वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 100
From जैनकोष
कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो ।
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ।।100।।
कालद्रव्य―क्रम से आने वाली जो समय नाम की पर्याय है वह तो व्यवहारकाल है और उससमय नामक पर्याय का आधारभूत द्रव्य निश्चयकाल है । इस काल के संबंध में सीधा इस प्रकार से जानो कि इस लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उन सब प्रदेशों में प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अवस्थित है, वह एकप्रदेशी है । उस कालद्रव्य की परिणति एक-एक समय के रूप में प्रकट होती है । चूंकि समय एक परिणमन है ना, तो कोईसा भी परिणमन किसी द्रव्य के बिना नहीं होता, किसी न किसी द्रव्य का वह परिणमन कहलाता है । समय नाम का यह परिणमन जिस द्रव्य का है, उस द्रव्य का भी नाम समय रख लीजिए या इन्हें काल कह लीजिए । काल नामक द्रव्य समय का आधारभूत है ।
समय के अवबोध का साधन―यद्यपि व्यवहारकाल निश्चयकाल की पर्याय है, तो भी यह जान कैसे जाता है कि कुछ समय गुजर गया? जीव और पुद्गल के परिणमन से यह जाना जाता है । इस कारण जीव और पुद्गल के परिणमन से समय की आविर्भूति कही गई है ।जैसे घड़ी की सूई कुछ सरक गई, लो एक मिनट हो गया । एक मिनट का जो समय गुजर गया उस समय गुजरने का ज्ञान हमें सूई से हुआ । सूर्य एक ओर से उदित होकर दूसरी ओर अस्त को प्राप्त हो गया, इससे हमें ज्ञान हुआ कि एक दिन बीत गया । इस समय को ये पुद्गल के परिणमन किया नहीं करते, केवल ये जता देने वाले हैं । इस समय का जो अविभागी अंश है अर्थात् एक-एक समय है उस समय की उत्पत्ति काल नामक निश्चय द्रव्य के परिणमन से हुई है ।जीव और पुद्गल का परिणमन तो बहिरंग निमित्तभूत मध्य काल के होनेपर हुआ है, इसीलिए जीव पुद्गल का परिणाम द्रव्यकाल के निमित्त से हुआ है, यों कहा जाता है ।
काल के अवगम व उत्पाद का प्रसंग―देखिये परस्पर का संबंध―घड़ी की सूई जो थोड़ी सरकी है उसमें जो परिणमन हुआ है वह निश्चयकाल के समय नामक परिणमन का निमित्त पाकर इस सूई में क्रिया हुई है और इस सूई की क्रिया को जानकर उसके निमित्त से हमें समय का बोध हुआ है कि इतना समय हुआ है । एक घंटे में जितने समय होते हैं उन समयों के निमित्त से सूई सरकी और सूई सरकने के निमित्त से हमें समय का ज्ञान हुआ । तात्पर्य यह हैं कि व्यवहारकाल जीव और पुद्गल के परिणमन से ज्ञान में आता है, परंतु पुद्गल का परिणाम निश्चयकाल की परिणति के निमित्त पाकर उत्पन्न होता है । इस युक्ति से ज्ञान में आया व्यवहारकाल तो क्षणिक है अर्थात् समय मिनट घंटा तो विनश्वर हैं, नष्ट होते रहते हैं उनमें जो सूक्ष्म पर्याय है समय नाम की वह तो उतनी ही मात्र है वह भी नश्वर है, पर निश्चयकाल नित्य है । निश्चयकाल अपने गुण और पर्यायों का आधारभूत है, इसलिए सदाकाल अविनश्वर है ।
काल में द्रव्यत्व व अकायत्व―इन 5 अस्तिकायों में काल को नहीं बताया है । कालद्रव्य एकप्रदेशी है, इसलिए अस्तिकाय नहीं है । अस्तिकाय उसे कहते हैं जिसमें बहुत प्रदेश हों । जैसे ये दिखने वाले स्कंध अस्तिकाय हैं― जैसे जीव, धर्म आदिक द्रव्य ये प्रदेश के संचयरूप हैं, परंतु कालद्रव्य एक ही प्रदेशी है । लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य अवस्थित है और वह रत्नों की राशि की तरह है । जैसे रत्नों का ढेर इकट्ठा पड़ा है तो एक रत्न में दूसरे रत्न का प्रवेश नहीं है, अवगाह नहीं है । इसी प्रकार यह कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर बहुत घने चिपके पड़े हुए हैं, फिर भी किसी कालद्रव्य में किसी दूसरे कालद्रव्य का प्रवेश नहीं है । निश्चयकाल है अविनाशी और व्यवहारकाल है क्षणिक ।अब कौन नित्य है, कौन क्षणिक है? इस प्रकार के विभाग को बताने के लिए आगे की गाथा आ रही हे ।