वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 65
From जैनकोष
पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिये परोपरोहेण।
उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स।।65।।
प्रतिष्ठापना समिति—जहां दूसरे की रुकावट न हो, ऐसे और गूढ़, सब लोगों का जहां आवागमन नहीं, उठना बैठना नहीं है ऐसे प्रासुक भूमि के स्थल में मलमूत्र आदि का त्याग करना, इसको प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं। सारे विसंवाद अपने को करने पड़ते हैं भोजन के पीछे, कल्पना करो कि एक भोजन का काम अथवा व्यय श्रम न होता तो कहीं दूसरे पदार्थों की जरूरत न थी, और दूसरों से कुछ बोलने चालने की आवश्यकता न थी। कुछ चीज धरना, उठाना, खटपट करना आदि बातों की आवश्यकता न थी और मल मूत्र करने की भी नौबत न आती। खैर, साधारणजनों को तो भोजन की भी चिंता न रहे तो भी वे सारी खटपट किया करते हैं। देवों को क्या चिंता लगी है? मनुष्य से भी अधिक खटपट देवों के हुआ करती है? देवगति के जीव कितना तो घूमते हैं, विहार करते हैं, वचनालाप करते हैं और कैसी कलावों की प्रवृत्ति करते हैं, और साधुजन आहार करके भी खटपट से दूर रहा करते हैं, फिर भी चूकि जब आहार करते हैं, किया है तो चलना भी होगा, वचन व्यवहार भी कुछ हद तक करना व्यवहारिक बात है। चीज का धरना उठाना भी आवश्यक है, और आहर किया तो मलमूत्र भी करना आवश्यक हो जाता है। तो जब वे मलमूत्र करें, थूकें, नाक छिनके अथवा शरीर का पसीना भी पोंछकर चलें, इन सब क्रियावों में वे ऐसी भूमि तकते हैं जो भूमि प्रासुक हो, जहां जीव जंतुवों को बाधा न हो। ऐसी सावधानी सहित प्रतिष्ठापना को प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं।
देह और आत्मा की विविक्तता—यद्यपि निश्चयनय से देखा जाय तो जीव के शरीर ही नहीं है। फिर आहार ग्रहण की परिस्थिति कहां से हो? जो लोग कहते हैं कि मैं आत्मा तो खाता ही नहीं हू, उनकी बात सही है मगर किस जगह खड़े होकर यह बात बोलनी चाहिए? यह उसकी विशेषता है। जिसको स्वभावदृष्टि बन गयी है और ज्ञायकस्वभावमात्र की अपने आपको पहिचान हुई है उसके यह बात है कि यह मैं आत्मा तो खाता ही नहीं हू, किन्तु जो विडम्बनाए तो पचासों करता हो, लड़ाई झगड़े विवाद अनेक मचाता हो और गोष्ठी में बैठकर ऐसी बातें मारे कि मैं तो खाता ही नहीं हू, उसकी बात को कोई मूल्य नहीं है। शुद्ध निश्चय की दृष्टि से जीव जुदा है , देह जुदा है। दोनों भिन्न पदार्थ हैं। देह तो पुद्गल जाति है और शरीर चेतन जाति का है। इन दोनों में एकता कैसी? शरीर तो जड़ है यह जीव जाननहार है, इन दोनों की एकता कैसी? अरे जो जड़-जड़ है ऐसे पुद्गल परमाणु परमाणुवों में भी एकता नहीं होती। प्रत्येक परमाणु अपने स्वरूप से सत् है परस्वरूप से असत् है। अपने आपके परमाणु का सर्वस्व अपने आपमें है। तब एक अणु का दूसरा अणु भी कुछ नहीं है, वे एक नहीं हो सकते, अनेक हैं। स्कंध जैसी बंधन अवस्था भी हो जाय तो भी प्रत्येक परमाणु एक-एक ही पृथक्-पृथक् हैं। फिर भिन्न जाति के जो जीव और देह हैं इनमें एकता कैसे?
