वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 39
From जैनकोष
णो खलु स्वभावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा।
णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा।।39।।
शुद्ध जीवास्तिकाय के विभावस्वभावस्थानों का अथाव―इस आत्मतत्त्व में स्वभाव स्थान नहीं है। स्वभावस्थान शब्द से अर्थ लेना है कि विभावस्वभाव स्थान नहीं है। ऐसा ग्रहण करने का कारण यह है कि स्वभाव में तो स्थान भेद होता ही नहीं है। स्वभाव अखंड अहेतुक सनातन एकस्वरूप होता है। फिर स्वभावस्थान जब होता ही नहीं है तो मना करने की आवश्यकता ही क्या हैं? पर जीव में परउपाधिया निमित्त पाकर इसके खुद के परिणमन के जो विभाव होते हैं, उन विभावों के असंख्यात स्थान है, वे सब विभाव स्थान इस अंतस्तत्त्व में नहीं हैं। आत्मा का जो अंतस्तत्त्व आत्मा है उसमें यह कोई स्थान नहीं है। यह अंतस्तत्त्व त्रिकाल निरुपाधि स्वरूप है, स्वभाव में उपाधि नहीं होती है।
आत्मस्वरूप में स्वभावविभावस्थानों का निषेध―स्वभाव कहते हैं शक्ति को। व्यक्ति का नाम स्वभाव नहीं है। चाहे कहीं स्वभाव के अनुरूप व्यक्ति हो जाय पर स्वभाव नाम है शक्ति का और शक्ति होती है पदार्थ का प्राणभूत। शक्ति का ही यदि आवरण होने लगे तो द्रव्य का अभाव हो जावेगा। इस कारण यह द्रव्यस्वभावरूप जो अंतस्तत्त्व है इसके विभाव स्वभाव स्थान नहीं होते हैं। यह बतला रहे हैं आधार आधेय भाव के ढंग से; इस कारण इस जीव को अस्तिकाय के रूप में निरख करके उसे आधार मानकर फिर इस स्थान का निषेध किया जाय। जैसे पहिली गाथा में यह वर्णन था कि गुण पर्यायों से यह अंतस्तत्त्व रहित है। वहाँ कारणसमयसार की मुख्यता से अथवा जीवास्तिकाय की मुख्यता से उसमें निषेध किया गया है। यह विभावस्वभावों का निषेध हुआ ना, और भी जो आगे भाव कहेंगे उनका होने का कुछ क्षेत्रदृष्टि की मुख्यता रखकर आधार आधेयता मानते हुए निषेध किया जा रहा है। यों तो कहना चाहिए कि शुद्ध जीवास्तिकाय के विभावस्वभाव स्थान नहीं है।
जीव को ही पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्य व तत्त्व के रूप में निरखने की दृष्टियां―शुद्ध अंतस् तत्त्व, शुद्ध जीव द्रव्य शुद्ध जीवास्तिकाय, शुद्ध जीव पदार्थ―ये चार बातें चार दृष्टियों की मुख्यता से बतायी जाती हैं। द्रव्यदृष्टि की मुख्यता से जीवपदार्थ नाम पड़ता है। द्रव्य कहते हैं गुण पर्याय के पिंड को और पिंड की मुख्यता से वस्तु की जो निरख होती है वह प्रचलन व्यवहार और समझ के आचरण के अनुसार पदार्थ के रूप में होती हैं। क्षेत्र दृष्टि से यह जीव जीवास्तिकाय के रूप में निरखा जाता है, क्योंकि क्षेत्र का संबंध प्रदेश से है और बहुप्रदेशिता का नाम अस्तिकाय है। कालदृष्टि से जीव के निरखने पर यह जीवद्रव्य इस प्रकार से निरखा