वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 67
From जैनकोष
मनोगुप्ति का श्रेयभूत चिन्तनयह गुप्ति उन्हीं साधुसंत के प्रकट होती है जिन्हें चिन्ता केवल परमागम के अर्थ की है। इसे चिन्ता नहीं कहते हैं―चिन्तन, ध्यान, चितवन ये सब एकार्थक हैं, सो इसका तात्पर्य यह हुआ कि तत्त्ववेदी वस्तुस्वरूप के पारखी जितेन्द्रिय पुरुष के ही मनोगुप्ति हो सकती है। जब यह मन चंचल रहता है तो कैसी विह्वलता की स्थिति रहती है, यह बात उनके देखिये उदाहरण रूप में जिनके इष्टवियोग हो गया है अथवा कोई अचानक आर्थिक बड़ा टोटा पड़ गया है या जो अपनी इज्जत पोजीशन के लिए ही जिन्दा हैं, जिनके पोजीशन में कुछ थोड़ासा बट्टा लग गया है उनके निकट बैठकर परख लो कि जिनका मन चंचल है उनकी कैसी दशा हुआ करती है? इस आत्मतत्त्व का तो द्रव्यमन कुछ नहीं है और भावमन भी इसका अंतस्तत्त्व नहीं है, फिर उस मन घोड़े के आधीन होकर अपने आपको कैसा रुलाया जा रहा है? अपने मन को वश में करो, अशुभ चिंतन तो छोड़ ही दो और शुभ चिंतन में रहकर भी इससे भी उत्कृष्ट चिंतन रहित शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का ध्यान बनाये रहो।
जिन चरणचञ्चरीक गुप्तमनस्क साधुपरमेष्ठी―यह मनोगुप्ति उन्हीं पुरुषों के प्रकट होती है तो अंतरंग और बहिरंग सभी प्रकार के संग प्रसंगों से दूर हैं, जिन्हें अनन्त आनन्दमय विज्ञानघन जिनेन्द्रदेव के चरणों का स्मरण निरन्तर बना रहता है, जिनकी दृष्टि कार्यपरमात्मतत्त्व की ओरऔर कारण परमात्मत्व की और रहा करती है―ऐसे ज्ञानी संत पुरुषों के मनोगुप्ति होती है। ऐसी मनोगुप्ति के धारक पवित्र रत्नत्रय की मूर्ति साधु परमेष्ठियों को हमारा भावनमस्कार हो। अब इसके बाद वचनगुप्ति का लक्षण कहा जा रहा है।
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स।
परिहारो वचगुत्ती अलीयादिणियत्तिवयणं वा।।67।।
दुर्वचनपरिहार की आवश्यकता―इस गाथा में वचनगुप्ति का स्वरूप कहा गया है। पाप के कारणभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा इत्यादि वचनों का परित्याग करना अथवा अशुद्ध वचनों की निवृत्ति करना, इसे वचनगुप्ति कहते हैं। वचनों को जितना कम बोला जाय उतना आत्मबल बढ़ता है। परमात्मतत्त्व के प्रदीपन के लिए तो सर्व प्रथम यह आवश्यक हे कि बाह्य वचनों का त्याग करे और अंतर्जल्प का भी संपूर्ण रूप से त्याग करे, हितकारी भी वचन हों, सत्य भी हों तिस पर भी वचनों का परिहार करें वहाँ वचनगुप्ति प्रकट होती है। फिर जो अत्यंत दुर्वचन हैं, भोगों में ले जाने के वचन हैं उनका तो परिहार सर्वप्रथम आवश्यक हैं।