आत्मा का ज्ञानज्योतिस्वरूप—निश्चय की दृष्टि से तो जीव के यह दशा भी नहीं है। जो जीव देह में आत्मीयता की कल्पना करता है अथवा ‘यह मैं हू’ ऐसा मायारूप विचार बनाता है उस देही को ‘यह मैं हू’ ऐसा मानने पर सारी विपदाए लद जाती है। सब संकटों का मूल ‘इस देह में यह मैं हू’ ऐसा श्रद्धान् करना है। यही महा मूढ़ता है। इस मूढ़ता के रहते हुए हम विपत्तियों से, संकटों से बचने और सुख पाने की कोशिश करें तो वे सारी कोशिशें व्यर्थ हैं। यदि वास्तव में शांति की इच्छा है तो यह यत्न अवश्य करो कि मैं देह से न्यारा ज्ञानमात्र हू। इसको तो कोई पहिचानने वाला भी नहीं है। इससे तो कोई बात भी नहीं किया करता है। लोग जिसे देखते है वह मैं नहीं हू। मैं तो सबसे अपरिचित ज्ञानज्योतिमात्र हू। यहाँ मेरा यश क्या और अपयश क्या? यश भी कुछ और नहीं है। मायामय वे पुरुष हैं और वे अपने विषय-कषायों के अनुसार अपनी प्रवृत्ति कर रहे हैं, वे अपनी प्रवृत्ति में मेरे गुण बखान रहे हैं, पर यह यश क्या है? उन मायामय पुरुषों का एक प्रवर्तन है। यश क्या चीज है? कुछ भी नहीं है। जब यश कुछ नहीं है तब अपयश भी कुछ नहीं है। सबसे बड़ा साहस ज्ञानी जीव के यह होता है कि कोई यश करे अथवा अपयश करे उनसे उसके चित्त में कोई परिवर्तन नहीं होता। या तो मैं ही चिग जाऊँ तो पतनरूप परिवर्तन है और अपने आपमें लग जाऊँ तो उत्कर्षरूप परिवर्तन है। मेरे परिवर्तन करने में बाहर का अणुमात्र भी कोई समर्थ नहीं है।
निश्चय और व्यवहार से अपना अवलोकन—इस जीव के देह नहीं है। जब देह ही नहीं है, यह अमूर्त है, आकाशवत् निर्लेप है, ज्ञानानन्दभाव मात्र है, तो अन्न का स्पर्श कैसे हो? अन्न को ग्रहण कौन करे? इस जीव के अन्न को ग्रहण करने की परिणति भी नहीं है। फिर हो क्या रहा है यह सब कुछ। देह व्यवहार से है। व्यवहार का अर्थ यहाँ ‘‘असत्य’’ नहीं है किन्तु दो विजातीय द्रव्यों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से होने वाली घटना में यह देह बन जाया करता है। जहां किसी भी वस्तु में बात न पायी जाय और अन्य वस्तु के सम्बन्ध से कोई बात बने, उसको व्यवहार कहते हैं। अपने आप सहज अपने स्वरूप से अपने स्वभाव से तत्त्व पाया जाय उसको निश्चय कहते हैं, परमार्थ कहते हैं।
व्यावहारिक संग—जैसे कोई पुरुष कहे कि यह मेरा लड़का है अथवा स्त्री कहे कि यह मेरा लड़का है ऐसे पर को लड़का बताना निश्चय की बात है या व्यवहार की बात है? यहाँ बहुत भीतरी निश्चय की बात नहीं पूंछ रहे हैं, किन्तु यह स्थूल निश्चय की बात कह रहे हैं। यदि किसी भी एक का हो सके तो प्रासंगिक निश्चय से वह उसका है। केवल पुरुष का लड़का बन जाय तो पुरुष का हो गया, केवल स्त्री से लड़का बन जाय तो स्त्री का हो गया। जैसे केवल पुरुष में अथवा स्त्री में पुत्र प्रसव की बात नहीं है तो इस ही प्रकार जितना दंदफंद है देह हैं, कषायें हैं, विरोधभाव हैं ये सब न केवल जीव से प्रसूत होते हैं और न पुद्गल से प्रसूत होते हैं। जैसे पुत्र के उत्पन्न होने में माता पिता दोनों कारण पड़ते हैं, ऐसे ही विभावों में निज और कोई पर—ये दोनों कारण पड़ते हैं। यद्यपि ये रागादिक भाव जीव और पुद्गल दोनों कारणों से होता है, फिर भी रागादिक का आधार जीव है और बाहरी निमित्त पुद्गल हैं। इसी प्रकार यह जीव समास है देह की रचना है। यह काय भी यद्यपि जीव और पुद्गल दोनों कारणों से है, फिर भी इनका आधार पुद्गल है और बाहरी निमित्त जीव हैं। यों व्यवहार से यह देह है। व्यवहार से देह है तो व्यवहार से ही आहार का ग्रहण है।
