वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 78
From जैनकोष
णाहं मग्गणठाणो ण गुणट्ठाणो ण जीवठाणो वा।।
कत्ता ण-ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।78।।
आत्मस्वरूप में मार्गणास्थानों का अभाव- मैं मार्गणास्थान नहीं हूं, न गुणस्थान हूं और न जीवस्थान हूं। मार्गणास्थान तो ये हैं- गतिमार्गणा, इंद्रियमार्गणा, कायमार्गणा, योगमार्गणा, वेदमार्गणा, कषायमार्गणा, ज्ञानमार्गणा, संयममार्गणा, दर्शनमार्गणा, लेश्यामार्गणा, भव्यत्वमार्गणा, सम्यक्त्वमार्गणा, संज्ञित्वमार्गणा और आहारकमार्गणा। इन मार्गणास्थानों में कोई स्थान तो विकृत है और उन विकृतों में भी कोई स्थान तो है पुद्गलप्रधान और कोई स्थान है जीवभावप्रधान। और इसके अतिरिक्त एक-एक स्थान प्रत्येक मार्गणा में है शुद्ध पर्याय का स्थान। तो चाहे विकाररूप भाव हो, चाहे पुद्गल प्रचय संबंधित स्थान हो और चाहे शुद्धस्वभाव परिणमन का स्थान हो, वे सभी स्थान इस अंतस्तत्त्व में नहीं हैं अर्थात् वे जीव के स्वभावरूप नहीं हैं।
जीवस्वरूप में गतिमार्गस्थान का अभाव- नरकगति क्या यह जीव का स्वरूप है? और तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति- ये भी जीव के स्वरूप नहीं हैं और गतिरहित हो जाना यह भी जीव का स्वरूप नहीं है। जीव का स्वरूप तो ज्ञायक स्वरूप है, ज्ञानानंद है, सच्चिदानंद है, ये तो उसकी विशेषताएँ बतायी जाती हैं कि ये अमुक प्रकार हैं, गतिरहित आदिक। ऐसे ही सभी मार्गणावों में देख लीजिए, कोई भी मार्गणा के स्थान इस जीव के स्वरूप नहीं हैं।
आत्मस्वरूप में इंद्रिय मार्गणास्थान का अभाव- इंद्रियजाति मार्गणा 6 है, उनमें से क्या एकेंद्रिय होना जीव का स्वरूप है? नहीं। दो इंद्रिय होना, तीन इंद्रिय होना, चार इंद्रिय होना पाँच इंद्रिय होना यह कोई जीव का स्वरूप नहीं है। और इंद्रियरहित होना, यह भी जीव का स्वरूप नहीं है। हालांकि इंद्रियरहित होना बहुत ही सुंदर बात है, भली बात है, निर्वाण की बात है पर जीव का जहां स्वरूप बताया जाय वहां स्वरूप कहना चाहिए। न तो भली स्थिति से उसका मतलब है और न बुरी स्थिति से उसका मतलब है। जैसे पूछें कि इस चौकी का स्वरूप क्या है? और कोई यह कहे कि गंदी रहना यह है चौकी का स्वरूप तो क्या यह उत्तर ठीक है? ठीक नहीं है। चौकी का स्वरूप गंदी रहना नहीं है। और कोई कहे कि गंदगी से रहित रहना चौकी का स्वरूप है, तो यह भी गलत है। यह तो मुकाबलेतन इसकी विशेषताएँ हैं। यदि विकार न होता तो स्वच्छता की क्या प्रशंसा थी? भगवान सिद्ध बड़े हैं, उनको बड़ा बनाया है तो हम संसारियों ने बड़ा बनाया है। हम लोग बुरे हैं, गंदे हैं, विषयकषायों में रत हैं तब वे भगवान बड़े कहलाते हैं। मान लो कदाचित् सभी आत्मा धर्मद्रव्य की तरह स्वच्छ हों, तो उनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा है? बड़े को बड़ा छोटे ही बनाते हैं, छोटा न हो तो बड़ा क्या? छोटे बड़े जैसे मुकाबलेतन होते हैं। ऐसे ही विकारभाव होना, निर्विकारभाव होना यह भी मुकाबलेतन चीज है, वस्तु का स्वरूप नहीं है। जीव का स्वरूप है शुद्धज्ञायकस्वरूप अथवा मुख से ही नहीं कह सकते, जो है सो ही है।
जीवस्वरूप में कायमार्गणा का अभाव- कायमार्गणा 6 हैं? नहीं। उनमें क्या पृथ्वीकाय जीव का स्वरूप है? नहीं है। न पृथ्वीकाय, न जलकाय, न अग्निकाय, न वायुकाय, न वनस्पतिकाय और न त्रसकाय ये जीव के स्वरूप नहीं है। बल्कि इस भेद में पुद्गल की प्रधानता है। होता तो है यद्यपि जीव के संसर्ग से, मगर काय में पुद्गल प्रचय की प्रधानता है। ये जीव के स्वरूप नहीं हैं। फिर क्या कायरहित होना जीव का स्वरूप है? कायरहित होना भी जीव का स्वरूप नहीं है। यह तो एक निर्विकार शुद्ध स्वच्छ परिणमते हुए जीव की विशेषता कही जा रही है। मैं तो एक चित् स्वभाव मात्र हूं, न कायसहित हूं, न कायरहित हूं। ये जो आप जीवस्थान पढ़ते हैं और जितने भेदों का यह वर्णन है उस वर्णन से हमें आध्यात्मिक दिशा क्या मिलेगी अंत में चलकर? वह यही दिशा मिलेगी जो इस गाथा में कही जा रही है। मैं तो एक शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र हूं, मैं मार्गणास्थान रूप नहीं हूं। यों ही योगमार्गणा की बात निरखिये। 4 मनोयोग, 4 वचनयोग और 7 काययोग। ये 15 योग है। क्या इन योगों रूप रहना मेरा स्वरूप है? नहीं है। और योगरहित होना वह तो एक विशेषता है, उसका स्वरूप नहीं है। मेरा ही तो शुद्ध तत्त्व निज स्वभावमात्र है।
जीवस्वरूप में वेदमार्गणा का अभाव- वेदमार्गणा में पुरुषवेद, क्या यह जीव का स्वरूप है? नहीं है। ऐसे भाव होना, स्त्री में अभिलाषा पहुंचना, यह क्या कोई जीव के स्वभाव की बात है। स्त्रीवेद क्या यह जीव का स्वरूप है? नहीं है। अथवा नपुंसक वेद, क्या यह जीव का स्वरूप है? नहीं है। तो क्या अपगत वेद होना यह जीव का स्वरूप है? अपगतवेद होना भी जीव का स्वरूप नहीं है। यद्यपि अपगतवेद होना शुद्ध है, पर स्वरूप यह नहीं है। स्वरूप तो वह हुआ करता है जो अनादि अनंत अहेतुक शाश्वत अंतर में प्रकाशमान् हो। जैसे चौकी का स्वरूप वह है जो गंदी होने पर भी हो और साफ स्वच्छ धुल जाने पर भी हो। यों ही जीव का स्वरूप वह है जो शाश्वत है, अशुद्धपर्याय की अवस्था में भी है और शुद्धपर्याय की अवस्था में भी है। तो वेदमार्गणा के स्थान हैं वे सब भी मेरे स्वरूप नहीं हैं।
जीवस्वरूप में कषायमार्गणा का अभाव- कषायमार्गणा के स्थान इन्हें तो प्रकट ही लोग मना कर सकते हैं। कषाय करना क्या जीव का स्वरूप है? अनंतानुबंधी क्रोध होना जो मिथ्यात्व को बढ़ाये, सम्यक्त्व न होने दे, जो वर्षों तक, भव भवांतरों तक अपने संस्कार बनाये ऐसी कषाय होना क्या जीव का स्वरूप है? अणुव्रत का घात करने वाले देशव्रत को न होने देना, अप्रत्याख्यानावरण कषाय होना क्या जीव का स्वरूप है? या महाव्रत को रोकने वाला, सकलसंन्यास के भाव का आवरण करने वाला प्रत्याख्यानावरण कषाय क्या जीव का स्वरूप है? नहीं है। और संज्वलन जैसी कषाय क्या यह जीव का स्वरूप है? नहीं है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय- इन चार प्रकार के संयमों के साथ भी रहने वाले जो कषाय हैं वे भी जीव के स्वरूप नहीं हैं। न हास्यादिक जीव के स्वरूप है। फिर क्या कषायरहित होना जीव का स्वरूप हैं? यह भी जीव का स्वरूप नहीं है। जीव के स्वरूप की जानकारी में सबसे अधिक कठिनाई पड़ती है? शुद्ध विकास भी जीव का स्वरूप नहीं है इसके निर्णय में। कषायरहित भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीवस्वरूप में ज्ञानमार्गणा का अभाव- अच्छा ज्ञानमार्गणा में और देखिये मतिज्ञान जीव का स्वरूप नहीं है क्योंकि वह इंद्रिय और मन का निमित्त पाकर होता है, ऐसे ही श्रुतज्ञान भी जीव का स्वरूप नहीं है, अवधिज्ञान यद्यपि आत्मीय शक्ति से होता है, लेकिन वह भी अपूर्ण है, अवधिज्ञानावरण के क्षयोपयाम के निमित्त से होता है, साथ ही वह ज्ञान मर्यादित है तथा केवल रूपी पदार्थों को ही जानने वाला है। अवधिज्ञान भी जीव का स्वरूप नहीं है, मन:पर्ययज्ञान भी नहीं है और ऐसा भी जानें कि यह केवलज्ञान भी जीव का स्वरूप नहीं है। यहां जरा अड़चन पड़ेगी। ऐसा वह ज्ञान जो तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थों को एक साथ स्पष्ट जानता है, असीम जानता है, निमित्त पाये बिना जानता है, शुद्ध पर्याय है, फिर भी यह जीव का लक्षण नहीं है। जीव का लक्षण तो वह ज्ञानस्वभाव है, वह चैतन्यस्वभाव है जिसका कि केवलज्ञानरूप शुद्ध परिणमन चल रहा है वह परिणमन स्वभाव के अनुरूप है। इस कारण स्वभाव में और उस शुद्ध विकास में अंतर समझना कठिन हो रहा है, पर स्वभाव तो है अनादि अनंत और यह शुद्धविकास है अंत में प्रकट हुआ।
जीवस्वरूपपरिज्ञान की विधि में एक दृष्टांत- जैसा पूछा जाय कि सूर्य का स्वरूप क्या है? बादल आड़े है, उनमें कुछ बादल हट जाने से कभी 50 कोश तक उजाला चला और कभी हजार कोश तक उजाला चला और कभी बिल्कुल बादल हट जाने से मानो करोड़ों कोश तक उजाला चला। अब पूछा जाय कि क्या 50 कोश तक उजाला रखना सूर्य स्वरूप है? क्या सैकड़ों हजारों कोश तक उजाला रखना सूर्य का स्वरूप है? अथवा करोड़ों कोश तक उजाला रखना सूर्य का स्वरूप है? सूर्य का स्वरूप तो जितना सूर्य है उसमें ही पाया जाता है। सूर्य का प्रकाश पूरा प्रकट हो जाना, कम प्रकट रहना यह सूर्य की बात नहीं है। कम प्रकट हो तब भी सूर्य का स्वरूप सूर्य में है, पूरा प्रकट हो तब भी सूर्य का स्वरूप सूर्य में है, ऐसे ही ज्ञान प्रकट हो तब भी आत्मा का ज्ञानस्वभाव वही का वही पूर्ण है और कभी केवलज्ञान भी प्रकट हो तो कहीं स्वभाव में वृद्धि नहीं हो गयी? स्वभाव तो वही का वही है। इस तरह शुद्ध अशुद्ध पर्याय का स्रोतभूत स्वभावरूप मैं हूं, ऐसी समझ बने ऐसा इसका जानना आध्यात्मिक प्रयोजन है।
