वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 163
From जैनकोष
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।।163।।
आत्मा की मात्र परप्रकाशकता मानने में दोषापत्ति व उसका निवारक सिद्धांत—पहिली गाथा में ज्ञान को केवल परप्रकाशक मानने का खंडन किया था और यह श्रद्धान उत्पन्न किया था कि ज्ञान स्व का और पर का दोनों का प्रकाशक है। अब इस गाथा में आत्मा के संबंध में कह रहे हैं कि आत्मा भी स्व का और पर का प्रकाशक है। शंकाकार के मंतव्य के अनुसार यदि आत्मा केवल पर का प्रकाशक हो तो दर्शन आत्मा से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन का लक्षण स्वप्रकाशक माना है और आत्मा हो जाये मात्र परप्रकाशक तो जो मात्र परप्रकाशकता मानने में ज्ञान के प्रसंग ने दोष दिया था वे ही सब दोष आत्मा को परप्रकाशकमात्र मानने में आ गये, क्योंकि भाव और भाववान ये एक अस्तित्व करि रचे गए हैं। कोई कहे कि अग्नि की गर्मी ईंधन को जला डालती है तो इसका अर्थ यह है कि अग्नि ईंधन को जला डालती है। क्या ऐसा होता है कि गर्मी तो ईंधन को जला दे और अग्नि ईंधन को न जलाए या अग्नि ईंधन को जला दे और गर्मी ईंधन को न जलावे? बात तो दोनों ही जगह एक है—चाहे गर्मी कह लो, चाहे अग्नि कह लो। गर्मी है भाव और अग्नि है भाववान। भाव और भाववान एक ही अस्तित्व से रचे गये हैं। ये जुदे-जुदे नहीं हैं। आत्मा को स्वपरप्रकाशकता के समर्थन के संबंध में—पहली गाथा में ज्ञान को व दर्शन को जुदा मानने की पद्धति दिखाकर दोष बताया था। ऐसा बिल्कुल विमुख दिखाया था जिसका एक आधार भी न बने। अब यहाँ आत्मा को और ज्ञान को जुदा दिखने की पद्धति कही जा रही है। मूल बात यह है कि यह मैं आत्मा अपने को भी समझता हूँ और परपदार्थों की बात भी समझता हूँ। इसमें कोई इतना ही अंश ग्रहण करे कि मैं पर को ही समझता हूँ, आत्मा को नहीं समझता हूँ तो वहाँ यह आपत्ति आती है कि फिर अपने को समझने वाला फिर रहा कौन? उत्तर में कहोगे कि दर्शन। यदि दर्शन का नाम जुदा रहा, आत्मा का काम जुदा रहा तो ये दोनों भिन्न हो जायेंगे। यदि कहोगे कि ठीक है, आत्मा मात्र परद्रव्यगत् ही नहीं है। आत्मा आत्मा का ही प्रकाशक है, आत्मनिष्ठ है। तो इसी प्रकार दर्शन भी आत्मनिष्ठ है, वह भी मात्र परप्रकाशक नहीं है। इस तरह यह सिद्ध होता है कि आत्मा स्व और पर का प्रकाशक है, ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है। उत्कृष्ट अवसर का अनुपयोग—हम आप लोगों ने आज कितना उत्कृष्ट अवसर पाया है। इस अवसर का आभार मानने के लिए, इस अवसर पर न्यौछावर हो जाने के लिए हम अपने वचन प्रकट नहीं कर सकते हैं। कैसा वह सजग सचेत मनुष्यजन्म मिला है? हम अपने इस ज्ञान के द्वारा कितना चिंतन, मनन कर सकते हैं और दु:खों के नष्ट होने का कितना उपाय बना सकते हैं? दु:ख दु:ख से दूर नहीं होता। दु:ख तो सत्य आनंद के अनुभव से दूर होता है। इतने श्रेष्ठ जीवन को हम विषय और कषायों में, विकल्पों में अपने को उल्झाकर यों गँवा दें, जैसे कोई दुर्लभ रत्न को पाकर कौवों को उड़ाने के लिए समुद्र में फेंक दे। कोई कौवा समुद्र के ऊपर उड़ रहा था। किसी पुरुष को ऐसा ही कौतूहल हुआ कि अपने पास में जो दुर्लभ रत्न था उसे कौवों को उड़ाने के लिए फेंक दिया। वह समुद्र में गिर गया। इसमें कौनसी बडी सावधानी की करतूत की इसने? यों ही इस उत्कृष्ट सारभूत जीवन