वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 11
From जैनकोष
प्रातिहार्यैर्जिनान् सिद्धान् गुणै: सूरीन् स्वमातृभि: ।
पाठकान् विनयै: साधून् योगांगैरष्टभि: स्तुवे ।।11।।
प्रातिहार्यों द्वारा, सिद्धगुणों द्वारा व स्वमातृकाओं द्वारा अरहंत सिद्ध आचार्य परमेष्ठी का स्तवन―यह पंच महागुरुभक्ति का अंतिम छंद है । इस भक्ति में पंच परमगुरु की वंदना की गई है । तो किसी परमेष्ठी की वंदना करते समय मुख्यतया हमारी दृष्टि में गुण होने चाहियें, उसका संकेत इस छंद में दिया गया है । मैं जिनेंद्र देव का प्रातिहार्यों के द्वारा स्तवन करता हूँ, । जिनेंद्रप्रभु में अंतरंग गुण तो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंद है । और बाह्य पारमार्थिक अतिशय भगवान के अष्ट प्रातिहार्य है कि जिन शोभाओं को, जिन प्रातिहार्यों को करने वाला इंद्र है, जो कि प्रभु के चरण सेवा के लिए प्रतिहार, पहरेदार, द्वारपाल की तरह अपने आपको सेवक मानकर धन्य समझते हैं । जो प्रतिहार के द्वारा किया जाय उसे प्रातिहार्य कहते हैं । तो भगवान की सभा में इंद्र अपने को प्रतिहार मानकर धन्य समझते हैं और उस प्रतिहार के द्वारा, उन इंद्र देवेंद्रों के द्वारा जो प्रातिहार्य रचा जाता है वह क्या है? जैसे कि अशोक वृक्ष का होना, सिंहासन कांतिमान होना, भगवान के सिर पर तीन छत्र होना, भामंडल होना, दिव्यध्वनि खिरना, पुष्पवृष्टि होना और 64 यक्षों के द्वारा चमर ढोरे जाना, दुंदुभि बाजा बजना । ऐसे 8 प्रातिहार्यों के परिकल्पन के द्वारा मैं जिनेंद्रदेव का स्तवन करता हूँ । सिद्ध भगवंतों को सम्यक्त्व, दर्शन, आनंदज्ञान, अगुरुलघु, अवगाहन, सूक्ष्मत्व, वीर्यवत्त्व आदि अष्ट गुणों के द्वारा स्तवन करता हूँ । आचार्यदेव को जिनके कि मुख्यतया आचारवत्त्व, व्यवहारवत्त्व आदि 8 गुण हैं और जिनका माता की तरह रक्षा करने वाली पंच समिति, तीन गुप्ति―इन अष्ट प्रवचनमातृकाओं पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है उन आचार्यों को उनके गुणों के अभिवंदन द्वारा मैं स्तवन करता हूं।
विनय और योगांगों से उपाध्याय व साधुपरमेष्ठी का स्तवन तथा पंचमहागुरुस्तवनफलभावना―उपाध्यायों को मैं बड़े विनय से स्तवन करता हूँ । जो ज्ञानदाता हैं उनका उपकार कितना माना जाय? ज्ञानदाता का उपकार किसी भी उपाय से नहीं चुकाया जा सकता है । केवल एक विनय ही उपाय रह गया है जिसका प्रयोग किया जाता है । मैं उपाध्यायों का विनयों से स्तवन करता हूँ । साधु जन योग के धनी होते हैं । जो अपने आपके आत्मा में अपने को जुड़ाये उसे योग कहते हैं । उस योग के जो-जो अंग हैं, वे आत्मा में समा जाने के उपायभूत हैं―प्राणायाम, निश्चितता, धारणा, एक लक्ष्य बनाना, प्रत्याख्यान करना आदिक, उन सब योग के अंगों द्वारा मैं स्तवन करता हूँ । ऐसे ये योग में अंग 8 बताये गए है । साधुजनो में साधना की मुख्यता है, इस योग की मुख्यता है सो मैं उन साधु पुरुषों के इन योग उपायों का स्मरण कर-करके और उस योग के कारण साधुवों की साधुता को, महता को जानकर मैं भक्तिपूर्वक उन साधुजनों का स्तवन करता हूँ । इस प्रकार ऐसे स्तवन के द्वारा जो पंच गुरुवों की वंदना करते हैं वे संसार के बड़े बंधनों का छेदन कर देते हैं और शीघ्र ही उत्तम ज्ञान को प्राप्त करते हैं, कर्म ईंधन को जला देते हैं । इन पंच परम गुरुवों का नमस्कार मुझे भव-भव में सुख प्रदान करे अर्थात् जितने भी भव शेष रह गए उन भवों में इन पंच परमेष्ठियों का स्मरण बना रहे।
।। पंचगुरुभक्ति प्रवचन समाप्त ।।