जीवस्वरूप में संयममार्गणास्थानों का अभाव- ऐसे ही संयममार्गणा जीव का स्वरूप नहीं है। सामायिक संयम जो कि छठे गुणस्थान से 9 वें गुणस्थान तक चलता है वह परिणमन भी यद्यपि लोगों के लिए पूज्य है, फिर भी इस जीव का स्वरूप नहीं है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय यहां तक तो इस संयमी के साथ कषायभाव भी बना हुआ है, पर जहां कोई कषाय नहीं रही ऐसा जो यथाख्यात चारित्र है वह भी जीव का स्वरूप नहीं है। असंयम भी जीव का स्वरूप नहीं है। संयमासंयम भी जीव का स्वरूप नहीं है, और इन सबसे रहित रहना, किसी में भी वृत्ति न जगना ऐसी स्थिति है यह भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीवस्वरूप का विधि द्वारा परिचय- जीव का स्वरूप न से नहीं जाना जा सकता है, किंतु विधि से जाना जा सकता है। किसी मनुष्य की पहिचान कराना हो और यहां यह कहो कि आप इन्हें जानते हैं? ये इनके मामा नहीं, इनके दादा नहीं, इनके चाचा नहीं, नहीं ही नहीं की बात बताते जावो तो मनुष्य की पहिचान क्या पकड़ में आयेगी। अरे कुछ हां की बात तो कहो, क्या है? तो ये सब न-न की बातें हैं, गतिरहित, इंद्रियरहित, कायरहित। तो यों न से जीव का स्वरूप नहीं जाना जाता है, स्वरूप को तो विधि की बात से कहो क्या है और विधि की बात में भी जो शाश्वत हो वह बोलो, अशाश्वत न बोलो। न विकार बोलो, न निर्विकार बोलो किंतु सत्त्व का जिससे संबंध है, सत्त्व में जो कुछ भरा पड़ा है उसको बतावो। वह है स्वरूप पदार्थ का, इस दृष्टि से निरखते जाइए तो मार्गणास्थान जीव का स्वरूप नहीं है।
जीवस्वरूप में चक्षुदर्शन का अभाव- दर्शनमार्गणा भी मेरे जीव का स्वरूप नहीं है। चक्षुदर्शन आंखों से देखना क्या यह जीव का स्वरूप है? नहीं है। चक्षुदर्शन का क्या अर्थ है, जरा ध्यान देकर सुनो। आंखों से जो समझा है वह चक्षुदर्शन नहीं है, आंखों से जाना रूपरंग, यह चक्षुदर्शन नहीं है। यह तो ज्ञान है। इसे बोलेंगे चाक्षुषज्ञान। इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। इंद्रिय में तो आँख भी है तो आँख के निमित्त से जो ज्ञान होगा वह चक्षुदर्शन नहीं है, वह मतिज्ञान है। चक्षुदर्शन क्या है? आंखों के निमित्त से जो जानकारी हो रही है जिसे लौकिक लोग देखना कहते हैं, उस रूप के ज्ञान से पहिले आत्मा ने जो अपने में जानने के लिए शक्ति प्रकट की है उसका नाम है चक्षुदर्शन। आंखों से देखने का नाम चक्षुदर्शन नहीं, वह तो ज्ञान है।
दर्शन के स्वरूप का परिचय व दर्शनमार्गणा का जीवस्वरूप में अभाव- भैया ! दर्शन की बात ऐसे समझ लो कि जैसे हम अभी पेटी को जान रहे हैं और पेटी का जानना छोड़कर हम इस द्रव्य को जानने चले तो ऐसी स्थिति में क्या होगा कि पेटी का जानना छूटा और फिर दूसरी चीज को जानने के लिए बल प्रकट करने का यह उपयोग कुछ आत्मा की ओर मुड़ा जिसे अज्ञानी जन आंक नहीं सकते, फिर उसके बाद बैंच जाना। पेटी का जानन छोड़कर सीधा बैंच को नहीं जाना। पेटी जाना, फिर आत्मा की और शक्ति ग्रहण की अन्य चीजों को जानने के लिए, फिर अन्य चीज को जाना। तो आंखों से जो बैंचरूप जाना उससे पहिले जो शक्तिग्रहण हुआ वह है चक्षुदर्शन। ऐसे ही कान से सुना वह ज्ञान है। उस सुनने के ज्ञान से पहिले जो शक्ति ग्रहण की वह है कर्णदर्शन। नाक से जाना उससे पहिले जो शक्ति ग्रहण की वह है घ्राणदर्शन। बना डालो 6 दर्शन। पाँच इंद्रिय और एक मन, उनके निमित्त से जो ज्ञान होता है उससे पहिले जो शक्ति ग्रहण है वह है दर्शन। किंतु इस दर्शन को दो में शामिल किया गया है। आंखों के सिवाय शेष इंद्रिय और मन के ज्ञान से पहिले जो दर्शन होते हैं, उन सब दर्शनों का नाम अचक्षुदर्शन है। ऐसे ही अवधिदर्शन। अवधिज्ञान से पहिले जो शक्ति ग्रहण है, आत्मस्पर्श है, आत्मावलोकन है वह अवधिदर्शन है। यहां तक तो दर्शन ज्ञान से पहिले हुआ करता है पर केवलदर्शन केवलज्ञान एक साथ होता है, क्योंकि प्रभु परिपूर्ण समर्थ है, उसे पदार्थ के जानने के लिए शक्तिग्रहण नहीं करना है। प्रभु के शक्ति सदा प्रकट है सो शक्ति भी सदा है, जानन भी सदा है, आत्मावलोकन भी सदा है, वह एक साथ हुआ करता है। ये समस्त दर्शनमार्गणास्थान भी जीव के स्वरूप नहीं हैं।
अंतस्तत्त्व में लेश्यामार्गणास्थानों का अभाव- लेश्यामार्गणा के स्थान 7 हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या और लेश्यारहित। बैर बांधना, खोटे वचन बोलना आदिक जो कृष्णलेश्या के लक्षण हैं क्या वे जीव के स्वरूप है? नहीं हैं। यों ही परिग्रहासक्त होना, दूसरों की निंदा करना, दोषग्रहण करने का स्वभाव रखना आदिक नीललेश्या के लक्षण हैं, वे जीव के स्वरूप नहीं हैं। स्तुति सुनने पर राजी होना और स्तुति के कारण अथवा नामवरी के प्रयोजन से रण तक में भी अपने प्राण गंवा देना आदि जो कापोतलेश्या के लक्षण हैं वे भी जीव के स्वरूप नहीं है। यों ही पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या में शुभ भाव चलते हैं। सद्वृत्ति से रहना, पक्षपात न करना, सबमें समानता रखना आदि जो मंदकषाय के लक्षण हैं वे भी जीव के स्वरूप नहीं है। ये सब विकार परिणाम हैं। कोई शुभ है, कोई अशुभ है। लेश्या से रहितपना भी जीव का स्वरूप नहीं है। वह तो एक बाह्यतत्त्व की अपेक्षा लेकर निषेध वाली बात कही गयी है।
चित्स्वरूप में भव्यत्वमार्गणास्थानों का अभाव- भव्यत्व मार्गणा तीन होती हैं- भव्य, अभव्य, अनुभय। भव्य का अर्थ यह है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय से परिणत हो सकने के योग्य है वह है भव्य तथा भव्य के भाव का नाम है भव्यत्व। और जो योग्य नहीं है उसे कहते हैं अभव्यत्व। ऐसी योग्यता का होना अथवा न होना ये दोनों भाव स्वभावरूप नहीं हैं। स्वभाव तो वह है जो विधिरूप है और सदा प्रकाशमान् है। अभव्य को तो कोई स्वीकार करेगा ही नहीं कि यह जीव का स्वभाव है, किंतु भव्यभाव भी जीव का स्वरूप नहीं है, इसका भी विनाश हो जाता है। जब मुक्त अवस्था होती है तो भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है। सूत्रजी में लिखा है ‘औपशमिकादिभव्यत्वानां च।’ निर्वाण के समय भव्यत्व अवस्था का क्षय हो जाता है वहां भी अनुभय कहलाता है। न वह भव्य है, न अभव्य है। भव्य और अभव्य दोनों स्थितियों से न्यारा रहना यह भी जीव का स्वरूप नहीं है। अनुभय शब्द क्या कोई विधिरूप वाचक है। जीव का तो वह स्वभाव है जो स्वयं तो परिवर्तित न हो, वह तो वही का वही रहे, किंतु उसके परिणमन में षड्गुणहानि वृद्धियां हुआ करें। षड्गुण हानि वृद्धि रूप से होने वाले शुद्ध परिणमनों का श्रोतभूत जो स्वभाव है वह जीव का स्वरूप है।
सम्यक्त्वमार्गणा में औपशमिक सम्यक्त्व का विवरण- सम्यक्त्व मार्गणा 6 बताये गये हैं जिसमें तीन सम्यक्त्व हैं- औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का उपशम हो तो औपशमिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिक सम्यक्त्व संबंध में जरा और विशेष जानो। जिस जीव को आज तक सम्यक्त्व नहीं हुआ अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जीव है उस जीव के 7 प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती। इन सात में से सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति– इन दो का भी बंध नहीं होता है। फिर ये आ कैसे जाते हैं जीव में इनके सत्त्व कैसे हो जाते हैं? यह अभी बतावेंगे। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव में सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों मात्र 5 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है। वहां सम्यक्त्व घातक इन 5 प्रकृतियों में से अनंतानुबंधी चार और मिथ्यात्व प्रकृति इनके उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है। जब इन पांचों का उपशम होता है और उपशम सम्यक्त्व जिस समय होता है उस ही समय में उस सम्यक्त्व परिणाम के बल से चूँकि मिथ्यात्व का विनाश नहीं हुआ है उपशम सम्यक्त्व में वह दबा पड़ा हुआ है। उपशम सम्यक्त्व के प्रथम क्षण ही इस ही सम्यक्त्व परिणाम के बल से मिथ्यात्व को दल दिया जाता है और उस काल में मिथ्यात्व के दलन से कुछ तो चूरा बन जाता है, वह तो हुई सम्यक्त्व प्रकृति और कुछ खंड-खंड बन जाता है वह हुआ सम्यग्मिथ्यात्व और कुछ वही का वही बना रहे यह हुआ मिथ्यात्व।