जाता है, क्योंकि काल निरखता है पर्यायों को। द्रव्य कहते हैं उसे जिसने पर्यायें पायीं, जो पर्यायें पा रहा हैं, पर्याय पावेगा उसे जीवद्रव्य कहते हैं। तो काल की प्रमुखता में इस जीव के निरखने पर जीवद्रव्य के रूप में सम्मुख आता है, भाव की दृष्टि से देखने पर यह जीव तत्त्व के रूप में अंतस्तत्त्व के रूप से यह निरखा जाता है। अभेद विवक्षा में कारणसमयसार कारणपरमात्मतत्त्व ज्ञायकस्वभाव चित्स्वरूप इस रूप में निरखा जाता है। यहाँ यह कह रहे हैं कि इस शुद्ध जीवास्तिकाय में विभावस्वभावस्थान नहीं है।
आत्मा में सहज भाव का सत्त्व व असहज भाव का असत्त्व―इस शुद्ध जीवास्तिकाय के मान और अपमान के भाव स्थान नहीं है। जीव में अपने आपकी ओर से स्वरसत: जो बात होगी वह तो शुद्ध जीवास्तिकाय की मानी जायेगी और स्वरस से सहज अपने आपके ही मात्र कारण से जो बातें नहीं होती हैं, कारण उपाधि का सन्निधान पाकर होती है, वे सब इस शुद्ध जीवास्तिकाय के नहीं हैं। अपने आपको ही देखो जब ऊपर से देखते हैं तो ये सारी किल्लतें अपने में लगी हैं। किसी का राग, किसी का विरोध, किसी का भला, किसी का बुरा, संक्लेश, विशुद्धि कितने कठिन अपने आपके ऊपर भार लदे हैं। जब अंदर आकर स्वभाव और शक्ति को निरखते हैं तो स्वभाव के निरखते हुए पर आप बड़े उत्साह और वेग से कह देंगे कि इस मुझ आत्मा में रागद्वेष मान अपमान, ये कोई स्थान नहीं हैं, दृष्टि की बात है। कहां दृष्टि लगाकर क्या देखा जाता है और कहां दृष्टि लगाकर क्या मालूम पड़ता है?
अपने भविष्य की दृष्टि पर निर्भरता―भैया ! आत्मा का सब कुछ भविष्य एक दृष्टि पर निर्भर रहता है। दृष्टि से ही यह संसार में रुलने का साधन बना लेता है और दृष्टि से ही यह संसार में रुलने का साधन दूर कर लेता है। शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के मोह रागद्वेष भाव इस शुद्ध जीवास्तिकाय में नहीं हैं। इस कारण न तो मान अपमान के स्थान हैं हममें और न मान अपमान के निमित्तभूत कर्मोदय के स्थान है। यह तो सहज शुद्धज्ञायकस्वरूप मात्र हैं। यहाँ वहाँ दृष्टि दी गयी है कि जिस अंतस्तत्त्व के दर्शन पर यहाँ के सारे संकट एक साथ दूर हो जाते है।
अंतर से संकट की कृत्रिम उद्भूति―भैया ! संकट मानने का ही तो है। परपदार्थ से वास्तविक कोई संकट नहीं है। पर मान्यता ही इतनी बेढब बना ली हो किये छोड़े ही नहीं जा सकते। आखिर छूट तो जायेंगे, पर मरने पर छूटते हैं। सो भी ऐसा ऐब लगा है कि जिस भव में जायेगा उस भव में नवीन प्रकार की ममता लगा लेगा। इतना साहस नहीं बनता कि जो चीज छूट जाती है, दो दिन बाद छूटेगी उसके प्रति ख्याल ही तो बना लिया, भावना ही तो दृढ़ कर ली। यहाँ मेरा कुछ नहीं है, अंतर में ऐसा उत्साह नहीं हो पाता है अज्ञान दशा में। इसका क्या तो सम्मान और क्या तो अपमान?