व्यवहार की अशाश्वतता का व औपाधिकता—यहाँ यह नहीं जानना कि व्यवहार से ही आहार का ग्रहण है तो रहे। वास्तव में तो मेरा कुछ नहीं है ना। व्यवहार से ही पाप बनते हैं, व्यवहार से ही पुण्य बनता है—ऐसा सुनकर कोई कहे कि व्यवहार से पाप बंध हैं तो बंधे, असल में तो नहीं बंधते। वास्तव में तो नहीं बंधते, ठीक है मगर व्यवहार से तो पाप बंध हैं, तो उसके ही फल में व्यवहार से जो नरकादिक दुर्गतियां रहती हैं उनमें गम खावोगे क्या? नहीं गम खावोगे। तो जिन्हें व्यवहार की दुर्गति पसंद न हो उस व्यवहार का पाप भी न करना चाहिए। यहाँ निश्चय तो केवल एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का नाम है। स्वभाव में स्वरूप में विकार नहीं हुआ करता है। यदि वस्तु के स्वभाव में विकार हो जाय तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रह सकता। व्यवहार से ही यह देह है और व्यवहार से ही आहार ग्रहण है।
अयोग्य स्थान पर प्रतिष्ठापना का कारण निर्दयता—जब आहार ग्रहण होता है तो मलमूत्रादिक भी हुआ करते है। तो मलमूत्रादिक की स्थिति में उन्हें ऐसी जगह मलमूत्र क्षेपण करना चाहिए जहां कोई जंतु न हो। अब बतावो साधु तो नग्न हैं, उनकी कौनसी बात छिपी हुई है फिर भी मलमूत्र करने जाते हैं छिपे स्थान पर, इसमें भी अनेक तत्त्व भरे हैं। व्यवहार की बात है, तीर्थ की प्रवृत्ति है। जहां रुकावट हो, मना हो वहाँ मलमूत्र क्षेपण न करना चाहिए। जहां लोगों का आवागमन हो वहाँ मलमूत्र क्षेपण न करे। यदि कोई दूसरों के आने जाने के स्थान पर मलमूत्र करता है तो उसे निर्दय कहा जाता है, दयाहीन कहा जाता है। जैसे आज कल के बहुत से अहंभन्य किन्हीं आश्रमों में रहते हैं वहाँ यह दृश्य बहुत मिलेगा। बरसात के दिन हैं, आसपास थोड़ी घास खड़ी है, रास्ते में कुछ नहीं है। प्रासुक है, कोई देख नहीं रहा है तो रास्ते में ही मलमूत्र कर देंगे। आप यह सोचिये कि उनकी दृष्टि है कि मैंने संयम पाला, घास पर मैंने पैर नहीं रक्खा, पर यहाँ दृष्टि उनकी नहीं गयी कि यहाँ मनुष्य आते जाते हैं, देख कर नाक सिकोड़ेंगे, रास्ता छोड़कर अलग से जायेंगे, उन्हें कितना कष्ट होगा? इस बात का उन्हें विवेक नहीं रहा।
अटपट त्याग और अटपट हृदय—जैसे बहुत से श्रावकों के त्याग के क्रम का विवेक नहीं होता है। कोई पूछे कहां जा रहे हो? शिखर जी। वहाँ क्या करोगे? हम तो शिखर जी जाकर आलू का त्याग करेंगे। अरे तुमने गोभी का त्याग किया कि नहीं? उसका तो नहीं त्याग किया, बाजार की सड़ी बासी जलेबियां अथवा बाजार का बहुत दिनों का पिसा हुआ मैदा जिसमें लट पड़ जाती हैं उसका त्याग किया कि नहीं? उसका त्याग तो नहीं किया। अरे उनका त्याग नहीं किया और आलू का त्याग करने जा रहे हो, अरे जिन चीजों में मांसभक्षण का दोष लगता है ऐसी चीजों पर दृष्टि नहीं जाती है और आलू पर दृष्टि गई। यद्यपि आलू का त्याग करना भी ठीक है, अनन्तकायों का उसमें बचाव हो जाता है लेकिन एक भी त्रस जीव की हिंसा हो तो वह बहुत बड़ी हिंसा हो गयी, इसकी ओर ध्यान क्यों नहीं है, यों ही अपने स्वार्थ में अपने कल्पित संयम में तो दृष्टि जगे और दूसरे मनुष्यों को बाधाए आयें, इस ओर ख्याल न हो तो बतावो ऐसे अटपट हृदय में कैसे धर्म का अभ्युदय होगा?
