वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 79
From जैनकोष
णाहं वालो बुड्ढो ण चेव तरूणो ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।79।।
आत्मा में देह का व देह की अवस्थावों का अभाव- मैं बालक नहीं हूं, तरूण नहीं हूं, वृद्ध नहीं हूं और न बालक, वृद्ध, तरूण होने का कारण हूं, न उनका कर्ता हूं न कराने वाला हूं और उनके करने वालों का अनुमोदन करने वाला भी नहीं हूं। मनुष्यों की दृष्टि, सर्वाधिक प्राय: अपने शरीर पर रहती है और विशेषतया अपने को ऐसा मोह में अनुभव किया करते हैं कि मैं बालक हूं, वृद्ध हूं और तरूण हूं। इसी कारण शरीर से संबंधित अन्य मिथ्या आशयों की बातें भी करते हैं, जैसे कि कोई प्रतीति रखता है कि मैं दुबला हूं, मोटा हूं, गोरा हूं, सांवला हूं, ठिगना हूं, लंबा हूं आदिक प्रतीति रक्खा करते हैं, किंतु शरीर और यह आत्मा अत्यंत भिन्न पदार्थ है और इनमें विलक्षणता के कारण बहुत बड़ा अंतर है।
आत्मा और देह में वैलक्षण्य- यह आत्मा तो पवित्र ज्ञानानंदस्वरूप है, इसके इस सारस्वरूप का क्या वर्णन किया जाय? सर्वद्रव्यों में सार आत्मा को बताया है। आकाश भी अमूर्त है, पर आकाश न कुछ जानता है, न कुछ आनंद का अनुभव करता है, वह अचेतन है। यह आत्मा आकाश की तरह अमूर्त निर्लेप होकर भी जानने और आनंदमय होने का स्वभाव रखता है। संभावना करो मानों, इस लोक में सर्व पदार्थ होते, एक आत्मद्रव्य भर न होता तो सबका होना न होता क्या? सर्वद्रव्यों में सारभूत श्रेष्ठ पदार्थ आत्मा है। यह ज्ञानानंदस्वभाव के कारण पवित्र है, जबकि यह शरीर नाना अशुचि पदार्थों से भरा हुआ है, शीर्ण होता है, खंड–खंड हो जाता है। कितनी ही बातें हैं जो सब जानते हैं। इस आत्मा में और शरीर में महान् अंतर है। तब फिर अपने को शरीर रूप अनुभवना शरीर की दशावोंरूप अनुभवना यह विकट व्यामोह है। परमार्थत: मैं बालक नहीं हूं, जवान नहीं हूं और वृद्ध नहीं हूं।
देहों के रूपक- जीवन के आदि के कुछ समय को मान लो, जैसे जीवन के शुरू का 5 वां हिस्सा तक बालकपन जैसा रहता है, वह एक शरीर की चढ़ती का दिन है। बालक प्राय: लोगों को सुंदर जंचा करते हैं। मनुष्य का बालक हो वही नहीं, किंतु पशु पक्षी और पेड़ों का बालक भी सुंदर लगता है। पेड़ों में अभी नीम के पेड़ को छोटी अवस्था में देखो कितने सुंदर आकार का रहता है? ऐसा लगता है जैसे मानों सजीधजी छतरी रखी हो और जब बड़ा हो जाता है, बूढ़ा हो जाता है तो उसकी शकल देखो तो उतनी अच्छी नहीं रहती है। चढ़ती हुई स्थिति बाल्यपन कहलाती है और चढ़ी हुई स्थिति जवानी कहलाती है और ढली हुई स्थिति बुढ़ापा कहलाती है। आत्मा में यह चढ़ाव उतार नहीं है। ये आहार वर्गणा के स्कंध शरीररूप परिणत हुए हैं। जैसे आयु गुजरती है वैसे ही यह शीर्ण हो जाता है। इसी कारण इसका नाम शरीर है। जो शीर्ण होने के लिए है उसको शरीर कहते हैं। मैं इन देहोंरूप नहीं हूं।
