वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 61
From जैनकोष
पासुगमग्गेण दिवा अवलोकंतो जुगप्पमाणं हि।
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स।।61।।
ईर्यासमिति में चार सावधानियां—प्रासुप मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुए गमन करने को ईर्यासमिति कहते हैं। ईर्या का अर्थ है चलना और देखभालकर चलने का नाम है ईर्यासमिति। ईर्यासमिति में चार बातेंहुआ करती हैं, एक तो अच्छे काम के लिए चलना, दूसरा अच्छा भाव रखते हुए चलना, तीसरा दिन के प्रकाश में चलना और चौथा चार हाथ जमीन देखकर चलना। यद्यपि प्रसिद्धि इतने भर की है कि चार हाथ जमीन देखकर चलना सो ईर्यासमिति हैं, किन्तु ईर्यासमिति में चारों ही बातें हुआ करती हैं। यदि इन चारों में से एक भी कम हो तो वह ईर्यासमिति का रूप नहीं है।
चार में से किसी की असावधानी से ईर्यासमिति का अभाव—मानो कोई बुरे काम के लिए जा रहा हो और बड़ा देखभाल कर जा रहा हो—कोई जीव न मर जाय तो ईर्यासमिति उसे कहेंगे क्या? नहीं कहेंगे, क्योंकि वहाँ तो धर्म का पंथ ही नहीं है तो ईर्यासमिति कहां से हो? कोई अच्छे उद्देश्य से जा रहा हो, मगर गुस्सा करता हुआ, गाली देता हुआ जा रहा हो तो क्या उसे ईर्यासमिति कहेंगे? नहीं कहेंगे, क्योंकि वह तो बुरे भाव करके जा रहा है। कोई अच्छे उद्देश्य से जाय, अच्छे परिणाम रखता हुआ जाय और रात्रि में जाय तो भी ईर्यासमिति नहीं है। कोई दिन में भी जाय, अच्छे उद्देश्य से भी जाय, अच्छे भावों से भी जाय, पर ऊचा मुह उठाकर जाय तो वह भी ईर्यासमिति नहीं है।
व्यवहारसमिति व निश्चयसमिति का एकाधिकरण—जो परम संयमी गुरुयात्रा, देवयात्रा आदि के शुभ प्रयोजन का उद्देश्य रखकर चार हाथ आगे मार्ग को शोधता हुआ, देखता हुआ स्थावर और त्रस जीवों की रक्षा के लिए दिन में ही जाता है उस परमसंयमी पुरुष के ईर्यासमिति कही जाती है, यह है व्यवहारसमिति का स्वरूप। निश्चय समिति का स्वरूप यह है कि अभेद अनुपचरित रत्नत्रय के पथ से परमधर्मस्वरूप निज आत्मा का परिणाम करना सो निश्चयसमिति है। समिति शब्द में 2 शब्द हैं—सम् और इति। सम् का अर्थ है भली प्रकार, इति का अर्थ है प्राप्त करना। अपने आपके शाश्वत् शुद्ध चित्स्वभाव को प्राप्त करना इसका नाम है समिति। इस निज स्वभाव की प्राप्ति निज आत्मतत्त्व के श्रद्धान् ज्ञान और आचरण के मार्ग से होती है। भैया ! बाहरी पदार्थों को हम जानना चाहें तो इन इन्द्रियों से जान सकते हैं। यह स्निग्ध है, इसका अमुक रस है, इसके लिए बहिर्मुख होकर भी काम चल सकता है, चलता ही है, किन्तु अपने आपके स्वरूप का परिचय इन्द्रियों को संयत करके केवल ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। इसके परिचय का उपाय कोई दूसरा नहीं है।
वस्तु का स्वरूप—प्रत्येक पदार्थ एक है। दो मिलकर एक कोई नहीं होता। यह विज्ञान सिद्ध भी बात है। एक वही होगा जो अखण्ड होगा, अथवा जिसका परिणमन जितने पूरे में हो और उसे बाहर कहीं न हो उसको एक कहा करते हैं। जैसे यह चौकी है, यह एक पदार्थ नहीं है। इसके एक खूंट में यदि आग लग जाय तो वह परिणमन सारी चौकी में कहां हो रहा है? एक परिणमन जितने में हो व उसही एक समय में होना पड़ उतने को एक चीज कहते हैं। एक परमाणु है वह पूरी एक वस्तु है। रूप रस आदिक जो भी परिणमन होगा वह पूरे परमाणु में होगा, हम आप सब एक-एक आत्मा पूर्ण अखण्ड एक-एक हैं। इन आत्मावों में प्रत्येक आत्मा में जो भी परिणमन होता है—सुख हो, दु:ख हो, विचार हो, ज्ञान हो वह इस समूचे आत्मा में होता है। धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाश एक है, काल असंख्यात एक-एक है। हो, वह इस समूचे आत्मा में होता है।
पदार्थ का पूर्ण स्वयं में ही स्वयं का परिणमन—हाथ में फोड़ा हो गया तो उस फोड़े की वेदना यद्यपि ऐसी लगती है कि हाथ में बड़ी वेदना है, किन्तु वह वेदना पूरे आत्मा में है, हाथ में नहीं, या हाथ में जितने आत्मप्रदेश हैं उतने में ही हो, ऐसा नहीं है फिर ख्याल इस फोड़े की ओर क्यों हो जाता है? इस फोड़े के निमित्त से वेदना उत्पन्न हुई है। इस कारण उस वेदना के समय में निमित्तभूत पदार्थ पर दृष्टि जाती है। वस्तुत: वह सारा दु:ख पूरे आत्मा में होता है, हाथ के प्रदेश में ही दु:ख होता है ऐसा नहीं है।
प्रत्येक द्रव्य की पूर्णता व अभेदरूपता—इस तरह एक-एक जीव एक-एक पदार्थ हुआ, एक-एक परमाणु एक-एक पदार्थ हुआ। धर्मद्रव्य एक स्वतंत्र पदार्थ है जो सारे लोक में व्यापक है। जीव पुद्गल का गमन हो तो उसके गमन में सहकारी कारण है। यद्यपि धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के सम्बन्ध में कोई कुछ विशेष कहा नहीं जा सकता क्योंकि बहुत सूक्ष्म तत्त्व है यह। लेकिन कुछ युक्ति ऐसी आती भी है—मछली जल में चलती है तो मछली के चलने में जल न हो तो मछली नहीं चल सकती तो वह जल स्थूलदृष्टि से सहकारी कारण है, किन्तु साथ ही कोई सूक्ष्म भी ऐसा कारण है जिसकी वजह से जीव और पुद्गल गमन कर सकते हैं। वह है एक धर्मद्रव्य। अधर्मद्रव्य वह है जो जीव पुद्गल के चलते हुए के बाद ठहरने में सहायक हो। आकाश है और एक काल है असंख्यात। ये सभी द्रव्य एक-एक पूर्ण अपने में अभेद रूप से हैं।
निश्चय समिति का उद्यमन—आत्मा के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए आचार्य महाराज इसमें अनन्तगुण बताते हैं, कुछ के नाम भी ले दिए हैं। इसमें ज्ञान है, दर्शन है, श्रद्धा है, चारित्र है, लेकिन इस आत्मा में ऐसे पृथक्-पृथक् कोई गुण नहीं हैं। वह तो एकस्वभावी है। मैं एकस्वभावी हू। हम किस तरह बता सकें, उसके बताने का उपाय भेदव्यवहार है। तो आत्मा एक है और वह अभेद स्वभावी है, जिसको चित्स्वभाव शब्द से कह सकते हैं। ऐसे अभेद स्वभावी आत्मा के श्रद्धान् से ज्ञान और आचरण से इसको प्राप्त हो जाय, इस ही का नाम निश्चयसमिति है। जब संकल्प-विकल्प इस जीव में नहीं हैं तो बाह्यपदार्थों का यह आदर न करे, इष्ट-अनिष्ट बुद्धि तक न रहे ऐसी स्थिति में आत्मा का जो सहजविश्राम होता है उस परिस्थिति में स्वत: ही यह उपयोग आत्मतत्त्व को प्राप्त होता है—वह है वास्तविक समिति। यह समितियों का लक्षण पाचों समितियों में घटेगा।
