वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 32
From जैनकोष
जीवादु पोग्गलादोѕणंतगुणा चावि संपदा समया।
लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो।।32।।
काल व कालपरिणमन―कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर पृथक्-पृथक् एक-एक ठहरा है। तो उनकी योग्यता उतनी है जितनी कि लोकाकाश के प्रदेश हैं वे असंख्यात हैं और उन कालद्रव्य की परिणतियों का समय रूप कालपर्याय कितना है? तो जितने जीव हैं, जितने पुद्गल परमाणु हैं उनसे भी अनंतगुण है समय। यह उमर इतनी तेज रफ्तार से व्यतीत हो जाती कि आज जिसकी जो उमर है वह यह सोचता है कि इतनी उमर कैसे जल्दी व्यतीत हो गयी? सब अपना-अपना देख लें। तो जैसे जल्दी व्यतीत हो गयी तो भविष्य की भी शीघ्र व्यतीत होने वाली है। पर चेत नहीं होता है।
ठठेरे के कबूतर―लोग उपमा दिया करते हैं, ठठेरे को कबूतर की। पीतल के ठुकने की आवाज सुनकर कबूतर भाग जाते हैं। किंतु ठठेरे के घर में रोज-रोज पीतल ठुकता रहता था। तो कबूतर रोज-रोज कैसे उड़े, उसकी भी आदत बन गयी सो वहीं रहने लगा। ऐसे ही हम लोगों की भी आदत बन गयी। धर्म किया, दर्शन किया, पूजा की, स्वाध्याय किया, करते जाते हैं और कल की अपेक्षा आज कुछ ज्ञान और विरक्ति का प्रकर्ष हुआ या नहीं हुआ, इसकी कोई परीक्षा नहीं है।
अभी यह बतलावो कि ये सब यहाँ बैठे हैं 8-10 साल के बच्चे भी यहाँ बैठे, जवान भी बैठे, वृद्ध लोग भी बैठे तो बड़ा इनमें कौन है? तो कुछ कहेंगे कि ये जो 50 वर्ष के हैं ये बड़े हैं और ये जो 10 वर्ष के हैं ये छोटे हैं। पर यह तो बतावो कि ज्यादा दिन किसे टिकना है? हालांकि कोई किसी को देख नहीं आया पर अंदाज तो रहती ही है। तो जो जितनी बड़ी उम्र के हो गए वे छोटे रह गए क्योंकि उन्हें थोड़े दिन जीना है।
सबसे बड़ी समस्या―यह काल इतना जल्दी व्यतीत हो रहा है और हम लोगों को सत्संग ऐसा नहीं अधिक मिलता अथवा स्वाध्याय, अध्ययन इनका प्रसंग बहुत अधिक नहीं मिलता अथवा मोहियों के बीच अधिक रहना पड़ता, इन सब बाह्य साधनों के प्रसाद से अंतर में प्रकर्ष नहीं हो रहा है, लेकिन बड़ी गंभीर समस्या है जिसके आगे सारी समस्या न कुछ है, आत्मदृष्टि ऐसी जमा लें कि जो ज्ञानानंद स्वभाव में अनुराग बढ़ाए ऐसी बात के सामने अन्य सब समस्याएं न कुछ हैं, अरे अगर ऐसा हो गया तो घर मिट गया तो क्या, सब न कुछ बात है। मिट गया तो मिट जाने दो, अभी नुकसान नहीं हुआ। अजी गांव, देश कुछ का कुछ हो गया तो उसमें भी अपना कुछ नुकसान नहीं हुआ। और आत्मा को अपने आपकी खबर ही न रहे, जीवन व्यतीत हो जाय तो यह है सबसे बड़ी समस्या। जिसका अपने आपसे सदा का संबंध है वह समस्या सबसे बड़ी है, पर वह बड़ी समस्या तो छोटी बराबर भी सामने नहीं रहती, अन्य-अन्य सब बातें प्रमुख स्थान पा लेती हैं और इसकी चर्चा भी नहीं रहती। पर विवेक कुछ बना है तो यह बात आनी चाहिए कि सबसे बड़ी समस्या हमारे सामने यह ही है कि मेरी दृष्टि अधिकाधिक इस ज्ञायक स्वभावी आत्मा के जानने में, अनुभवन में लगे। यह बात कैसे बने? इससे बढ़कर और कुछ बात नहीं है।
