वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 119
From जैनकोष
खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे च तेवि खलु ।
पापुण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा ।।119।।
नवीन भव धारण का हेतु―पूर्व में बाँधे हुए गति नामकर्म के क्षीण होने पर और आयु-कर्म के क्षीण होने पर लेश्या के वश होकर अर्थात् लेश्यावों के कारण जो नवीन गति नवीन आयु बँधी थी उनके उदय के अधीन होकर यह जीव अन्य गति और अन्य आयु को प्राप्त करता है । गति नामकर्म और आयुकर्म के कारण जो भुव प्राप्त हुए हैं अर्थात् नरकभव, तिर्यंचभव, मनुष्यभव और देवभव―ये भव आत्मा के स्वभाव नहीं हैं । यह जीव इन पर उपाधियों के उदय के वश से नवीन-नवीन भवों को धारण किया करता है । कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मनुष्य मरकर मनुष्य बनता है, देव मरकर देव ही बनता है, पशु मरकर पशु ही बनता है तो यह कल्पना उनकी गलत है । जैसी गति जैसी आयु बँध गयी नवीन-नवीन, उसके अनुसार जीवों को भवों में जन्म धारण करना पड़ता है―मनुष्य मरकर देव, नारकी तिर्यंच कुछ बन जाय, तिर्यंच मरकर देव, नारकी, मनुष्य कुछ भी बन जाय । हाँ इन दो गतियों में नियम है कि देव मरकर मनुष्य अथवा तिर्यंच ही बनेगा, नारकी मरकर मनुष्य अथवा तिर्यंच ही बनेगा । ऐसा नहीं है कि जो जिस पर्याय में है वह मरकर उस ही पर्याय को धारण करे । यह वर्तमान में चल रही गति और आयु जब फल दे चुकती है, इसका अंत समय आता है, किसी प्रकार क्षीण हो जाता है तो अब नवीन जो गति और आयु उपार्जित किया था उसका उदय होने पर वह जीव अन्य गति को और अन्य आयु को, अन्य भव को प्राप्त होता है ।
लेश्या का प्रभाव―यह सब अपनी-अपनी लेश्या पर निर्भर है अर्थात् अपने परिणाम के आधीन है । जो जीव जैसी लेश्या के वश हो, वह उस प्रकार की गति बाँधेगा । इस प्रकार लेश्यावों के होने से उस-उस प्रकार की गति बँधती है । यह लेश्या कर्मो का बीज है । कषाय के उदय से अनुरंजित होने की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । यह लेश्या कर्म लेपन का काम करती है ।कुछ लीप दिया तो वह बँध गया । कर्मों के लेप का कारण यह लेश्या है । केवल कषाय से भी लेप नहीं होता, केवल योग से भी लेप नहीं होता । यद्यपि यह उदाहरण नहीं मिलता कि जहाँ केवल कषाय हो और योग न हो । लेकिन कषाय का काम केवल कषाय है, उसको देखकर और योग का काम केवल योग है उसको निरखकर फिर समझा जाय तो लेप का कारण कषाय से रंजित योग प्रवृत्ति को ही कहा जायगा । कषाय का कार्य है स्थिति बाँध देना । ये कर्म इतने दिन रहें, लेकिन योग का काम है कर्मत्व परिणमन कर देना, कर्मों का आना । कर्म आयें नहीं तो कषाय किसकी स्थिति बांधे? यद्यपि किसी भी जीव में ऐसा न मिलेगा कि कषाय तो है और योग न हो । यह तो मिल जायगा कि योग तो हो और कषाय नहीं है । जैसे 11वें, 12वें और 13वें गुणस्थान में कषाय तो नहीं है और योग हैं, पर ऐसा कौनसा जीव है जिसके कोई भी योग न हो, और कषाय बन रही हो? नहीं है ऐसा कोई । तो भी कषाय का कार्य क्या है? इस पर दृष्टि डालने से यह निर्णय होता है कि कर्मलेप का काम लेश्या का है । कषाय से सहित जो योग है वह कर्मलेप का कारण है ।