निश्चय ईर्यासमिति—ईर्यासमिति में यह बात लेना कि बाहर भटका हुआ यह उपयोग बाहर से हटकर अपने आपके स्वरूप में चले, उसे ईर्यासमिति कहते हैं। चलने और जानने दोनों का एक अर्थ होता है, एक मर्म होता है। जानने में भी ज्ञान चला। मैंने ज्ञान किया, मेरे ज्ञान आया, उसमें भी गमनागमन का प्रयोग होता है। संस्कृत में जाना और जानना दोनों की प्राय: एक धातु होती है याने एक ही वर्ब जाने का अर्थ भी बताया है और जानन का अर्थ भी बताता है। संस्कृत में प्राय: ऐसी अनेक धातुवें हैं और उन धातुवों से संज्ञा भूत भेद से भी जानें कि जैसे कहते हैं अवगम। उसने जब अवगम किया, उस अवगम का अर्थ है जानना, और अवगम में धातु है गम, उसका अर्थ है गमन करना। गमन करना और अवगम करना दोनों में एक धातु है, उसका जाना भी अर्थ है और जानना भी अर्थ है। तो यह उपयोग अपने आपके स्वरूप में जाय, इसका नाम है ईर्यासमिति।
निश्चयईर्यासमिति पूर्वक व्यवहारईर्यासमिति का लाभ—साधु जनों के निश्चयईर्यासमिति भी है और व्यवहारईर्यासमिति भी है। निश्चयईर्यासमिति का भाव हुए बिना व्यवहारईर्यासमिति वास्तव में साधु का चारित्र नहीं है। है भी चारित्र, ठीक है, पुण्यबंध कराने वाला है पर संवर और निर्जरा का कारण नहीं है। कोईसी भी क्रिया हो, कोईसा भी परिणाम हो, उस परिणमन में निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार की पद्धति हुआ करती है।
परिणतिसूचक निश्चय व व्यवहारपद्धति—जैसे हम जानते हैं कि हमने चौकी जानी, तो मेरा ज्ञान मेरे आत्मप्रदेश को छोड़कर क्या चौकी में चला जाता है? ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। ज्ञान एक गुण है और वह ज्ञानशक्ति आत्मा के प्रदेश में है। जहां तक आत्मतेजपुंज है वहाँ तक ही ज्ञानशक्ति है और सभी शक्तियां हैं। तो जहां यह ज्ञानशक्ति है इस ज्ञानशक्ति का परिणमन उस ही स्थान में होगा। उसको छोड़कर बाहर ज्ञानशक्ति परिणमेगी नहीं? तो चौकी का ज्ञान करने में भी हमने क्या किया? जो कुछ किया अपने आपके आत्मा में रहते हुए अपने आपके आत्मा में ही परिणमन किया। ज्ञेयाकार परिणमन हुआ, हुआ भी वह अपने आपमें ही, लेकिन उस वास्तविक काम को, निश्चय परिणमन को हम किन शब्दों में कहें कि मैंने यहाँ क्या किया? इस निश्चय परिणमन को बताने का उपाय यह ही है कि मेरे परिणमन में जो विषयभूत बाह्य पदार्थ है उसका नाम लेकर कहा जाय कि मैंने चौकी को जाना। निश्चय से हमने चौकी को नहीं जाना, किन्तु अपने आपमें अपने आपकी ज्ञानशक्ति की परिणति हो गई।
परिणति का अन्यत्र अगमन—जैसे हम दर्पण लिए बैठे हैं, हम दर्पण को ही देख रहे हैं पर दर्पण को देखकर ही अपने पीछे के सारे मनुष्यों की क्रियावों का वर्णन कर सकते हैं। इसने अब पैर उठाया, इसने हाथ उठाया, इसने जीभ चलायी, सब हम वर्णन कर सकते हैं—देख रहे हैं केवल दर्पण को ही, पर वर्णन कर रहे हैं हम उन सभी पुरुषों के सम्बन्ध में। इसी प्रकार जो बाह्यपदार्थ हैं उनका ज्ञेयाकार परिणमन यहाँ हो जाता है तब हम जान तो रहे हैं अपने आपमें उठने वाले ज्ञेयाकार परिणमन को ही, किन्तु उस ज्ञेयाकार परिणमन को जानते हुए हम बाह्यपदार्थों के बारे में वर्णन किया करते हैं।
ईर्या का निश्चय व्यवहार परिणमन—उस अभेद स्वभावी और अभेद परिणामी अपने आपको मैं निरख सकू—ऐसा जो यत्न है उस यत्न का नाम है ईर्यासमिति। निश्चयत: जो जैसे बाहर सब कुछ जानन में निश्चयजानन और व्यवहारजानन लगा हुआ है, इसी प्रकार प्रत्येक क्रिया में निश्चयवृत्ति और व्यवहारवृत्ति चला करती है। निश्चयत: यह साधु पुरुष अपने आपके उपयोग में जा रहा है और व्यवहारत: यह साधु पुरुष बाह्य में इस जीवरक्षा का यत्न कर रहा है।
यथार्थ लक्ष्य बिना धर्म के वेश में विडम्बना—कोई अज्ञानी पुरुष अपने आपके आत्मस्वरूप से बिल्कुल अपरिचित हो और साधुधर्म के नाम पर बाह्यवृत्तियों का खूब पालन करे, तो अपने ज्ञानस्वभाव का स्पर्श न होने के कारण वे सबके सब श्रम बहिर्मुखी हैं। वहाँ बाह्यपदार्थों की ओर दृष्टि है। मैं साधु हू, ये श्रावक हैं, मुझे ऐसा करना चाहिए, ये सब बहिर्मुखी दृष्टियां हैं। कोई एक प्रश्न करे कि यह क्या कारण है कि आजकल प्राय: यह दिखता है कि जितना धैर्य जितनी शांति गृहस्थों को है उतना धैर्य, उतनी शांति प्राय: साधुजनों को नहीं है। और करीब-करीब उनके गुस्सा ही दिखा करता है। जरासी बात पर गुस्सा आ जाता है और असद्व्यवहार करते हैं, तो उसका कारण है क्या? क्यों इतने जल्दी क्रोध आ जाता है और इतनी जल्दी असद्व्यवहार होने लगता है? उसका कारण केवल एक यह ही है कि अपने आपके शुद्ध चैतन्यस्वरूप की खबर नहीं है। उन्हें जो कुछ दिखता है उसे ही अपना सर्वस्व मानने लगते हैं। यह वृत्ति तब बनती है जब अपने स्वरूप की खबर नहीं है। जब अपने स्वरूप की खबर नहीं हे और बाहर की सुध बनाए हुए है तो यही तो सोचेंगे अपने शरीर को देखकर कि यह मैं हू, और यह मैं निर्ग्रन्थ हू। घर बार त्याग दिया, निष्परिग्रह हू, साधु हू, मुझे ऐसा करना चाहिए, मुझे ऐसा पूजना चाहिए।
