वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 37
From जैनकोष
पोग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि।
चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा।।37।।
पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, शेष के द्रव्य मूर्तिपना से रहित हैं। जीव चैतन्यस्वभाव वाला है और शेष द्रव्य चैतन्य गुण से रहित हैं।
लक्षण से जाति का प्रतिबोध―पदार्थ तो अनंत होते हैं, परंतु पदार्थ की जातियां बनाकर यहाँ मूलभूत द्रव्य की 6 जातियां बतायी गयी हैं। जाति उसे कहते हैं कि जिसमें विवक्षित सभी पदार्थ आ जाएं और अविवक्षित कोई पदार्थ न आए। जीवद्रव्य जैसा स्वलक्षणात्मक है उस स्वलक्षण की दृष्टि में जितने भी जीव हैं सबका ग्रहण हो जाता है और जीव से अतिरिक्त किसी भी द्रव्य का ग्रहण नहीं होता। इस ही को पहिचान कहते हैं, लक्षण कहते हैं। जहां अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव―ये तीनों दोष नहीं रहें ऐसे लक्षणों को पदार्थ का शुद्ध लक्षण कहा करते हैं।
लक्षण का अव्याप्तिदोष से लक्षणाभासपना―अव्याप्ति दोष का अर्थ है ‘न व्याप्ति इति अव्याप्ति।’ जो न व्यापे, न रहे उसे अव्याप्ति कहते हैं अर्थात् जो समस्त लक्ष्य में न रहे उसका नाम अव्याप्ति है। इस ही को इस भाषा में कह सकते हैं कि जो लक्ष्य के एक देश में रहे उसे अव्याप्ति कहते हैं, किंतु शब्दों के अनुसार अर्थ यह नहीं है। यह तो फलितार्थ है, शब्दार्थ यह है कि जो समस्त लक्ष्य में न रहे उसे अव्याप्ति कहते हैं। जैसे पशु की कोई पहचान पूछे कि बतावो पशु का लक्षण क्या है और कोई उत्तर दे दे कि पशु का लक्षण सींग है। तो एकदम सीधा सुनने में तो लगेगा कि ठीक ही तो कहा है, पशुवों के ही तो सींग होते हैं, किंतु सींगरूप लक्षण समस्त पशुवों में नहीं पाया जाता है। इससे पशुवों की पहिचान सींग बताना युक्त नहीं है। पहिचान वह होनी चाहिए जो समस्त लक्ष्य में रहे और अलक्ष्य एक में न रहे उसे कहते हैं लक्षण। जैसे पशु का लक्षण क्या हो सकता है, इस बाबत कभी ध्यान ही नहीं दिया, पर यह संभव है कि जिसके चार पैर होते हैं सो पशु है। यदि यह बात सही है कि पशु के सिवाय और किसी के चार पैर नहीं होते और सब पशुवों के चार पैर होते हैं तो यह लक्षण सही बन जायेगा। जीव का लक्षण क्या है? कोई कहे कि जीव का लक्षण है राग, खाना, पीना, चलना, बैठना ये ही जीव के लक्षण हैं। तो यह लक्षण निर्दोष नहीं है क्योंकि रागादिरूप लक्षण सब जीवों में नहीं पाया जाता है। शुद्ध आत्मावों में राग कहां है? तो अव्याप्ति दोष नहीं हो और अतिव्याप्ति दोष नहीं हो, साथ ही असंभव दोष नहीं हो तो वही लक्षण सही-सही माना जाता है और उससे ही फिर जातियां बनती हैं। जातियां लक्षणों से ही प्रकट हुआ करती हैं।