को विषय और कषायों में ही लगा दिया तो इस दुर्लभ नर-रत्न को इसने यों ही खो दिया समझिए। किंचित् प्रयोजन के लिए, कल्पनामात्र सुख के लिए ऐसे उत्कृष्ट अवसर को हम यों ही बिता दें, यह कितनी अफसोस की बात है? उत्कृष्ट अवसर का दुरुपयोग—जैसे किसी को बर्तन मांजने के लिए राख चाहिए थी। यदि कीमती चंदन के वनों को जलाकर उसकी राख बनाकर बर्तन मांजे तो क्या उसे कोई बुद्धिमान कहेगा? अरे, कितना कीमती का चंदन पेड़—सेर भरके भी वज़न का पचासों रुपये में मिल जाता है, उसे यों ही बर्तन मांजने के लिए जला दें तो इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं है। ऐसे ही कल्पनाजन्य इंद्रिय-सुख को प्राप्त करने के लिए इस दुर्लभ ज्ञानोपयोग का, इस विशुद्ध विकास का इसने यों उपयोग किया तो यह कितने खेद की बात है? हाथी जैसा श्रेष्ठ पशु पाकर कोई हाथी पर मल ढोये, ईंधन ढोये तो क्या यह कोई बुद्धिमानी का काम है? इसी प्रकार ऐसे इस उत्कृष्ट ज्ञान को पाकर हम विकल्प-मैले को ही ढोते रहें, कल्पनाएँ ही अटपट ऊँधी-सूँघी बना बनाकर अपने आपके प्रभु को हैरान करते रहें, दु:खी करते रहें तो क्या यह कोई बुद्धिमानी का काम है?
भैया ! जितना भयंकर द्वेष परिणाम है उससे भी भयंकर राग परिणाम है। किसी भी पदार्थ से राग किया जाए वह मेरे लिए कुछ सहाय नहीं है, कभी सहाय हो नहीं सकता। एक तो वस्तु के परिणमन हैं, सब स्वतंत्र हैं, किसी के परिणमन को कोई दूसरा बदल नहीं सकता है। हमें चाहिए कि हम अपना उपादान दु:ख योग्य न बनाएँ। जैसे आनंद का विकास हो उस प्रकार का उसका परिणाम बनाएँ, यही हमें करना चाहिए। वर्तमान उत्कृष्ट अवसर के परिचय के लिए अतीत दुर्दशावों का विवरण—यह जीव अनादि काल से निगोद अवस्था में रहा आया है। अनंतकाल तो निगोद में बीता। निगोद जीव ऐसे सूक्ष्म होते हैं जो आँखों से कभी दिख नहीं सकते। वे निगोद जीव कहीं तो निराश्रय रहते हैं। यह जो पोल भी आकाश में दिख रहा है यहाँ भी सर्वत्र ठसाठस भरे पड़े हुए हैं। वे निराश्रय जीव हैं और साश्रय जीव वनस्पति के फल में पत्तों में, जड़ों में और किसी-किसी त्रस काय में भी दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय व किसी-किसी पंचेंद्रिय जीवों के शरीर में भी रहा करते हैं। निगोद जीव इन 8 जगहों को छोड़कर अन्य सब शरीरों में रहते हैं। वे 8 स्थान कौन हैं जहाँ निगोद नहीं होते? पृथ्वी का शरीर, जल का शरीर, अग्नि और वायु का शरीर—चार तो ये स्थावर हैं जिनमें निगोद जीव नहीं रहते हैं। देव और नारकियों का शरीर इनमें भी निगोद जीव नहीं रहते हैं। केवली भगवान का शरीर परमौदारिक होता है, उसमें निगोद जीव नहीं रहते हैं और एक आहारक शरीर है जिसमें निगोद जीव नहीं रहते, यह छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के मस्तक से धवल पवित्र प्रकट होता है। इन 8 शरीरों के अलावा अन्य जितने भी संसारी जीवों के शरीर हैं उनमें निगोद जीव बसा करते हैं। निगोद जीवों की स्थिति में एक श्वास में 18 बार जन्म-मरण करना बना रहता है। श्वास भी कौनसी? स्वस्थ पुरुष की नाड़ी एक बार उचकने में जितना समय लगता है उतने समय का नाम श्वास है। मुख से हवा लेने का नाम भी श्वास है और इस नाड़ी के भी चलने का नाम श्वास है। इतने में 18 बार जन्म-मरण करना होता है। हे आत्मन् ! अपनी पहिले की दु:ख की स्थिति को भी तो सोचो। उन निगोदिया जीवों के स्थितियों के दु:ख का विचार तो कर।