रात्रि में प्रतिष्ठापना की विधि—साधुजन शाम के समय मलमूत्र क्षेपण को तीन जगह स्थान देख लिया करते हैं कि रात्रि को कहीं मूत्रक्षेपण करना होगा तो कहा करेंगे? यह उनकी एक ड्यूटी हैं, जो जगह शाम को पास की, देख लिया, निर्जन्तु हो उसकी जगह रात्रि को लघुशंका करने जायेंगे। तब प्रथम तो उस जमीन पर अपना उल्टा हाथ रखेंगे कोमल ढंग से ताकि यह विदित हो जाय कि यहाँ कोई जंतु नहीं है। यदि उस जगह कोई जंतु है तो वहाँ से हटकर दूसरी जगह चले जायेंगे। दूसरी जगह भी हथेली से उल्टा हाथ करके देख लेंगे कि यहाँ भी जंतु तो नहीं है। उल्टा हाथ जमीन पर कोमलता से रखा जाता है और सीधा कुछ दृढ़ता से रखा जाता है, साथ ही हाथ की गादी से जीव का परिचय जल्दी नहीं होता। हाथ के ऊपरी भाग से जीव के चलने का जल्दी परिचय हो जाता है। दूसरे स्थान पर भी यदि जीव हों तो तीसरे स्थान पर जाते हैं। आप यहाँ यह शंका कर डालेंगे कि तीसरे स्थान पर भी जीव हों तो? पहिली तो यह बात है कि पहिले स्थान पर भी जंतु न हों। जब सायं को भली भांति देख लिया, छिद्ररहित स्थान को देख लिया तो पहिले ही स्थान में सम्भव है कि जंतु न हों। और यदि वहाँ जंतु हो तो शायद दूसरी जगह न हों। और कदाचित् आपकी भी बात मानें कि तीसरी जगह भी जंतु हो तो अब जो कुछ बने सो हो जायेगा, मूत्र तो रोका नहीं जाता। उसमें भी जहां जगह उचित समझी, वहाँ मूत्रक्षेपण कर लिया, उसका विशेष प्रायश्चित्त साधु कर लेंगे।
न्याय और दया की मूर्ति—साधु का स्वरूप एक दया की मूर्ति है, क्षमा की मूर्ति है, आत्मकल्याण की मूर्ति है। वे कीट मात्र को भी बाधा पहुंचाने का चित्त में आशय नहीं रखते। ऐसे साधु संतजन आहार ग्रहण करने के परिणाम में जब उन्हें मलमूत्र क्षेपण की घटना होती है तो ऐसे प्रासुक जंतु रहित गूढ़ लोगों के आवागमन रहित जहां किसी की मनाही न हो, ऐसे स्थान पर वे मलमूत्र क्षेपण करते हैं। कोई साधु बड़ी अच्छी साफ जगह पर मूत्र क्षेपण कर आये और कोई सिपाही रोके कि यह तो रास्ता है क्यों यहाँ लघुशंका कर दी? साधु जवाब दे कि मैं साधु हू, मैं प्रतिष्ठापनासमिति करने आया हू। तुम्हें दिखता नहीं है। तो कहो वह दो एक चांटे भी रसीद करे। उसकी प्रतिष्ठापनासमिति नहीं सुनेगा। खैर, जो कुछ हो, मगर जहां दूसरे के स्थान पर रुकावट हो, ऐसे स्थान पर प्रतिष्ठापना न करना चाहिए।
कमण्डल का उपयोग—ये साधुसंत जन जैसे कि आदाननिक्षेपण समिति में बताया है शौच का उपकरण कमण्डल रखते हैं, उनके कमण्डल का उपयोग मलमूत्र करके कायशुद्धि करने में ही होता है। कमण्डलु किसे कहते हैं। कमण्डलु शब्द में तीन भाग हैं। क मंड अलुच्। क तो शब्द है मंड धातु है और अलुच् प्रत्यय है। क का अर्थ है जल, मंड का अर्थ है शोभा करना, कहते हैं ना मंडन करना, शरीर की शोभा करना तो जल जिसमें सुशोभित हो, उसका नाम है कमण्डलु। लगता भी अच्छा है ना, कमण्डल में पानी बड़ी शोभा देता है।
शब्द के अर्थ से वस्तु की उपयोगिता का आभास—ये जितने व्यवहार में शब्द आते हैं न, सब शब्दों का व्युत्पत्यर्थ है। कोई शब्द यदि हिन्दी के है तो उनका हिन्दी के अनुसार अर्थ है। आप कहते हैं ना लोटा। लोटा उसका नाम है जिसके नीचे पेंदी न हो, चारों तरफ लुढ़कता रहे, लोटता रहे उसका नाम है लोटा। आप कहते हैं गड़ई। मारवाड़ में गड़ई कहते हैं, बुन्देलखण्ड में खूब कहते हैं। गड़ई उसका नाम है जिसके नीचे गड़ जाने जैसी चीज बनी हो। जो ऐसी गड़ जाय कि हिलेडुले नहीं उसका नाम है गड़ई। पतेली बोलते हैं ना, जिसमें साग छौंकी जाती है। जो अटक न रखकर, कृपा भी न रखकर जिसमें साग पतित कर डाली जाय उसका नाम