विकथायें―ऐसे वचन मुख्यतया चार प्रकार के हैं―स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा।जिसके कामभाव बढ़ रहा है, ऐसा कामी पुरुष स्त्रीसंबंधी संयोगवियोग वाली नाना प्रकार की रचना करता है, ऐसी स्त्रीकथा का कहना अथवा सुनना ये दोनों पाप के कारण हैं। राजावों की चर्चा करना युद्धादिक की वार्ता करना ये सब राजकथा हैं। कल्याणार्थी पुरुष को राजकथा भी न करनी चाहिए।चोर संबंधी कथा का नाम चोरकथा है। चोरी का उपाय बताना अथवा यहाँ वहाँ की संपूर्ण चोरी की कलावों का वर्णन करना यह सब चोरकथा है।जब भोजन से प्रीति बढ़ जाती है तब वह भोजन पान की प्रशंसा किया करता है, अमुक प्रकार से अच्छा भोजन बनता है, भक्तकथालापी घी शक्कर आदि की बनी हुई चीजों की प्रशंसा करता है। भोजन संबंधी राग को व्यक्त व पुष्ट करने वाली बात कहना भोजनकथा कहलाती है।
साधुसंतों के असत् कथावों का अभाव―ये चारों प्रकार की कथायें साधु संतों के नहीं होती हैं। इन कथावों में से प्राय: करके आज के त्यागी लोग स्त्रीकथा तो किया ही नहीं करते। वह तो बहुत ही भद्दी बात है, कुछ प्रयोग देशकथा का राजकथा का हो जाता है और कुछ प्रयोग भोजनकथा का हो जाता है। जिनकी इंद्रियों में इतनी आसक्ति है कि वे भोजन करने के बाद भी भोजन की कथा करते हैं―यह चीज ऐसी बनी है, यह ठीक नहीं बनी है, ऐसी भोजनकथा करने वाले लोग महा गये बीते कहे जाते हैं। इन कथावों की निवृत्ति हो तो वचनगुप्ति बनती है अथवा असत्य वचनों का न कहना सो वचनगुप्ति हैं।
सकल वचनपरिहार की भावना―सर्वोत्कृष्ट तो, किसी भी प्रकार के वचनों का न कहना, वचनों का पूर्ण संन्यास होना सो वचनगुप्ति है। जिस ज्ञानी पुरुष को ऐसा विश्वास है कि विश्व में कोई भी अन्य पदार्थ मेरा नहीं है या अन्य पदार्थ विषयक परिणमन भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिए हितकर हो और शांति का कर सकने वाला हो, फिर किसकी चर्चा करूं? लोक में जो कुछ दिखता है वह जाननहार नहीं है और जो जाननहार तत्त्व है वह दिखा नहीं करता। तो फिर मैं किससे वार्तालाप करूं? जड़ से बात करने में क्या लाभ? चैतन्य से बात की नहीं जा सकती। इस कारण अब किससे बोलें, ऐसी भावना से भरा हुआ ज्ञानी पुरुष वचनगुप्ति का पालन करता है।
आत्मप्रशंसा व परनिंदा के वचनों का परिहार―जो अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करें उनकी दीनता का तो वर्णन ही क्या किया जाय? वे तो मायामय असार असमानजातीय पर्यायों से अपने बड़प्पन की भीख मांग रहे हैं तब तो वह अपने मुंह अपनी प्रशंसा कर रहे हैं। सर्वप्रकार के आत्मप्रशंसा के भी वचनों का परिहार होना सो वचनगुप्ति है। आत्मप्रशंसा और परनिंदा ये ऐसे दुर्वचन हैं कि इनके कारण नीच गोत्र का बंध होता है और फिर समझने वाले सब जानते हैं। वे जानते हैं कि यह दुनिया में अपनी प्रशंसा की बात सुनने का अत्यंत इच्छुक है। यह कितना घमंडी है, क्रूर आशय वाला है कि दूसरों को तुच्छ जानता है और निंदा किया करता है। जिन्हें वचन संयम में प्रवेश करना है उन्हें सर्व प्रथम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपनी प्रशंसा के वचन और दूसरे के निंदा के वचन न बोले जायें। इनसे बड़प्पन नहीं होता, किंतु तुच्छता जाहिर होती है।
