वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 5
From जैनकोष
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।।5।।निष्पक्ष आप्तस्वरूप―आप्त आगम और तत्त्व के श्रद्धान होने से सम्यक्त्व होता है। यह व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा जा रहा है। आप्त कहलाता है जो शंकारहित है। मोह रागद्वेष आदिक सर्व शंका और दोष जिसके दूर हो गए हैं, ऐसे निर्दोष वीतराग सर्वज्ञदेव को आप्त कहते हैं। उनका यथावत् श्रद्धान होना चाहिए। देव वह है जिसमें किसी प्रकार का दोष न हो और अपने ज्ञानादिक गुणों का परिपूर्ण विकास हो गया हो, वह देव है। नाम से क्या मतलब ? नाम की बात तो यह है कि नाम लेकर यदि देवों को पुकारेंगे तो नाम का संबंध होने से जो दृष्टि बनती है उस दृष्टि में देव का दर्शन नहीं होता है और जिस दृष्टि में देव का दर्शन होता है उस दृष्टि में नाम नहीं रहता है। देव किस नाम का होता है ? कोई आत्मा यदि निर्दोष है और गुणों के चरम विकास को प्राप्त है वही हमारा देव है।देव की आदर्शरूपता―देव क्या है ? आदर्श है। हमें भी ऐसी स्थिति चाहिए, ऐसा जिस पर लक्ष्य जाय उसी का नाम देव है। त्री सहित, पुत्र सहित, शत्र सहित देव का स्वरूप माना जाय तो उसका अर्थ यह है कि उसको ऐसी स्थिति चाहिए कि ऐसी त्री मिले, ऐसा पुत्र हो, ऐसा वाहन हो, ऐसा हथियार हो। तो जो जैसा बनना चाहता है वैसा जिसका स्वरूप है वही देव है उसके लिए। जैसे संगीत शिक्षार्थी के लिए देव कौन है ? जो देशभर में संगीत में निपुण हो। जो उदाहरण बने, आदर्श बने वह उसके लिए देव है। कोई-सा भी काम सीखो तो उस काम में जो सर्वाधिक निपुण हो ऐसा कोई भी कहीं का हो, वही उस सीखने वाले के लिए देव है। तो जिन्हें निर्दोष और गुणों से परिपूर्ण बनना है उनका देव ऐसा ही होगा कि जो निर्दोष हो और गुणों में परिपूर्ण हो। ऐसी आप्त की श्रद्धा होने से सम्यक्त्व जगता है।आगम और तत्त्वार्थ―आगम–आप्त के मुखारविंद से जो कुछ दिव्यध्वनि निकले, जो समस्त विभावों का वर्णन करने में समर्थ है ऐसा जो वचनसमूह है उसका नाम आगम है। आगम में जो बात लिखी है उसक वाच्य है, प्रयोजनभूत तत्त्व है उसकी श्रद्धा बनती है। एक आगम की श्रद्धा और एक तत्त्व की श्रद्धा, आगम की श्रद्धा पहिले है, तत्त्व की श्रद्धा का उसके बाद का विकास है। बहिरात्मत्व, अंतरात्मत्व और परमात्मत्व के भेद से ये तत्त्व तीन तरह के हैं। जीव में या तो बहिरात्मापन पाया जाता है या अंतरात्मत्व मिलता है। सर्व जीव इन तीन भागों में बँटे हैं और इन तीनों अवस्थाओं में अन्वयरूप से रहने वाला एक कारण परमात्मत्व है।अंतस्तत्त्व व अंतस्तत्त्व के तीन रूपों का विश्लेषण―इन्हीं चार स्वरूपों को जागृति, सुषुप्ति, अंत:प्रज्ञ और तुरीयपाद शब्दों से कहा गया है। जागृति बहिरात्मपने को कहते हैं, जो व्यवहार में खूब जगे उसे कहते हैं जागृति, यही है बहिरात्मा की दशा। और सुषुप्ति सो गसा, चिप गया भीतर में उसे मानते हैं अंतरात्मा की दशा। सुनने में ऐसा लगता है कि सोया हुआ बुरा होता है, जगा हुआ अच्छा होता है मगर उस सिद्धांत में जगा हुआ माना गया है अज्ञानी को और सोया हुआ माना गया है ज्ञानी को। सोये हुए की पद्धति तो देखो वह अपने आपमें चिपा हुआ है। यों ही अंतरात्मा अपने आपके ज्ञान में चिप गया है और अंत:प्रज्ञ दशा है परमात्मा की। प्रज्ञ हो गया है प्रकर्ष ज्ञानी हो गया है और उन तीनों अवस्थाओं में जो एक स्वरूप है उसे कहते हैं तुरीयपाद याने चौथा चरण। उसके लिए कुछ नाम नहीं मिला। यदि नाम रखोगे उसके ही नाम का कोई विशेषण रख दिया जायेगा। वस्तु पकड़ में न आयेगी इसलिए तुरीयपाद कहा गया है।