है पतेली। पतेली में घी जीरा आदि डाल दिया, उसके बाद फिर साग को बेरहमी से पटक दिया जाता और फिर लोग दृष्टि भी नहीं डालते हैं तो जिसमें साग पतित कर दिया जाय, डाल दिया जाय उसका नाम है पतेली। भगोना लोग बोलते है। भगोना मायने भगो ना। वह जल्दी उठाया नहीं जा सकता है उसका नाम है भगोना। तो यह शब्दों में ही अर्थ भरा हुआ है। यों ही पचासों शब्द हैं जिनको आप अपने व्यवहार में बोला करते हैं। तो कमण्डलु केवल कायशुद्धि के लिए ही साधुजन रखते हैं। मलमूत्र क्षेपण के बाद वे कायशुद्धि करते हैं और इसके पश्चात् कैसा परिणाम बनता है यह बहुत ध्यान से सुनने लायक बात है, इसे फिर कहेंगे।
कायधर्म की पूर्वोत्तरविधि—अपहृतसंयम में प्रवृत्त साधुजन जब मलमूत्र क्षेपण करते हैं। प्रासुक, दूसरों की बाधा से रहित, जहां दूसरे रोके नहीं ऐसे स्थान पर क्षेपण किया करते हैं। वे ऐसे योग्य स्थान पर शरीर का धर्म करते हैं। इसका नाम शरीर का धर्म कहा है। मल करना, मूत्र करना, थूकना ये क्या है? शरीर के धर्म। और आत्मा की सावधानी रखना, श्रद्धान् रखना, ज्ञान रखना, आचरण करना ये क्या हैं? आत्मा के धर्म। शरीर का धर्म करने की वहाँ आवश्यकता थी। तो मलमूत्र आदिक का क्षेपण करके फिर उस स्थान से चलकर उत्तर दिशा में कुछ चलकर और उत्तर दिशा की ओर मुख करके, उत्सर्ग करके अर्थात् मन, वचन और काय की चेष्टावों का परिहार करके, अपने को भाररहित चैतन्यस्वरूप का अनुभव करने की तैयारी करके, अव्यग्र होकर चित्त को स्थिर करके वे साधुजन अपने आपकी भावना करते हैं।
कायधर्म के बाद आत्मधर्म—जैसे किसी बड़ी दुर्घटना से बच जाय कोई तो दुर्घटना से निकलने पर अपने आपमें खैर मनाता है, विश्राम लेता है और कुछ अपने आपके हित की धुन करता है। जैसे मानों कहीं कोई साम्प्रदायिक दंगा हो और उस दंगा में जो फंस जाता है, जान का खतरा है और किसी तरह से उस खतरे से निकल आये तो ऐसा चित्त में लगता है कि अब हम बच गये तो अब मित्र, स्त्री, पुत्र में ममता करके अब क्यों जीवन बिगाड़ें, अपने हित में सावधान रहें। ऐसी ही दिन में कई बार जो साधुवों को दुर्घटना आती है क्या, क्या दुर्घटना? शौच जाना, पेशाब करना, आहार करना, ऐसी-ऐसी जो उनके लिए दुर्घटनाए आती हैं, साधुजन उन्हें दुर्घटना समझते हैं, करना पड़ता है, तो उनसे जब निवृत्त होते हैं तो खैर मनाते हैं, कायशुद्धि करके अपने आपमें विश्राम लेते हैं, कुछ अपनी विशेष सुध करते हैं।
प्रतिष्ठापना के बाद सहज उन्मुखता—ये संयमीजन शरीर का धर्म करने के पश्चात् उत्तर दिशा की ओर जाते हैं अथवा उस स्थान से पीछे की ओर आते हैं। कुछ थोड़ीसी सहज उनकी ऐसी वृत्ति बन जाती है अथवा उनका मन झुका है तीर्थंकरों में शाश्वत जो विराजमान् है, तो जैसे किसी को कोई थोड़ा सताये तो मौका पाकर छूटकर अपने शरण की ओर दृष्टि देता है। यों ही इन कार्यों की आफतों से छूटता है तब साधु प्रकृत्या अपनी और निरखता है। जो तीर्थंकर परमार्थ पुरुष हैं उनकी ओर दृष्टि देना है। विदेह में तो शाश्वत् विराजमान् है। सो उत्तर दिशा की ओर थोड़ा चलकर और उत्तर दिशा की ओर मुख करके वे कायोत्सर्ग किया करते है। उस कायोत्सर्ग के समय में आत्मा की भावना करते हैं। थोड़ा उनको इस बात का खेद भी होता है और कहां इस जीव को मलमूत्र करने जैसी प्रवृत्ति में भी उपयोग देना पड़ता है। इसका उनके खेद होता है।
