वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 33
From जैनकोष
जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो।
धम्मादिचउण्हं णं सहावगुणपज्जया होंति।।33।।
कालपदार्थ व उसका उपग्रह―जीवादिक समस्त द्रव्यों के परिवर्तन का जो कारण है वह काल पदार्थ है। कालपदार्थ पदार्थ के परिणमन का हेतुभूत है और काल के परिणमन में काल ही हेतुभूत है। कालद्रव्य भी तो परिणमन करता है। कालद्रव्य का परिणमन है समय। जिन समयों के समूह का नाम है सेकेंड, मिनट आदिक तो समय नामक जो कालद्रव्य का परिणमन होता है उसका निमित्त क्या है? उपादान तो कालद्रव्य ही है और निमित्त भी कालद्रव्य है। खुद ही निमित्त और खुद ही उपादान हुआ। अन्य कोई पदार्थ निमित्त नहीं होता ऐसा पदार्थ है तो वह कालद्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश इनका भी परिणमन चलता है। इनके परिणमनों का निमित्त है कालद्रव्य। उपादान वह स्वयं ही है। जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन 5 द्रव्यों की पर्यायों के परिणमन का कारण हो जिसका परिवर्तन चिन्ह है उसे कालद्रव्य कहते हैं। कालद्रव्य पंच अस्तिकायों के परिणमन का निमित्तभूत है। काल अस्तिकाय नहीं है क्योंकि वह एकप्रदेशी है। वह 5 अस्तिकायों के परिणमन का हेतु है और परिणमन का हेतु दूसरे का है और स्वयं का भी है।
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य व कालद्रव्य की शाश्वत अबंधता―अब इन 6 द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका अन्य द्रव्यों के साथ संपर्क नहीं होता। न सजातीय पदार्थ का संबंध है और न विजातीय पदार्थ का संबंध है, किंतु जिस जीव के संबंध के प्रसंग में जो नर नरकादिक पर्यायें बनती हैं उनमें विजातीय बंध है, तथा पुद्गलों में सजातीय बंध है। ऐसा बंध इन चार द्रव्यों में नहीं है क्योंकि धर्म धर्म के साथ कैसे मिलेगा? धर्मद्रव्य तो एक ही है। अधर्मद्रव्य भी एक ही है, आकाशद्रव्य भी एक ही है, रहा शेष कालद्रव्य सो वह हैं यद्यपि असंख्यात लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु ठहरा है लेकिन वह तो स्थिर है जो कालाणु जिस प्रदेश पर है वह उस ही जगह रहता है, हेर-फेर नहीं होता। कालाणुओं में स्थान परिवर्तन नहीं चलता। जहां जो कालाणु है वहाँ ही वह कालाणु स्थित है। फिर एक कालद्रव्य के साथ दूसरे कालद्रव्य का संबंध कैसे हो सकता है?