परिचित क्षेत्रबिंदु का क्या मूल्य―भैया ! मान लो जान लिया किसी को हजारों आदमियों ने और कुछ अच्छा कह दिया तो ये तो सब गोरखधंधा है, फंसने की बातें हैं। कोई काम सिद्ध होने की बात नहीं हैं। क्या होता है? 343 घनराजू प्रमाण लोक के आगे यह 10-20 मील का चक्कर या 500 हजार मील का क्षेत्र ये क्या गिनती में रहते हैं? एक बड़े समुद्र के सामने एक बूंद का तो फिर भी गणित में नंबर आ जायेगा पर इस लोक के सामने हजार पाँच सौ मील का तो बिंदु बराबर भी माप नहीं होता। इतने से क्षेत्र का मोह है और बाकी क्षेत्र इससे असंख्यात गुणे पड़े हैं। इनमें कोई मेरी प्रशंसा करने वाला नहीं है। तो जब इतनी बड़ी जगह में मेरा कोई प्रशंसक नहीं है तो जरा से क्षेत्र के प्रशंसकों से कौनसी सिद्धि हो गयी।
परिचितकाल बिंदु का क्या मूल्य―समय काल कितना है? अनंतकाल जिस काल के सामने ये 10, 20 वर्ष तो क्या, सागर भी गिनती नहीं रखता। खरबों, अरबों के वर्ष भी कोई गिनती नहीं रखते तो भला अपनी कल्पना के अनुसार यहाँ कुछ अच्छी करतूत कर जायें या कुछ बना जाएं, नाम गढ़ जायें तो उससे कितनी आशा रखते हो कि कितने वर्ष तक उसका नाम चलेगा। अरे ज्यादा से ज्यादा 25-50 वर्ष तक नाम चलेगा, उसके बाद में और भी वैसे ही लोग होंगे कि जीर्णोद्धार होगा, तो जिसका काम पहिले था उससे बढ़कर कोई हो गया तो उसका नाम उसकी जगह पर आ जायेगा तो कहां तक नाम बना रहेगा। अब कौन ख्याल करता है। इन सौ, दो सौ, चार सौ वर्षों के लिए अपना यश फैलाने से क्या फायदा है? अनंते काल के सामने यह इतना समय कुछ गिनती भी रखता है क्या? कुछ भी तो गिनती नहीं रखता है। तो फिर क्यों इतने समय की स्थितियों में मोह करके अपने को बरबाद किया जा रहा है?
परपरिणमन का स्व में अत्यंताभाव―वैज्ञानिक ढंग से भी देखो तो कोई कैसा भी परिणमें, उससे अपने को कुछ भी बात नहीं है। खुद का तो सब कुछ अपने ही परिणमन पर निर्भर है। सो समय काल के वर्णन में हम इतनी दृष्टि तो बना लें कि काल तो अनंत पड़ा हुआ है। उसमें से ये सौ पचास वर्ष कुछ भी मूल्य नहीं रखते। इतने काल के लिए अपने भाव बिगाड़ें तो उसका संसार लंबा होता चला जाता है और उस परंपरा से अनंत काल दु:ख भोगने पड़ते हैं। सो जरासा गम खाना है कि सदा के लिए आराम मिलेगा। इस मनुष्यभव में ही कुछ गम खा लें, विषय कषायों का आकर्षण न रखें तो अनंत काल शाश्वत सुख में व्यतीत हो सकेंगे। अनंत भवों में एक मनुष्यभव ही विषय कषाय बिना रहे आए तो क्या बिगड़ा, बल्कि अनंत काल फिर आनंद में व्यतीत होगा। पर नहीं सोचते हैं। खूंटा तोड़कर मोह में पगते हैं।