विशेषकत्वरहित शुद्ध नामों का अभाव―आप कोई ऐसा नाम बताओ जो तारीफ करने वाला न हो और सिर्फ वस्तु का नाम भर हो जैसे चौकी। तो क्या यह चौकी का नाम है ? चौकी उसे कहते हैं जिसके चार कोने हों। इस शब्द ने तारीफ कर दिया है, नाम नहीं बताया है। घड़ी–जो घड़कर बनायी गयी हो उसका नाम घड़ी है। इस शब्द ने तारीफ की है, नाम नहीं बताया है। छत। इसका शुद्ध शब्द है क्षत–जो ठोंक पीटकर बनायी जाय, जो क्षतविक्षत करके बनायी जाय उसका नाम छत है। तो शब्द ने नाम नहीं बताया किंतु तारीफ करदी–चौखट चारों तरफ जिसमें खट हों जो ऊपर सिर में खट्ट से लग जाय, नीचे सोये तनिक लेटे-लेटे सरक दें तो नीचे की देरी खट लग जाय, अगल-बगल सिकुड़ कर न जाय तो डंडा लग जाय सो जिसमें चार तरफ खट हों सो चौखट है। तो इस शब्द ने भी तारीफ ही कर दी। कौन-सा नाम है ऐसा जो वस्तु की विशेषता न बताता हो। जैसे दरी। शुद्ध शब्द है देराई। जिसके बिछाने में देर लगे उसे दरी कहते हैं। बड़ी मुश्किल से बिछाए। सिकुड़ें पड़ जायें फिर उसे सुधारे, फिर गुड़ी पड़ जाय फिर सुधारे। इस तरह जिसके बिछाने में देर लगे उसका नाम दरी है। तो इसमें भी शब्द ने तारीफ कर दी है। चटाई–जो चट आए सो चटाई। आई, झट डाल दिया–उसका नाम है चटाई। तो दुनिया में किसी वस्तु का नाम ही नहीं है, सब तारीफ करने वाले शब्द हैं।आत्मपदार्थ के भी विशेषकत्वरहित शुद्ध नाम का अभाव―अच्छा आत्मा का नाम बताओ जो ठीक नाम बैठे तारीफ न करे। मुझे तारीफ करने वाला शब्द न चाहिए, क्योंकि जो शब्द तारीफ करेगा वह हल्की बात कहेगा, पूरी बात न कहेगा, एक अंश की बात कहेगा। आत्मा का नाम बताओ। जीव–जो प्राण धारण करे सो जीव नाम कहाँ हुआ ? आत्मा सततं अतति इति आत्मा, जो निरंतर ज्ञानरूप परिणमता रहे उस का नाम है आत्मा। नाम कहाँ हुआ ? तारीफ उसकी कर दी। ज्ञाता जो जाननहार है सो ज्ञाता। नाम तो नहीं हुआ। उसके कई गुण बताये हैं ज्ञायक यह भी ज्ञाता की ही तरह है। जो जाने सो ज्ञायक। तो कोई ऐसा शब्द नहीं है जो आत्मा का शुद्ध नाम हो। अंश नहीं बताये, पूर्ण अंशों को बता दे ऐसा कोई नाम नहीं है, इसलिए कहते हैं तुरीयपाद।सकल आत्माओं का त्रिविधता में विभाजन―समस्त जीव इन तीन तत्त्वों में बंटे हैं। बहिरात्मा किसे कहते हैं, जो बाहर की बातों को जाने उन्हें ही अपना आत्मा माने उसका नाम बहिरात्मा। अपने आत्मा से बाहर जो कुछ भाव है, जो कुछ पदार्थ है उसको आत्मरूप से अंगीकार करना उसे कहते हैं बहिरातमा। अंतरात्मा–जो अपने अंतर की बात अंतर के स्वरूप को ही आत्मा माने उसका नाम है अंतरात्मा। ज्ञानानंद स्वभावमात्र जैसा कि सहज स्वरूप है उसको आत्मा मानना उसे कहते हैं अंतरात्मा और परमात्मा कहते हैं उसे जो परम आत्मा है परम का अर्थ है–परमा लक्ष्मी विद्यते यत्र सह परम:। जहाँ उत्कृष्ट ज्ञान लक्ष्मी पायी जाय उसका नाम है परम और परम आत्मा का नाम है परमात्मा। परमात्मा कितने होते हैं ? अनंत। और अंतरात्मा कितने मिलेंगे ? अनंत नहीं। अनंत से बहुत कम याने असंख्यात और बहिरात्मा कितने मिलेंगे ? अनंतानंत।