स्वभावगुणपर्याय―धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य इन चार द्रव्यों में न तो सजातीय बंध है और न विजातीय बंध है। इस कारण इन चार द्रव्यों के विभाव गुणपर्याय होते ही नहीं हैं। धर्मद्रव्य में स्वभावगुणपर्याय है। अधर्म, आकाश और काल में द्रव्य में भी स्वभावगुणपर्याय है। विभावगुणपर्याय इसमें नहीं होती है। गुणपर्याय का अर्थ है कि पदार्थ में जो गुण है, शाश्वत शक्ति हे उसका जो परिणमन है उसे गुणपर्याय कहते हैं। इन 6 द्रव्यों में चार द्रव्यों को छोड़कर शेष के जो दो बचे हैं जीव और पुद्गल, इनमें स्वभावगुणपर्याय भी होता है और विभावगुणपर्याय भी होता है। जीव में स्वभावगुणपर्याय है वह जो भगवान में पायी जाती है।
जीव के स्वभावगुण पर्याय―ज्ञान का स्वभावगुण पर्याय केवलज्ञान है, दर्शन का स्वभावगुण पर्याय केवलदर्शन है, आनंद का स्वभावगुणपर्याय आनंद है। चारित्रगुण का स्वभाव गुण पर्याय शाश्वत आत्मस्थिरता है। ये तो हैं सब स्वभाव गुण पर्यायें और संसारी जीवों में विभाव गुणपर्यायें मिलती हैं। ज्ञानशक्ति की विभाव गुण पर्याय है। केवलज्ञान को छोड़कर शेष के 7 ज्ञान, दर्शन गुण के विभाव पर्याय हैं―केवल दर्शन को छोड़कर शेष के सब दर्शन। आनंद गुण के विभाव परिणमन हैं सुख और दु:ख। जो परिणमन पर-उपाधि का निमित्त पाकर हो उसे विभावपरिणमन कहते हैं। खुद वही पदार्थ खुद में विभाव का कारण नहीं बनता है।
विभावगुणपर्यायत्व का कारण औपाधिकता―यद्यपि विभाव उस ही खुद के द्रव्य में उत्पन्न होता है जो कि उपादानभूत है, पर निमित्तभूत वही पदार्थ नहीं है। यदि वही एक पदार्थ विभाव का जैसा उपादान है, निमित्त भी बन जाय तो वह निमित्तभूत पदार्थ तो शाश्वत है फिर सदा ही विभाव रहना चाहिए। विभाव परपदार्थ का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है और इसी कारण वह विभाव कहलाता है। आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थों का निमित्त पाकर जो भी परिणमन होगा वह स्वभाव से विपरीत परिणमन होगा, स्वभाव परिणमन नहीं। इस जीव के साथ कर्म लगे हैं, और वे ही इस जीव के विभावगुण परिणमन के निमित्त होते हैं। अन्य जो इंद्रिय के विषय हैं ये जीव के विभाव गुण परिणमन में निमित्त नहीं होते। कर्मों का उदय हो तो उसका फल मिले। इसमें भी आश्रयभूत नोकर्म का संबंध हो तो फल मिलता है। जैसा कर्मोदय है और कुछ नोकर्म है उस नोकर्म का सन्निधान होने पर कर्मोदय फलवान् होता है।
बाह्य साधनों का स्थान―भैया ! कदाचित् ऐसा भी हो जाता कि नोकर्म न हो तो कर्मोदय निष्फल हो जाता है, और इस दृष्टि से चरणानुयोग की पद्धति अधिक ग्राह्य हो गयी है। अब त्याग करो नोकर्म का। विषय कषायों के आश्रयभूत पदार्थों का त्याग करो तो बहुत कुछ यह संभव है कि नोकर्म न मिलने से वे कर्म निष्फल खिर जायें। ठीक है फिर भी बहुत बड़ी आपत्ति यह लगी है कि कर्मोदय जब होता है तो जो भी सहज मिल गया उसी का आश्रय बनाकर उस विपाक में वह जाता है। जैसे किसी को गुस्से की आदत पड़ी है तो दूसरा आत्मा वो साथ हो उसका आश्रय करके गुस्से करेगा। कोई यह सोचे कि अमुक व्यक्ति के होने से गुस्सा आता है, इस व्यक्ति को न रहना चाहिए तो चाहे वह व्यक्ति न रहे तो भी जो कुछ भी मिलेगा, उसका आश्रय करके वह गुस्सा करने लगेगा। और कभी यह स्थिति आ जाय कि कोई संग भी न मिले तो खुद की ही अनेक घटनाएं ऐसी चलती रहती हैं, थोड़ा हाथ, पैर या सिर में कुछ लग गया, लो घटना बन गयी, उसी का आश्रय करके गुस्सा बन जायेगा।