काय में क्या—कायोत्सर्ग करके वे शरीर की अशुचिता की बार-बार भावना करते हैं। यह शरीर कितना अशुचि है, इसमें मलमूत्र भरा है और भीतर क्या है? कोई मजाकिया पुरुष था व्यापारी। भैंसे पर बोझ लादे हुए जा रहा था। रास्ते में मिला चुंगी का घर, चुंगी वाले ने कहा—अबे क्या लिए जा रहा है? व्यापारी बोला—भैंसा। इसमें क्या भरा है? व्यापारी बोला—गोबर। अबे किस तरह बोलता है? ओं ओं। ऐसा ही तो भैंसा बोलता है ना, यों ही जिस मुद्रा को देखकर, परिवार समागम में रहकर मस्त हो रहे हैं उनमें क्या भरा है? वही मल मूत्र, और बोलते क्या हैं? अपनी स्वार्थ भरी बातें।
आत्मपरिचय का वैभव—भैया ! इस जीव का दूसरा कोई साथी हो ही नहीं सकता। खुद की दृष्टि निर्मल हो और खुद खुद को पहिचान जाय तो इसके लिये परमशरण मिल गया समझिये, अन्यथा संसार में भटकते रहना बड़ा है। कहीं के मरे कहीं जन्में, फिर मरे फिर कहीं जन्में। फुटबाल की तरह यहाँ से वहाँ ठोकरें ही खाना पड़ेगी यदि अपने आपके सहजस्वभाव का परिचय नहीं होता है तो। अपने सहजस्वभाव का परिचय हो जाने पर फिर क्यों यह जीव स्थिर हो जाता है, आनन्दमय हो जाता है। इसका कारण यह है कि यह मैं खुद आनन्द से भरपूर हू। आनन्द से भरपूर क्या, आनन्द ही इसका स्वभाव है, आनन्द का ही नाम आत्मा है। वह आनन्द ज्ञान का अविनाभावी है। इस कारण यों कहो ज्ञानानंदस्वरूप यह आत्मा है। यदि आनन्दमय अपने आपका परिचय हो गया फिर अनन्त आनन्द क्यों न होगा? सब कुछ निर्णय अपने आपके अंतरङ्ग में ही करना है। बाहर की बात तो जितना कम देखने को मिले, जितना कम सोचने को मिले, जितना कम उलझने को मिले उतना भला है।
प्रतिष्ठापनासमिति में अन्तर्वृत्ति—ये साधु महापुरुष प्रतिष्ठापना करके पश्चात् संसार के कारणभूत मन की प्रवृत्ति को रोककर और शरीर की चेष्टावों को रोककर वचनालाप रोककर कायोत्सर्ग करते हैं। उस कायोत्सर्ग के समय कितने ही आत्मप्रकाश उनमें आते रहते हैं। वे परमसंयमी साधु पुरुष मलमूत्र क्षेपण के बाद प्रतिष्ठापनासमिति करने के पश्चात् एक जगह खड़े होकर अपने आपके आत्मतत्त्व की भावना करते हैं और इस शरीर की अपवित्रता का बार-बार विचार करते हैं। तब इन साधुजनों के प्रतिष्ठापनासमिति है। केवल ऊपरी क्रियाए कर लेने मात्र से प्रतिष्ठापनासमिति नहीं होती।
प्रतिष्ठापनासमिति में संवरनिर्जरा हेतुत्व का कारण—कोई साधु यह कल्पना करे कि मैं साधु हू, मुझे जीव की रक्षा करनी चाहिए, मूत्र क्षेपण करने जायें तो जमीन देखकर निर्जन्तु स्थान में क्षेपण करें और बाद में फिर शुद्धि करके कायोत्सर्ग कर लें, लो हमने प्रतिष्ठापनासमिति निभाई। यह निर्णय कर लेना प्रामाणिक नहीं है। अरे प्रतिष्ठापनासमिति तो संवर और निर्जरा का कारण है। यदि बाहर में जीवों के द्रव्य प्राणों की रक्षा कर देने मात्र से प्रतिष्ठापनासमिति हो जाय तो यों जीवरक्षा तो अनेक प्रसंगों में साधारणजन भी किया करते हैं। इसमें यह मर्म है भरा कि जीवरक्षा करने के पश्चात् जो कि शरीर धर्म किया ना, मल, मूत्र, क्षेपण प्रवृत्ति की ना, ऐसी गंदी बातों में कुछ उपयोग लगाना पड़ा ना तो वे प्रायश्चित्त लेते हैं, खेद करते हैं, इस बात का कि मेरा यह 5 मिनट का समय इन बाहरी क्रियाकलापों की दृष्टि में व्यतीत हुआ और उस समय उनकी आत्मा की झलक चित्प्रकाश का प्रतिभास स्वात्मस्पर्श होता है और वे इस शरीर की अशुचिता की भावना करते हैं, ऐसा परिणाम बनता है तब उनके प्रतिष्ठापनासमिति होती है।