जीव में वय:कृत विकारों का अभाव- शरीर की ये अवस्थायें तीन प्रकार की हैं। ये मनुष्यों और तिर्यन्चों के हुआ करती हैं। देव और नारकियों के बुढ़ापा क्या? यद्यपि वैसे अंतर्मुहूर्त के अंदर बालपन देवों के भी रहता है। समझो कुछ मिनटों का समय हो जाता है- ज्यादा से ज्यादा 48 मिनट मुहूर्त के माने गए हैं। बाद में सारी जिंदगी भर वे जवान रहते हैं। नारकियों की तो बात ही क्या करें- उनकी काहे की जवानी, काहे का बुढ़ापा और काहे का बालपन? उनके शरीर के खंड-खंड कर दिये जाते हैं, फिर वे ही मिल जाते हैं। यह अवस्थाभूत वय:कृतविकार मनुष्य और तिर्यंच की पर्याय में उनके शरीर में होता है। उस अवस्थाकृत विकार में उत्पन्न हुई जो बालपन, जवानी और वृद्धावस्था है, और भी अनेक-अनेक प्रकार के भेद लगा लीजिए- मोटे होना, दुबलापना, कोई रंगपना आदि हैं, इस मुझ चित्स्वभाव में नहीं है।
देहविकार के संबंध में व्यवहार और निश्चयनय का आशय- यद्यपि व्यवहारदृष्टि से यों ही निरखते हैं तो ये इस जीव के ही तो है सब; कहीं काठ मिट्टी के तो नहीं हैं या मुर्दा हो जाने पर फिर इस शरीर की यह अवस्था तो नहीं होती है। वह व्यवहारनय का अभिप्राय है। जो किसी संबंध कारण किसी का किसी में उपचार करना, किंतु शुद्ध निश्चयनय से जब अपने आपको देखते हैं कि वास्तव में मैं क्या हूं? पर का निमित्त पाए बिना, पर का आधार लिए बिना, पर के संबंध बिना अपने आपका मुझमें जो कुछ है उसे देखना, इसे कहते हैं वास्तविक स्वरूप और शुद्ध निश्चयनय का आशय। उस शुद्ध निश्चयनय के अभिप्राय से मेरे में ये कोई अवस्थायें नहीं हैं।
जीवस्वरूप में देहकारणता का अभाव- भैया ! मेरे में ये अवस्थाएँ नहीं हैं और मैं इनका कारण भी नहीं हूं। शुद्ध निश्चयनय से देखा जा रहा है। वैसे व्यवहार से यों कह सकते हैं कि जीव का संबंध न हो तो बालकपन, जवानी, बुढ़ापा बने कैसे? इसलिए व्यवहारनय की दृष्टि में भले ही यह कारण माना जाए जीव, किंतु शुद्ध निश्चयनय के अभिप्राय से जिसका जो परिणमन है, उसका वही पदार्थ कारण होता है, अन्य पदार्थ करता नहीं है। यह शरीर में बालपन, जवानी और बुढ़ापे का जो उदय चलता है, यह शरीर में ही रहने वाले स्कंधों के ही कारण चलता है। जैसे यह शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है- ऐसे ही यह किवाड़ आदिक भी देखो 100 वर्ष में ही घुन जाते हैं, बरबाद हो जाते हैं। यहां कुछ इतनी विशेषता जरूर है कि शरीर के पुद्गल के कारण तो म्याद है ही, पर जीव का भी संबंध है और जीव के साथ आयुकर्म लगा है। यह जीव इस शरीर में कितने समय तक रहेगा, यह आयुकर्म के निमित्त से निर्णय किया गया है। तब वह उस आयु के मुताबिक शरीर की सीमा बन गयी कि अब इतने समय तक इसकी चढ़ती हुई स्थिति रहेगी, इसके बाद इसकी ढलती हुई स्थिति रहेगी। कुछ भी हो, देह व देह की अवस्थारूप मैं नहीं हूं।