दृष्टांतपूर्वक मिश्र व सम्यक्त्वप्रकृति की सत्ता होने का विधान- जैसे जांत में चने दले जाते हैं तो उस दले की स्थिति में कुछ तो भूसी बन जाती है जिससे रोटियां बन सकती हैं और कुछ दाल बन जाती है दो टुकड़े वाली और कोई-कोई बिरला चना भी साफ निकल आता है। तो जैसे चने के दलने में तीन बातें हो जाती हैं, इसी तरह सम्यक्त्वपरिणाम की चक्की चलने में इस मिथ्यात्व का दलन होता हैं। कुछ मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व ज्यों के त्यों रह जाते हैं, कुछ सम्यग्मिथ्यात्व हो जाते हैं, कुछ सम्यक्प्रकृति हो जाते हैं। अब लो यह उपशम सम्यक्दृष्टि जीव के 7 प्रकृतियों की सत्ता है। यह उपशम सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आ जाय तो उस मिथ्यादृष्टि के भी 7 प्रकृतियों की सत्ता रहेगी। उसका नाम है सादि मिथ्यादृष्टि। यों समझ लीजिए। करोड़-करोड़ों वर्षों तक सातों प्रकृतियों की सत्ता रहेगी।
वेदककाल, उद्वेलन और पुन: प्रथमोशम हो सकने का समय- अब पल्य के असंख्यातवें भाग काल में मानों करोड़-करोड़ वर्षों में कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करे तो क्षयोपशम सम्यक्त्व हो सकता है। चाहे उपशम सम्यक्त्व के तुरंत बाद कर ले या करोड़ों वर्षों में अनगिनतें वर्षों में कभी कर ले, उस काल को वेदन काल बोला करते हैं। इतना काल गुजर चुका, फिर क्या होने लगता है कि सम्यक्त्व प्रकृति बदलकर सम्यग्मिथ्यात्व बन जाता है। इस जगह इसे 6 प्रकृतियों की सत्ता है, अनंतानुबंधी चार मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व कुछ ही समय बाद सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति भी बदलकर मिथ्यात्वरूप हो जाती है। अब इसकी 5 प्रकृतियों में ही सत्ता रह गयी, अब वह प्रथमोपसम्यक्त्व फिर पैदा कर सकेगा।
अंतस्तत्त्व में उपशमसम्यक्त्वस्थान का अभाव- यह सम्यक्त्व परिणाम यद्यपि जीव के श्रद्धा गुण के शुद्ध विकास को लिए हुए है, फिर भी इसमें उपशम है और आपेक्षिक भाव है, मर्यादित काल है। ऐसा उपशम सम्यक्त्व होना जीव का स्वरूप नहीं है। मिथ्यात्व गुणस्थान के बाद जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसका नाम है प्रथमोपशम सम्यक्त्व। और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के बाद जो उपशम सम्यक्त्व होता है वह है द्वितीयोपशमसम्यक्त्व- ये दोनों ही जीव के लक्षण नहीं हैं।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उदयाभावी क्षय- क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की बात सुनिये। सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों में से 6 प्रकृतियों का तो उदयाभावी क्षय हो जाय व आगामी उदय आ सकने योग इन्हीं 6 का उपशम हो जाय व सम्यक्त्व प्रकृति का उदय हो जाय तो वेदक सम्यक्त्व हो जाता है। उदयाभावी क्षय वाली वे कौनसी 6 प्रकृतियां हैं- अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति इनका है उदयाभावी क्षय। उदयाभावी क्षय का सीधा अर्थ यह है कि उदय में आये फिर भी फल न दे। यहां एक शंका यह हो सकती है कि यह कैसे हो सकता है कि उदय में आये और फल न दे। इसका समाधान यह है कि ये उदयावली में तो आ गये, इसलिए उदय में आये कहलाते हैं, किंतु उदय का जो क्षण है, एक समय है उससे पहिले इन 6 प्रकृतियों का स्तिबुक संक्रमण हो जाता है। इस कारण यह भी कह सकते हैं कि उदय से पहिले संक्रांत हो गये इसलिए उदय में नहीं आये किंतु उदयावली में आये इसलिए उदय में नहीं आये।
स्तिबुक संक्रमण का विवरण- स्तिबुक संक्रमण बड़ा घोर वा पूर्ण संक्रमण कह लीजिए। संक्रमण मायने बदल जाना। उदयावली का एक आवली काल होता है। एक आवली काल में अनगिनते समय होते हैं। उन अनगिनते समयों में से आखिरी समय से पहिले इन सारे अनगिनते समयों में याने उदयावली में अब उनको कोई धोखा नहीं रहना चाहिये, वे सही रहें क्योंकि उदयावली में प्रवेश हो गया, उनका इन्टरव्यू हो चुका, किंतु अब ठीक मौके पर उदयकाल के समय पर उनका बदलना हो गया, अब इसके यह प्रकृति नहीं रही, अन्य प्रकृतिरूप से वे उदय में आये। उदयाभावी क्षय में यह होता है, इतनी जो यथार्थ बात है। इसे सीधे शब्दों में यों कह लीजिए कि उदय में आयें और फल न दें, इसका नाम है उदयाभावी क्षय।
वेदक सम्यक्त्व में उपशम और उदय- और मान लो उदय में आये और फल न दे यह तो हो गया, किंतु उदीरणा इनकी हो जाय तो जो अगले समय विपाक के लिए पड़े हुए है इसके समय से पहिले यदि उदीरणा हो जाय तो तब तो सम्यक्त्व ही बिगड़ जायेगा ना, तो साथ ही अगले समय में उदय में आ सकने योग्य इन्हीं 6 प्रकृतियों का उपशम भी होना चाहिए। यह भी कैद हो जाय कि ये अब इस समय तक उदय में नहीं आ सकते। अब रह गयी एक सम्यक्त्व प्रकृति, उसका उदय हो तो बनता है क्षयोपशम सम्यक्त्व।
क्षयोपशम सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व में अंतर- क्षयोपशम सम्यक्त्व में और वेदकसम्यक्त्व में थोड़ा अंतर है। मगर वह अंतर बड़े तत्त्व ज्ञान की ऊँची चर्चा करते समय बताया जाता है। वहीं इसका उपयोग होता है, इस कारण चाहे वेदक सम्यक्त्व कहो, चाहे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहो एक ही अर्थ में प्रसिद्ध है। वेदक सम्यक्त्व उसे कहते हैं जिस सम्यक्त्व में सम्यक्त्व प्रकृति का उदय रहा करता है जहां चल, मलिन, अगाढ़ दोष रहा करते हैं, वेदन नाम उदय का है, वेदन नाम फल भोगने का है। जहां सम्यक्त्व प्रकृति का उदय है उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। इसका बहुत लंबा काल है। 66 सागर काल पर्यंत तक वेदक सम्यक्त्व रहा करता है, किंतु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तब कहलाता है जब क्षायक सम्यक्त्व की तैयारी कर रहा हो जीव। क्षायिक सम्यक्त्व की तैयारी करते हुए में कुछ समय तक तो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय चलता है, , फिर उसके सम्यक्त्व प्रकृति का उदय नहीं रहता और क्या हुआ करता है? कर्मों की छांट, उन प्रकृतियों का क्षय। उन प्रकृतियों का क्षय यों चलता हैं कि अनंतानुबंधी की पूर्ण विसंयोजना कर दे। अप्रत्याख्यानावरण हो गया, अनंतानुबंधी का क्षय हो गया, मिथ्यात्व की निर्जरा हो गयी, मिथ्यात्व का क्षय हो गया। सम्यक्मिथ्यात्व सम्यग्प्रकृति रूप बन गया। लो यों सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय हो गया और सम्यग्प्रकृति का सीधा क्षय किया जाता है। सर्व संक्रमण करके गुणश्रेणी निर्जरा में क्षय कर दिया जाता है, ऐसी उन 7 प्रकृतियों के क्षय के समय में चूँकि जब सम्यग्प्रकृति का वेदन नहीं होता है इस कारण तब वेदक सम्यक्त्व नहीं कहा जा सकता है; किंतु जब तक पूर्ण क्षय सातों का नहीं हो जाता है तब तक क्षायोपशमिक कहलाता है। यों-यों क्षायोपशमिक सम्यक्त्व व वेदक सम्यक्त्व में अंतर है।
कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि- वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्कृष्ट है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की जब यह जीव तैयारी कर रहा है उस तैयारी में जितना समय लगता है उन समयों में पहिले तो पहिले समय तक सम्यक्त्वप्रकृति का वेदन चलता है, पश्चात् वेदन नहीं रहा। उस तैयारी के बीच में मान लो उस काल के 6, 7 हिस्से कर लो। उनमें से मानो पहिले हिस्से में मरते नहीं, अगले हिस्से में मरे तो वह नारक तिर्यंच, मनुष्य, देव इनमें से किसी भी गति में पैदा हो सकता है। यहां वे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं, फिर इसके बाद के चरण में मरे तो वहां मनुष्य तिर्यंच और देव- इन गतियों में जन्म हो सकता है उसके बाद के चरण में गुजरे तो वह मनुष्य व देव गति में ही उत्पन्न हो सकता है। इसके बाद के चरण में गुजरे तो वह देवगति में उत्पन्न हो सकता है। ऐसे बीच में गुजरने वाले जीवों के क्षायक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो चुका अभी। क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ तो करेगा मनुष्यभव में और क्षायक सम्यक्त्व की पूर्णता करेगा नरकगति में, तिर्यंचगति में, मनुष्यगति में, या देवगति में क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ मनुष्य ही कर सकता है। ऐसे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि नरक में जायेंगे तो पहिले ही नरक जायेंगे। तिर्यंच में पैदा हो गये तो भोगभूमिया तिर्यंच में मनुष्य में उत्पन्न हो गए तो भोगभूमिया मनुष्य में और देव में पैदा हो गए तो वे तो स्वर्गों में ही पैदा होते है और ऊपर भी।
क्षायोपशमिक व क्षायिक सम्यक्त्व स्थानों का भी चित्स्वभाव में अभाव- ऐसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व यद्यपि आत्मा के श्रद्धा गुण का शुद्ध विकासरूप भाव है, किंतु क्षायोपशमिक रूप होने से वेदक होने से मर्यादा होने से यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भाव भी जीव का लक्षण नहीं है। जीव का लक्षण तो क्षायिक सम्यक्त्व जैसे शुद्ध विकास को भी नहीं बताया है। बतलावो उसमें क्या कमी रह गयी? सातों प्रकृतियों का पूर्णतया क्षय हो चुका है। निर्दोष सम्यक्त्व है। अन्य सम्यक्त्वों की तो बात क्या, क्षायक सम्यक्त्व भी अंतस्तत्त्व में नहीं है। नहीं है इसलिए जीव में ये सम्यक्त्व के स्थान नहीं होते हैं।