अन्य प्राणी द्वारा आत्मस्वरूप के सम्मान अपमान की अशक्यता―इस मुझ आत्मपदार्थ का जो अमृत है, टंकोत्कीर्णवत् निश्चल शुद्ध ज्ञायकस्वभाव है, इसका भला कोई सम्मान और अपमान कर सकता है? किसी में ऐसी शक्ति? कोई कुछ कहे। हम इस देह को ही आत्मा मान कर कहो ऐसी दृष्टि बना लें कि देखो मेरे को लोगों ने निम्न कैसे कह दिया अथवा लोगों के समक्ष यह मुझे छोटा, तुच्छ, निद्य बता रहा है। लो मान अपमान के भाव आ गए, किंतु मैं तो यह हूं ही नहीं। मैं किसी वर्तमान परिणमन मात्र नहीं हूं। मैं एक शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र हूं, ऐसी प्रतीति होने के बाद फिर सब सरल हो जाता है, कठिन है तो यही अंतर्दृष्टि है और कठिन भी नहीं है। जिसे होना है उसके लिए अत्यंत सरल है, जिसे नहीं होना है उसके लिए वह उस काल में असंभव है।
अंतस्तत्त्व में असहजभावों का अभाव―इस शुद्ध जीवास्तिकाय में किसी भी प्रकार का शुभ परिणमन नहीं है। उसका कारण इसमें कोई शुभ कार्य नहीं है और जब शुभ कर्म नहीं है तो संसार का सुख भी नहीं है। जब संसार का सुख भी नहीं है उस जीव के अंतस्तत्त्व के शुद्ध जीवास्तिकाय के तो उसके हर्ष के स्थान नहीं हैं। इस ग्रंथ में किसको लक्ष्य करके चर्चा की जा रही है, यह ध्यान में न रहे तो सारी बातें अटपट लगेंगी और वह लक्ष्य दृष्टि में रहे कि किसका वर्णन किया जा रहा है तो बड़े उत्साह के साथ यह इसका श्रोता अथवा ज्ञाता समर्थन करता चला जायेगा। ओह बिल्कुल ठीक है। इस शुद्ध जीवास्तिकाय के कोई मान अपमान हर्ष विषाद के स्थान में नहीं हैं। न इसमें सुख दु:ख हैं और उसी को ही लक्ष्य में लेकर कहा जाता है कि यह जीव न खाता है, न पीता है, न चलता है, न उठता है, न बैठता है और न संसार में रुलता है, न जन्म लेता है, न मरण करता है। कहते जाइए सब। किसको लक्ष्य में लेकर कहा जा रहा है यह ध्यान में न रहे तो सारी बातें अटपट लगेंगी और ध्यान में रहे तो ये सब उसे युक्ति युक्त प्रतीत हो जायेंगी।
विडंबनावों के अभाव का उपाय विडंबनारहित स्वभाव का परिचय―जैसे इस शुद्ध जीवास्तिकाय में अथवा कारणसमयसारस्वरूप आत्मा के इस अंतस्तत्त्व में जैसे शुभ परिणमन भी नहीं है ऐसा ही इसका अशुभपरिणमन भी नहीं है। जब अशुभपरिणमन नहीं है तो अशुभ कर्म भी नहीं हैं। अशुभकर्म नहीं हैं तो दु:ख भी नहीं है। जब दु:ख ही नहीं है तो हर्ष के स्थान कहां से हों, विशाद के स्थान भी कहां से हों? इस जीव की ऐसी आंतरिक दृष्टि नहीं होती और बाहर ही बाहर यह अपना स्वरूप निरख रहा है तो उसकी ही तो ये सब दशाएँ हैं, इनसे निवृत्ति कैसे हो? इसका उपाय इन विडंबनाओं से रहित स्वभाव का परिचय करना है। अपने आपका जैसा जब परिणमन हो रहा है तन्मात्र अपनी प्रतीति बनाए हैं तो वहाँ से हटकर स्वभाव की उपासनारूप मोक्ष का उपाय करेगा कहां से?
