वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 10
From जैनकोष
पांतु श्रीपादपद्मानि पंचानां परमेष्ठिनाम् ।
लालितानि सुराधीशचूडामणिमरीचिभिः ।।10।।
सुराधीशचूड़ामणिमरीचिलालित परमेष्ठीपादपद्म का अवशरण―पंच परमेष्ठियों के चरणकमल सदा मेरी रक्षा करो । लोग संतोष करते हैं तब, जब यह समझ लेते हैं कि मेरे पर इनकी छत्रछाया है । माता-पिता, चाचा, दादा ये सब मेरी रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्प किए हैं, मुझ पर इनकी छत्रछाया है ऐसा जब जानते हैं तो बड़े संतोष से रहते हैं वे बालक । यहाँ सम्यग्ज्ञानी भव्य जीव जानता है कि मेरे पर पंचपरमेष्ठी की पादपद्मोपासनमयी छत्रछाया रहेगी तो मुझे कोई विघ्न नहीं आ सकता? । विघ्न है दिल की कल्पना । धनी होने पर भी कोई कल्पना करे कि यह तो कुछ भी धन नहीं है, इतने में तो मेरा गुजारा नहीं, मैं करोड़पति हो जाऊँ, बस एक ऐसी इच्छा भर हुई, कल्पना हुई कि सारी जिंदगी खराब हो गयी । तो धन वैभव की छाया, यह जीवों को सुख प्रदान नहीं कर सकती, किंतु पंच परमेष्ठियों के चरणकमल की छाया, उनके गुणस्मरण की छाया मेरे पर रहेगी तो यह मैं आत्मा सर्व विघ्नों से दूर हूँ । विघ्न है परवस्तु को अपना मानने के कारण । जो यह निर्णय कर चुके हैं कि कुछ भी परवस्तु मेरी नहीं है उसको अब संकट क्या रहा? प्रभुचरणों के स्मरण के प्रसाद से यही सुबुद्धि तो जगती है जिससे कि सर्वसंकट नष्ट हो जाते हैं । ये पंच परमेष्ठी के चरणकमल बड़े-बड़े सुखाधीश देवेंद्रों के मुकुट में लगे हुए मणि की किरणों के द्वारा लालित हैं । भला बतलावो सौधर्म आदिक स्वर्गों के बड़े इंद्र, और यहाँ अरहंत प्रभु के, पंच परमेष्ठियों के, साधुजनों के चरणकमलों की सेवा करने के लिए आये और जिनके मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणें उनके व उनकी स्थापित मूर्तियों के चरणकमलों पर पड़ती हैं तो मानो उन बड़े-बड़े देवेंद्रों के मुकुट मणियों से ये चरणकमल लालित हैं । वे चरणकमल सदा मेरी रक्षा करें ।