जीव में मिथ्यात्व और सासादन स्थान का अभाव- सम्यक्त्व मार्गणा में अंतिम तीन स्थान है मिथ्यात्व, सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व। मिथ्यात्व भाव, मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होता है। इसमें तो बिल्कुल विपरीत आशय होता है। यह तो जीव का स्वरूप हो ही नहीं सकता। सासादन भाव सम्यक्त्व से गिरने पर और मिथ्यात्व में न आ पाने तक जो मध्य की स्थिति है वह भी है खोटा ही आशय, उसे सासादन सम्यक्त्व कहते हैं। सासादन सम्यक्त्व में ऐसा स्वाद है जैसे समझो वमन करते समय जो जिव्हा पर स्वाद हो उस ढंग का, अर्थात् कहने को तो यह है कि भोजन मुख में है मगर वह वमन के समय का स्वाद है, यों ही सम्यक्त्व के वमन का स्वाद है। सम्यक्त्व नाममात्र के लिए नहीं है इसलिए इसका नाम है सासादन सम्यक्त्व। सासादन का क्या अर्थ है? असासादनसहित सासादन। आसादन मायने है विघात। जहां सम्यक्त्व का विघात हो गया उसे कहते हैं सासादन सम्यक्त्व। सासादन सम्यक्त्व नाम सुनकर कोई यह न सोचे कि चलो हमारे कोई तो सम्यक्त्व अंश है पर जैसे किसी को कह दिया जाय निर्धन और वह राजी हो कि हमारे संबोधन में इतने धन तो लगा दिया, तो वह राजी होना मूर्खतापूर्ण है, इसी तरह सासादन सम्यक्त्व में कुछ राजी होना मूर्खतापूर्ण है। मिथ्यात्व के भाव और सासादन के भाव में मात्र थोड़ा अंतर है वह कहने सुनने का। अनंतानुबंधी के उदय से सम्यक्त्व का घात हो जाता है और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व प्रकट होता है। सासादन का भी भाव खोटे भाव का है, यह भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीव में सम्यग्मिथ्यात्व स्थान का अभाव- सम्यक्मिथ्यात्व में कुछ सम्यक्पना कुछ मिथ्यात्व भाव ऐसा मिश्रण है कि जिसे न केवल सम्यक्त्व कह सकते हैं और न केवल मिथ्यात्व कह सकते है। जैसे दही गुड़ मिलाकर खाने में जो स्वाद होता है, उसमें न केवल दही का स्वाद है और न केवल गुड़ का स्वाद है, ऐसा ही मिश्रण रूप भाव यह सम्यग्मिथ्यात्व है, यह भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीव में संज्ञित्वमार्गणास्थानों का अभाव- संज्ञीमार्गणा में 3 स्थान हैं- संज्ञी, असंज्ञी और अनुभय। मन है, विवेक है, हित अहित का विचार करने की योग्यता है उस जीव को कहते हैं संज्ञी, ऐसे विचार करने की योग्यता हो जाना यह भी जीव का स्वरूप नहीं है। यह भी विकृत अवस्था की बात है। जीव का स्वरूप तो शुद्ध ज्ञाता दृष्टा रहने का है। जहां हित अहित का विचार नहीं हो सकता है ऐसे परिणाम को असंज्ञित्व कहते हैं। यह भी जीव का स्वरूप नहीं है और जहां न संज्ञी रहा, न असंज्ञी रहा ऐसा अनुभयपना भी जीव का स्वरूप नहीं है। यह अनुभयपना अयोगकेवली सयोगकेवली और सिद्ध भगवंतों के होता है। जैसे भव्यत्व का अनुभय कोई विधिरूप नहीं है, जीव का स्वरूप नहीं है यों ही यह अनुभय जीव का स्वरूप नहीं है।
चित्स्वरूप में आहारकमार्गणा- आहारकमार्गणा के दो स्थान हैं आहारक और अनाहारक। जो आहारवर्गणावों को ग्रहण करता है सो वह आहारक है और जो आहारवर्गणावों को नहीं ग्रहण करता है सो अनाहारक है। आहारवर्गणा से औदारिक शरीर, वैक्रियक शरीर, आहारक शरीर बनता है और श्वासोच्छ्वास भी इन वर्गणावों से होता है। इंद्रिय रचना भी आहारकवर्गणावों से होती है। ये आहारक वर्गणाएं जिसके ग्रहण में आती हैं उसे-उसे आहारक कहते हैं और जब ग्रहण में नहीं आते हैं तब उसे अनाहारक कहते हैं। अनाहारक दशा मरने के बाद मोड़ों सहित विग्रह गति में होती है? अथवा केवली समुद्घात में प्रतर लोकपूरण और प्रतर इन तीन समयों में होते हैं। इन्हीं तीन समयों में जीव के कामार्णकाय योग होता है। 14 वें गुणस्थान वाले भी अनाहारक होते हैं। और सिद्ध भगवान भी अनाहारक होते हैं। ये दोनों ही स्थान जीव के स्वरूप नहीं हैं। इस प्रकार ये 14 प्रकार के मार्गणा स्थान जीव के स्वरूप नहीं हैं।
ज्ञानी पुरुष का चिंतन- ज्ञानी पुरुष यहां चिंतन कर रहा है कि मैं क्या हूं? अपने आपका शुद्ध स्वरूप जाने बिना यह अशुद्ध विभावों के विकारों को दूर नहीं कर सकता है। परमार्थप्रतिक्रमण तब तक हो ही नहीं सकता जब तक परमार्थस्वरूप का परिचय न हो। इस जीव ने अनादि काल से अब तक अनेक काम किये, अनेक विचार किये किंतु अपने घर की सफाई भी नहीं कर सका। रागादिक विकारों का कूड़ा कचरा ढेरों का ढेर इसमें भरा रहा। यद्यपि आत्मीय स्वच्छता का कार्य बहुत सरल है और विकार भावों का कार्य बहुत कठिन है, पराधीन है, नैमित्तिक है, किंतु इस मोही जीव को पराधीन कार्य तो सुगम बन रहा है और स्वाधीन कार्य इसे कठिन हो रहा है। यह कठिन तब तक है जब तक इस जीव को आत्मीय सहज आनंद का स्वाद नहीं आ जाता है। एक इस आत्मतत्त्व का परिचय होने पर फिर तो यह पंचेंद्रिय के और मन के समस्त विषय असार प्रतीत होने लगते हैं। मैं तो एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूं। इस ही चैतन्य परिणमन के अतिरिक्त अन्य कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं- ऐसी भावना जिन ज्ञानी संतों के होती है वे पुरुष भव-भव के बटोरे गये विकार भावों को समाप्त कर देते हैं।
शुद्ध बोध और त्याग में शांति- भैया ! शुद्ध आनंद जीव को आत्मतत्त्व के सहज स्वरूप के परिचय में ही मिलेगा। ये पंचेंद्रिय के विषय भोग जो भोगते समय सार से दिखते हैं इनमें रंच भी सार नहीं है। आज तक कितने ही भोग भोगे, पर उनसे कुछ भी हाथ लगा हो तो बतावो। भव-भव की तो बात जाने दो, इस भव में ही कितना काल भोगों में व्यतीत कर डाला, पर कोई तृप्ति भी आज है क्या? अशांति ज्यों की त्यों बनी हुई है। उन भोगों का परिचय होने से तृष्णा और बढ़ रही है। कोईसा भी विषय ले लो सब विषयों में असारता ही नजर आयेगी। कोई जन तो थोड़ासा ही चिंतन करने से, श्रवण करने से विषयों से विरक्त हो जाते हैं और कोई पुरुष उन भोगों का परिचय पा लेने पर उनमें असारता अनुभूत होने पर भोगों को छोड़ देते हैं और कोई पुरुष भोगों को भोगते ही जाते हैं और कभी भोगों से हटने का परिणाम भी नहीं करते। मरण होने पर ही वे भोगों से छूट पाते हैं।
एक दृष्टांत में तीन तरह के पुरुष- एक कथानक है कि एक भंगिन मल का टोकना लिए जा रही थी। किसी सज्जन पुरुष ने सोचा कि इस टोकरे पर एक साफ तौलिया ढक दी जाय तो सड़कों पर बैठे हुए लोगों को तकलीफ न होगी, सो उस भंगिन से कहा लो यह तौलिया, मैंने तुम्हें बिल्कुल दे दिया। तुम इससे इस मल के टोकरे को ढक लो। वह बहुत साफ स्वच्छ तौलिया था। उसने ढक लिया। तीन पुरूषों ने देखा कि बहुत बढ़िया कपड़े से क्या ढका हुआ है, वे तीनों पुरुष पीछे लग गए। भंगिन कहती है कि तुम तीनों मेरे पीछे क्यों लग गए? वे उत्तर देते है कि इस टोकरे में कोई बढ़िया चीज रक्खी है हम उसे देखेंगे। भंगिन बोली- अरे बावलो ! लौट जावो, इस टोकरे में मल पड़ा हुआ है। एक पुरुष इतनी बात सुनकर लौट गया। दो पुरुष पीछे लगे रहे। भंगिन बोलती है कि तुम दोनों क्यों पीछे लगे हो? जवाब दिया कि हम तो नहीं मानेंगे जब तक देख न लेंगे और पक्का निर्णय न कर लेंगे कि हां इसमें मल है। भंगिन ने उस तौलिये को हटा दिया। तो उन दोनों में से एक देखकर लौट गया। तीसरे पुरुष को अभी विश्वास न हुआ। वह पीछे ही लगा रहा। भंगिन कहती है तुम क्यों पीछे लग रहे हो? तो वह तीसरा पुरुष बोला- यों देखने से हम न मानेंगे, हम तो उसकी परीक्षा कर लेंगे कि वास्तव में यह मल ही है तब लौटेंगे। अब उसने टोकरा खोला, उसने खूब सूँघ सांघ लिया। जब पक्का निर्णय हो गया तब उसको लौटने की बुद्धि आयी।
तीन प्रकृति के पुरुष- यों ही समझो कि तीन तरह के पुरुष इस लोक में हैं। एक तो वे हैं जो ऋषि संतों की देशना सुनकर भोगों से विरक्त हो जाते हैं, निज ब्रह्मस्वरूप में रत होने का यत्न करते हैं और एक वे पुरुष जो भोगों को भोगते हैं, अपना आधा अथवा और कुछ अधिक जीवन विषय भोगों में बिता देते हैं, और कभी क्लेश हों, कभी चिंताएँ हों अनेक रंग ढंग देखें, कुछ विवेक भी जगे तब उन्हें यह अनुभव होता कि मैं अकेला ही आया था और अकेला ही मरकर जाऊँगा, जो कुछ भी संचय किया है वह सब यहीं तो रह जाना है और जिस किसी भी पुत्रादिक को अपना उत्तराधिकारी माना है वह भी एक भिन्न चेतन है जैसे जगत् के अनेक जीव हैं उन ही जीवों की भांति अत्यंत भिन्न स्वयं अपने स्वरूप और स्वार्थ में ही निरत है। उसका जैसा भाग्य होगा उसके अनुसार ही उसका पुण्योदय है तो आप न भी कुछ कर जायें तो भी वह सब कुछ कर सकता है और यदि पुण्योदय नहीं है तो आप जो वैभव रख जायेंगे उसे वह एक साल भी न संभाल सकेगा। तो फिर किसलिए धन वैभव का संचय करना? यह जीवन तो धर्मसाधन के लिए मिला है, मौज और भोगों के लिए नहीं है। भोग और मौज तो पशुपर्याय में भी पाये जा सकते हैं। पशुवों को देखा ही होगा। वे भी आहार, निद्रा, मैथुन आदि भोगने में मस्त रहा करते हैं। कुछ यों ही सोचकर दूसरे पुरुष भोगों से विरक्त होकर अपना शेष जीवन धर्मपालन में लगाते हैं, किंतु तीसरे पुरुष वे हैं कि वृद्ध भी हो गए, भोग भोगते भी नहीं बनते हैं लेकिन भोगों की इच्छा नहीं त्यागी जा सकती है और किसी भी प्रकार अपना मन पूर्ण करते हैं। न कषाय जा सकती हो, अग्नि मंद हो गयी हो, लेकिन फिर भी थोड़ी जीभ पर स्वाद तो ले ही लें। लेते हैं, खाते हैं, दु:खी होते हैं, भोग त्यागे नहीं जाते हैं। उनके भोग मरण होने के कारण छूटा करते हैं।