निगोदनिर्गमन—निगोद से निकला तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति, इनमें उत्पन्न हुआ। ये भी स्थावर एकेंद्रिय जीव हैं, इनमें जिह्वा तक भी प्रकट नहीं है केवल स्पर्शन इंद्रिय है। ये दशायें अन्य जीवों की हैं ऐसा समझकर अलग न हो जाना, इन सब दशावों को कभी हम आपने भी भोगी है। स्थावर से निकला तो दो इंद्रिय जीव हुआ। दो इंद्रिय जीव वे हैं जो बिना पैरों के छोटे-छोटे जीव जमीन पर रेंगते फिरते हैं, लट, केचुवा, जोक, शंख, कौड़ी, सीप इनमें जो जीव हैं वे दो इंद्रिय हैं। उनकी क्या स्थिति है? इस अपरिचित लोक में उनकी कुछ गिनती भी होती है क्या? लोग उन्हें बिल्कुल बेकार जड़वत् मानते हैं और अपने किसी उपयोग में उनकी हिंसा करते हुए कुछ हिचकिचाते नहीं हैं। बिरले ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो उन जीवों की हिंसा से अपने को बचाते हैं। दोइंद्रिय से निकलकर तीनइंद्रिय में आगमन—दो इंद्रिय जीव से निकला तो उसका और विकास हो गया, तीनइंद्रिय हो गया, अब स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इंद्रियों का सुयोग मिल गया। यह सब हम आपकी कहानी है। चींटा, चींटी, बिच्छू आदिक हुए, वहाँ भी कौनसे महत्त्व की स्थिति प्राप्त की? केवल आहार कर लेना और खाने ही खाने की संज्ञा व अन्य संज्ञायें बनी रहना। चतुरिंद्रिय व पंचेंद्रिय में आगमन—तीन इंद्रिय से निकलकर चारइंद्रिय जीव हुआ, आँखें भी मिल गयीं, तो देखो जैसे हम आप आँखों से सब कुछ देख लेते हैं ऐसे ही ये मच्छर, मक्खी आदिक भी आँख से देखा करते हैं पर उसके देखने की कुछ कीमत है क्या? उससे वे अपना फायदा निकाल पाते हैं क्या? अपने को इंद्रिय-विषय के पोषण में ही लगाते रहते हैं। फिर और कुछ विकास हुआ तो पंचेंद्रिय हुए, पर वहाँ भी कितने ही जीव तो असंज्ञी होते हैं, मन नहीं है, हित-अहित की कुछ बात नहीं सोच सकते हैं, ऐसा असंज्ञी पंचेंद्रिय का भव पा लेने पर भी कुछ हित की बात हुई क्या? कदाचित् मन भी मिला और पंचेंद्रिय बना, ऐसा मनुष्य भी बना, तो भी क्या लाभ है? जो लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य हैं वे आँखों से नहीं दिखते, बड़े सूक्ष्मरूप में अदृश्य हैं, शरीर के अंगों में उत्पन्न होते रहते हैं, वहाँ भी कौनसा कल्याण कर सके? पंचेंद्रिय में पशु, पक्षी बने तो उनकी स्थिति तो आप प्रकट देखा करते हैं। कौनसा हित मिलता है? श्रेष्ठ मनुष्यभव का सदुपयोग—इन सब कुयोनियों का त्याग कर आज श्रेष्ठ मनुष्यभव में आये हैं तो हे प्रियतम् ! इसे यों ही दु:ख में मत बिता दो। केवल क्लेश, मोह, राग, द्वेष, विकार—इनमें ही इन अमूल्य क्षणों को मत गँवा दो। कुछ दया करो अपने आप पर। अपने आपको प्रसन्नता में, आनंद में, ज्ञानविकास में, शुद्ध अभिप्राय में अपने को लेवो। जितने भी समागम हैं ये सब तेरे लिए बेड़ी हैं। जैसे बेड़ी में फँसा हुआ कैदी कैसा बंधन में पड़ा हुआ है, दु:खी है, ऐसे ही परिजन-वैभव के, मोह के बंधन में पड़ा हुआ प्राणी कैसा बंधन में जकड़ा हुआ है? ये समागम जिस पर तू नखरे करता है, अभिमान करता है ये सब तेरी बरबादी के निमित्त कारण हैं। तू इन मिले हुए समागमों का अहंकार तज दे। इनको अहित मानकर इनकी आस्था को तज दे। अपने आपको सँभाल, अपने आपकी आस्था में रह। देख तेरा आत्मा अनंत आनंद और अनंत महिमा का निधान है। सब कुछ सारभूत, कल्याणभूत तेरा तुझमें है। तू अपने से बाहर जब निकलता है तब क्लेश ही क्लेश तुझे प्राप्त होता है। अंतर में तो आनंद ही आनंद बसा हुआ है। पायी हुई शक्तियों का सदुपयोग करो। इतनी उत्तम ज्ञानशक्ति का सदुपयोग करो। मोह, राग-द्वेष में ही इस उपयोग को बसाकर इन चेतन-अचेतन मोह के विषयभूत पदार्थों के साथ बिके हुए अपने आपको रिक्त मत कर दो। अपनी निधि, अपनी महिमा को निरखो। यह आत्मा स्वपरप्रकाशक है।