अतिव्याप्ति दोष से लक्षण का लक्षणाभासपना―कोई पूछे कि गाय का लक्षण क्या है? और उत्तर दिया जाय यह कि गाय का लक्षण सींग है तो थोड़ा शब्द सुनने में तो ठीकसा जंच जाता हे। ठीक ही तो कह रहे हैं कि गाय के सींग होते हैं। पर यह बात नहीं कही जा रही है। गाय का लक्षण सींग बताया जा रहा है कि जहां-जहां सींग मिलें उस उसको गाय समझना तो यह लक्षण सही तो नहीं है क्योंकि सींग लक्ष्यरूप गाय के अलावा अन्य पशुवों में भी रहा करता है। भैंस, बकरी, बैल, भेड़, बारहसिंगा आदि अनेक पशुवों के सींग रहा करते हैं। तो यह अतिव्याप्ति दोष से दूषित है। अतिव्याप्ति कहते किसे हैं? जो अति मायने अधिक व्याप्ति मायने रहे। जो लक्ष्य के अलावा अलक्ष्य में भी रहे उसे अतिव्याप्ति कहते हैं। तो गाय का सींगरूप लक्षण हैं क्या? नहीं क्योंकि गाय के अतिरिक्त अन्य पशुवों में भी सींग पाये जाते हैं। ऐसा यह अतिव्याप्ति दोष है। जीव के संबंध में पूछा जाय कि जीव का लक्षण क्या है? और कोई कहे कि जीव का लक्षण है अमूर्तिकता। रूप, रस, गंध, स्पर्श का न होना, तो जरा जल्दी सुनने में अनेक लोगों को ऐसा लगेगा कि यह ठीक तो कह रहे हैं। जीव में रूप, रस, गंध, स्पर्श कहां होते हैं, पर यह नहीं कहा जा रहा है। लक्षण बांधा जा रहा है। जो-जो अमूर्त हो वह-वह जीव है―ऐसा बंधन किया जा रहा है। जीव अमूर्त है, यह तो ठीक है, पर जीव का लक्षण अमूर्त नहीं हो सकता क्योंकि अमूर्तपना जीव के अतिरिक्त अलक्ष्य में भी पहुंच गया। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य ये भी अमूर्तिक हैं।
असंभव दोष―कोई कहे कि जीव का लक्षण है भूतचतुष्टय से जो उत्पन्न हो जाना है यह बिल्कुल ही असंभव है। जैसे कोई पूछे कि मनुष्य का लक्षण क्या है और कोई उत्तर दे कि मनुष्य का लक्षण सींग है। तो क्या किसी मनुष्य के आपने सींग देखा है? यह लक्षण तो बिल्कुल ही असंभव है, जहां तीनों प्रकार के दोष नहीं होते है, ऐसे लक्षण से जाति बना करती है।
पदार्थ का निर्दोष लक्षण स्वभाव―जीव की जाति कैसे पहिचानी जाय? उसकी पहिचान है जो उसका स्वभाव है। जहां-जहां चेतन है वे सब जीव हैं। पुद्गल का लक्षण बताया है रूप, रस, गंध, स्पर्शमयता। यह लक्षण पुद्गल को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता है। परमाणु हो या स्कंध हो सर्वत्र पुद्गल में रूप, रस, गंध, स्पर्श पाये जाते हैं। चाहे कहीं मालूम पड़े अथवा न मालूम पड़े या कहीं चारों में से एक दो मालूम पड़े, शेष न मालूम पड़े। यह मालूम पड़ने की बात है किंतु समस्त पुद्गलों में ये चारों गुण नियम से हुआ करते हैं। धर्मद्रव्य की जाति है गतिहेतुत्व, अधर्म का लक्षण है स्थितिहेतुत्व, आकाश का लक्षण है अवगाहनहेतुत्व और कालद्रव्य का लक्षण है परिणमनहेतुत्व। यों सर्व पदार्थों की जातियां ये 6 होती हैं। उनमें से जीव तो एक है और अजीव 5 हैं।
वस्तुस्वरूप की अनुसारिता―यह अधिकार है अजीव द्रव्य का। उक्त अजीव में से मूलपदार्थों में सबसे प्रथम बताया गया है पुद्गल। जो सुगम जाना जा सके उसको वर्णन में पहिले लिया करते हैं। इन अजीव पदार्थों में से पुद्गल अति सुगमतया जाना जाता है। उस पुद्गल में मूर्तपना है। रूप, रस, गंध, स्पर्शमयता है और पुद्गल को छोड़कर शेष पदार्थ सब अमूर्त हैं। कानून बनाकर वस्तु नहीं बताई जा रही है किंतु जैसी वस्तु है उसका ज्ञान करने के लिए उसके अनुरूप वर्णन किया जा रहा है। बहुत से व्यवहार ऐसे हैं कि परंपरागत व्यवहार को मानकर चला जाता है तो उसमें असफलता नहीं मिलती है। धर्म के मार्ग में, सभ्यता के पथ में बहुत से पुरुषों के द्वारा छन-छनकर यह स्पष्ट रूप मिल रहा है। तो वस्तुवों में जो स्वरूप पाया जाता है उस स्वरूप को दृष्टि में लेने के लिए उसके अनुरूप वर्णन होना यह तो है सफलता का साधन और हम सब कुछ स्वरूप गढ़ लें, बना लें और उसके अनुसार बाहर में व्यवस्था करें, प्रबंध करें, स्वरूप देखें तो वह सब प्राय: असफल होगा।