निज निधि की संभाल पर एक दृष्टांत- विवेकी पुरुष वहां है जो इस दुर्लभ नर जीवन का लाभ लूट लें। जब देह भी नहीं रह गया तो अन्य समागम की अब चर्चा ही क्या करना है? जैसे किसी सेठ का लड़का छोटी उम्र का है, सेठ गुजर जाय। अब सरकार उस सेठ की जायदाद अपने अधिकार में रख लेती है कोर्ट आफ बोर्ड कर लेती है और उस बच्चे के पोषण के लिए सरकार व्यवस्था बनाती है, 500 रु. महीना खर्चे के लिए उस बालक को सरकार देती रहती है। वह बालक सरकार के गुण गाता है, वाह सरकार बड़ी दयालु है, हमें घर बैठे 500 रु. महीना देती है। जब वह बालक 20-21 वर्ष का हुआ, लोगों ने उसे बताया, खुद भी समझा कि ओह मेरी 10 लाख की जायदाद को सरकार ने कोर्ट आफ बोर्ड कर लिया है और मुझे 500 रुपये मासिक देकर संतुष्ट करती है। वह इन 500 रुपये में राज़ी नहीं होता है। वह सरकार को नोटिस दे देता है कि मुझे 500 रुपये महीना न चाहिए, मैं अब बालिग हो गया हूं, मुझे जो मेरी 10 लाख रूपये की जायदाद जो कोर्ट आफ बोर्ड कर ली गयी है वह चाहिए।
निज निधि की संभाल- यों ही जानो कि यह नाबालिग मिथ्यादृष्टि जीव थोड़ासा धन वैभव ठाट बाट, मान, प्रतिष्ठा पाकर कर्म सरकार के गुण गाता है, और जब इसे अपनी अनंत निधि का पता चलता है तो यह कर्म सरकार को नोटिस दे देता है कि मुझे तो मेरी अनंत निधि चाहिए। जब ऋषि संतों की देशना से अथवा अपने अनुभव से इसे कुछ पता पड़ता है अहो मेरा तो सहजस्वरूप है शुद्ध चैतन्य तत्त्व, केवल ज्ञातादृष्टा रहना मेरा काम है। मेरी अनंत आनंद की निधि को इस कर्म सरकार ने कोर्ट आफ बोर्ड कर लिया है, इसके ऐवज में हमें थोड़े भोग साधन मिले हैं, जब यह जीव बालिग होता है, ज्ञानी बनता है तब इन भोग के साधनों में उसका मन नहीं लगता है। ये सब क्लेश की चीजें विदित होती हैं। तब पुण्यसरकार को नोटिस दे देता है कि हमें तुम्हारे दिये भोग नहीं चाहियें। मुझे तो अपने आत्मीय वैभव से दरकार है। यों त्याग करके अपनी निधि पा लेता है।
आनंद मिलन की रीति- भैया ! भोग भोगते हुए क्या कोई दु:खों से मुक्त हो सकता है? धन वैभव से लिप्त रहते हुए क्या कोई शांति प्राप्त कर सकता है? नहीं प्राप्त कर सकता है। गरीबों को देखो तो उनके माफिक दु:ख हैं, धनिकों को देखो तो वे अपने माफिक चिंताएँ बनाए हुए हैं। अरे आत्मन् ! यदि तुम संसार के समस्त संकटों से मुक्त होना चाहते हो तो अपने आपमें बसे हुए इस प्रभु के दर्शन करो। इन समस्त परवस्तुवों की ओर से उपयोग को तो दूर करो। देख तेरा ही स्वरूप अनंत ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है। तेरे को कहीं भी क्लेश नहीं है। तू बना-बना कर क्लेश पा रहा है। तू जैसा है तैसा ही अपने को मान तो सारे क्लेश तेरे समाप्त हो जायेंगे। तू तो केवल चिदानंदस्वरूप है, केवलज्ञान मात्र है, किसी भी परवस्तुविषयक विकल्प होता हो तो उसे तू शत्रु मान। जगत् के किसी भी जीव को तू शत्रु मत मान। कोई तेरा शत्रु नहीं है किंतु अपने में ही जो परवस्तुविषयक भली अथवा बुरी कल्पनाएँ जगती हैं, जो भी अनुराग उठता है उस राग भाव को तू शत्रु मान, उससे निवृत्त हो और अपने को केवल ज्ञानमात्र अनुभव कर। देख तेरा आनंद स्वयमेव प्रकट हो जायेगा।
अपराध से मुक्ति में शांति- भैया ! कुछ क्षण ज्ञानमय तो रहकर देख, फिर आनंद न मिले तो कह। ज्ञाता द्रष्टा रहने, मात्र जाननहार रहने से ही आनंद है। इस जीव ने किसी परवस्तु में कुछ ममत्व किया कि यह मेरा है, इससे ही मेरा बड़प्पन है, इससे ही मेरा जीवन चलेगा बस इसी से ही क्लेश हो जाते हैं। वे क्लेश परवस्तु से नहीं होते हैं, किंतु परवस्तु के संबंध में जो ममतापरिणाम किया गया है उसका क्लेश है। जो मेरा नहीं है उसे मेरा मानना इसी का नाम वास्तविक चोरी है। जो चोरी करता है वह कैसे निर्भय हो सकता है, वह कहां शांत हो सकता है यों ही अपने निजी आनंदस्वरूप को छोड़कर अन्य किसी वस्तु में यह मेरी है ऐसा परिणाम बनाया बस चोरी कर ली। ऐसी चोरी करने वाले पुरुष को कहां निर्भयता मिल सकती है, कहां शांति प्राप्त हो सकती है? शांति चाहते हो तो सर्वविकल्पों को तोड़कर एक शुद्ध निज ज्ञानस्वरूप का अनुभव करो और उसके उपाय में ज्ञानार्जन करो, सत्संगति करो, गुरूवों की उपासना करो और अपने जीवन का एक यह लक्ष्य बनावो कि मैं सदा ज्ञानवृत्ति से रहूंगा। इस उपाय से ही जीवन में शांति मिल सकती है। ऐसा विवेक जो कर सकते हैं वे संसार समुद्र से तिर जायेंगे, नहीं तो संसार का भटकना जैसे अनादि से चला आया है वैसा ही बना रहेगा।
अंतस्तत्त्व में गुणस्थानों की भी अप्रतिष्ठा- परमार्थप्रतिक्रमण के इस महान् पुरूषार्थ के अवसर में यह अंतस्तत्त्व का रूचिया ज्ञानी संत अपने आपको सहजसिद्ध परम स्वच्छ निरख रहा है, यह मैं आत्मतत्त्व किसी भी गुणस्थानरूप नहीं हूं। गुणस्थान 14 होते हैं- मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व, मिश्रसम्यक्त्व, अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्णकरण उपशमक व क्षपक, अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक, सूक्ष्मसंपराय उपशमक व क्षपक, उपशांत मोह क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इस प्रकरण में सबसे पहिले असमानजातीय द्रव्यपर्याय का प्रतिषेध किया गया था। इसके पश्चात् जो भाव अथवा प्रकट असमानजातीय द्रव्यपर्याय से तो सूक्ष्म है, किंतु जीव और पुद्गल के परस्पर के विशेष संबंध के कारण है, ऐसे मार्गणास्थान का प्रतिषेध किया गया था। अब यह आत्मा की श्रद्धा और चारित्र के परिणमनरूप गुणस्थानों का प्रतिषेध किया जा रहा है।
जीवस्वरूप में मिथ्यात्व गुणस्थान का अभाव- पहिला गुणस्थान हैं मिथ्यात्व। मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृति के उदय के निमित्त से जो विपरीत आशयरूप परिणाम होते हैं उसे मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। यह भाव अत्यंत विपरीत भाव है। इसे तो प्रकट ही सभी लोग कह सकते हैं कि यह जीव का स्वरूप नहीं है। इस जीव में मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं पाया जाता है। यद्यपि यह विपरीत आशय जीव के परिणमन रूप ही है किंतु इस प्रकरण में सहज सिद्ध निरपेक्ष अपने ही स्वरूपास्तित्त्व के कारण जो इसका सनातन शाश्वतरूप है उसको दृष्टि में रखकर कहा जा रहा है।
जीवस्वरूप में सासादन गुणस्थान का अभाव- दूसरा गुणस्थान है सासादन। जिसमें सम्यक्त्व की आसादना हुई हो उसे कहते हैं सासादन सम्यक्त्व। यह भाव भी विपरीत आशय को लिए हुए है। इसमें सम्यक्त्व का लेश नहीं है, किंतु ग्रहण किए गये सम्यक्त्व का वमन है इसमें। जैसे कोई पुरुष खाये हुए भोजन का वमन करता है तो वमन के समय कैसा स्वाद आता है वह विपरीत स्वाद है, भोजन का स्वाद नहीं है। ऐसे ही सम्यक्त्व का जहां वमन हुआ है ऐसी स्थिति का जो आशय है वह विपरीत आशय है। यह अनंतानुबंधी कषाय के उदय के निमित्त से होता है और चूँकि पहिले के चार गुणस्थानों का मोह के निमित्त से नाम बताया गया है सो यहां दर्शन मोह का न उपशम है, न क्षय है, न क्षयोपशम है और न उदय है। इस कारण दर्शनमोह की अपेक्षा से पारिणामिक भाव भी इस गुणस्थान को बताया जाता है, किंतु है यह गुणस्थान विपरीत आशय। यह गुणस्थान भी जीव का स्वरूप नहीं है।
जीवस्वरूपमें मिश्र गुणस्थान का अभाव- तीसरा गुणस्थान है मिश्र गुणस्थान। जहां सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का सम्मिश्रण है जिसे न केवल सम्यक्त्वरूप कह सकते हैं और न केवल मिथ्यात्वरूप कह सकते हैं, किंतु जैसे मिले हुए दही गुड़ में न केवल दही रूप कह सकते हैं और न केवल गुड़ रूप कह सकते हैं, यों ही एक तृतीय प्रकार का परिणाम है उसे कहते हैं मिश्रसम्यक्त्व। मिश्रसम्यक्त्व का परिणाम ढुलमुल मिला परिणाम है और इसी कारण जीव के मरते समय याने भव छोड़ते समय मिश्रपरिणाम नहीं रह सकता। वहां तो किसी न किसी प्रकार का एक निश्चयपरिणाम होना चाहिए। ऐसा प्राकृतिक नियम है कि मरते समय यह ढुलमुल का मिश्रणरूप सम्यक्मिथ्यात्व परिणाम रह नहीं सकता। या तो मिथ्यात्वरूप हो जायेगा या सम्यक्त्व रूप परिणाम हो जायेगा। खैर यह भी परिणाम अशुभोपयोग में शामिल है, इसे जीव का स्वरूप नहीं कहा गया है।