आत्मा के स्वपरप्रकाशकता की अनंत महिमा—इस स्वपरप्रकाशकता को अनंत महिमा बतायी गयी है। यह आत्मा समस्त द्रव्यों में सारभूत है और इन सारभूत आत्मद्रव्यों में ही आत्मतत्त्व के सहज स्वरूप का दर्शन है। यही सहजस्वरूप समयसार कहलाता है। जो इस कारणसमयसार से अपरिचित होते हैं उन्हें फिर जगत् में संकट नहीं रहता है। सकलपरमात्मा का जीवनमुक्त नाम है, किंतु जो पद्धतिशैली सम्यग्दृष्टि की है उस शैली को निरखकर अनेक जन उसे भी जीवनमुक्त कहते हैं।
स्वरूपप्रवेश का अनुरोध—जो अपने आपको ज्ञानमात्र समझता है वह विशुद्ध आनंद में पहुँचता है। इस विशुद्ध ज्ञानानंद में पहुँचने का उपाय यह है कि विरक्तिसहित अपने आपको ज्ञानमात्र अनुभव करते जाइए। मैं आत्मा केवलमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, अपनी दया की बात कही जा रही है, सब दु:ख और संकटों से दूर हो जाने की बात कही जा रही है। तेरे परमकल्याण की बात है। इन मोहीजनों से आप कुछ लाभ न पा लोगे। मोहियों को प्रसन्न करने के लिए, जनता से अपने को बड़ा कहलवाने के लिए ही धनसंचय की होड़ मत करो। इस प्रकरण से तो अंत में बड़ी मुँह की खानी पड़ेगी। आपको ही कष्ट का अनुभवन करना पड़ेगा। इन असार, भिन्न, अचेतन पुद्गलों के खातिर इस अनंत महिमा-निधान परमार्थ पदार्थ को लगा दिया, इसका दुरुपयोग किया, यह कितने बड़े विषाद की बात है? धर्मपालन—देखो भैया ! अब यह कहा जाय कि धर्म करो, तब क्या करना है? तू अपने आपको ज्ञानप्रकाशमात्र अनुभव कर। केवल ज्ञाताद्रष्टा रह। यह आत्मा स्वयं धर्म है। यह आत्मा साक्षात् धर्मस्वरूप है, शुद्ध ज्ञानस्वरूपात्मक है। जिसे इस प्रतिभासस्वरूप आत्मतत्त्व का दर्शन होता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। ये सम्यग्दृष्टि जीव इन इंद्रियविषयों को नष्ट करने में स्वभावत: ही समर्थ हैं, किंतु जब भ्रम करके विपरीत वृत्ति से रहा तो ये सब उपद्रव इसके सिर पर मँडराने लगते हैं। यह आत्मा अपने आपमें अपने आपके द्वारा गुप्त ही गुप्त अपने में आनंद का अनुभव कर पाता है। इसे कहीं कुछ दिखाना नहीं है। बनावट, सजावट, दिखावट से आत्मा को कुछ मिलता नहीं है। तुम अपने आपमें अंदर ही अंदर ज्ञान का घूँट उतारते जावो और विशुद्ध ज्ञाता रहकर समस्त क्लेशजालों को दूर कर लो। यह सब कल्याण की बात अपने आपमें अपने आपके द्वारा अत्यंत सुगम है। इस दुर्लभ संसार का समुचित लाभ उठा लो अन्यथा इस अपने ज्ञान सामर्थ्य का दुरुपयोग करने से फिर उन्हीं भवों में रुलना-फिरना बना रहेगा, जो भव बहुत असमर्थ विलासरूप हैं, एकेंद्रिय आदि के भव। अब नीचे से उठ-उठकर आज इतनी उच्च अवस्था में आये हैं तो अब गिरने का काम तो न करें। ऐसा ही पुरुषार्थ बना, ऐसे ही निर्मलता कर कि तू उठे। गिरने वाली बात के करने से तुझे लाभ कुछ न मिलेगा। इस स्वपरप्रकाशक ज्ञानानंदस्वरूप अपने आत्मा का विश्वास कर और उसही में अपने आपके उपयोग को रमा।