विभाव्य उपादान को निमित्तों की सुलभता―भैया ! ऐसे बहुत कम स्थल होते है कि नोकर्म के अभाव में कर्म निष्फल जायें। क्योंकि यह जगत नोकर्म से भरा हुआ है। जैसे किसी को घमंड करने की प्रकृति बनी है और उस घमंड का पोषण घर में नहीं हो पाता, परिवार के लोग उसे मान नहीं देते हैं। तो गुस्सा में आकर घर छोड़ देगा। और कहीं न कहीं तो जायेगा ही। सो जहां जायेगा, जिस गोष्ठी में वह होगा उसमें ही परजीवों को लक्ष्य में लेकर अब घमंड पोषण की मन में लायेगा तो जब उदय और योग्यता अनुकूल चलती है तो जगत तो नोकर्मों से भरा हुआ है। जिस चाहे पदार्थ का आश्रय करके यह अपने कषायों को उगलेगा। फिर भी चरणानुयोगी की पद्धति से नोकर्म का त्याग करने वाला ज्ञानी पुरुष बहुत कुछ अपनी रक्षा कर लेता है और फरक पड़ता ही है। जब अधिक संकल्प विकल्प करने का वातावरण नहीं रहता है तो निर्विकल्प समाधि की पात्रता उसमें विशेषतया प्रकट हो ही जाती है। आत्मा में जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, श्रद्धा, गुण हैं ये उपाधि के सन्निधान में चूंकि हमारी योग्यता भी विकाररूप परिणमने की है सो विकाररूप परिणम जाता है, वे सब है विभावगुण पर्यायें।
सहज स्वरूप के संभाल की आवश्यकता―जब यह जीव अपने आपके सहज स्वरूप की संभाल कर ले तो ज्ञायकस्वरूप की दृष्टि के बल से ऐसा योग्य बनता है यह जीव कि वहाँ विभावपरिणमन शांत होता है और स्वभावपरिणमन की तैयारियाँ होने लगती हैं। जब यह जीव सर्वथा शुद्ध हो जाता है तो उसमे व्यक्त स्वभावगुण पर्याय प्रकट हो जाती है। यह तो प्रयोग सिद्ध बात है और जो चाहे कर सकता है कि जब परपदार्थ की ओर अपनी दृष्टि रखता है, आकर्षण करता है तब तो इसे आकुलता उत्पन्न होती है और जब परपदार्थ का निरोध रहता है तब चूंकि केवल यह स्व ही ज्ञान में रहता है अत: इसमें आकुलता का स्थान नहीं मिलता। आनंद चाहिए, शांति चाहिए तो एकमात्र यही उपाय है अपने सहजस्वरूप का ज्ञान करना। सहजस्वरूप रूप मैं हूं, ऐसी प्रतीति करना और इस स्वरूप में ही स्थिर होना, मग्न होना, यही आनंद पाने का एकमात्र उपाय है।
आत्मप्रयोग―यहाँ कुछ पीछे की बात तो नहीं कही जा रही है। तीनों लोकों में कहां-कहां कैसी-कैसी रचना है? इसकी बात नहीं कही जा रही है अथवा बहुत काल पहिले क्या हुआ था, उस इतिहास की बात नहीं कही जा रही है, किंतु यहाँ तो ऐसी बात स्पष्ट है जैसे चक्कू पर धार लगाने वाले धार लगाते जाते और धार को देखते जाते, आजमाते जाते यों ही अपने आपमें जो गुण हैं, शक्ति है उसकी धार बनाता जाय, परिणति करता जाय, धार देखता जाय धार को आजमाता जाय। यह कहीं अन्य जगह की बात नहीं कही जा रही है, खुद की बात है। थोड़ा पर का आकर्षण छोड़ो, किसी पर में रखा कुछ नहीं है, वे मेरे लिए कुछ शरण नहीं हैं। यहाँ का यह कषायानुकूल व्यवहार है, फिर वस्तुत: सब आत्मा जुदे-जुदे हैं। तो जरा ऐसा जानकर मोह में अंतर कर, पर का आकर्षण न बना, तो अपनी यह बात समझ में जल्दी आ जायेगी।