जीवस्वरूप में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान का अभाव- चौथा गुणस्थान है अविरतसम्यक्त्व। जहां व्रत न हो और सम्यक्त्व हो ऐसे गुणस्थान का नाम है अविरतसम्यक्त्व। यद्यपि इस गुणस्थान में जान बूझकर त्रस जीव की संकल्पकृत हिंसा नहीं होती है, फिर भी किसी अवसर पर किसी के समक्ष इसकी हिंसा के त्याग का नियम भी नहीं लिया है इसलिए यहां छहों प्रकार के कार्य अविरत बताये गये हैं। पशु तिर्यन्च भी हों और यदि वे सम्यग्दृष्टि हैं तो किसी जीव की वे हिंसा नहीं करते। जिसको अपने स्वरूप के समान समस्त जीवों का स्वरूप विज्ञात है उसके ऐसी प्रवृत्ति नहीं हो सकती कि वह अन्य जीव का संकल्प से घात करें यहां। अब श्रद्धा में शुद्धि हुई, श्रद्धागुण का शुद्ध विकास हुआ, इतने पर भी चूँकि अव्रत भाव है और यह परिणाम भी यहां नैमित्तिक है, अतएव इसे भी जीव का स्वरूप नहीं कहा गया है।
जीवस्वरूप में देशविरत गुणस्थान का अभाव- 5 वां गुणस्थान है देशविरत। जहां त्रस जीव की हिंसा का तो त्याग है, संकल्पी हिंसा का तो त्याग किया गया है और स्थावर जीव की हिंसा का त्याग नहीं हो सका ऐसा कुछ संयम और कुछ असंयम का जहां परिणाम है उसे देशविरत गुणस्थान कहते हैं। यहां पर भी तीनों सम्यक्त्व में से कोई भी सम्यक्त्व हो सकता है। अब पंचगुणस्थान से जिसमें पंचम गुणस्थान भी आ गया है आगे के सब गुणस्थानों का चारित्रमोह के निमित्त से नामकरण किया गया है। सो देशविरत गुणस्थान की संज्ञा होने में चारित्रमोह की कौनसी अवस्था निमित्त है? इस गुणस्थान के बनने में निमित्त है अप्रत्याख्यानावरण नामक कषाय का क्षयोपशम।
जीवस्वरूप में प्रमत्तविरत गुणस्थान का अभाव- छठे गुणस्थान का नाम है प्रमत्तविरत। जहां व्रत तो पूर्ण हो गया हो अर्थात् हिंसा छूट गयी हो, परिग्रह छूट गया हो, पांचों पापों का सर्वथा त्याग हो चुका हो, किंतु प्रमाद है तो मोक्षमार्ग में जैसा निष्प्रमाद परिणाम होना चाहिए अर्थात् इस शुद्ध आत्मतत्त्व के ध्यान में ही परिणाम निरत रहना चाहिये, किंतु इस गुणस्थान में ऐसा न होकर शुभोपयोग में शिक्षा देना, दीक्षा देना, प्रायश्चित्त देना, निर्देश देना, ये भी बातें हुआ करती हैं और स्वयं का चलना, चर्या करना, आहार लेना आदिक बातें हुआ करती हैं, इस कारण इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं। यह भी जीव का स्वरूप नहीं है।
अप्रमत्तविरत गुणस्थान के भेद व लक्षण- 7 वां गुणस्थान है अप्रमत्तविरत। जहां व्रत तो पूर्ण हो गया है, किंतु प्रमाद नहीं रहा अर्थात् शुद्ध ध्यान है, जहां किसी प्रकार का आर्तध्यान भी नहीं है, व्यवहार की कोई प्रवृत्ति ही नहीं रही है- ऐसे शुद्ध आत्मतत्त्व के ध्यान में निरत महाव्रती साधुवों को अप्रमत्तविरत कहते हैं। इस अप्रमत्तविरत गुणस्थान में दो प्रकार की तैयारी हैं- एक साधारण तैयारी और एक प्रगतिशील तैयारी। प्रगतिशील तैयारी में अध:करण परिणाम होता है। अर्थात् आगे श्रेणियों में बढ़ने के लिए विशिष्ट परिणाम होता है उसे कहते हैं सातिशय अप्रमत्तविरत और जो साधारणतया सप्तम गुणस्थान में है उसे कहते हैं स्वस्थान अप्रमत्तविरत।
सातिशय अप्रमत्तविरत में पहिले भी करणत्रय की संभवता- श्रेणी में चढ़ने के लिए जो अध:करण परिणाम होता है उससे पहिले इस गुणस्थान में यदि क्षायिक सम्यक्त्व नहीं है तो वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करने का उद्यम करता है तथा कोई क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने का उद्योग करता है। वहां वैसे भी अध:करण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है। इस परिणाम का नाम लेने में 8 वां, 9 वां गुणस्थान न समझना, किंतु आत्म का जो स्वरूप बताया है जिसे नक्शे द्वारा आप जानते हैं वह उस परिणाम का स्वरूप है। यह स्वरूप जिन परिणामों में पाया जाय वह अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण कहलाता है।
करणत्रय होने के अनेक अवसरों के कुछ उदाहरण- जब जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है तो मिथ्यात्व गुणस्थान में ही अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणाम होते हैं। जब यह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान के बाद क्षयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है तो उसके अध:करण और अपूर्वकरण ये दो परिणाम होते हैं। जब जीव क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता है तो उस समय में दो बार में तीन-तीन करण किए जाते हैं। अनंतानुबंधी के विसंयोजनरूप क्षय में और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के क्षय में प्रथम तो अनंतानुबंधी के क्षय के समय में भी ये तीन परिणाम होते हैं और इसके बाद विश्राम लेकर फिर तीन परिणाम होते हैं जिनसे दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का क्षय होता है। यह जीव जब देश संयम भाव को उत्पन्न करता है अर्थात् पंचम गुणस्थान का भाव उत्पन्न करता है उस समय भी इसके अध:करण और अपूर्वकरण ये दो परिणाम होते हैं। जब महाव्रत उत्पन्न करता है उस समय भी अध:करण और अपूर्वकरण ये दो परिणाम होते हैं। इस प्रकार कई अवसरों में ये करण होते हैं।
अब यह क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तविरत गुणस्थान वाला यदि उपशम श्रेणी में चढ़ने को है तो उसके अध:करण परिणाम से पहिले और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहिले तीन परिणाम होते हैं, जिससे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ, पश्चात् अध:करण उपशम श्रेणी में चढ़ने के लिए हुआ और फिर अष्टम गुणस्थान में पहुंच गया। अपूर्वकरण परिणाम होने पर यदि क्षायिक सम्यक्त्व है, पहिले से तो ये डबल काम सप्तम गुणस्थान में नहीं करने पड़ते। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी उपशम श्रेणी में चढ़ सकता है तब उसकी स्थिति यह रहती है कि सम्यक्त्व तो क्षायिक है, किंतु चारित्र उसका उपशमक चल रहा है। और वह चारित्र से तो गिर जायेगा, पर सम्यक्त्व से न गिर सकेगा। क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि सातिशय अप्रमत्तविरत उपशम श्रेणी पर चढ़ने के लिए उपशम परिणाम करता है, इसके बाद जब अपूर्वकरण परिणाम होता है तो वहां 8 वां गुणस्थान हो जाता है। यदि क्षपकश्रेणी पर चढ़ने के लिये क्षपण परिणाम करता है तो क्षपक श्रेणी के आठवें गुणस्थान में चढ़ता है। अब इन श्रेणियों में आगे बढ़ते जाइए।
जीवस्वरूप में अपूर्व गुणस्थान का अभाव- इस अपूर्वकरण गुणस्थान में कर्मों की निर्जरा नहीं होने पा रही है, किंतु 6 बातें यहां होने लगती हैं प्रतिसमय अनंतगुणे विशुद्ध परिणामों का होना, पहिले से बांधे हुए कर्मों की स्थिति जो अधिक पड़ी हुई है उसका घात होने लगना, नवीन कर्म जो बँध रहे हैं उनमें कम स्थिति का पड़ना, बद्ध कर्म में जो फल देने का अनुभाग पड़ा हुआ है वह अनुभाग भी कम हो जाना, कर्मप्रदेशों की निर्जरा होने लगना, और छठवां काम है जो अशुभ प्रकृतियां हैं वे प्रकृतियां शुभ में बदल जायें। इतना महान् कार्य इस अपूर्वकरण परिणाम में होने लगता है। अन्यथा भी जब-जब इसके अपूर्वकरण परिणाम हो तब-तब भी ये 6 कार्य होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थान में भी जब अपूर्वकरण परिणाम हुआ था तब भी ये 6 काम हुए थे, तथा और-और समयों में भी। यह अपूर्वकरण का स्वरूप है।
जीवस्वरूप में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का अभाव- यह जीव जब अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पहुंचता है तब उपशम श्रेणी में तो चारित्र मोह की 20 प्रकृतियों का क्रमबद्ध उपशम होता है और क्षपकश्रेणी में चारित्र मोहनीय की 20 तथा अन्य कर्मों की 16, इस प्रकार 36 प्रकृतियों का क्षय होता है। वे 20 प्रकृतियां चारित्रमोहनीय की हैं और ये हैं- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद। तथा अन्य कर्मों की 16 प्रकृतियां ये हैं- नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यन्चगति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आताप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म और स्थावर।