आहार से पहिले कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन—साधुजन भोजन करने के पश्चात् भी कायोत्सर्ग करते हैं। उनके कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन क्या है? आहार से पहिले जो वे सिद्ध भक्ति और नमस्कारमंत्र जपते हैं, वहाँ भी यह भावना करते हैं कि हे प्रभु ! अब मैं आहार करने जैसी एक आपत्ति में, बाह्य बात में पड़ रहा हू। उस उपयोग में यह बहुत सम्भव है कि मैं अपने आपसे बहुत दूर हो जाऊ और उसमें चित्त दूं। यह मेरे लिए आपत्ति है। मैं तो आनन्दमय निज आत्मतत्त्व का संग थोड़े भी समय को छोड़ना नहीं चाहता हू। पर शरीर की बात शरीर के कारण निभानी पड़ रही है। इस आहार में अब मैं प्रवृत्त होने जा रहा हू, सो हे प्रभु ! इसलिए मैं तुम्हारा स्मरण कर रहा हू कि आहार करने के समय में भी मैं आत्मा को भूल न जाऊ। मुझे इस आत्मस्वरूप का स्मरण रहा करे यही है भोजन से पहिले भक्ति करने का प्रयोजन।
आहार के पश्चात् कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन—भोजन के बाद जो कायोत्सर्ग भक्ति की जाती है उसका प्रयोजन यह है कि एक विपत्ति से अब निकल आया। साधुपुरुष आत्मानुभव, आत्मज्ञान से अतिरिक्त जितने कार्य हैं उन कार्यों में प्रवृत्ति करने में वे विपदा मानते हैं। सो विपदा से निकलने के पश्चात् स्वयं ही एक परमविश्राम होता है और प्रभु की सुध आती है। सो यदि आहार करने के समय में आत्मस्वरूप का स्मरण भी बनाये रहा होगा तो वह कुछ खुशी में आनन्द में प्रभु का स्मरण कर रहा है। हे प्रभु ! तुम्हारी भक्ति के प्रसाद से इस विपदा में भी मैंने अपने आपके चिंतन को न छोड़ा। यदि आत्मतत्त्व से विमुख रहा है तो जितने समय आत्मतत्त्व से विमुख रहा उसका खेद साधुजन करते हैं और उस अपराध के प्रायश्चित्त के पश्चात् कायोत्सर्ग करते हैं।
प्रतिष्ठापना के पश्चात् कायोत्सर्ग का प्रयोजन—ऐसे ही प्रतिष्ठापनासमिति में मूत्रक्षेपण आदि के पश्चात् वे कायोत्सर्ग करते हैं जिसमें अव्यग्र होकर चित्त को स्थिर करके निज आत्मभावना करते हैं। व्यग्रता का समय जो था वह गुजर गया। अब अव्यग्र होकर आत्मतत्त्व की भावना और इस शरीर की अशुचिता का ध्यान करते हैं। ऐसे परमसंयमी साधु पुरुष के प्रतिष्ठापनासमिति होती है।
अन्तर्ज्ञान बिना धर्म की अप्राप्ति—अन्य जो मुनि नामधारी स्वच्छन्दवृत्ति पुरुष हैं उनके तो कोईसी भी समिति नहीं होती है। बाहर में बड़ा देखभाल कर भी चलें, दूसरों से बड़ी मीठी प्रेम की बात भी बोलें, बड़ी भक्ति भी लोगों को दिखायें, मल, मूत्र, क्षेपण भी समितिपूर्वक करें, इतने पर भी अन्तर्वृत्ति न जगे, स्वभाव परिचय न हो, निश्चय न हो, निश्चयसमिति न बने तो इतना काम करके भी संवर और निर्जरा तो होता नहीं।
मूल्य परिचय बिना परिश्रम की विडम्बना—कुछ मुसाफिर लोग बाजार से जा रहे थे किसी नगर को। जाड़े के दिन थे। रास्ते में जंगल में एक रात वे ठहर गए। खूब जाड़ा लगा, तो जाड़ा दूर करने के लिए उन मुसाफिरों ने खेतों की मेड़ पर से बाड़ी तोड़-तोड़कर जो यहाँ वहाँ सूखी जरेटियां पड़ी थी उन्हें बीन-बीनकर एकत्रित किया और चकमक से आग निकालकर उसे ईंधन में डाल दिया, फिर फूंका। खूब जलाकर हाथ पसारकर सब तापने बैठ गए। खूब रातभर तापा। वे मुसाफिर तो तापकर दूसरे दिन चले गए। उन मुसाफिरों की सारी क्रिया पेड़ पर चढ़े हुए बंदर देख रहे थे। सो दूसरे दिन उन बंदरों ने भी सोचा कि अपन भी जाड़ा मिटाने के लिए वैसा ही करें जैसा कि उन मनुष्यों ने किया था। सो वे बंदर भी जरेहटें एकत्रित करने के लिए चारों ओर दौड़े। लाकर जरेहटें एकत्रित कर दिया और तापने बैठे। अब सभी बंदर सोचते हैं कि इतना काम तो कर डाला, फिर भी जाड़ा नहीं मिटा। तो एक बंदर बोला कि इसमें कुछ लाल-लाल डाला गया था। बिना उसके जाड़ा कैसे मिटे? तो उस समय बहुत सी पटबीजना उड़ रही थी, उन्हें पकड़ कर सब बंदरों ने उसमें डाला। सारा ईंधन लाल-लाल हो गया, फिर भी जाड़ा न मिटे। एक बंदर बोला, अरे जाड़ा अभी कैसे मिटे, वे मनुष्य इसे फूंक रहे थे, सो वे सब उसे फूंकने लगे। फिर भी जाड़ा न मिटा। एक बंदर फिर बोला—अरे मूर्खों वे फूंकने के बाद हाथ पसारकर यों बैठ गये थे। सो हाथ पर हाथ रखकर वे भी बैठ गये। इतना कर लेने पर भी उन बंदरों का जाड़ा न मिटा। अब बतावो—उनके यत्न में कौनसी कसर रह गयी? सारे काम तो कर डाले।