ज्ञानी का पर में अनुराग का अभाव―ज्ञानी संत जानता है कि क्या बोलना, किसकी बात बोलना, किसी भी पदार्थ से मेरा संबंध नहीं, हित नहीं, तो बोलना किस बात से? बोलने के लिए कुछ है ही नहीं, बाह्यपदार्थों में मेरा कुछ करने के लिए है ही नहीं, किसका करना, क्या किया जाय, क्या किया जा सकता है? यह आत्मा ज्ञानमात्र भावात्मक एक चैतन्यस्वरूप है। परपदार्थ में इस आत्मा की गति नहीं है, कुछ काम ही नहीं पड़ा है करने को। यह तो केवल अपने भाव बनाता चला जाता है। अपने भाव बनाने के सिवाय अन्य कुछ नहीं करता। यह धन मेरा है, इस भाव के बनाने वाले तुम हुए पर धन तुम्हारा नहीं है। एक अणुमात्र भी इस जीव का कुछ नहीं है, ऐसे ही मिल गया, ऐसे ही बिछुड़ जायेगा। ज्ञानीपुरुष समागम में रंच भी विश्वास और अनुराग नहीं रखते, ममत्व परिणाम नहीं करते। वे ज्ञाता द्रष्टा रहते हैं। तो ज्ञानी पुरुष को बाहरी पदार्थों में करने को कुछ नहीं रहा, करने को कुछ पड़ा है तो अपने आपमें अपने विवेक का काम पड़ा हुआ है। ऐसे ही ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि बाहर में बोलना क्या? किसकी बात बोलना, कुछ भी वचन बोलने से इस मन का हित नहीं है। हम बाह्यवाणी का परित्याग करते हैं और अंतर्वाणी का भी त्याग करते हैं। ऐसे अशेषरूप से संन्यास में प्रवृत्त हुए भव्य आत्मा को परमात्मतत्त्व का दर्शन होता है।
श्रद्धान् में प्रभुता के दर्शन―कोई लोग पूछते हैं―ईश्वर है, कहां है? मुझे तो दिखता ही नहीं, विदित ही नहीं होता। अरे श्रद्धान् हो तो ईश्वर का दर्शन होता है। उस प्रभु का दर्शन बाह्यक्षेत्र में न होगा। प्रभु के ही दर्शन की बात क्या, किसी भी पदार्थ का विज्ञान बाह्यक्षेत्र में नहीं होता, आत्मा के प्रदेशों में ही होता है। जैसे इन बाहरी पदार्थों को जो आंखों दिखा करता हैं। उसके जानने का उद्यम अंतरंग में होता है और अंतरंग कारण से होता है। यों ही प्रभु को भी जानना हो तो उसका प्रयत्न अंतरंग में करना होगा, और अंतरंग कारण की विधि से करना होगा। वह विधि यही हे कि सत्य श्रद्धान् बनावो। मैं आत्मा अपने सत्य के कारण अपने आप सहज कैसा हूं उस स्वरूप का दर्शन करें, श्रद्धान् करें। और बाह्य में समस्त पदार्थ अहित हैं, जुदे हैं, हैं वे, उनका मुझसे कुछ संबंध नहीं है ऐसा जानकर सर्व प्रकार की चिंतनाएं, कल्पनाएं छोड़ दी जायें, एक परमविश्राम पायें तो अपने आपमें प्रभु के ज्ञानानंद के अनुभव की पद्धति से दर्शन दे देगा और तब इसे यह सुविदित हो जायेगा कि मेरा शरण, मेरा प्रभु, मेरा सर्वस्व यह मैं सहज ही हूं। यही स्वभाव जिसका द्रष्ट हो चुका है उसे रागद्वेष का मल रंच भी नहीं रहा है, ऐसे शुद्ध ज्ञानानंद मात्र भगवान् का श्रद्धान् हो तो प्रभु के दर्शन होते हैं।