जीवस्वरूप में सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान का अभाव- इसके पश्चात् यह जीव दशमगुणस्थान में पहुंच जाता है। केवल सूक्ष्म लोभ ही शेष रहा। उस सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट करने के लिए अंत:संयम प्रकट होता है जिसका नाम सूक्ष्मसांपराय है। इस चारित्र के बल से सूक्ष्म लोभ की वर्गणावों के पहिले छोटे-छोटे अंश करके, भाग करके जिन्हें कृष्टियां बोलते हैं उन कृष्टियों के द्वारा इस संज्वलन सूक्ष्मलोभ की स्थिति का और अनुभाग का खंडन किया जाता है। आप समझो जब इसका वर्णन करणानुयोग में पढ़ें तो ऐसा लगेगा कि बहुत विकट शत्रु है यह कषाय। बहुत कठिनाई से धीरे-धीरे खंडन कर बहुत तरह से इसको नष्ट किया जाना पड़ता है। वहां सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान है। ये सब भी जीव के स्वरूप नहीं हैं।
अंतस्तत्त्व में उपशांतमोह व क्षीणमोह गुणस्थान का अभाव- अब यह जीव उपशम श्रेणी में चढ़ता हुआ उपशांत मोह में पहुंचता है और क्षपक श्रेणी में चढ़ता हुआ क्षीण मोह में पहुंचता है। कहीं 10 वें गुणस्थान से लांघकर 12 वें गुणस्थान में नहीं जाना पड़ता है। यह संख्या के हिसाब से बात कह दी जाती है कि 10 वें गुणस्थान वाला जीव 11 वें को लांघकर 12 में पहुंचता है। वहां लांघने का सवाल ही नहीं है। उपशम श्रेणी में सूक्ष्मसांपराय के बाद है उपशांत मोह और क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मसांपराय के बाद है 12 वां गुणस्थान, क्षीणमोह। उपशांत मोह में यथाख्यात चारित्र प्रकट हो जाता है, यथा के मायने है जैसा, अब मन में कह लो आत्मा का स्वरूप है तैसा, ख्यात मायने प्रकट हो जाना, इसका नाम है यथाख्यात चारित्र। जैसा आत्मा का सहजस्वरूप है उस रूप में प्रकट हो जाना सो यथाख्यात चारित्र है, निष्कषाय परिणाम है। मोहनीय कर्मों के उपशम में याने उदय व उदीरणा के अभाव में विशुद्ध परिणाम जगा है सो वह उपशांत है। जो उपशम का काल है वह काल समाप्त हो जावे पर वे सब प्रकृतियां उदय में क्रमश: आती हैं तब यह यथाख्यातचारित्र छूट जाता है, किंतु क्षीणमोह में यथाख्यातचारित्र के विरोधक कषायभाव का क्षय हो चुका है, इस कारण यथाख्यात चारित्र नहीं छूटता है। न छूटे। बहुत विशुद्ध आत्मा है, वीतराग है। वीतरागाय नम: आप कहेंगे तो इसमें 11 वां गुणस्थान भी आता है और 12 वां गुणस्थान भी आ जाता है। ये वीतराग प्रभु हैं फिर भी ऐसे स्थान हो जाना यह भी जीव का सहजस्वरूप नहीं है। जीव का सहजस्वरूप तो चैतन्यभाव है। इस कारण यह भी जीव का स्वभाव नहीं है।
चित्स्वभाव में सयोगकेवली व अयोगकेवली गुणस्थान का अभाव- यों ही 13 वां गुणस्थान जहां पर अनंत चतुष्ट उत्पन्न हुए हैं, जो प्रभु कहलाते हैं, जिनकी पूजा में भव्यजन निरत रहा करते है, ऐसे आत्मविकास का भी पद प्राप्त कर ले, फिर भी जीव का सहजस्वरूप न होने के कारण अर्थात् सहजशक्ति रूप भाव नहीं है, वह एक विकास है। साथ ही योग का अभी संबंध है इस कारण यह तेरहवां गुणस्थान भी मैं नहीं हूं। अभी तो पर्याय मैं भी नहीं हूं, पर होऊँगा, ऐसी स्वीकारता करके यह ज्ञानी कह रहा है कि यह गुणस्थान भी मैं नहीं हूं। ऐसे ही योग का अभाव हो जाने पर अर्थात् निर्वाण की पूर्ण तैयारी के सहित रूप यह अयोगकेवली गुणस्थान भी मैं नहीं हूं।
अंतस्तत्त्व में गुणस्थान के प्रतिषेध का उपसंहार- इस तरह यह परमार्थप्रतिक्रमण उद्यमी संत अपने आपके संबंध में ऐसा स्वच्छ ज्ञानप्रकाश पा रहा है जहां यह कहा जा सकता है कि यह संत यह आत्मतत्त्व गुणस्थानरूप भी नहीं है, इस प्रकार यहां तक निरपेक्ष और सापेक्ष श्रद्धा और चारित्रगुण के विकासरूप स्थान का भी इस अंतस्तत्त्व में अभाव बताया गया है।
आत्मतत्त्व में जीवस्थानों का अभाव- जीवस्थान 14 प्रकार के बताये गए हैं- बादर एकेंद्रिय पर्याप्त, बादरएकेंद्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्मएकेंद्रिय पर्याप्त, सूक्ष्मएकेंद्रिय अपर्याप्त, द्वींद्रियपर्याप्त, द्वींद्रिय अपर्याप्त, त्रींद्रियपर्याप्त, त्रींद्रिय अपर्याप्त, चतुरिंद्रियपर्याप्त, चतुरिंद्रिय अपर्याप्त, असंज्ञीपंचेंद्रियपर्याप्त, असंज्ञीपंचेंद्रिय अपर्याप्त, संज्ञीपंचेंद्रियपर्याप्त, संज्ञीपंचेंद्रिय अपर्याप्त। इनका दूसरा नाम जीव समास भी है। इस जीवस्थान में व्यन्जनपर्याय की मुख्यता है। क्या जीव का बादर होना या बादर शरीर बनना जीव का स्वभाव है अथवा एकेंद्रिय आदिक होना जीव का स्वभाव है या पर्याप्त अपर्याप्त बनना जीव का स्वभाव है? ये कोई भी जीव के स्वभाव नहीं हैं। जीव तो इन जड़ प्रपंचों से परे अंतरंग में नित्यप्रकाशमान् अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यस्वरूप है, इस मुझ चैतन्यस्वरूप के ये कोई भी जीवस्थान नहीं हैं। इस प्रकार परमार्थप्रतिक्रमण के प्रसंग में निज परमार्थस्वरूप की स्वच्छता निरखने वाले ज्ञानीपुरुष अपने आपको केवल निज स्वरूपास्तित्त्वमात्र निरख रहे हैं।
पर्याय स्थानों का अकर्तृत्व- मैं न गुणस्थानरूप हूं, न मार्गणास्थानरूप हूं और न जीवस्थानरूप हूं, यह तो हुआ अहंबुद्धि का निषेध। अब इसके बाद यह बतला रहे हैं कि मैं इन रूपों तो हूं ही नहीं, साथ ही मैं इन सबका करने वाला भी नहीं हूं। मैं चित्स्वरूप हूं, जो अगुरूलघुत्व गुण के कारण अर्थपरिणमन होता है उस अर्थपरिणमन का भी मैं कर्ता क्या, वह तो हूं ही नहीं। वस्तु का स्वरूप है, उसमें द्रव्यत्व गुण के कारण वस्तु के स्वभाव के अनुरूप विशुद्धपरिणमन चलता ही रहेगा, मैं इन पर्यायों का कर्ता नहीं हूं। उक्त पर्यायों में शुद्धपर्यायों को भी बताया गया है। उन शुद्धपर्यायों का भी मैं कर्ता नहीं हूं। करना क्या, पदार्थ हैं और उनके स्वरूप से उनका परिणमन हो रहा है। कर देना तो वान्छापूर्वक करने को कहते हैं। करने के प्रसंग में वस्तुत: कोई जीव अन्य पदार्थों का कर्ता नहीं है, किंतु वान्छा में करने का विकल्प आया, इस कारण कर्ता कहा जाता है। मैं इन किन्हीं भी परिणमनों का कर्ता नहीं हूं।
पर्यायस्थानों का अकारयितृत्व- इन परिणमनों का कर्ता तो हूं नहीं। साथ ही इन परिणमनों का कराने वाला भी नहीं हूं। कराने वाला मैं तब कहलाऊँ जब इन पदार्थों के परिणमन का फल मुझे प्राप्त हो। लोक में जितने भी पदार्थ हैं और उनका जो कुछ भी परिणमन होता है उन सब परिणमनों का फल वह परिणमयिता ही प्राप्त किया करता है, दूसरा नहीं। वास्तव में फल वह है जो वस्तु में उस परिणमन के कारण उसी समय मिले। परिणमन का परमार्थ फल यह है कि वस्तु की सत्ता बनी रहे। चैतन्यतत्त्व में इस बात को निरखो कि चेतन के परिणमन का भी परमार्थत: फल यह है कि उसका सत्त्व बना रहे। और इससे आगे चलकर देखा तो चूँकि यह आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप है, अत: आनंद से भी इसके प्रयोजन का संबंध है। इसके परिणमन का फल आनंदगुण का किसी न किसी प्रकार का विकास होना है सो वह फल भी मेरे परिणमन का मुझमें है।
जीवस्थानादिकों के अकारयितृत्व का कारण- जीव जो कुछ भी करता है उसका फल यह तुरंत पा लेता है। ऐसा नहीं है कि आज काम करें और फल वर्षों बाद मिले अथवा कुछ मिनट या सेकेंड बाद मिले। जिस समय यह परिणाम करता है उसी समय इसे फल मिल जाता है। औपचारिक फल की बात अलग है जिस मनुष्य ने तपस्या की उस तपस्या में शुभ परिणाम हुए, देवगति का बंध हुआ तो अब देवगति का फल उसे वर्षों बाद मिलेगा। जब मरेगा, देव बनेगा तब वर्षों पहिले की तपस्या का फल मिलेगा। यह औपचारिक कथन है और निमित्तनैमित्तिक भावपूर्वक जो बात बन गयी उसका कथन है। वस्तुत: तपस्या करते समय इस जीव ने अपना जो भाव बनाया उस भाव के फल में शांत होना चाहे या अशांत होना चाहे तो जो कुछ भी उस समय हो रहा है वही फल उसे मिल रहा है। कोई पुरुष शुभोपयोग का परिणाम करे तो उस शुभोपयोग के परिणाम में जो उसने चैन माना है, जो उस समय उसके आनंदगुण का परिणमन हो रहा है वही उसका फल है। इसने अपने परिणाम का फल तुरंत पा लिया।
कारकों से प्रयोजन की अभिन्नता- तभी तो देखो बताया गया है कि हिंसा का परिणाम करने वाले पुरुष ने हिंसा का परिणाम तुरंत पाया। उस समय जो विकार हुआ, जो आकुलता हुई वही उसका फल है। तो तुरंत भोग लिया एक बात, दूसरे औपचारिक और निमित्तनैमित्तिक बात भी देखो तो यहां तक हो जाता है कि हिंसा का परिणाम करने वाला पुरुष हिंसा का फल पहिले भोग लेता है और चाहे हिंसा पीछे कर सकेगा। मानो जैसे किसी पुरुष के मन में अपने माने हुए शत्रु की जान लेने का भाव है कि मैं उस शत्रु की जान खत्म कर दूं ऐसे परिणाम का बंध तो तुरंत हो गया और ऐसी स्थिति का बंध हो गया कि दो चार दिन बाद ही कहो उसका फल मिल जाय। चाहे वह मार सके 10 वर्ष बाद, पर हिंसा का परिणाम करने से फल उसी समय मिल गया। तो फल पहिले भोग लिया और घात बाद में किया जा सका। वस्तुत: तो ऐसा नहीं है कि भाव पीछे हो, फल पहिले मिले। जिस काल में भाव है उसी काल में फल मिल जाता है।