ज्ञेयों में जीव व पुद्गल की प्रमुखता―इस समस्त पदार्थों में पुद्गल द्रव्य तो मूर्तिक है और शेष के सर्व द्रव्य अमूर्त हैं। तो मूर्त और अमूर्त के नाते से एक ओर तो मूर्त पुद्गल बैठा है और दूसरी ओर सब द्रव्य आ गए, इस तरह जब चेतनत्व और अचेतनत्व का मुकाबला करें तो चेतनत्व मिलेगा जीव में और शेष द्रव्यों में मिलेगा अचेतनत्व। जीव चेतन है, जाननहार, देखनहार है और अजीव कोई भी न जानता है न देखता है। उस अशुद्धता और शुद्धता के मुकाबले में विचार किया जाय तो अशुद्धता केवल जीव और पुद्गल में मिलेगी। पुद्गल में तो स्वजातीय बंधन की अपेक्षा अशुद्धता है और जीव में विजातीय बंधन की अपेक्षा अशुद्धता है। पुद्गल, पुद्गल के संयोग में अशुद्ध हो जाता है और जीव पुद्गल के संयोग में अशुद्ध हो जाता है। भैया ! जीव और अजीव का स्पर्श, संबंध कहीं नहीं होता है, फिर भी मोही जीव प्राय: जीव और अजीव को एक में मिलाने के प्रयत्न में रहता है।
मोहनिद्रा में छोटे बड़े की कल्पना का स्वप्न―यह मोही जीव अज्ञान में हठ किए रहता है और इसी व्यामोह के फल में न कुछ जरा-जरासी बातों में विवाद और कलह हो जाते हैं। संसार में सुख है कहां? जो बड़ा है वह हुकुम दे-देकर दु:खी होता है और जो छोटा है वह हुकुम मान-मानकर दु:खी होता है। यहाँ यह सोचा जाय कि छोटे लोग तो दु:खी रहते हैं और बड़े लोग सुखी रहा करते हैं तो ऐसा कुछ नहीं है। जैसे छोटे आदमी दु:खी हैं, बल्कि किन्हीं अपेक्षावों से छोटे की अपेक्षा बड़ा दु:खी अधिक है। छोटे की लालसा तृष्णा उनकी कल्पना की सीमा थोड़ी है। इतने की सिद्धि हो गई तो मौज से गाते फिरते अपना समय बिताते हैं और कहो बड़े के, चूंकि तृष्णा अधिक है सो उस तृष्णा के कारण रात-दिन चैन नहीं मिलती है।
लोकवैभव से छोटे बड़े का अनिर्णय―भैया ! बताओ जरा बड़ा कहेंगे किसे? धन में बड़ा होता है कोई ऐसा मानें तो आप ही लोग पंचायत करके कमेटी करके हमको फैसला दे दो कि इतने रुपये हों तो उसे बड़ा कहते हैं या धनी कहते हैं। जो फैसला करे वह बिल्कुल सही करे। कोई विचार कर सकता हो तो खूब विचार करके बता दे कि बड़ा उसे कहते हैं। किसी के पास करोड़ रुपये का वैभव हो तो क्या उसे बड़ा कहेंगे? अरे उसके सामने किसी अरबपति का वैभव रख दो तो वह करोड़पति उसके सामने छोटा हो जायेगा। सभी अपनी कल्पना से बड़े बने हैं, पर यहाँ कोई बड़ा नहीं है।