हार्दिक अनुराग की प्रेरणा―एक अखबार में कथा लिखी है कि एक पुरोहित एकादशी को भोग चढ़ाया करता था। उसके बहुत सी गाय, भैंसे थीं। उसके पास एक छोटी उमर का बरेदी लड़का था जब वह पुरोहित भोग चढ़ाने न जा सके तो उस बच्चे से कह दे कि आज भगवान् का भोग तुम लगा देना। एक बार उस बच्चे से कहा, बेटा ! तुम गाय चराने जावो और वहाँ तुम भगवान् को आज भोग लगाना। लो यह पाव भर आटा। लड़का बोला कि पाव भर आटे से क्या होगा, भगवान् भी खायेंगे, हम भी खायेंगे। कम से कम दो के लायक तो दे दो। पुरोहित बोला कि यों ही भगवान् का नाम लेकर कह देना और फिर स्वयं सब खा लेना। तो पाव भर आटा लेकर वह चला। पहिले से ही सोच लिया कि पाव भर आटे के दो टिक्कड़बनायेंगे, एक भगवान् को खिलायेंगे और एक स्वयं खायेंगे। सो उसने वहाँ जाकर दो टिक्कड़ बनाये और कहा आवो भगवन् !भोग लगावो। कोई न आया तो वह अड़कर बैठ गया और कहने लगा, अरे भगवान् तुम बड़े निर्दयी हो, आते क्यों नहीं, जब तक तुम नहीं आवोगे तब तक मैं न खाऊंगा। तो होते हैं ऐसे ही कोई व्यंतर देव जिनको कि कौतूहल प्रिय होता है, जैसे कि लोक में प्रसिद्ध है। भगवान् जैसा रूप बनाकर आ गया खूब सजधज कर। तब वह लड़का बोला कि मेरे पास दो ही टिक्कड़ हैं, हम भूखे तो रह नहीं सकते। इसमें एक आपके हिस्से का है और एक हमारे हिस्से का है। वह मायामयी रूप था, खा लिया। बाद में वह लड़का कहता है कि अबकी दफे तो तुमने बहुत हैरान किया अबकी एकादशी को मत हैरान करना। और वह भगवान् बोला कि अबकी दफे हम दो जने आयेंगे।
हार्दिक अनुराग का विस्तार―अब दुबारा पुरोहित ने कहा, जावो बेटा भगवान् का भोग लगावो। वह लड़का कहता है कि उस बार तो हम भूखे रह गये। इस बार तो दो आयेंगे तो कम से कम तीन के लायक तो आटा दो। वह पुरोहित जानता था कि ये गप्पें हैं। खैर, दे दिया आधा सेर आटा। इस बार उसने वहाँ पर तीन टिक्कड़ बनाये। वे दो जने आये। बांट दिया एक-एक टिक्कड़। वे भगवान् कह गये कि अबकी दफे हम 20-25 आदमी मय संगीत के आयेंगे। पुरोहित ने जब उस लड़के से कहा कि जावो बेटा भगवान् का भोग लगावो तो वह लड़का कहता है कि इस बार तो 20-25 लोग आयेंगे। थोड़े से आटे से क्या होगा? कम से कम 20-25 लोगों के लिए तो दो। पुरोहित जानता था कि यह गप्पें करता है। लेकिन 10, 5 सेर की पूड़िया बनवा दीं और लड़के से कह दिया कि जावो बेटा, भगवान् का भोग लगावो। वहाँ पर उस लड़के ने जाकर भगवान् का भोग लगाया। पुरोहित उस दृश्य को देखने के लिए जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे छिप गया था। थोड़ी देर के बाद पुरोहित ने देखा कि 20, 25 आदमी खूब सजधज कर मय संगीत के आ गए हैं। वह सोचने लगा―अरे यह क्या हुआ है? मेरी तो जिंदगी भोग लगाते-लगाते व्यतीत हो गयी, आज तक कभी न आये, पर आज यह क्या हो गया? यह एक कथा एक मासिक अख़बार में निकली हुई थी।