अज्ञान दशा में लोकलिहाज की भी होली—अहो अज्ञान दशा में कहीं-कहीं तो लोकलिहाज भी खत्म हो जाती है। अपनी पूजा दूसरों से बनवा लिया और सुबह पूजन का टाइम होने पर कहा कि यह अष्टद्रव्य लो, हमारी यह पुस्तक है, इससे यह पूरा करो। इस तरह अपनी पूजा भी करवाते, इतना तक भी लोकलाज नहीं रहती, इसका क्या कारण है? इसका कारण मूढ़ता, पूरा अज्ञान। जहां अज्ञानभाव है और जहां यह बात चित्त में आयी है कि मैं साधु हू, पूजाता हू, पूजाने वाला हू, ये लोग पूजने वाले हैं तो जितना स्टेण्डर बना रक्खा है उतनी प्रतिष्ठा तो मिल नहीं सकती है तब उसे दु:ख होता है। कल ही सुनाया था प्रेमचन्द्रजी ने कि विनोबाजी का एक पत्र आया है, जिसमें लिखा है कि तुम्हारा दुर्भाग्य का दिन शुरू होगा उस दिन जिस दिन तुम जितने हो उतने से बड़े दुनिया में जाहिर हो जावोगे। शिक्षाप्रद बात लिखी थी।
योग्यता से अधिक प्रसिद्धि में खतरा—भैया ! है तो हम थोड़े ज्ञान वाले और अपने को पहिले से बड़ा ज्ञानी महाविद्वान् जाहिर करा दें, अथवा लोग जान जायें कि यह तो बड़े ऊचे विद्वान हैं, और है साधारण जानकार तो समझों कि उसका दुर्भाग्य शुरू हो गया। कोई हो साधारण पोजीशन का और उसके बारे में दुनिया बहुत बड़ा पोजीशन माने तो समझो कि उसको विपत्ति आ गयी। कोई है तो छोटे ज्ञान का और अपने को बहुत बड़ा विद्वान् जाहिर कर दे कि हम बहुत बड़े विद्वान् हैं अथवा लोगों ने समझ लिया कि यह बहुत विद्वान् है, तो उसमें कितनी ही विपत्तियां आती हैं। पहिली विपत्ति तो घमण्ड की है। घमंड आ जाय तो वह दु:खी ही रहेगा क्योंकि मान पोषण कौन करेगा? कोई किसी का नौकर है क्या? सो यों दु:खी रहेगा। उसने जितना बड़ा ज्ञानी माना है उतने ही लोग ज्ञानप्रकाश कराने के प्रसंग में आयेंगे और प्रश्न पूछेंगे। बड़े पुरुष आयेंगे। उस समय उसके पास यदि ज्ञान है थोड़ा और कुछ न बन सका, न कुछ बता सका तो क्या है, मिट्टी पलीत हो गयी।
आत्मबोध बिना लोकविद्या से तृष्णा की उद्भूति—बनारस में एक बहुत बड़ा विद्वान् था, बूढ़ा हो गया लेकिन बुढ़ापे में भी रात दिन पुस्तकें देखा करे। तो लोगों ने कहा कि महाराज ! आप सैकड़ों विद्वानों के गुरु हैं और सबसे ऊचे विद्वान् हैं, फिर भी आप रात दिन याद करते रहते हैं, इतना श्रम आप क्यों करते हैं? तो वह वृद्ध विद्वान् बोलता है कि हम इतना श्रम न करें और कदाचित् कोई हमसे शास्त्रार्थ करे, शास्त्रार्थ में हार गये तो कुवे में गिरने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। अंत में हुआ भी ऐसा ही हाल। किसी नये विद्वान् ने उनसे शास्त्रार्थ की घोषणा कर दी। उस शास्त्रार्थ में वह वृद्ध विद्वान् हार गया और अंत में कुए में गिरकर अपनी जान दे दी।
अज्ञानान्धकार—सो भैया ! हो तो छोटी पोजीशन और बड़े पोजीशन की प्रसिद्धि करे या हो जाय तो उसकी बड़ी विडम्बना है। तो जिसको यह दिखती हुई दुनिया सब कुछ मालूम होती है—यह शरीर है सो मैं हू और मैं साधु हू, ये सब श्रावक हैं, इनका कर्तव्य पूजना है, मेरा कर्तव्य पूजाना है—ऐसा अज्ञान का अँधेरा जब इस जीव पर छा जाता है तब इसका शुद्ध आशय नहीं रह सकता और ऐसा पुरुष धर्म के नाम पर बड़ी-बड़ी तपस्याएं करे, बड़ी-बड़ी समितियों का, व्रतों का पालन करे, फिर भी वहां संवर और निर्जरा लेशमात्र भी नहीं हैं। इस कारण निश्चयसमिति के उद्यमी के साधु पुरुषों के ही यथार्थ व्यवहार ईर्यासमिति होती है।
ईर्यासमिति में धार्मिक उद्देश्य—ईर्या मायने चलना। अपने आप की ओर चलना सो वास्तव में ईर्यासमिति है। निश्चयईर्यासमिति के पालक आत्मदर्शी को किसी कार्य के लिए चलना पड़े तो वह त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करता हुआ चलता है, यही उसकी व्यवहारईर्यासमिति है। ईर्यासमिति में भले काम के लिए चलना चाहिए। वे भले काम क्या-क्या हो सकते हैं, उदाहरण के लिए देखिये—तीर्थयात्रा करना, देव वंदना करना, गुरु के समीप जाना। ये सब उसके धार्मिक उद्देश्य हैं और आहार के लिए जाना यह भी साधुसंतों का धार्मिक उद्देश्य है। साधु संतजन आत्मतत्त्व के विशेष रुचिया होते हैं। उनको भोजन न मिलना, मिलने की अपेक्षा अधिक रुचिकर है। आहार करने को वे आपदा और विडम्बना समझते हैं। क्यों समझते हैं? अहो अब मैं आत्मस्वरूप की दृष्टि छोड़कर भिन्न असार जिनका परिपाक मलमूत्र बनेगा ऐसे पदार्थों में दृष्टि देकर मैं अपने आपको भूल जाऊंगा। ऐसे बेकार काम को मैं जा रहा हू। उन्हें इस बात का अन्तर में शोक रहता है, ऐसे संत धार्मिक लक्ष्य लेकर ही ऐषणा करते हैं।
उत्सर्गप्रिय संत की प्रवृत्ति में भी कारण विवेक का आग्रह—जो आत्मानुभव के आनन्द से सुखी रहा करते हैं वे इस आत्मीय आनन्द को छोड़कर भोजन आदिक की प्रवृत्ति में चलें तो उनको वहाँ आपत्ति मालूम होती है। किन्तु क्या करें, विवेक समझाता है कि क्षुधा की तीव्रता है। देखो शरीर की स्थिति न रहेगी तो तुम नियमों का पालन कैसे कर सकोगे, अन्तर में संक्लेश परिणाम का सद्भाव हो जायेगा और शरीर की शिथिलता से बाह्य में कोई भी आवश्यक कार्य सावधानी से न कर सकोगे—इसलिए चलो क्षुधा को शांत कर आओ, यों विवेक समझाता है तब साधु चर्या के लिए उठता है। चर्या करते हुए में उनका प्रयोजन धर्मस्वभावी आत्मतत्त्व की सिद्धि का ही है, खाने का प्रयोजन नहीं है। उत्सर्गप्रिय संत को विवेक का आग्रह ही आहारचर्या में प्रवृत्त कराता है।
साधु की आहार में भी धार्मिक कृति होने पर एक सद्गृहस्थ का दृष्टान्त—उत्तम प्रयोजन के अर्थ आहार करने में भी वह साधु पुरुष धार्मिक कार्य कर रहा है। जैसे कि किसी गृहस्थ का यह नियम हो कि मैं आजीवन शुद्ध भोजन करूंगा, और भोजन करने से पहिले मैं साधु संत पात्र को भोजन कराकर अथवा उनकी प्रतीक्षा करके भोजन किया करूंगा, ऐसा संकल्प करने वाले को सुबह मंदिर से पहुंचने के बाद घर में रसोई का आरम्भ चल रहा है—यद्यपि वह आरम्भ है और पूर्ण निर्दोषता की बात नहीं है, किन्तु उद्देश्य में यह पड़ा हुआ है कि मैं साधु पुरुष को आहार कराऊंगा, इस भावना से जो आहार बना रहा है उसका आहार बनाने का कार्य भी उस गृहस्थ के योग्य धर्मकार्य में शामिल हो गया।