अपनी बात―यह आत्मा ज्ञानमय ही तो है। स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञान द्वारा यही ज्ञान में न आए यह कैसे हो सकता है? परपदार्थों की ओर बहुत दूर तक देखते हैं। जैसे बहुत दूर की चीज भी देखने में अपनी निगाह लगाई हो, तो न खुद ही देखने में आता है और निकट की भी चीज देखने में नहीं आती। ऐसे ही उपयोग द्वारा बहुत दूर की बात अत्यंत भिन्न पदार्थ की बात हम देखने में लगे हों तो वहाँ न हम दिख सकते हैं और न हमारे निकटवर्ती विभावादिक करतूत कर्म दिखने में आ सकते हैं। मोह भाव कम होने पर आकर्षण नहीं होता। और ऐसी स्थिति में अपनी बात की समझ बैठ सकती है अन्यथा अपनी बात समझमें नहीं आ सकती।
निकटीय वातावरण के विज्ञान की आवश्यकता―इस ग्रंथ में इस प्रकरण तक 6 द्रव्यों की विशद व्याख्या चल रही है और यह सब सम्यग्ज्ञान हमारे आत्महित के साधन में साधक बन रहा है। अपने निकट का समस्त वातावरण यदि अच्छी तरह से विदित हो तो वह पुरुष सावधान विवेकी, स्वच्छ, साफ बना रहता है। और जिसे अपने निकट का वातावरण भी न मालूम हो वह तो अंधेरे में है, धोखे में है, विनाश के सम्मुख है। तो हमारे निकट का यह सब वातावरण है। छहों द्रव्य वाली बात हमारे ही निकट का वातावरण है, पुद्गल में तो निकटता है ही। शरीर से लगा है। कर्मों का बंधन है, सूक्ष्म शरीर भी इसका साथ नहीं छोड़ते हैं जब तक मोक्ष नहीं होता। ऐसा निकट वातावरण है, उसके बारे में हमें सही बात न मालूम पड़े तो हम कहां सावधान रह सकते हैं, विवेकी रह सकते हैं और प्रगतिशील कहां से हो सकते है? इस कारण इन सबका जानना आवश्यक है।
काल का निकट संबंध―धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये भी हमारे अनुभव में नहीं समा पाते हैं फिर भी हैं तो हमारे निकट के ही वातावरण। कालद्रव्य के परिणमनरूप समय के गुजरने का निमित्त पाकर हम परिणमा करते हैं। कोई बालक 8 वर्ष का है। साल भर बाद जो उसकी परिस्थिति बन सकती है, साल व्यतीत न हो तो कहां बन जायेगी? ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता है त्यों-त्यों यह परिणमन बनता रहता है। तो कालद्रव्य से भी हमारे संबंध की निकटता है।
आकाश का निकट संबंध―आकाश जिसमें हम बैठे ही हैं उसकी भी निकटता है और धर्म, अधर्म इसमें भी निकटता है। हम चलते हैं, ठहरते हैं, सो ठहरते तो हैं, किंतु है इन सबमें हमारा अत्यंताभाव। इनसे मुझमें कुछ आता नहीं। यदि स्वरूपदृष्टि से निरखो तो कोई एक प्रश्न का उत्तर चाहेगा कि बतावो तुम कहां रहते हो? तो उसका उत्तर होगा कि हम अपने प्रदेशों में रहते हैं। आकाश में नहीं रहते हैं। आकाश में आकाश है और हममें हम हैं। भले ही अनादि काल से यह बात बनी हुई है कि हम आकाश को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहते, न रहेंगे, इतने पर भी जैसे आकाशद्रव्य अपने घर का बादशाह है, पूर्ण है, उस आकाश का सब कुछ उस आकाश में ही है, इस प्रकार हम भी अपने घर के राजा हैं, अपने ही में पूर्ण हैं और अपने में ही परिणमते हैं। जब इस आकाशद्रव्य से मेरा कोई संबंध नहीं रहा, भिन्नता बनी है तो हम आकाश में कहां है, हम तो अपने आपमें हैं। स्वरूपदृष्टि से इस भांति देखा जाता है।
इन सब पदार्थों का विवरण अत्यंत रम्य है, भव्य जीवों को सुनकर अमृत समान संतोष देने वाला है। जो पुरुष प्रमुदित चित्त होकर इस सब ज्ञान को जानता है उसका यह सब परिज्ञान संसारसंकटों से मुक्ति पाने के लिए कारण होता है।