अपने को तुच्छ मानने पर पुरुषार्थ का अभाव―एक देश में कोई शत्रु आ घुसा तो राजा ने उस पर चढ़ाई की और नगर में घोषणा की कि जो-जो भी युद्ध में आना चाहें उन्हें प्रवेश किया जायेगा। तो एक घर की स्त्री अपने पति से बोली कि देखो सब लोग राष्ट्र के लिए अपने आपको समर्पण कर रहे हैं तो तुम भी राष्ट्र की रक्षा के काम आवो अर्थात् सेना में भरती हो जावो और अपने देश में विजयपताका फहरावों। पति था डरपोक। सो वह बोला कि अरे हम कैसे जाएं, वह तो युद्ध है, वहाँ बड़ी भयंकर स्थिति होती है। वहाँ तो लोग मर ही जाया करते हैं तो स्त्री ने जतला में चने दलकर दिखाए। तो उन चनों में से कुछ के तो दाल निकल गई, दो-दो टुकड़े-टुकड़े हो गए, कुछ भूसी हो गई और कुछ यों के यों ही समूचे निकल आए। तो स्त्री कहती है कि देखो युद्ध में सभी नहीं मारे जाते हैं, कितने ही मारे जाते हैं और कितने ही बच जाते हैं। देखो इस जतला में ये चने ओरे गये हैं ना तो कितने ही चने साबुत निकल गए। तो जैसे ये सभी नहीं पिस जाते हैं ऐसे ही युद्ध में सब नहीं मारे जाते हैं। वह पुरुष कहता है कि जो साबित चने निकल आए उनमें हमारी गिनती नहीं है, हमारी तो गिनती उनमें है जो चूर बन गए हैं―ऐसे ही हम सब संसारी जीव अपने आपको परिणमनस्वरूप मानते रहते हैं, पर्याय मात्र, स्वभाव का पता ही नहीं है। अपने को स्वभावमात्र मानने का उत्साह बनाया तो वहाँ देखो तुरंत ही आकुलताएँ दूर हो जायेंगी।
ज्ञातृत्व से सहज योग्य व्यवस्था―भैया ! आकुलता कोई बाहर की बात नहीं है। अपने मन की खोटी कल्पना है, जो मन को आकुलित बनाती है। यदि शुद्ध मन, शुद्ध विचार बनाया तो आकुलता दूर हो जाती है। कोई बाह्य पदार्थों की परिणति में अनुकूलता और प्रतिकूलता का लेखा जोखा बनाए रहते हैं उससे ऐसी कल्पना बनती है कि दु:ख का कारण बन जाता है। बाहर का कहीं कुछ परिणमन हो उसके ज्ञाता द्रष्टा रहो। व्यवहारिक संबंध है किसी से तो उसे अपने से पृथक् मानकर उसे अपना कर्तव्य करते रहो, पर उनके प्रतिकूल होने पर क्षोभ क्यों करते हो? राग और द्वेष करना तो गोरखधंधे का काम है। जैसे कमेटियों में कोई पुरुष अधिकारी ईमानदारी है और सच्चाई से कार्य करने वाला है, किसी भी प्रकार के गोरखधंधे का काम नहीं है तो वक्त आने पर दूसरे के प्रतिकूल होने पर वह तुरंत कह देता है कि भाई काम किया तो तेरे हित का है और न जंचे तो यह रखा हैं तुम्हारा सब काम। तो ऐसे ही जो ज्ञानी पुरुष होते हैं, गृहस्थ हों अथवा साधु जन हों जिनका जितना प्रसंग है उस प्रसंग में प्रतिकूल चलने वाले शिष्यों को या कुटुंब को समझता है, हित तुम्हारा इसमें है, अहित की चाल मत चलो और न माने तो उसके ज्ञाता द्रष्टा होकर बरी हो जाता है। ऐसी प्रकृति किसी में हो तो कुटुंब के लिए, फिर तो जिसे कहते हैं हाँ-हाँ करके मान जाय, यों व्यवस्था बन जायेगी।