संघर्ष से बड़ों की सृष्टि―यहाँ एक बात मर्म की यह है कि कोई बड़ा बहुत बड़ी विपत्तियां सहने के बाद में बन सकता है। एक बड़ा नाम उसका है जो उड़द की दाल से बनता है। वह भी बड़ा कहलाता है। उस बड़े की कहानी सुन लो। पहिले तो दाल पानी में भिगोते हैं, 10 घंटे तक के लिए फुला देते हैं। बाद में उसको रगड़ते हैं हाथ से ताकि इसके छिलके निकल जायें। अभी दो ही कष्ट आए। फिर सिलबट्टे से पीस-पीसकर चूर कर देते हैं और कंजूस हो तो थोड़ी कुशल भी रहे, थोड़ा पानी डालकर कढ़ी बना लिया। क्योंकि उसमें घी कम लगता है। उसके बाद उसे खूब फेंटा, चार बातें अभी हुई हैं, इसके बाद फिर उसकी सकल बिगाड़ कर गोल-गोल कर लिया, यह हुई 5वीं बात, फिर उसे कड़ाही में डालकर खूब सेंका। इसके बाद भी मन नहीं मानता, सो लोहे की पतली सींक से उसका पेट छेदकर देखते हैं कि कच्चा तो नहीं रह गया है। इतनी बातें होने के बाद उसका नाम लोग बड़ा रखते है। तो अब समझलो कि बड़ा बनने के लिए कितने कष्ट आते हैं और बड़ा बनने के बाद भी कष्ट छूटते नहीं हैं किंतु बढ़ते ही जाते हैं। क्योंकि कल्पनाओं की और व्यवस्थावों की कुछ हद नहीं हे लोक में। तो काहे का बड़ा और काहे का छोटा? दुनिया में ये सब एक समान हैं।
ज्ञानी का परिज्ञान व अंत: प्रसाद―जिसने अपना स्वरूप सँभाला, वस्तु की स्वतंत्रता का भान किया, जो कि शांति और संतोष का कारण है। ममता न रही तो अब क्लेश किस बात का? सारा क्लेश तो ममता का है घर में भी रहे तो भी कर्तव्य तो यह गृहस्थ ज्ञानी निभायेगा सेवा शुश्रूषा उपचार करेगा, पर आकुलित न होगा। हाय, अब क्या किया जाय? हमें कुछ सूझता नहीं, ऐसी आकुलता न मचायेगा। वह तो जानता है कि हमें सब सूझता है कि कितनी विकट बीमारी है। या तो अच्छा हो जायेगा या मर जायेगा। अच्छा हो जायेगा तो ठीक है और मर जायेगा तो संसार का यह तो नियम ही है। हम तो परिपूर्ण ज्यों के त्यों ही हैं। यहाँ कुछ घटता नहीं है। उसे यथार्थ परिज्ञान है क्योंकि मोह नहीं रहा। सबसे बड़ी कमाई यही है कि मोह न रहे क्योंकि कमाई के फल में चाहते हैं आप आनंद किंतु बाह्यवस्तुवों के संचय में आनंद कहीं न मिल पायेगा और मोह नहीं रहा तो लो आनंद हो गया।
परिज्ञान का फल निर्मोहता―भैया ! मोह न रहे इसके ही लिए इन सब अजीवों का वर्णन इस अधिकार में किया गया है। ये अजीव ऐसे हैं, इनका यह लक्षण है, मुझसे अत्यंत पृथक् हैं। इनके परिणमन से मेरा परिणमन नहीं, मेरे परिणमन से इनका परिणमन नहीं। रंच भी संबंध नहीं है। यह मोही जीव स्वयं अपनी ओर से परवस्तुवों का लक्ष्य करके इस अपने अपराध से ही स्वयं बरबाद हुआ जा रहा है। दूसरा कोई इसे बरबाद नहीं कर रहा है। अशुद्धता केवल जीव और पुद्गल में होती है। धर्मादिक चार द्रव्यों में तो सदा शुद्धि ही रहती है। शुद्ध हो या अशुद्ध हो सर्वत्र द्रव्यों में स्वरूप की स्वतंत्रता है।
स्वतंत्रता की उपासना―ऐसे बहुत प्रकार के वर्णन में पद-पद पर स्वतंत्रता का उद्घोष किया गया है। जो पुरुष ऐसे यथार्थ स्वतंत्र स्वरूप को कंठ में धारण करेगा उसका लोक में बड़ा शृंगार होगा और जो जीव वस्तु के इस स्वतंत्र स्वरूप को हृदय में धारण करेगा उसकी बुद्धि बहुत पैनी बनेगी और जिसकी प्रज्ञा पैनी बनेगी वह इस समयसार को शीघ्र प्राप्त करेगा, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब वर्णनों से हमें यह शिक्षा लेनी है कि मैं अन्य सर्वपदार्थों से, अतत्त्वों से निवृत्त होकर चिदानंदमय आत्मस्वरूप में उपयोगी बनूं।
❀ नियमसार प्रवचन द्वितीय भाग समाप्त ❀