परोपकार की चेष्टा में भी सचेष्ट की फलयुक्तता- हम परोपकार का भाव करें तो इस भाव के करते ही यों जानना चाहिए कि उसी काल में हमें फल मिल जाता है। पर के उपकार के समय में जो विचार उठा, शुभभाव हुआ उस शुभभाव के फल में जो आनंद का परिणमन हुआ वह तो उसी समय पा लिया ना। शुद्ध विचार का जो आनंद है वह आनंद विषयभोगों में भी नहीं है। पंचेंद्रिय के भोग भोगने में भी वह आनंद नहीं है जो आनंद एक शुद्ध ज्ञान बनाये रहने में है। तो जब जो पदार्थ जैसा परिणमन करते हैं उस परिणमन का फल वह दूसरा पदार्थ तुरंत ही पा लेता है। जब अन्य पदार्थों के परिणमन का प्रयोजन मुझे नहीं मिलता है तो मैं कैसे कह सकूँ कि मैं परपदार्थों का कराने वाला हूं। न तो मैं परपदार्थ के परिणमन का करने वाला हूं? और न परपदार्थों के परिणमन का कराने वाला हूं।
परतत्त्वों के अनुमोदकत्व का अभाव- इसी प्रकार उन पदार्थों को, उन पर्यायों को जो भी कर रहा हो, वे पदार्थ स्वयं ही जिनका कि परिणमन हो रहा है उन परिणमनों को करते हुए उन पदार्थों का अनुमोदन करने वाला भी मैं नहीं हूं। एकत्व भावना का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह जीव अपने एकत्वस्वरूप की दृष्टि छोड़कर परपदार्थविषयक नाना कल्पनाएँ बनाकर मुफ्त ही दु:खी हो रहा है। अरे परजीवों का उपकार तो अपनी शांति के लिए किया जाता है। कहीं हठ करके अथवा किसी पर के काम के लिए कमर कसकर उपकार करने की वृत्ति वस्तुत: नहीं हो सकती है। यदि करे कोई ऐसा तो उसका अर्थ समझना चाहिए कि अपने कषाय की पुष्टि करने के लिए पर का उपकार कर रहे हैं यहां।
परोपकार के प्रयोजन- पर के उपकार करने के दो ही तो प्रयोजन हैं- अपने कषायों की पुष्टि करना अथवा अपने आपमें शांति प्राप्त करना। परोपकार में शांति का ध्येय तो इस तरह पूर्ण होता है जीव को पूर्ण वासनावों के कारण इतनी कायरता और अशक्ति है कि इन विषय कषाय भोगों की बात जल्दी घर करती है और जो हित की बात है ज्ञान वैराग्य का मर्म है वह इसके उपयोग में प्रवेश नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में रहने वाले इन पुरूषों को यह चाहिए कि परजीवों के उपकार में अपना उपयोग लगाये तो थोड़ा विषय कषायों में, भोगों के प्रसंग में उपयोग गंदा तो न रहेगा। यह उसकी स्वरक्षा है और यह शांति का पात्र बना रहता है, इसके लिए विवेकी पुरुष पर के उपकार में प्रवृत्त होता है।
अज्ञानियों के परोपकार का प्रयोजन- अज्ञानी जन कषायों के पोषण के लिए पर के उपकार में प्रवृत्त होते हैं। जिनका कषायों के पोषण का उद्देश्य है उनके पर से निरपेक्ष, स्वार्थशून्य उपकार बन नहीं सकता। जिस ध्येय से पर का उपकार करने के लिए श्रम करता है, उसमें फर्क आ गया, तो उसे यों ही बीच में छोड़ दिया जायेगा, पर-उपकार नहीं कर सकता। लोक में अपनी विशेष मान्यता प्रकट करने का परिणाम हो अथवा लोक में मेरा नाम रहे, ऐसा परिणाम हो तो उसका अपराध है। मैं उस पुरुष को किसी दूसरे के साथ ऐसा भिड़ा दूं कि उसकी बरबादी हो जाय, इस ध्येय से कोई किसी की प्रशंसा करे, मदद करे, सलाहगीर बने तो यह तो अपने कषायों के पोषने का काम है, यह परोपकार में शामिल नहीं है।
विविक्तता का पुनर्दर्शन- मैं पर का न कुछ कर सकता हूं, न करा सकता हूं और न करते हुए को अनुमोद सकता हूं। यह बात कही जा रही है अपने आपके सहजस्वरूप का अवलोकन करते हुए की स्थिति की बात यह मैं आत्मा केवल ज्ञानानंदपुंज हूं, आकाश की तरह निर्लप अमूर्त स्वच्छ निजस्वरूप मात्र सच्चिदानंदमय हूं, इसके अलावा जो कुछ भी अलाबला लगी हैं वे सब परनिमित्त के योग में अपने आपकी आसक्ति से लगी हैं, वे सब मेरे स्वरूप नहीं हैं। मैं पर को न कुछ करता हूं, न कराता हूं, और न अनुमोदता हूं।
अन्य के समर्थन के ब्याज से अपना समर्थन- किसी भी समय जब मैं किसी अन्य जीव को शाबासी दे रहा हूं तो उस समय भी मैं उसे शाबासी नहीं दे रहा हूं, किंतु जो काम मेरे सत्त्व में है या जो मेरी इच्छा है उसको पुष्ट करने वाले साधन में जो निमित्त होता है उसे शाबासी देने के बहाने अपने आपके भाव को ही शाबासी दे रहा हूं। जैसे राजा या सेनापति की जय बोलते हुए में वे सिपाही अपने आपकी ही जय की भावना पुष्ट कर रहे हैं, अथवा पूजा करते हुए भगवान की जय बोलते हुए भक्त जन अपने ही जय की भावना और यत्न कर रहे हैं, ऐसे ही प्रत्येक कार्य में जहां कि हम दूसरों की अनुमोदना करते हैं, समर्थन करते हैं, शाबासी देते हैं, उन कार्यों में, उन अवसरों में, हम अपने आपकी अभिलाषा का समर्थन किया करते हैं। किसी दूसरे जीव को मैं अनुमोद नहीं सकता हूं, यों समस्त परपदार्थों से मैं न्यारा हूं, उनका कर्ता हूं, उनका अकारक हूं और उनका अनुमोदक हूं, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व इन समस्त परद्रव्यों से अलाबला से परे हूं, ऐसा अपने आपको एक स्वरूप निरखने वाले ज्ञानी के परमार्थप्रतिक्रमण हुआ करता है।
संकटहारी एकत्वदर्शन- भैया ! शांति का एक ही प्रमुख उपाय है जब कभी भी कोई संकट आये, विपदा आये फँसाव हो, उल्झन हो तो अपने एकत्व स्वरूप पर दृष्टि डालो, सारी उलझनें समाप्त हो जायेगी। उलझनें तो उद्दंडता है, कोई अनाधिकार काम करे दूसरों के बीच में बढ़-बढ़ करे तीन में न तेरह में मिरदंग बजाये डेरा में, ऐसा अपना हाल चाल बनाए तो उसको दु:खी होना ही पड़ेगा। देखो तो मोह की लीला- यह व्यामोही व्यर्थ ही बीच में आ धमका। मान न मान मैं तेरा महिमान। कोई परपदार्थ उसे स्वीकारते नहीं हैं, वे अपने स्वरूप में ही बने हुए हैं, पर मैं जबरदस्ती उन पदार्थों के निकट पहुंचकर कहता हूं कि तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा हूं। अरे दूसरे पदार्थ तो ऐसा अंगीकार करते ही नहीं हैं किंतु हठ बना रहा हूं कि तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा हूं।
एकत्वस्वरूप की संभाल- भैया ! बड़े प्रेम से, धर्मानुराग से यह समझावो कि देखो न कुछ तुम हमारे हो और न हम कुछ तुम्हारे हैं। अगर यह रहस्य की बात प्रेममय वातावरण की दृष्टि से परोपकारी बनकर कहा जाय तो वे लोग मानेंगे नहीं तो लड़ाई होगी। कोई ऐसा कह तो दे घर में, न तुम हमारे हो और न हम तुम्हारे हैं, तो कलह मच जायेगा। अरे इतनी ऊँची बात जो उसका भी उद्धार कर दे अपना भी उद्धार कर दे ऐसा गूढ़ मंत्र देने का भी अधिकारी वह है जो स्वपर-हित की भावना से ओतप्रोत हो अन्यथा विसम्वाद बढ़ जायेगा, अनबन हो जायेगी। सबसे बड़े विषाद की बात तो यह है कि हम अपने शुद्ध एकत्वस्वरूप की संभाल नहीं करते हैं, बाह्यपदार्थों में आकर्षित होते चले जा रहे हैं।
उपयोग से संकट का आय और व्यय- भैया ! क्या है संकट, कितने हैं संकट? जोड़ लो। अमुक आदमी मुझसे इतना, वैभव छीनना चाहते हैं, धन मकान का हिस्सा बांट करना चाहते हैं, अधिक लेना चाहते हैं अथवा मुझे मुनाफा नहीं मिल रहा है, टोटा हो गया है, इतना नुकसान हो गया है, लोग रूठते चले जा रहे हैं। बनाते जावो- कितने संकट हैं, पहिले तो सारे संकटों को जोड़ जोड़कर एक जगह धर लो और फिर धीरे से अपने एकत्वस्वरूप की दृष्टिरूप आग लगा दो, सारे संकट, वह सारा ईंधन एक साथ सब स्वाहा हो जायेगा। कहां रहे संकट? जब शरीर ही मैं नहीं हूं, ये रागद्वेष विकार भाव भी मैं नहीं हूं, ये पोजीशन ये भीतर की कल्पनाएँ ये सब भी मैं नहीं हूं तो मेरा बिगाड़ कहां है, क्या है मेरा बिगाड़? ज्ञानीपुरुष में ही ऐसा साहस होता है कि कदाचित् कोई दुष्ट बैरभाववश नाना प्रकार से उसके प्राण हरे तो भी यह स्पष्ट झलकता है कि मेरा तो कुछ भी बिगाड़ नहीं है। मैं तो ज्ञानानंदमात्र हूं। लो यह मैं पूरा का पूरा यहां से चला, उसे कोई प्रकार का संकट नहीं होता है। संकट तो मोह ममता में बसे हुए हैं। हम संकटों से दूर होने के लिए विरूद्ध प्रयत्न किया करते हैं। वह क्या मोह ममता की रचना और बनाया करते हैं। दु:ख साधन बनाने से कहीं दु:ख टाले भी जा सकेंगे क्या? सोच लो।
नि:संकट एकत्वदर्शन- उन सब संकटों से तारने वाला यह एक परम चिंतन है कि मैं न किसी अन्य पदार्थरूप हूं, न किसी पदार्थ का कर्ता हूं, न कराने वाला हूं और न अनुमोदने वाला हूं। मैं तो सबसे निराला सच्चिदानंदस्वरूप मात्र अपने स्वरूप रूप हूं, ऐसी जहां एकत्वस्वरूप की भावना जगती है वहां कोई संकट नहीं ठहर सकता। ऐसी संकटहारी भावना के बल से यह ज्ञानी संत अपने उपयोग को स्वच्छ बना रहा है, परमार्थप्रतिक्रमण कर रहा है। परमार्थस्वरूप के प्रति जो उपयोग लेप लग रहा है, उन लगे हुए दोषों को दूर कर देना, हटा देना, क्रांत कर देना, अतिक्रांत कर देना यह है उसका परमार्थप्रतिक्रमण। परमार्थप्रतिक्रमण के बिना इस जीव की धर्म में प्रगति नहीं हो सकती है। इस कारण जो दोष अपने लगे हैं पूर्वकाल में उन दोषों से भी विविक्त केवल शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप मात्र अपने आपको निरखना चाहिए।