गृहस्थ के योग्य सुगम चार पुरुषार्थ—देखो भैया ! चार पुरुषार्थ बताये हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म मायने पुण्य करना, अर्थ मायने धन कमाना, काम मायने पालन, पोषण, भोग उपभोग करना और मोक्ष मायने मुक्ति का उपाय करना। सो इन चार पुरुषार्थों में से मोक्ष पुरुषार्थ तो बड़ा कठिन लग रहा है और आजकल मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् है भी नहीं। तब मोक्ष पुरुषार्थ के बजाय एक पुरुषार्थ आपको ऐसा बतायें कि आप सुनते ही खुश हो जायें (हाँ बताओ महाराज) देखो तीन तो हैं—धर्म, अर्थ, काम और चौथा हैं—नींद लेना, सोना। आपके लिए चार पुरुषार्थ बताये हैं। पुण्य कार्य करना, धन कमाना, भोग उपभोग करना और नींद लेना। और देखो—रात दिन में 24 घंटे होते हैं—और काम है चार, सो चारों काम बांटने में प्रत्येक में 6 घंटे का विभाग हुआ। कुछ संशोधन के साथ क्रम भी देखिये—सुबह जगने के बाद शुरू के 6 घंटे धर्म में लगावो, उसके बाद के 6 घंटे धन कमाने में लगावो, उसके बाद के 6 घंटे घर के पालन पोषण के, भोग उपभोग के, समाज के, संस्थावों के कामों में अपना समय लगावो और बाद के 6 घंटों में नींद लेवो।
धर्म के पीरियड में गृहस्थ की धार्मिक कृतियां—सुबह के 4 बजे से 10 बजे तक आपका धर्म का पीरियड है, 10 बजे से 4 बजे तक धन कमाने का पीरियड है, 4 बजे से 10 बजे रात तक सबकी खबर-दबर लेना, पालन पोषण करना, सभा सोसायटी के कार्य करना, ये सब काम हैं और 10 बजे रात से 4 बजे तक निद्रा लेना। इनमें 1, 1।। घंटे का काम अदल-बदल लो—फिर अपने आपकी चर्या बहुत हो जायेगी। तो उस धर्म के पीरियड में जो रसोई बनाता होगा वह भी धर्म में शामिल है। यदि यह परिणाम है कि मैं साधु संतों को आहार कराके आहार करू तो रसोई बनाते हुए भी वह धर्म में शामिल है और किसी साधु को आहार कराकर फिर स्वयं भोजन करने बैठे तो वह भी धर्म में शामिल है। साधु को खिलाकर जो संतोष से उसने अपना चौथाई पेट भर लिया, उस खुशी में उसकी दृष्टि साधु के गुणस्मरण में चलती रहेगी और यहाँ भोजन में मुख चलता रहेगा। तब बताया है कि खाना भी धर्म में शामिल है।
निश्चय ईर्यासमिति के पालक के व्यवहारईर्यासमिति का सुगम पालन—जहां निश्चयईर्यासमिति होती है वहाँ व्यवहारईर्यासमिति उसकी सहज क्रिया से चलती है और जिसके निश्चयईर्यासमिति नहीं है वह जान-जानकर हठ करता है कि मैं साधु हू, मुझे देखकर चलना चाहिए। इस प्रकार अंतरङ्ग में पर्यायबुद्धि का, हठयोग का परिणाम रखकर ईर्यासमिति को पालना संवर और निर्जरा का कारण नहीं है। यद्यपि वह भी जीव रक्षा कर रहा है, लेकिन अंतरङ्ग में जिसके निश्चयईर्यासमिति नहीं है अर्थात् सम्यग्ज्ञान नहीं है, आत्मा के स्वभाव का स्पर्श नहीं है वह पुरुष बाह्य में रक्षा का भी यदि यत्न करेगा तो हठपूर्वक करेगा। सहज न बन सकेगा। इस कारण व्यवहारईर्यासमिति भी वहाँ मोक्षमार्ग की सहायक है जहां निश्चयईर्यासमिति हो।
मुक्तिसखी निश्चयईर्यासमिति—निश्चयईर्यासमिति कहते हैं आत्मस्वरूप में अपने उपयोग को भली प्रकार ले जाना, यही है निश्चयईर्यासमिति। यह कला यह जिसके जगी है वह पुरुष सहजभाव से जब प्रवृत्ति करता है तो जीवरक्षासहित प्रवृत्ति करता है। यह ईर्यासमिति मानों मुक्तिकांता की सखी है। जैसे सखी के माध्यम से कान्ता तक पहुंच जाना सरल हुआ करता है, इसी प्रकार ईर्यासमिति के माध्यम से मुक्ति के निकट पहुंच हो जाती है। मुक्ति क्या है? आत्मा के विशुद्ध चैतन्यविकास का नाम मुक्ति है। इस मुक्ति में गमन उसी का ही होता है जो इस ओर दृष्टि करके इस ओर ही रहा करे। यह भाव है निश्चय ईर्यासमिति में।
पिच्छिका की आवश्यकता—साधुजनों का मुख्य कर्तव्य एक ही है, अपने आत्मा की साधना करना, लेकिन जब तक शरीर साथ है तब तक इस शरीर के पोषण का भी एक-एक यत्न करना ही पड़ेगा। क्षुधाशांति के लिए चर्या को जाना ही पड़ेगा, ऐसी स्थिति में वे साधुजन ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हैं। गमन करते हुए में साधु के पास पिछी अवश्य होना चाहिए। साधु कोई ध्यान में खड़ा है—कोई पिछी ले जाय, ले जावो वह ध्यान में खड़ा है। साधु को पिछी की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु साधु गमन करे तो पिछी का आवश्यकता है। कदाचित् पिछी बिना भी वह 7 पग जा सकता है, इतना आचारसंहिता में विधान है, पर इतने से कोई प्रयोजन नहीं सिद्ध होता है। चर्या के समय गृहस्थ के चौके में पिछी ले जाना अनुचित है और जो साधु ऐसा ही हठ करते हैं कि चौके के भीतर ही ले जाएं और वहाँ ही कहीं रख दें या किसी खूटी वगैरह में टाँग दें या नीचे धरें तो वह गृहस्थ पर दया नहीं करते।
पिच्छिका का प्रयोग—पिछी एक संयम का उपकरण है, पिछी के बिना भी ऐसे समय दो चार कदम चला जा सकता है, पर विहार करे तो वहाँ पिछी बिना विहार नहीं हो सकता। विहार कर रहे हैं, धूप कड़ी है, किसी पेड़ के नीचे छाया में आना है तो पेड़ की छाया में प्रवेश करने से पहिले धूप में खड़े-खड़े पिछी से अपने अंग को झाड़ेंगे तब छाया में प्रवेश करेंगे। कारण यह है कि कोई जीव ऐसे हैं जो धूप ही पसंद करते हैं तो उन्हें छाया में पहुंचकर क्लेश होगा। और जब छाया छोड़कर धूप में आते हैं तो धूप में प्रवेश करने से पहिले अपने शरीर को पिछी से झाड़ देते हैं। कारण यह है कि जो जीव छाया पसंद करते हैं उन्हें धूप में जाकर कष्ट होगा। आचारसंहिता में जीव दया के सम्बन्ध में ये सब पद्धतियां बतायी गयी हैं। एक करवट से साधु लेटा है, यदि उसे दूसरी करवट बदलनी हुई तो पिछी से अपने शरीर को व निकटस्थानों को साफ करता है ताकि करवट बदलने में किन्हीं जीवों का घात न हो जाय।