अन्तर्ज्ञान बिना चेष्टा की विडम्बना—सो भैया ! जैसे उसमें डाली जाने वाली आग का पता उन बंदरों को न था, सो उनका सारा श्रम व्यर्थ गया, ऐसे ही भीतर में इन पापकर्मों का कर्म ईंधन को जला देने वाली स्वानुभूमिरूपी अग्नि का परिचय न होने से ये अज्ञानीजन उन्हीं बंदरों की भांति भेष धारण करें, नग्न भी हो जायें, दूसरों को उनमें कोई दोष भी नजर न आये, इतने पर भी एक सुगम स्वाधीन आत्मतत्त्व का परिचय न होने के कारण वह सब व्यर्थ चला जाता है, संवर और निर्जरा नहीं हो पाती है। स्वरूपपरिचयी गृहस्थ अज्ञानी मुनि से उत्तम है। सद्गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में लगा हुआ है और भेषी साधु मोक्षमार्ग से विमुख रहता है। कुछ भी स्थिति आये, अपना कर्तव्य है कि अपने आपके अन्तर में विराजमान् नित्य प्रकाशमान् इस सहज आत्मतत्त्व की दृष्टि बनायें। इस आत्मतत्त्व के बल से ही परमसंयमी साधु के प्रतिष्ठापनासमिति होती है। यहाँ तक कि प्रतिष्ठापनासमिति का वर्णन चला है।
समितियों में आत्मसाम्राज्य—ये सर्व समितियां मुक्ति साम्राज्य का मूल हैं। देखो—कहने सुनने को तो यह समिति प्रवृत्तिरूप है, किन्तु जो प्रवृत्ति अंश है वह संवर निर्जरा का कारण नहीं है। उन प्रवृत्तियों के करते हुए में और उन प्रवृत्तियों के अनन्तर ही पश्चात् जो साधु के स्वानुभव और चित् प्रकाश चला करता है वह है संवर निर्जरा का कारण। देखो प्रवृत्ति में भी जो सावधानी बना सके उसके सावधानी बनी रहती है। राग से निवृत्ति हो गयी तो सही बात है ही, किन्तु उससे भी अधिक अभ्यास उस पुरुष को है जो प्रवृत्ति में भी आत्मसावधानी बनाये रहे।
प्रवृत्ति में भी असावधानी का एक उदाहरण—कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि साधु जो तीन प्रकार के होते हैं ना—आचार्य, उपाध्याय और मुनि। इनमें से आचार्य को बड़ा झंझट रहता है। शिष्यों की संभाल करना, उन्हें प्रायश्चित्त देना, शिक्षा देना, बड़े झंझट रहते हैं। अरे आचार्य को झंझट रंचमात्र भी नहीं है। आचार्य की सावधानी मुनि से भी अधिक रह सकती है, इतनी प्रवृत्ति में रहकर भी आचार्य अपने आत्मा की विशद दृष्टि बनाये रहे तो समझो उनके भीतर में कितनी बड़ी योग्यता बसी हुई है? इस समिति में निवृत्ति के अंश की, स्वभाव की उन्मुखता की विशेषता है।
समितिधर गुरुवर की उपासना से श्रावक को शिक्षण—जो जिनमत में कुशल हैं, स्वात्मचिंतन में दक्ष हैं, ऐसे साधुजनों को ये सब समितियां मुक्ति का राज्य पाने के लिए मूल कारण हैं। जो पुरुष विकारी होते हैं, कामवासना से जर्जरित हैं, जिनका हृदय दुर्भावना से लद गया है ऐसे मुनिजनों को यह समितियां प्राप्त नहीं होती हैं। मुनिजनों की समिति तो उत्तम संयम है ही, किन्तु श्रावकजन भी मुनि के उपासक हैं ना, सो जैसे माता मंदिर में प्रभु की मूर्ति के आगे अपना सिर नवाती है तो साथ में रहने वाला लड़का भी मात्र प्रेम की वजह से सिर नवाता है। नहीं होता है उस बालक को ज्ञानरूप अनुभव, लेकिन जब मां जाप करती है तो वह बालक भी जाप करने लगता है। तो श्रावक भी चूकि मुनियों के उपासक हैं, इस कारण जैसे मुनि सावधानी से प्रवृत्ति करते हैं, वैसे श्रावक को भी अपने पद और शक्ति के अनुसार सावधानी करनी चाहिये।