अपनी अपने पर जिम्मेदारी―भैया ! खुद के अपराध को कोई दूसरा न भोगेगा। प्रत्येक पदार्थ सत् है। स्वयं ही उसका परिणमन है। स्वयं ही जिम्मेदार है। यह व्यवस्था अवश्य है कि विभाव परिणमन जो होता है वह किसी पर का निमित्त करके होता है। पदार्थ का परिणमन स्वभाव होने के कारण समस्त परिणमन खुद ही चलते हैं और उनका फल भी खुद को भोगना पड़ता है। हाँ सब न मानें तो न सही, उसको मैं ही मान लूं ऐसा सोचना चाहिए। सबकी ओर क्यों दृष्टि जाय कि सब तो लगे हैं वैभव जोड़ने में, धन की होड़ लगाने में। खुद की बात सोचो कि मैं तो लोक में सर्व से विविक्त केवल निज सत्ता मात्र हूं। इसको कोई जानता भी नहीं, कोई इससे व्यवहार भी नहीं करता, यह तो सदा अकेला ही पड़ा हुआ है। मैं अपने में अपना काम करता हूं, सब अपने में अपना काम करते हैं, फिर अपने ही हित की बात सोची जाय।
स्वयं की संभाल―कुआं नहीं छन सकता है। छानना तो अपना ही लोटा पड़ेगा। सबको जानो, सब बड़े अच्छे हो जायें, एक तो ऐसा हो नहीं सकता और हो भी गया और खुद जैसे के तैसे ही रहे तो उसमें खुद का क्या हुआ? कोई बूढ़े बाबा बाजार में साग भाजी खरीदने जाएं और वहीं पड़ौस की दस बीस बहुवें आ जायें और कहें कि बाबा दो आने की सब्जी हमें ला दो, कोई कहे हमें चार आने की ला दो। तो बाबा बाजार में जाकर सबकी सब्जी तो ले लें और बाद में जो दो आने की खराब सब्जी बची सो खुद ले लें और फिर घर में आकर वह यह कहे कि हम बड़े परोपकारी हैं, पहिले गांव की बहुवों की अच्छी-अच्छी सब्जी ले दिया और बाद में जो बची उसे अपने लिए खरीद लिया, हम बड़े दयालु हैं। ऐसा यदि वह बूढ़ा बाबा कहे तो घर की बहू तो रूठ जायेगी ना। अरे पहिले अपने लिए खरीद लेते बाद में पड़ौस की बहुवों के लिए खरीद लेते। तो पहिले खुद की संभाल कर लीजिए।
निगोद के कार्यक्रमों का अभ्यास―दूसरे की संभाल करने में आप समर्थ नहीं हो सकते हैं। खुद की दृष्टि न संभाले तो वह दूसरों का भला करने में भी समर्थ नहीं हो सकता है। सुधरो अथवा न सुधरो, खुद की बात तो सोचो, यहाँ से मर कर कहां पैदा होंगे? फिर किसी से क्या रहा संबंध? इतना तीव्र व्यामोह है कि दूसरे के सुख में सुखी और दूसरे के दु:ख में दु:खी। दूसरे सांस लें तो अपन भी सांस लें, दूसरे की दम घुटे तो खुद की दम घुटे। इतना तेज मोह है। सो शायद ऐसी बात होगी कि अगले भव में निगोद जाना है सो वहाँ ऐसा करना पड़ेगा सो उसका अभ्यास यहाँ किया जा रहा है। हम एक के जन्मते जन जायें, एक के मरते मर जायें, ऐसा करना पड़ेगा। इसका ऐक्सरसाइज है यह सो सीख लें। दूसरे के दु:ख में दु:खी हों, दूसरे सांस लें तब सांस लें, तो हम निगोद की बात सीख रहे हैं। क्या सिद्धि है?
