखों का ग्रहण किया जाता रहेगा तब तक अनंत आनंद की निधि न मिल सकेगी। उनका सुख स्वाधीन है, सहज है, अनंत है। गुणपुन्ज का ही नाम सिद्ध है, जहाँ अंतर्मल और बाह्यमल कुछ भी नहीं रहा है, केवल शुद्ध ज्ञानानंदघन है, किसी परभव का लेश भी नहीं है, ऐसे शुद्ध चैतन्य का नाम परमात्मा है और जो इसकी उपासना करते हैं वे भक्त भी अपने स्वभाव का आलंबन करके सिद्ध हो जाते हैं।
भक्ति का फल- जो नित्य हैं, शाश्वत आनंदधाम हैं ऐसे सिद्ध भगवंतों की शरण हो अर्थात् उस गुणपुन्ज की उस ज्ञानप्रकाश की शरण लो। सिद्ध भगवंत आज हैं नहीं और आज ही क्या, कभी वे सामने न थे। सिद्ध परोक्ष भक्ति कर रहे हों अथवा कभी उपयोग में प्रत्यक्ष भक्ति भी कर सकते हों, सभी भक्तियों में अपने ही उपयोग का चमत्कार है। वे न आते हैं, न देखते हैं, न कुछ मुझमें करते हैं, वे सदा शिवस्वरूप हैं, श्रेष्ठ हैं, योगीजनों के ध्येय हैं। जो अनुपम मोक्ष सुख का निरंतर अनुभवन कर रहे हैं, जो भव्यजनों के आदर्श हैं, ऐसे सिद्ध भगवंत जिनके उपयोग में विराजमान् रहते हैं वे व्यवहारभक्ति कर रहे हैं और इसके संदर्भ में निश्चयभक्ति करेंगे और निर्वाणपद को प्राप्त करेंगे। यों इस परमभक्ति में प्रथम तो परमस्वभाव के आलंबन की बात कही गयी है और अब व्यवहारनिर्वाणभक्ति की बात कही गयी है।