विवेकी जीव में शोक का अनवकाश- इस शरीर की स्थिति देखकर किसी प्रकार की चिंता और शोक करना मूढ़ता है। मैं शरीररूप नहीं हूं, तब यह शरीर रहे अथवा चला जाय, कैसी भी स्थिति प्राप्त हो, इस शरीर की स्थिति से मेरे आत्मा में हानि नहीं होती है। आत्मा है ज्ञान और आनंदस्वरूप। शांति, संतोष, आनंद मेरे ज्ञानबल पर निर्भर हैं, शरीर की स्थिति पर निर्भर नहीं है। हां, थोड़ा निमित्त आलंबन है, शरीर दुर्बल हो या वृद्ध हो तो यह आत्मा उस समय अज्ञानवश अपनी ओर से और कल्पनाएँ बनाकर अपने दु:ख बढ़ा लेता है। यदि शरीर की इस स्थिति के कारण क्लेश हुआ करता होता तो सभी बुढ़ों के एकसा क्लेश होना चाहिए। कोई ज्ञानी संत है, उसका शरीर अतिवृद्ध भी हो जाए तो भी ज्ञानबल बना है, इस कारण वह अपने मन में प्रसन्न रहा करता है।
जीव में शरीर के कर्तव्य का अभाव- यह शरीर मैं नहीं हूं और इस शरीर का कारण भी मैं नहीं हूं। यहां तक दो बातें कही गयी हैं। तीसरी बात यह समझो कि मैं इन शरीरों का कर्ता भी नहीं हूं। क्या मैंने अपना शरीर बनाया, कब बनाया, कहां बनाया? जहां ईश्वर को सृष्टि का कर्ता माना, जब वहां वह शंका की जा सकती है कि ईश्वर ने इस शरीर को कैसे बनाया, कब बनाया, कहां बनाया, किस ढंग से बनाया, उस ईश्वर के हाथ पैर कैसे चलते हैं? तब वहां जैसे लोग उत्तर दिया करते हैं कि ईश्वर की मर्जी जब होती है, तब यह शरीर बन जाया करता है। उसका अर्थ यही तो हुआ कि यह आत्मा ईश्वरस्वभावी है, इस आत्मा में जब मर्जी होती है याने विभाव होता है, विकार होता है तो उसका निमित्त पाकर ये सब रचनाएं स्वयमेव हो जाया करती हैं, हो गयीं, हो जावो, पर इसमें मेरा कर्तृव्य क्या है, मैंने क्या किया इन परपदार्थों में? मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूं, केवल अपने गुणों का परिणमन ही कर सकता हूं।
जीव में शरीर के कारयितृत्व का अभाव- मैं इस शरीर का करने वाला नहीं हूं, इसी प्रकार इस शरीर का कराने वाला भी नहीं हूं अर्थात् शरीर को कोई बनाता हो और मैं उसे प्रेरणा करता होऊँ कि तुम बनावो तो ऐसा भी कुछ नहीं है। जैसे कोई किसी से पैंसिल बनवावे और वह दूसरा किसी से बातें कर रहा हो तो कहते हैं कि अजी, इस बात को छोड़ो, हमारी पैंसिल बना दो। ऐसी प्रेरणा भी करने वाले हम नहीं हैं कि भाई हमारा शरीर जल्दी बनाओ, हम अभी विग्रहगति में पड़े हुए हैं। कोई मां बाप से भी ऐसा नहीं कहता कि हमें जल्दी ओकोपाई करो, हम अभी विग्रहगति में फिर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि कराने वाला यह कहलाता है, जिसे कार्य का प्रयोजन मिले। यह शरीर मिला, किंतु इस शरीर का प्रयोजन मुझे नहीं मिल रहा है- किसी भी रूप में हो, पर शरीर के परिणमन का फल इस शरीर को ही मिल रहा है। इस शरीर में रहने वाले जो मूलस्कंध हैं, इनका सत्त्व बना हुआ है। शरीर के परिणमन का प्रयोजन भी इस शरीर को मिलता है; इस कारण भी मैं शरीर कराने वाला भी नहीं हूं।