साधु की अत्यल्प निद्रा और सावधानी—साधु जनों के सोने में उतनी बेहोशी नहीं होती जितना कि गृहस्थ बेखबर सोते हैं। साधुजन सोते हुए भी जागते रहते हैं क्योंकि छठे गुणस्थान में नींद है। 7 वें गुणस्थान में नींद नहीं है। छठे गुणस्थान का नाम प्रमत्तविरत है। उसमें प्रमाद भी है। 7 वें गुणस्थान में अप्रमत्तविरत है। वहाँ निद्रा नहीं है। तो सूक्ष्म दृष्टि से साधु को दो-दो, चार-चार सेकण्ड बाद सावधानी आया करती है। घंटा मिनट सोने की बात तो दूर रही, वे तो दस पाच-पाच सेकण्ड बाद जग जाया करते हैं। इसलिये उन साधुवों को सोते हुए भी जगता हुआ कहा जाता है। जैसे कितने ही मनुष्य ऐसे होते हैं कि सोते हुए में दूसरे की बातें सुनते रहते हैं, आधी-धूधी सुनाई देती हैं और कोई खास अपने मतलब की बात हो तो झट जग जाते हैं। ऐसे ही आधी-धूधी नींद साधु में रहती है और क्षण-क्षण बाद, सेकेण्डों बाद जागरण हो रहा है, वे गाढ़ निद्रा नहीं कहलाती है। करवट बदलेंगे तो पिछी से अपना शरीर झाड़ पोंछकर बदलेंगे।
मयूरपिच्छिका के गुण—ईर्यासमिति की साधना के लिए मुनि को मयूरपंख ही बताया गया है। इसके कई कारण हैं। इस मयूरपिच्छिका में अनेक गुण हैं। इसमें पसीना नहीं चिपकता, पानी नहीं ठहरता और ये इतने कोमल होते हैं कि आँख में लग जायें तो भी कोई बाधा नहीं पहुंचाते, जीवों को अलग करने में किसी जीव को बाधा नहीं होती—ऐसे अनेक गुण है और साधु जन जंगलों में रहा करते थे। ये मयूर पंख जंगलों में आसानी से मिल जाया करते हैं। मयूर जंगलों में रहते हैं। कहीं भी 20, 40 पंख उठा लिये और उन्हीं की पिछी बन गयी। कोई हजार पंख की बहुत बढ़िया पिछी बनाए, देखने में खूबसूरत लगे, बहुत बड़ी हो, ऐसी भावना की पिछी दोष करने वाली है। प्रथम तो उससे स्नेह हुआ, दूसरे पिछी लेने का प्रयोजन तो यह था कि किसी जीव का घात न हो, किसी पर बोझ न हो, मगर बहुत बड़ी पिछी रख लिया तो उसमें तो बहुत बड़ा पिछी का भी भार बन जाता है। किसी जीव पर इतनी बड़ी पिछी रख दिया तो उसको कुछ बाधा हो सकती है इसलिए बहुत थोड़े पंखों की पिछी साधु जनों को बतायी गयी है। साधु कमण्डल के बिना तो चल सकते हैं, विहार कर सकते हैं, पर पिछी के बिना वे विहार नहीं कर सकते हैं। यह सब व्यावहारिक ईर्यासमिति है।
ईर्यासमिति के पालक की महिमा—व्यावहारिक ईर्यासमिति तो उस साधु के है जो निश्चयईर्यासमिति का भी यत्न कर रहा है, तो वास्तव में उसके लिए यह चारित्ररूप समिति है। जो साधु इस ईर्यासमिति के मर्म को जानकर इस निश्चयईर्यासमिति पथ को जानकर कंचन और कामिनी के संग से दूर रहते हैं और अनुपम अपूर्व सहज अपने आपमें प्रकाशमान् चित्स्वभाव का अवलोकन करते हैं वे तो उस काल भी एक दृष्टि से मुक्त हीं हैं।
आत्मदेव की नि:संदेह भक्ति—देखिये इतिहासों में जो प्रभु के चारित्र सुनाये गए हैं उनको अनेक समुदायों ने अपनी-अपनी मंशा के मुताबिक अनेक प्रकार से गाये हैं। कोई इसमें कदाचित् संदेह भी कर सकता है, ऐसे थे वे प्रभु या नहीं थे। ऐसा ही किया या नहीं किया। भले ही वहां कुछ संदेह कोई कर बैठे, वह तो पीठ पीछे की बात है, लेकिन यह आत्मदेव तो प्रकट साक्षात् सामने है, अपना-अपना आत्मप्रभु अपने आप अपने उपयोग के सामने है। थोड़ा इन्द्रियों को संयत करके, विषयकषायों की भावना को दूर करके अपने आपमें ही थोड़ा निरखना भर है। यह तो साक्षात् अपनी आंखों के सामने है, उपयोग के सामने है। देखो—है ना यह ज्ञान से लबालब भरा हुआ अन्यथा बतलावो इसमें रूप है क्या? रस, गंध, स्पर्श है क्या? ये तो कुछ भी इसमें नहीं हैं। यह तो आकाशवत् अमूर्त केवलज्ञान प्रकाशमात्र है।
आत्मदेव के निकट पहुंच—भैया !इसमें उजेला झक्काटा भी नहीं है। जैसे कि लोग कहते हैं कि जब आत्मा का ध्यान करने लगते हैं तो भीतर में कुछ झक्काटासा होता है और उजेला नजर आता है तो वहाँ न झक्काटा है, न उजेला है, किन्तु ज्ञानमय विशद अनुभव ऐसा स्वच्छ है कि वहाँ अँधेरा जैसा अनुभव नहीं होता। वहाँ न अँधेरा है, न उजेला है। मुझे तो विदित होता है कि वहाँ न झक्काटा है, न प्रकाश है, न अँधेरा है, किन्तु जाननमात्र है, ऐसा ज्ञान तत्त्व से लबालब भरा हुआ यह आनन्दमय आत्मतत्त्व समस्त जगत् के पदार्थों से निराला है। इसके अन्दर कोई दूसरी बात होती ही नहीं है। मैं किसी दूसरे से बधा हुआ नहीं हू। जगत् के सर्व जीव स्वतंत्र हैं। ऐसा शाश्वत् चित्प्रकाशमात्र आनन्दमय ज्ञानस्वभावी आत्मप्रभु को जो साक्षात् देख लेता है वह पुरुष तो मानों मुक्ति के अत्यन्त निकट है। यह सब अंतरङ्ग गमन का प्रसाद है, निश्चयईर्यासमिति का प्रभाव है।
साधु संतों का सहज योग्य व्यवहारप्रवर्तन—साधुजन जब चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं तो उनका सहज ही ऐसा कार्य बनता है। मैं साधु हू इसलिए पिछी से झाड़कर बैठना चाहिए। इतना सोचने का अवकाश उन्हें नहीं मिलता, किन्तु वे सहज ही झाड़कर बैठ जाते हैं। जैसा चाहे उठें, बैठें, भागें, गमन करें, जीवरक्षा का कोई ध्यान न हो तो ऐसी स्थिति में उस साधु को क्या चारित्र की मूर्ति कहा जा सकता है? यद्यपि वे मुनि ज्ञानी जीव पिछी में कोई देवत्व का निश्चय नहीं रखते, किन्तु उसे सयंम का उपकरण समझकर उसका उपयोग किया करते हैं। कुपथ में चलने के लिए उन मुनिजनों का मन ही नहीं करता है और देव वंदना को, गुरु वंदना को या आवश्यक धर्मध्यान के कर्तव्य के समय उस पिछी को हाथ में लेकर जाते हैं, उस पिछी से जीवों का बचाव करते हैं, तो कुछ बाह्य वातावरण से भी उनमें विशेषता आ जाया करती है।