आत्मवार्ता―उक्त कथा के रहस्य केवल इतना लेना कि जो श्रद्धान् और संकल्प सहित अपने भावों को दृढ़ रखता है उसको उसही प्रकार का अवलोकन होता है। यह तो एक कथा मात्र है, पर अपनी ही बात और अपनी श्रद्धा में रहे फिर अपने को दर्शन न मिले, यह तो कभी हो ही नहीं सकता। आत्मसंतोष सत्य श्रद्धान् के बिना नहीं हो सकता। ऐसा आत्मसंतोष सत्य श्रद्धान्के बिना नहीं हो सकता। ऐसा आत्म संतोषी ज्ञानी पुरुष बाह्य में यह निरख रहा है कि कौनसा पदार्थ ऐसा है जिसकी चर्चा की जाय जिसकी बात बोली जाय अथवा जिसके संबंध में रुचिपूर्वक स्वच्छंद वचनालाप किया जाय। ऐसा जानकर ये साधु संत वचनगुप्ति का पालन करते हैं। जानबूझकर मुंह बंद करके वचन न बोलना, यह तो केवल व्यवहार मात्र वचनगुप्ति है। यों तो कभी-कभी लड़के भी खेल-खेल में होंठमिसा कड़ा मौन रखते हैं। जैसे कोई ऐसे खेल कबड्डी वगैरह खेले जिसमें लड़के लोग चीं बुलाकर रहते हैं, उसे पकड़ते हैं, घसीटते हैं कि वह बोले चीं। वह तो नहीं बोलता चीं। ऐसी जबरदस्ती का मौन रहना अंतर में कुछ लाभ नहीं देता है। लाभ तो वह मौन देता है जो तत्त्वज्ञान पूर्वक है।
निश्चय व व्यवहारवचनगुप्ति―किसी भी प्रकार के वचनालाप से अंतर में कुछ राग उठा करता है, ऐसी स्थिति में कुछ जान बूझकर सहज प्रयोजन के लिए जो वचनपरिहार किया जाता है वह है व्यवहारगुप्ति। और अज्ञानपूर्वक जबरदस्ती वचनों का बंद करना, होंठ में होंठ चिपकाकर मौन रह जाना, ये तो सब उसकी उपचार चेष्टाएं हैं, किंतु सहजस्वभाव से ही जो वचनालाप का परिहार हो जाता है यह है निश्चयवचनगुप्ति। इस आत्मा का स्वभाव वचन बोलने का नहीं है। यह तो आकाशवत् निर्लेप ज्ञानमात्र अमूर्ततत्त्व है। यहाँ कहां भाषा पड़ी है यहाँ कहां वचनालाप पड़े हैं? यह वचनों से अत्यंत दूर है, ऐसे निरपेक्ष आत्मतत्त्व की दृष्टि रखने में जो सहज वचनालाप बंद हो जाता है उसका नाम है निश्चयवचनगुप्ति। ज्ञानी पुरुष बाह्य वचनों का सर्वथा अंतरंग से परित्याग करता है।
अंतर्बहिर्जल्पनिवृत्त साधुवों की साधना―अंतरंग में अंतर्जल्प का परित्याग होना बहुत बड़ी निर्मलता का काम है। कोई बात अंतरंग में भी न उठे, कोई वचन रचना अंतरंग में भी न आये, ऐसी साधना बहुत तत्त्वज्ञान की दृढ़ अभ्यास भावना से होती है। इन गुप्तियों का परिहार करके यह योगी अपने आपमें परमविश्राम लेता है। यह ही परमात्मा को प्रकट करने वाला परमार्थ योग है। निकट भव्यपुरुष भव भय को उत्पन्न करने वाली वाणी का परित्याग करता है और शुद्ध सहज चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व और अनंत आनंद के निधान परमविकासरूप प्रकाश प्रकट हो जाता है। ऐसे साधुसंत जो दोनों प्रकार के वचनालापों से निवृत्त होकर अपने अंतर में अंतस्तत्त्व की भावना में ही निरत रहते हैं, वे बड़े अतिशय प्रभाव को प्रकट करते हैं। शुद्ध होना, संकटों से मुक्त होना इससे बढ़कर और इस जीव का अतिशय ही क्या है? ऐसे महान् अतिशय की प्राप्ति इस वचनगुप्ति से प्रकट होती है। हम वचनगुप्ति के कुछ-कुछ निकट पहुंचे, यों मौनसाधना से आत्मतत्त्व का एक परमविकास प्रकट होता है। यह ही कल्याण का मार्ग है।