परिजनसंग व धर्मप्रगति―भैया ! यहाँ यदि संबंध हुआ है, परिवार है, कुटुंब है तो उस संबंध को धर्म के लिए समझो, मौज और भोग के लिए न समझो। धर्म के रूप में व्यवहार हो और परस्पर धर्मप्रगति का उत्साह हो तो उस संग से कुछ लाभ भी मिलेगा अन्यथा केवल मोह भोग मौज के लिए ही संबंध है तो वहाँ एक दूसरे के बिगाड़ की होड़ हो रही है, और दूसरी कोई बात नहीं है।
यह काल जो व्यतीत हो रहा है इसका स्रोत; साधन है निश्चय काल द्रव्य। अब जरा सर्वांगीण दृष्टि से विचार करो कि यदि यह काल द्रव्य न होता तो यह काल समय कहां होता और समय न होता तो पदार्थ का परिणमन कैसे होता और पदार्थ का परिणमन न होता तो द्रव्य भी न कहलाता। जब द्रव्य भी न रहा, परिणमन भी न रहा तो कुछ भी न रहा। पर ऐसा है कहां? हम तो कहते हैं कि हम कुछ न हों तो बड़ी अच्छी बात है। हम सिफर बन जायें अच्छी बात है पर बन कैसे जायें? सत यदि प्रवर्तते हैं तो परिणमेंगे। अब तो इसी में भलाई है कि ऐसा परिणाम बनाएं कि हमारे भाव अनाकुलतापूर्ण हों।
कालपरिज्ञान का सदुपयोग―कालद्रव्य वर्तना का कारण है। कुम्हार के चक्र की जैसे वह कील एक आधार है, सारा चक्र उसी के सहारे घूम रहा है। यों ही यह कालद्रव्य एक निमित्तभूत आधार है और सर्व ओर परिणमन हो रहा है? यदि कालद्रव्य न होता तो 5 अस्तिकायों का फिर परिणमन कहां से होता। तो यह काल का वर्णन जानकर काल पर दृष्टि नहीं देना, किंतु समझ लेना है कि अब इन क्षणों को यों ही अनाप-सनाप नहीं व्यतीत करना है किंतु ऐसी आत्मदृष्टि जगे कि हमें अपना कल्याण करना है। यह बात अपने में घर कर जाय और ऐसी लगन लग जाय कि मोह में सार नहीं है किंतु शुद्ध जो निज सहज ज्ञायकस्वरूप है उसकी दृष्टि में ही लाभ है, उसी का ही हमें यत्न करना है।
प्रतीतिसिद्ध व युक्तिसिद्ध पदार्थ―द्रव्य की जातियां सब 6 हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन 6 द्रव्यों में से जीव और पुद्गल ये दो प्रकार के द्रव्य तो प्रतीति में आते हैं। इसकी समझ अधिक बैठती है। जीव के संबंध में तो बहुत परिचय है। चाहे उसका सहज स्वरूप न जान पायें पर जीव के संबंध में साधारणतया सबको कुछ न कुछ ज्ञान है। बता दोगे देखते ही कि इसमें जीव है, इसमें जीव नहीं है। जीव द्रव्य का प्रत्यय लोगों को अधिक है और पुद्गलद्रव्य की भी प्रतीति अधिक हैं। ये सब आंखों से जो कुछ दिखते हैं ये स्कंध पुद्गल ही तो हैं, पर शेष चारों द्रव्य सूक्ष्म हैं जो प्रतीति में नहीं आ पाते, युक्तियों से जानने में आते हैं।
धर्म, अधर्म, आकाश व काल का परिचय―जैसे मछलियों को चलने में जल सहकारी कारण है, वह एक विशेष बात है, पर जीव पुद्गल को चलाने में कोई चीज सहकारी कारण है तो उस वस्तु का नाम है धर्मद्रव्य। और जब धर्मद्रव्य आदिक जो गमन का हेतु है तो गमन करके जो स्थित हो, ठहरता हो तो जितने नवीन कार्य होते हैं उनका कोई निमित्त कारण होता है तो धर्मद्रव्य का प्रतिपक्षी कोई कारण होना चाहिए। वह है अधर्मद्रव्य। आकाश की बात भी बहुत कुछ समझ में आ रही है। जहां चलते हैं यही तो आकाश है। कहते भी हैं लोग कि पक्षी आकाश में उड़ते हैं, हवाई जहाज आकाश में चलता है। आकाश बहुत प्रतीति में आ रहा है पर सूक्ष्म होने से पुद्गल की भांति विशेष स्पष्ट नहीं हो पाता, पर हाँ वह आकाश है। कालद्रव्य व्यवहार काल के द्वार से यह भी युक्ति में आता है मिनट, घड़ी, घंटा, दिन, महीना यह समय गुजरता है ना। तो यह समय जो गुजर रहा है यह समय नामक परिणमन किसी द्रव्य का ही तो होना चाहिए जो भी परिणमन है उसका आधारभूत कोई द्रव्य ही होता है। तो समय परिणमन का आधारभूत कालद्रव्य है। यों 6 पदार्थ यहां बताये जा रहे हैं। उनमें अंतिम जो कालद्रव्य है उसका स्वरूप चल रहा है। अब उसही काल के संबंध में कुछ और वर्णन कर रहे हैं।