द्विविध संयम—यह ईर्यासमिति समस्त चारित्रों का मूल है। त्रस जीवों का घात और स्थावर जीवों के छाह से बचाने वाली यह ईर्यासमिति है। साधुजनों के दो प्रकार के संयम होते हैं। एक उपेक्षासंयम और दूसरा अपहृतसंयम। उपेक्षासंयम का अर्थ यह है कि कहीं जीव बहुत चल रहे हैं, उनका बचाव यों नहीं हो सकता है तो उस जगह को छोड़कर निकट दूसरी जगह से चल दें या किसी स्थान पर बैठना हो और उस स्थान पर जीव अधिक हो तो वहाँ झाड़कर न बैठें, किन्तु उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में बैठ जायें, या जाने में उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान से चल दें यह है मुनियों का उपेक्षासंयम। और जब देखें कि उस स्थान को छोड़कर दूसरे मार्ग से जाने का मार्ग ही नहीं है अथवा दूसरा स्थान कोई बैठने के लिए नहीं है और थोड़े बहुत ही वहाँ जीव हों तो उस स्थान को साफ करके साधु बैठ सकता है। लेकिन कदाचित् जीवों की संख्या बहुत हो तो विहार बंद करके साधु लौट आयेगा अथवा उसे प्रयोजन ही नहीं है बैठने का। तो साधुजन जीवरक्षा में सावधान रहते हैं।
षट्काय के रक्षक—साधुजनों के 6 काय के जीवों की रक्षा करने वाला बताया गया है। 6 काय कौन-कौन हैं? पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय। इन सबकी रक्षा करने वाले साधु होते हैं। ऐलक और क्षुल्लक का वही जीवरक्षा का कर्त्तव्य है। ऐलक का अर्थ है कम कपड़े वाला। ऐलक शब्द में जो अर्थ भरा है उसका अर्थ है अत्यन्त कम कपड़े वाला। जिसका प्रसिद्ध अर्थ है एक लँगोटी मात्र रखने वाला। ऐलक शब्द अचैलक से बना है। अचैलक में अ का अर्थ ‘‘नहीं’’ नहीं है, किन्तु ईषत् है। ईषत् मायने थोड़ा, चैल मायने कपड़ा। जैसे लोकव्यवहार में बोलने लगते हैं, अरे तुम बड़े मैले कुचैले हो। कु मायने खराब और चैल मायने कपड़ा। तो जिन कपड़ों को गृहस्थ न पसन्द करे ऐसा वह कपड़ा है ऐलक की लँगोटी। ऐसा थोड़ा जो चैल रखने वाला है उसका नाम है अचैलक। इसमें च का लोप होकर प्राकृत में ऐलक हो जाता है।
क्षुल्लकमुनि—ऐलक के पहिले है क्षुल्लक। क्षुल्लक मायने छोटा, तुच्छ। यह संस्कृत का शब्द है। क्षुल्लक एक मुनि शब्द का विशेषण है, श्रावक शब्द का विशेषण नहीं। अगर श्रावक शब्द का विशेषण हो तो उसका अर्थ हो जाय—तुच्छ श्रावक, छोटा श्रावक। पर क्षुल्लक शब्द मुनि का विशेषण है जिसका अर्थ है छोटा मुनि, तुच्छ मुनि। क्षुल्लक को भी पिछी बताई गयी है। पर कदाचित् क्षुल्लक कोमल कपड़े से भी पिछी का काम कर सकता है। न पिछी हो तो ऐसा अनिवार्य नहीं है कि वह विहार ही नहीं कर सकता। कोई कोमल कपड़ा हो तो उस कोमल कपड़े को हाथ में लेकर विहार कर सकता है। ऐलक को पिछी अनिवार्य है क्योंकि वह मुनि के अत्यन्त निकट पहुंच गया है। तो पिच्छिका संयम का उपकरण है, जीवरक्षा का साधन है।
निश्चयसमिति के सहवास से व्यवहारसमिति की समर्थता—साधुजन जब विहार करते हैं या लोटते हैं या थोड़ा भी करवट बदलते हैं तो ये सब बातें पिच्छिका बिना नहीं कर सकते। यदि न हो पिच्छिका तो साधु यों ही बिना हिलेडुले खड़ा रहेगा, पड़ा रहेगा। तो व्यवहारईर्यासमिति निश्चयईर्यासमिति के साथ शोभा को प्राप्त होती है। ईर्यासमिति संसाररूपी दावानल के संताप के क्लेश को शांत करने वाली है।
पिच्छिका के पंख में विद्या की प्रसिद्धि का कारण—बहुत से लोग कहते हैं कि यह पिच्छिका विद्या है। पिछी का एक-एक पंख विद्या कहलाता है। सब लोग प्राय: कहते भी हैं कि विद्या हमें दो, बल्कि चलते हुए में मुसलमानों तक के बालक यह कह देते हैं कि यह विद्या है। अरे यदि विद्या है तो बाजारों में खूब बिकते होंगे, ले आवो 4 रुपये में हजारों पंख, फिर खूब उनसे विद्या ले लो। उन मयूरपंखों से विद्या की रूढ़ि कैसे हुई? सो सुनिये, साधुजन के पास पिछी रहती थी, शास्त्र रहता था, शास्त्र पढ़ रहे हैं, जहां तक पढ़ा वहाँ निशान लगाने के लिए कोई दूसरी चीज न मिले और पिछी में से कोई पंख उखड़ जा, टूट जाय तो वही शास्त्र में रख लेते थे। लोगों ने देखा कि महाराज शास्त्र में इसे रखते हैं, यह विद्या है। इसी वजह से इनमें ज्ञान लबालब भरा हुआ है। इस तरह उनमें विद्या की रूढ़ि हो गई। आज तक भी लोग कहते हैं। इससे जैनधर्म के चारित्र की प्राचीनता सिद्ध होती है।
ओनामासी धम् की प्रसिद्धि में कारण जैनतत्त्व की व्यापकता—जैसे अध्ययन के कार्य में लोग कभी-कभी अहाना में लोग यों बोल देते हैं कि ‘ओनामासी धम्, बाप पढ़ें ना हम।’ इस प्रसिद्धि का स्रोत क्या हैं, सो सुनिये, पूर्वकाल में ‘ॐ नम: सिद्धिम्’ बोला जाता था। पहिले सबको यही पाटी पढ़ाई जाती थी ‘ओनामासी धम् सीदो वन्ना समामनाया, चतुरो चतुरो दासा’ इत्यादि 5-6 पाटी पढ़ाई जाती। यह पाटी जो हमने बोली है वह पढ़ने वालों की भाषा में बोली है, यह सब अशुद्ध है। शुद्ध क्या है—‘ॐ नम: सिद्धम्, सिद्धोवर्णसमाम्नाय:, तत्र चतुर्दशादौस्वरा:’ ऐसा चलता जाता है। तो ये सूत्र चलते थे जैनव्याकरण के। ये सब कातन्त्रव्याकरण के सूत्र हैं। इसकी रचना कैसे हुई? सो सुनिये।
सुगम प्राचीन जैनव्याकरण की रचना का इतिहास—एक बार एक राजा अपनी रानियों सहित तालाब में खेल रहा था—जिसे जलक्रीड़ा कहते हैं, एक दूसरे पर छींटे मारे जा रहे थे। यह वृत्त हजार वर्ष पहिले का है। तो जब रानी छींटों से परेशान हो गयी तो रानी कहती है—‘मोदकं देहि राजन्।’ उसका अर्थ था कि हे राजन् ! अब जल छींटे न मारो। उसका अर्थ राजा ने यों लगाया कि यह रानी लड्डू मांग रही है—सो तुरन्त आज्ञा दी अपने नौकरों को, जावो लड्डुवों का टोकरा ले आवो। तब रानी ने थोड़ा मूर्खता का उलहना दिया तो राजा को इतनी चोट लगी कि यदि मैं संस्कृत का जानने वाला होता तो आज क्यों इतनी गालियां सुननी पड़ती। तो उसने संकल्प किया कि मैं संस्कृत पढ़कर रहूंगा। यह बहुत पुरानी घटना है। वह एक आचार्य के पास गया, बोला महाराज ! मैं बहुत मूर्ख हू, संस्कृत भाषा पढ़ना चाहता हू, मुझे ऐसी सरल पद्धति से संस्कृत सिखावो कि जल्दी आ जाय। उस समय के आचार्यों की यह व्याकरण है। उसी व्याकरण के ये सूत्र हैं, जो ब्राह्मण वगैरह सब अध्ययन में पाठ में पढ़ते हैं। ‘ॐ नम: सिद्धं, अर्थात् सिद्ध को नमस्कार हो, इसमें एक वाक्य है। ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ में और ‘ॐ नम: सिद्धं’ में अन्तर देखो—‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ का अर्थ है सिद्धों को नमस्कार हो और ‘ॐ नम: सिद्धं’ का अर्थ है साधु को अनुकूलित करने के लिए नमस्कार हो। इसमें भाव उजाला भरा हुआ है। जैसे नमस्कार दो तरह के होते हैं। तुम्हारे हाथ जोड़ें—यह भी नमस्कार है, एक प्रेमपूर्वक हाथ जोड़ना यह भी नमस्कार है। खैर इन दोनों में इतना तो अन्तर नहीं है, लेकिन ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ का अर्थ है सिद्धों को नमस्कार हो और ‘ॐ नम: सिद्धं’ का अर्थ है—सिद्ध के गुणों को अपने में उतारते हुए उनको भाव नमस्कार हो। यों जिस प्रकार ‘ओनामासी धम्’ से जैन विद्या की प्राचीनता सिद्ध होती है इसी प्रकार मयूरपंख को विद्या कहने से जैनचारित्र की प्राचीनता सिद्ध होती है।