मात्र गल्पवाद से अव्यवस्था―जैसे कभी घर में झगड़ा हो जाता है तो पति भी अनेक धमकी देता है अथवा पत्नी अनेक धमकी देती है। हम ऐसे करेंगे, भाग जायेंगी, गिर जायेंगे, ऐसा कहते हैं और करते कुछ नहीं हैं केवल बात करके ज्यों के त्यों हिल मिल करके रहते हैं। यह बात मालूम है इसलिए पचासों झगड़े हो जाते हैं। यदि यह विदित हो जाय कि जो यह कहते हैं सो करते हैं तो डर भी बना रहे कुटुंबी जनों को। यदि यह विदित हो कि मेरा संरक्षक बड़े शुद्ध विचारों का है इसके रागद्वेष नहीं, मोह ममता भी नहीं। हम प्रतिकूल चलेंगे तो किसी भी समय कोरा जवाब देकर छोड़ देगा। उसका विचार यह रहेगा तुम जैसी चाहे चाल चलो, हम तो ज्ञाता द्रष्टा हैं, प्रयोजन नहीं हैं, तो इस उदारवृत्ति को देखकर परिजन और अधिक व्यवस्था में रहेगा और न रहा तो क्या, पर अपनी बात तो संभालनी चाहिए। साधुजन तो देखते हैं कि इसमें रागद्वेष का प्रसंग हो जायेगा तो वे वहाँ तत्त्वचर्चा भी नहीं करते। अन्य बातें तो जाने दो। जैसे कहते हैं कि वह सोना किस काम का जो कान नाक फाड़ डाले। यह एक आहाना है। इसी तरह वह धर्मचर्चा, वह तत्त्व चर्चा भी किस काम की है जिसके आलंबन से रागद्वेष घर कर जाय और अपने आपमें मलिनता उत्पन्न हो।
वीतराग विज्ञान की रुचि का प्रताप―वीतराग विज्ञान की रुचि रखने वाले ज्ञानी संत अंतर में आकुलित नहीं होते हैं। इस जीव के न शुभ अशुभ परिणमन हैं, न पुण्य पाप कर्म हैं, न संसार के सुख दु:ख हैं और न हर्ष विशाद के स्थान हैं। अंतरंग में ज्ञानस्वभाव स्वरूप अंतस्तत्त्व की बात कही जा रही है। जो प्रीति और अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अंतर्मुख और प्रकट प्रकाशमान् सुख में बना हुआ है आकाश की तरह अकृत्रिम है, सहज स्वभावरूप द्वारा ज्ञान में गोचर ऐसे इस शुद्ध अंतस्तत्त्व में तू रुचि क्यों नहीं करता है और पापरूप संसार के सुखों की वांछा क्यों करता है? जो कल्याणस्वरूप है, श्रम से रहित है, आनंदामृत से भरपूर है, ऐसे सहजस्वभाव का अवलंबन तो न किया जाय और जो अनेक दु:ख संकटों से भरा हुआ है जिसमें अनेक पराधीनताएं बसी हुई हैं, ऐसी विषय सुखों की वांछा की जाय, यह तो सब अज्ञान मोह का प्रसाद है। बड़े विवेक और उत्साह की आवश्यकता है। जो चीज दो दिन बाद मिट जायेगी उस चीज में यदि इस जीवन में मोह न हो सका, ज्ञातृत्व ही रहे तो इसे लाभ नियम से मिलेगा अन्यथा इस जीव को लाभ और कल्याण की बात किसी भी समय प्राप्त नहीं होती।
आचार्यदेव द्वारा संबोधन―कुंदकुंदाचार्यदेव भव्य जीवों को प्रेरणात्मक पद्धति में कह रहे हैं कि हे आत्मन् ! तुम इस चेतनात्मक स्वरस से भरे हुए लबालब इस निज परमात्मतत्त्व में बुद्धि क्यों नहीं करते हो? और संसार के जो पाप कर्म हैं उनमें तुम सुख की इच्छा क्यों करते हो? देखो यह आनंदनिधान सर्वस्वशरणभूत परमात्मतत्त्व शाश्वतस्वपदरूप है, प्रीति और अप्रीति से विमुक्त है, सर्वप्रकार अंतर्मुख होकर अभेदभाव में जो अनाकुलता का सुख उदित होता है उससे यह निर्मित मानो। आकाश बिंब की तरह आकार में रहता है अर्थात् अमूर्त है―जो सम्यग्ज्ञानियों के ज्ञान का विषयभूत है उसमें तुम बुद्धि नहीं करते और संसार के जो कर्म हैं, जिनका फल कटुक है उनकी तुम इच्छा करते हो। प्रीति और अप्रीति के विकल्पों को त्यागकर निर्विकल्प ज्ञायकस्वरूप इस तत्त्व का आदर करो। और भी देखो यह शुद्ध आत्मतत्त्व उज्ज्वल और केवल है।