परमात्मा शब्द में वर्तमानतीर्थंकर संख्यासूचक सुयोग―वैसे प्रसिद्धि ऐसी है कि भगवान् 24 होते हैं। अभी बच्चों से कहा कि चौबीसों भगवान् के नाम बताओ तो वे झट बोल देंगे। अर्थात् जो 24 तीर्थंकर हुए हैं, उनको कहते हैं कि भगवान् चौबीस हैं। औरों ने भी भगवान् के 24 अवतार माने हैं। तो अब एक चीज जरा देखो। परमात्मा की ऐसी लिखावट है कि उनके अंकों का जोड़ 24 होता है। प यों लिखते हैं 5 जैसे। र यों लिखते हैं सो 2 जैसा लगता है और बड़ा मां यों लिखते सो 4 जैसा लगता है और फिर आधा त यों लिखते हैं कि 8 जैसा मालूम होता है और बाद में बड़े या महाराज आ गए सो 4 जैसा मालूम होता। इन सबको जोड़ लो तो 24 की संख्या होती है। तो परमात्मा की लिखावट में भी 24 की धुनि पड़ी हुई है। कुछ यहाँ ऐसा कार्य कारण नहीं लगा लेना कि परमात्मा में 24 अंक बसे हैं इसलिए 24 होते हैं। तीर्थंकर भरत ऐरावत में 24 प्रकृत्या होते हैं तो परमात्मा वह है जिसमें उत्कृष्ट ज्ञान लक्ष्मी प्रकट हुई है। अथवा जैसे तीन तत्त्व बताये गए हैं, दूसरी प्रकार से 7 तत्त्व श्रद्धा के योग्य हैं–जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष।व्यवहार और निश्चय की उपादेयता―इस तरह आप्त आगम और तत्त्व के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है और इसके श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। अर्थात् ये सब स्थितियाँ निश्चय सम्यक्त्व के योग्य बनाने का अवसर देती हैं। सबकी जरूरत है। आज कुछ जानकार हो गए, पढ़ लिखकर समझदार हो गए तो सबके लिए एकसी बात कही जाय कि भाई यही है निश्चय रत्नय और बाकी सब हेय हैं, त्यागने योग्य हैं। सर्व साधारण के लिए यह उपदेश फिट नहीं हो सकता, हम ही अपनी स्थिति को विचारें, हम क्या करते थे, फिर क्या किया, फिर कैसे उन्नति हुई ? आज जान गए कि वास्तविक स्वरूप क्या है ? सो उपदेश में यथापद योग्य उपदेश हो।व्यवहारसम्यक्त्व में प्रभुभक्ति की प्राथमिकता―यह व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप यहाँ बताया गया है जो कि निश्चय सम्यक्त्व का कारणभूत है। जिस पुरुष के अंदर भगवान् में तीव्र भक्ति नहीं प्रकट होती है वह पुरुष आगे बढ़ने का पात्र भी नहीं हो पाता। वह संसारसमुद्र के बीच में गोते ही लगाता रहता है। हम कुछ तत्त्व चर्चा करना जानते हैं या तत्त्वचर्चा का प्रवाह यह उठा है, उसमें ही रम जायें और हममें प्रभु के प्रति तीव्र अनुराग का परिणाम न जगे जिसमें कि गुणों के स्मरण का आनंद रहता है और अपने दोषों का पछतावा होने से विशाद जगता है, ऐसे आनंद और विशाद दोनों का मिश्रण कराकर पाप धोने वाली भक्ति यदि हम अपने आपमें प्रकट नहीं कर पाते हैं तो आज के समय में तो हम आगे धर्मग्रहण के मार्ग में प्रगति नहीं कर सकते। तो व्यवहार सम्यक्त्व की भी आवश्यकता है जो कि हमारी आगामी प्रगति का कारण है।प्रभुभक्ति का प्रभाव―प्रभु की भक्ति की प्रगति का इस जीवन में बहुत बड़ा आधार है। पूज्य श्री वादिराज मुनि ने बताया है कि हे प्रभो ! शुद्ध ज्ञान भी हो जाये, शुद्ध चारित्र भी हो जाय तो भी जब तक आपमें उत्कृष्ट भक्ति नहीं जगती जब तक मुक्ति के द्वार में लगे हुए किवाड़ों को खोलने की कुंजी उसे नहीं मिलती है। बुद्धिपूर्वक चलकर पुरुषार्थ तो करना है प्रभुभक्ति का और जब प्रभुभक्ति से हम समर्थ हो जायें तो समाधि का होना यह मेरे सहज होगा। यह प्रभु 18 दोषों से रहित है और अनंत चतुष्टय करि के सहित हैं। वे 18 दोष कौन हैं जिनसे प्रभु रहित हैं।