दुर्भावसंतापशामक मेघवर्षण—ईर्यासमिति सहज ज्ञानस्वरूप आत्मदेव की वंदना के लिए उपयोग का जो गमन है उसे निश्चयईर्यासमिति कहते है। यह समिति संसार के संताप अग्नि को शांत करने के लिए घनमेघ माला की तरह समर्थ है। जैसे जंगल में बहुत तेज आग लग चुकी हो तो इस आग को बुझाने में नगरपालिका के फायर विभाग समर्थ नहीं है। उस पर तो घनमेघमाला बरस जाय तो क्षण में ही आग शांत हो सकती है। इसी प्रकार विषयकषायों के दुर्भावों के संताप से इस आत्मभूमि में अग्नि जल रही है, लहलहा रही है, इस अग्नि के संताप को दूर करने में समर्थ न मित्रजन है, न घर के लोग हैं, किन्तु एक भेदविज्ञान के द्वार से आया हुआ जो यह ज्ञानानुभवरूप रूप मेघवर्षण है वह ही एक समर्थ है।
उपादेय और हेय वैभव—यह उपयोग आत्मस्वभाव की ओर गमन करे, इससे उत्कृष्ट लोक में कोई वैभव नहीं है। जिसे लोग वैभव कहते हैं वह तो धूल है। लाखों का वैभव हो अथवा करोड़ों का वैभव हो, वह इस आत्मा की आकुलता का ही निमित्त बनता है। शांत ज्ञानामृत स्वच्छ, पवित्र ज्ञान सुधारस के स्वाद में वैभव का रंच भी हाथ नहीं है। यदि इस धन वैभव में शांति की सामर्थ्य होती तो बड़े-बड़े तीर्थंकर, चक्रवर्ती क्यों त्याग देते? उन्होंने इस धन वैभव को असार समझ कर इस तरह त्यागा जैसे कोई नाक छिनक कर बाहर फेंक देते हैं, उसकी ओर फिर दृष्टि नहीं देते। ऐसे ही उन्होंने इस वैभव को ऐसा त्यागा कि उसका फिर स्मरण भी नहीं किया। यही है निश्चयईर्यासमिति। यह अपनी ही कहानी है, अपने ही आनन्द की चर्चा हैं।
आनन्दपोषिका मेघमाला—शाश्वत् नित्यप्रकाशमान् अछेद्य, अभेद्य इस चैतन्य महाप्रभु के उपयोग का नाम है समिति। यह परमानन्द रूप धान्य को उत्पन्न करने वाली और पुष्ट करने वाली मेघमाला है, और साथ ही कुछ जब तक अनुराग रहता है तो इस भुसरूप पुण्य को भी पैदा करने वाली है। धर्म तो है बीज और पुण्य है तुष। जो धर्म के मार्ग में लगता है उसके जब तक भव शेष है यह पुण्य-पुण्य तो मिला ही करेगा। धन्य हैं वे ज्ञानी पुरुष जो पुण्य, पाप दोनों को समान मानकर हेय समझ कर उन दोनों से विविक्त इस ज्ञानानन्दस्वभावरूप धर्म में आते हैं।
सुख दु:ख में समानता का कारणभूत ज्ञान—ज्ञानी की दृष्टि सुख और दु:ख में समान रहती है। सुख आया तो क्या? सुख तो दु:ख देकर मिटा करता है। दु:ख आया तो क्या? दु:ख सुख देकर मिटा करता है। खूब-खूब परख लो। जिस किसी को भी सुख मिला तो वह सुख-दु:ख देकर मिटेगा, और जिसे दु:ख मिलता है उसे सुख देकर वह दु:ख मिटेगा। क्योंकि संसार चक्र के सुख और दु:ख एक के बाद एक परिवर्तित होते रहते हैं। अरे उस दु:ख देकर मिटने वाले सुख से क्या प्रेम करना? फांसी पर लटकाये जाने वाले पुरुष के आगे मिठाई का थाल रख दिया जाय कि खावो भाई खूब प्रेम से छककर भरपेट, पर उसको उस भोजन के खाने में रुचि होती है क्या? उसे तो मालूम है कि फांसी पर लटकाया जाने से पहिले होने वाले ये सब नेग दस्तूर हैं। यों ही दु:ख देने के लिए आये हुए ये लौकिक सुख हैं। ये मिठाई के थाल हैं। ज्ञानी जीव जानता है कि यह दु:ख के महागर्त में पटकने के लिए विषयों के भोग और उपभोगों का समागम मिलना नेग दस्तूर है। ज्ञानी को इस लौकिक सुख में अनुराग नहीं होता।
ज्ञानी के विपदाभय का अभाव—यों ही सुख देने वाले दु:ख में ज्ञानी को कभी घबड़ाहट भी नहीं होती है। आये हैं दु:ख आने दो, ये दु:ख अतिथि हैं, मेहमान हैं, ये सदा न रहेंगे और दु:ख भी हैं क्या? कल्पना बना ली तो दु:ख हो गया। यही परख लो, जितने भी सज्जन यहाँ बैठे हैं, सब अपने में कोई न कोई एक दु:ख लिए हुए रहा करते हैं। क्या दु:ख है सो बताओ? कोई यों सोचते होंगे कि धन कम है और बढ़ जाय। अरे धन जितना है आवश्यकता से ज्यादा है, आगे की तृष्णा क्यों करते हो, क्या इससे निर्धन और लोग नहीं हुआ करते। क्या क्लेश है? बहुत धन हो गया तो उसकी रक्षा करने का क्लेश है, यह सुरक्षित नहीं रहता। अरे नहीं रहता तो न रहने दो। नहीं रह पाता तो यों क्यों मिटावो, पर-उपकार में इस धन को लगा दो तो उससे होने वाला पुण्य साथ ले जावोगे। फिर भी नहीं रहता है तो जैसे मानों 10 वर्ष बाद छोड़कर जायेंगे तो आज से ही छूट गया तो उसमें क्या बुरा हो गया? मेरा धर्म, मेरा ज्ञान मुझसे अलग हो तो मैं बरबाद होऊगा।
व्यर्थ का क्लेश—खूब परख लो कौनसा क्लेश है? क्लेश बनाये जा रहे हैं। कोई कुटुम्ब में गुजर गया अथवा अकेले रह गये, बड़ा क्लेश महसूस करते हैं। अरे समस्त पदार्थों का नग्न स्वरूप है, परमाणु हो तो, आत्मा हो तो, सभी द्रव्यों का नग्न स्वरूप। है प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने स्वरूप को लिए हुए है, किसी दूसरे पदार्थ को लपेटे हुए नहीं है। यदि किसी पदार्थ के स्वरूप में अन्य पदार्थ का स्वरूप प्रवेश पा जाता तो आज यह देखने को दुनिया न रहती। क्योंकि संकरता आ गयी तो कौन किस रूप हो जाय? फल यह होता कि सर्वशून्य हो जाता। कोई कष्ट नहीं है। कष्ट के विकल्प को त्यागें, अपने आपको स्वतन्त्र निश्चल एकाकी ज्ञानमात्र देखें और बहुत बड़ी कमायी कर लें। थोड़ासा इस असार वैभव की तृष्णा में आकर अपने अनन्त ज्ञान अनन्त सुख की निधि को बरबाद न करें।