आत्मा में शरीर के व शरीरकर्तावों के अनुमोदकत्व का अभाव- अच्छा, शरीर का कराने वाला भी न सही, किंतु शरीर का व शरीर के कर्तावों का अनुमोदक तो मैं हूं ना? नहीं-नहीं मैं शरीर का अनुमोदक भी नहीं हूं और शरीर का कराने वाला मान लो कोई हो तो, मैं उसका अनुमोदक भी नहीं हूं। हो ही नहीं सकता अनुमोदक। कोई शंका कर सकता है कि शरीर की अनुमोदना करने वाले तो सभी मनुष्य, सभी पशु दिख रहे हैं। शरीर तगड़ा हो, मोटा हो और देख देखकर खुश हो रहे हैं, यह अनुमोदना नहीं है तो और क्या है? हां खूब मैं पुष्ट हो गया हूं, शाबासी भी देते जाते हैं तो यह अनुमोदना ही तो है। अरे ! अनुमोदना तो है, पर वास्तव में वह शरीर की अनुमोदना नहीं है। शरीर भिन्न द्रव्य हैं, यह मैं आत्मा भिन्न पदार्थ हूं, जो कुछ भी भाव मैं कर सकता हूं तो उसका आधार लक्ष्य मैं ही हो सकता हूं, उसका प्रयोग दूसरे पर नहीं हो सकता। वस्तु के स्वरूप में ही ऐसी अनियमितता नहीं है। मैं उस समय भी जबकि शरीर को देखकर खुश हो रहा हूं, उस समय भी शरीर को नहीं अनुमोद रहा हूं, किंतु शरीर मैं हूं, शरीर में मेरा बड़प्पन है, शरीर से लाभ है आदिक जो मुझमें परिणाम बनते हैं, उन परिणामों से लगाव रक्खा है, उस निजपरिणाम का अनुमोदन कर रहा हूं, मैं अन्य पदार्थों का अनुमोदन कर ही नहीं सकता हूं- ऐसा मैं इस शरीर से अत्यंत निराला आत्मतत्त्व हूं।
मोह में व्यर्थ की परेशानियाँ- भैया इस मोही जीव को बड़ी परेशानी हैं इस जिंदगी में भी और मरते समय भी, नाना प्रकार की परेशानियां हैं; किंतु वे सब परेशानियां एक मोहभाव; ममत्वभाव, अहंकारभाव के करने पर ही आश्रित हैं। मोहममता न हो तो एक भी परेशानी नहीं है और देखो दूसरों के लुट पिटने पर ये मूढ़ हँस भी लेते हैं, मजाक भी कर लेते हैं, परव्यामूढ़ों को यों दिखता है कि देखो यह बिना मतलब मोह में पड़ा हुआ है उन्हें दूसरों की बुराई स्पष्ट झलक में आती है, पर खुद क्या कर रहे हैं, खुद की क्या परिणति बन रही है उस पर स्पष्ट झलक नहीं आ पाती है। साधारणजन भी दूसरों के मोह पर हँसा करते हैं। देखो तो बिना प्रयोजन कितना तीव्र मोह है, कैसा दिमाग है, न करे यह ऐसा तो इसका क्या बिगाड़ है? यह तो खुश है, प्रसन्न, बड़ा है, सारी बातें ठीक हैं पर क्यों किया जा रहा है यह मोह? ऐसा दूसरे को दिखता है, किंतु अपना नहीं दिखता है।