लेश्याविनाश का उपाय―लेश्या का विनाश करना अपना कर्तव्य होना चाहिए । लेश्या का विनाश कैसे हो? उसका उपाय भावना है । यद्यपि मान, माया, लोभरूप जो चार कषायें हैं उन चार कषायों का जो उदय है, विपाक है उससे यह मैं परमात्मतत्त्व न्यारा हूँ । अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंतसुख और अनंतशक्ति स्वरूप जो मेरा स्वभाव है उससे मैं अभिन्न हूँ । निष्कषाय और अनंत चतुष्टयात्मक निज परमात्मतत्त्व में जब भावना की जाती है यह मैं हूँ, यह अमूर्त जिसके साथ किसी भी मूर्त पदार्थ का आघात न हो सके और इसी कारण जो अछेद्य है, अभेद्य है, अव्यवहारी है ऐसा यह मैं परमात्मतत्त्व जब अपने आपकी नजर में सही रूप में दिखने लगता है तब कषायों के विपाक का विनाश हो जाता है । अर्थात् वहां आकुलता नहीं रहती । क्षोभ वहाँ उदित होता है जहाँ अपने इस अमूर्त चैतन्यात्मक आत्मतत्त्व की दृष्टि को त्यागकर बाह्यपदार्थों में अपनायत की बुद्धि कर ली जाती है, यह सब कुछ मेरा है, बस इस परिणति की नींव पर सारे क्षोभ और आकुलता बना करते हैं । जब यह जीव समस्त परभावों से भिन्न केवल चैतन्यस्वरूप निज आत्मा से अभिन्न परमात्मतत्त्व में भावना करता है तब उसके कषाय के उदय का विनाश हो जाता है ।
योगनिरोध की आवश्यकता―शुद्ध अंतस्तत्त्व की भावना के लिए शुभ अशुभ मन, वचन, काय के व्यापार का परिहार किया जाता है । मन, वचन, काय का जब अभाव होता है तो लेश्यावों का भी विनाश होता है । करना क्या चाहिए? लक्ष्य में तो यह हो कि मैं अपने उस शुद्ध ज्ञानज्योतिस्वरूप आत्मतत्त्व की भावना करूँ । करना तो यही चाहिए और इसके लिए वर्तमान में उद्यम और क्या चाहिए? यह कि मन कुछ विकल्प न कर सके, किसी भी अन्य पदार्थ में उपयोग न जाय, विचारों का विस्तार न बने, ये वचन न बोले जायें, इन वचनों को रोक दिया जाय और यह काय भी हिले डुले नहीं, कोई प्रवृत्ति न करे, यों मन, वचन, काय को थामने का उद्यम किया जाता है, इसलिए कि हम परमात्मतत्त्व की भावना में सफल हो जायें । तो यों जब योग पर हम काबू करते हैं और कषाय के उदय में नहीं जुटते हैं तो कषाय के उदय से रंजित योग प्रवृत्ति का अभाव होने से फिर गति कर्म, आयुकर्म इनका बंधन न होगा । बंधन न होने से उदय भी न होगा । तब उसमें अनंत सुख आदिक गुणों की प्राप्ति होगी । यह ही है मोक्ष लाभ । सदा के लिए संकटों से छूट जाने का उपाय निष्कषाय स्वस्वरूप मात्र इस निज चैतन्य में ही उपयोग रमा लेना है । इसके प्रसाद से फिर यह जीव बंधन से छूट जाता है । यह उपाय न हो तो जीवों की स्थिति भवभवांतरों में श्रमण करने की बनी रहती है ।
नवीनबंध का दुष्परिणाम―भैया ! जो कर्म जो गति व आयु आज है वह तो क्रम से फल दे देकर क्षय को प्राप्त होगी । वह तो भले के लिए है । बूढ़ा होना, मर जाना यह तो भले के लिए है, पर भले के लिए तब है जब आगे को गति और आगे की आयु का बंध न किया जाय, पर ऐसा संसारी जीवों में हो कहाँ रहा है? यह वर्तमान गति वर्तमान आयु फल दे देकर नष्ट हो रही हैं । लेकिन अन्य गति और अन्य आयु का बंध हो रहा है, क्योंकि कषायें भी हैं, योग की प्रवृत्ति भी है और इस ही पद्धति से यह जीव नवीन गति को, नवीन आयु को प्राप्त, करता है । पहिली आयु गति क्षीण हुई, नवीन आयु गति की प्रबलता हुई, नये-नये बने । इस प्रकार ये दोनों कर्म गति और आयु यद्यपि मेरे स्वभाव नहीं हैं फिर भी चिरकाल से ये बराबर संतान लगाये हुए हैं और इस आत्मा को संसरण कराते रहते हें । ऐसी है इन व्यामुग्ध जीवों की स्थिति ।
आत्मानुभूति का कर्तव्य―इस अकल्याणमय स्थिति के अभाव के लिए कर्तव्य केवल यही करना है कि हम अपने आपके स्वरूप को यथार्थदृष्टि में ले । यह मैं आत्मतत्त्व रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित केवल चैतन्यस्वरूप हूँ, अमूर्त हूँ, अछेद्य हूँ, अभेद्य हूँ । यों अपने इस सहजस्वरूप के परिणमन से इस आत्मा में शुद्ध वृत्ति जगती है, निराकुलता की वृत्ति बनती है और इस वृत्ति में जो सहज आनंद प्रकट होता है बस वही तो आत्मा का उत्कृष्ट रूप है । उस आनंद की अनुभूति के प्रसाद से सर्वविभावों का क्षय हो जाता है ।