बबूले को क्या अपनापन?—भैया ! क्या है? यह जीवन पानी के बबूले की तरह है। पानी में उठा हुआ बबूला कितनी देर रहेगा? वह शीघ्र ही मिट जाता है। बबूला मिट जाय इसमें आश्चर्य नहीं है किन्तु वह 10—5 सेकण्ड टिक जाय तो उसमें आश्चर्य है बरसात में खपरैल से अवतरियां गिरती हैं और पानी का बबूला बन जाता है। बच्चे लोग उन बबूलों में ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि यह बबूला मेरा है, दूसरा कहता है कि यह बबूला मेरा है। कल्पना कितने प्रयोजन के लिए है कि मैं यह बता दू कि यह मेरा बबूला इनके बबूले से ज्यादा देर टिक सका। केवल इस प्रयोजन के लिए उन बबूलों में आत्मीयता करते हैं। अधिक देर तक टिक जाय तो वे खुश होते हैं। अरे बबूलों के मिटने का क्या आश्चर्य है। टिकने का आश्चर्य है ऐसे ही बबूले की तरह क्षणिक इन पदार्थों को जीवों ने अपनी कल्पना से अपना कर लिया है कि यह कितने दिन टिकेगा? यह जब है तब भी संग नहीं है, बबूला जब उठ रहा है तब भी नहीं है बालक का। लेकिन वह कल्पना करके खुश होता चला जा रहा है।
भगवंत संतों का उपकार—केवल इस प्रयोजन के लिए उन बबूलों में आत्मीयता करते हैं। अधिक देर तक टिक जाय तो वे खुश होते हैं, अरे बबूलों के मिटने का क्या आश्चर्य है। ऐसे ही बबूले की तरह इन पदार्थों को जीवों ने अपनी कल्पना से अपना कर लिया है कि यह मेरा घर है, यह मेरा वैभव है। अरे यह कितने दिन टिकेगा? यह जब है तब भी संग नहीं है। बबूला जब उठ रहा है तब भी नहीं है बालक का। लेकिन वह कल्पना करके खुश होता चला जा रहा है।
भगवंत संतों का उपकार—अहो, इन संत पुरुषों का हम कितना उपकार मानें? उनका ऋण चुकाने के लिए हम आपके पास कोई सामर्थ्य नहीं है। और मूल में मूलगुरु तीर्थंकर भगवान् का हम कितना बड़ा उपकार मानें कि जिनको परम्परा से आज हमें यह बोध होता है कि जगत् के प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र हैं, इस कारण मेरा कहीं कुछ नहीं हैं। ‘‘न अपना ज्ञान धन खाता, भिखारी क्यां बना होता। खुदी का खुद पुजारी तू, कभी का बन गया होता।।’’ केवल परपदार्थों में यह मैं हू, यह मेरा है, इस दुर्बुद्धि से संसार में गोते खाते चले जा रहे हैं, अरे जो बात सच है उसके मानने में भी कितना कष्ट हो रहा है? यह नहीं कह रहे हैं कि अपना घर छोड़ो, दुकान छोड़ो, पैसा छोड़ो अरे इसमें कई गुणा धन आयेगा उसे कहां मिटाया जायेगा, पर यथार्थ बात मन में बनी रहेगी तो अशांति नहीं हो सकती। इतना लाभ है।
निश्चयसमिति की अनभिज्ञता का परिणाम—यह निश्चयईर्यासमिति सदा जयवंत हो, जिसके प्रसाद से संसार के समस्त क्लेश समाप्त हो जाते हैं। जो प्राणी इस निश्चयरत्नत्रय से विमुख हैं अर्थात् अपने ज्ञान को अपने सहज ज्ञानस्वरूप के जानने के लिए नहीं ले जाते हैं ऐसे संसार के रोगी कामवासना के बीमार, विषयों की इच्छा के भिखारी जीवों को इस संसार में जन्म होता रहता है। इस मिले हुए शरीर को क्या निरखना? शरीरों का मिलना ही तो संसार है। यही तो एक कष्ट है। किसी क्षण इन शरीरों का मिलना बंद हो जाय, बस इसी के मायने तो प्रभुता है। जब हमें शरीर न मिलें ऐसे पंथ पर चल रहे हैं तो वर्तमान शरीर में राग करना, यह तो विवेक नहीं है।
सेवक शरीर की सेवा की कृपासीमा—खैर नौकर की तरह जानकर शरीर को भोजन दें, जैसे सेवक बड़ा उपकारी होता है, और इसी कारण उसका पोषण किया जाता है, यों ही वर्तमान में यह शरीर सेवकों की तरह है। संयमसाधना, ध्यानसाधना के लिए यह शरीर सहकारी हो रहा है। सहकारी कुछ नहीं हो रहा है, इतना भर काम हो रहा है कि यह दुष्ट कोई दुष्टता न करे। दुष्टों को भी तो हाथ जोड़कर मनाया जाता है और वे मान जायें तो उनको कहा जाता है कि इन्होंने हमारा बड़ा उपकार किया। उपकार तो कुछ नहीं किया। यही किया कि दुष्ट ने दुष्टता नहीं की। इसी तरह शरीर को भी भोजन दिया जाता है। यद्यपि इससे कुछ संयम में मदद नहीं मिलती किन्तु इतना लाभ होता कि क्षुधा तृषा की वेदना और आकुलता की दुष्टता नहीं हो पाती। इतना भर लाभ है शरीर के पोषण में। नियम और साधना ये तो अपने ज्ञान के द्वारा ही साध्य हैं।
स्वच्छ हार्द रखने का कर्तव्य—इस ईर्यासमिति के बिना, परमार्थभूत आत्मस्वभाव की ओर उपयोग को ले जाने के बिना इस प्राणी का इस लोक में जन्म होता रहता है। इस कारण हे मुने, हे विवेकी जन, हे मुमुक्षु पुरुष, अपने इस आत्म घर को इतना स्वच्छ रखो जहां मुक्ति रानी का आगमन हो सके अर्थात् तू मुक्ति के लिए उद्यम कर। संसार में उपयोग मत फंसा। यहाँ तो तू जल में कमल की भांति रह। जो जीव इस निश्चयईर्यासमिति को उत्पन्न करते हैं अर्थात् अपने आत्मदेव की भाववंदना के लिए गमन करते हैं वे मोक्षरूप होते हैं। वास्तविक गमन वही है जो आत्मा की ओर हो। नहीं तो संसार में भटकना बना रहता है।
चारित्रधारी की वंदनीयता—यह प्रकरण चल रहा है व्यवहारचारित्र का। व्यवहारचारित्र में पंचव्रतों के पालन की बात हे और उन पंचव्रतों की उत्कर्षता बढ़ाने के लिए, पंचव्रतों की रक्षा करने के लिए पंचव्रतों का फलित स्वाद लेने के लिए 5 समिति और तीन गुप्तियों का वर्णन है। इसे अष्टप्रवचन मातृका कहा है। 5 समिति और तीन गुप्ति इनके स्वरूप का, प्रयोजन का, वृत्ति का भली प्रकार ज्ञान हो तो वह मुनि अन्य शास्त्रों का विशेष ज्ञान न भीरखता हो तो भी वह मुक्ति का अधिकारी हो जाता है। यह ईर्यासमिति का प्रसंग चल रहा है, जो जीव निश्चयईर्यासमिति का पालन करता है और प्रयोजन होने पर, व्यवहार में आने पर व्यवहारईर्यासमिति का सहज परिवर्तन करता है वह साधु पुरुष सिर नवाकर वंदनीय है। यों ईर्यासमिति का वर्णन करके अब भाषासमिति का लक्षण कह रहे हैं।