खुद की बेखबरी का एक दृष्टांत- जैसे किसी जंगल में आग लग रही है। उस जंगल में एक मनुष्य था वह पेड़ पर चढ़ गया बहुत ऊँचे। उस जंगल में चारों ओर से आग लग रही थी। पेड़ के ऊपर खड़ा होकर देख रहा है, खुश हो रहा है अथवा जान रहा है कि देखो वह पशु मरा, देखो वह जानवर मरा, यह मरने को खड़ा है, अब इसके आग लगने वाली है चारों ओर निरख रहा था इस तरह, पर स्वयं की यह खबर नहीं है कि सब ओर की बढ़ती हुई यह आग इस पेड़ में भी लगेगी और मुझे भी भस्म करेगी? मेरा कहां अस्तित्त्व रहेगा? अपनी सुध उसे नहीं है, ऐसे ही मोही मानवों को पराई बात तो दिखती है पर अपनी विडंबना नहीं दिखती है। कहते हैं कि दूसरे के आँख की फुल्ली भी दिखती है पर अपनी आँख का टेंट भी नहीं दिखता। यों ही दूसरे की विडंबनाएँ तो इसे दिखती हैं पर अपनी बेवकूफी, अपनी मूढ़ता, अपना मोह इसे नहीं दिखता है।
मोह की कल्पित चतुराई का व्यामोह और वास्तविक सावधानी- भैया ! जिसके मोह का जो विषय लगा है उसे उस विषय में ऐसी चतुराई जंचती है कि इसे तो यथार्थ ठीक करना ही चाहिए ऐसा नीति में शामिल होना सा दिखता है औरों का तो दिखता है कि इसका मोह बिना काम का है। अरे जैसे अन्य की ये मोह की बातें बिना काम की हैं ऐसे ही अपने आपकी वे सारी बातें जो निज ज्ञायकस्वरूप का आलंबन छोड़कर ज्ञायकस्वरूप के अतिरिक्त अन्य तत्त्वों में, परपदार्थों में, परभावों में जो उपयोग फंस रहा हो वह सब अपनी विडंबना हैं, और इस जीव को क्लेशगर्त में पटकने वाली है। ये सारी आफतें जीवन में इस शरीर के मोह से लग गयी हैं और मरते समय भी जो संक्लेश होते हैं, दु:खी होकर मरण होता है उसका भी कारण शरीर का मोह है अथवा जिन्हें अपना मान रक्खा था, ऐसे परिवार धन संपदा इन सबका मोह संक्लेश का कारण होता है। सावधानी इसे ही कहते हैं कि मरने से पहिले ही अपने को इन सब समागमों से भिन्न जानें, अपना न जानें, यह बुद्धिमानी बना ले अन्यथा मरण तो सब पर आयेगा। जीवन में यह बुद्धिमानी न बन सकी कि समागम में रहते हुए भी ये समस्त पदार्थ मुझसे अत्यंत भिन्न हैं, अत्यंत पृथक् हैं ऐसी दृष्टि न बन सकी तो दु:खी होने कोई दूसरा न आ जायेगा। खुद को ही दु:खी होना पड़ेगा।
परमार्थजागरण- यदि खुद को ये मरण क्लेश अभीष्ट न हो, जीवन की विडंबनाएँ अभीष्ट न हो तो अभी से चेतियेगा, समस्त पदार्थों को भिन्न और असार श्रद्धा में बना लीजियेगा तो मरणकाल में भी वह क्लेश न होगा और जीवन भी शांत रहेगा। मैं शरीररूप नहीं हूं, शरीर का कारण नहीं हूं, शरीर का कर्ता नहीं हूं, शरीर का कराने वाला नहीं हूं, और शरीर के करने वाले का अनुमोदन करने वाला भी मैं नहीं हूं- ऐसा मैं सर्व से अत्यंत विविक्त चित्स्वभाव मात्र हूं, ऐसी दृष्टि हो जाया करती है जिस पुरुष के वह पुरुष पूर्वकृत सभी अपराधों से दूर हो जाता है और परमार्थप्रतिक्रमण उसके हो जाया करता है। उसके इस परमार्थप्रतिक्रमण के प्रताप से यह आत्मा अपने को शुद्ध स्वच्छ अनुभव करता है, यही निर्वाण का मार्ग है।