वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 120
From जैनकोष
एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा ।
देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य ।। 120 ।।
जीव का द्वैविध्य―ये जितने भी संसारी जीव निकाय कहे गए हैं वे देह प्रवीचार का आश्रय करने वाले हैं अर्थात् देहधारी हैं, देह में रहने वाले हैं, देह में अपने को एकमेक करने वाले भी हैं, किंतु सिद्ध भगवान देहरहित हैं, वे देह में नहीं रहते, वे शुद्ध हो गए हैं अर्थात् जो यह केवल सत् हैं, आत्मा ही आत्मा अब रह गए हैं । न शरीर का संबंध है, न कर्म का संबंध है और इसी कारण न उनमें किसी प्रकार की विभाव तरंग है । उनका आत्मा अपनी ही स्वरूपानुभूति के कारण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बना हुआ है । इस प्रकार जो देह प्रवीचारी हैं, सं देह हैं वे तो संसारी है और जो देह विहीन हैं वे मुक्तजीव है ।
संसारियों का द्वैविध्य―ये संसारी जीव यद्यपि सभी सदेह हैं, देहों में रहते हैं और इस पद्धति से वे सब एक प्रकार हैं तो भी ये संसारी जीव भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के हैं । भव्य उन्हें कहते हैं जो शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करने की शक्ति रखते है, अभव्य उन्हें कहते हैं जो शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति की शक्ति नहीं रखते हैं । जैसे मूँग कोई-कोई ऐसी भी होती हैं कि दिनभर भी बटलोही में आग पर रखी रहे तो भी नहीं पकती है, जैसे कुलड़ मूँग कहा करते हें । अक्सर तो मूंग पकने वाली ही होती है । मानो मन भर मूँग के दानों में कोई एक दाना कुलड़ मूँग का होता है । अच्छे दानों की संख्या अत्यंत अधिक है और ऐसे कुलड़ दानों की संख्या अत्यंत कम है, लेकिन उनमें स्वरूप देखो मूँग का पाया जा रहा है । रूप, रस, गंध, स्पर्श, हरित अवस्था ये सब वैसे ही वैसे हैं । सभी स्थितियों में वे मूँग के दानों के समान होने पर भी देखिये उस मूँग के दानों में तो पकने की शक्ति है और कुलड़ मूँग के दानों में पकने की शक्ति नहीं है । ऐसे ही संसार में भव्य जीव तो अनंतानंत हैं, अभव्य जीव तो भव्य जीवों के अनंतानंतवें भाग हैं, अत्यंत कम हैं, किंतु होते हैं कोई जीव ऐसे जिन में शुद्ध आत्मस्वरूप के उपलब्धि की शक्ति नहीं पायी जाती ।
भव्य व अभव्यों में समता व विषमता―सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता अभव्य जीवों के नहीं पायी जाती है, लेकिन जीव का जो लक्षण है वह दोनों में एक समान है, पर न व्यक्त हों पायेंगे वे इस तरह । जिसमें चैतन्यस्वभाव का सद्भाव हों उसे जीव कहते हैं ।, ऐसा जीव-पना जैसा भव्य में है वैसा ही अभव्य में है, कोई अंतर नहीं है । ऐसे एक समान जीवत्व के होने पर भी जो सम्यक्त्व प्राप्ति की शक्ति त्यक्त नहीं कर पायेंगे उन्हें अभव्य कहते हैं । जैसे एक स्वर्णपाषाण होता है और एक अंधपाषाण होता है, ये दोनों ही स्वर्ण में पाये जाते हैं, पर एक पाषाण में स्वर्ण व्यक्त हो जायगा और एक पाषाण में स्वर्ण व्यक्त नहीं हो पाता, परजाति तो वही है, ऐसे ही जीवत्व जाति से समान होने पर भी कोई जीव भव्य है और कोई जीव अभव्य है ।
पारिणामिक भाव―यह भव्यपना और अभव्यपना न तो कर्मों के उदय से होता है न उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होता है । यद्यपि मोक्ष पर्याय तो व्यक्त नही होती, यह कर्मों के उदय से होती है, लेकिन इस जीव में त्रिकाल भी मोक्ष पर्याय व्यक्त करने की शक्ति नहीं है । इस जीव में ऐसी बात का होना न कर्म के उदय से है, न उपशम क्षय क्षयोपशम से है । इस कारण भव्यत्व भाव को पारिणामिक और अभव्यत्व भाव को भी पारिणामिक कहा है । जीव के 5 भावों में पंचम भाव पारिणामिक भाव है । पारिणामिक भाव के 3 भेद हैं―जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीवत्व के भी 2 प्रकार कहे हैं । जो 10 प्राणों करके जीवे उसका भी नाम जीवत्व और एक चैतन्यस्वभाव से रहे, चैतन्य प्राणों से रहे, जिये, उसका भी नाम है जीवत्व । तो अब पारिणामिक भाव को चार रूपों में निरख लीजिए । एक शुद्ध जीवत्व चैतन्य की अपेक्षा जीवत्व और एक दस प्राणों की अपेक्षा जीवत्व । भव्यत्व और अभव्यत्व इनमें से चैतन्य प्राणों से जीवे ऐसा जीवत्व ही शुद्ध पारिणामिक भाव है । दस प्राणों से जिये उसके कारण कहलाने वाला जीवत्व अशुद्ध पारिणामिक है और भव्यत्वभाव और अभव्यत्वभाव भी अशुद्ध पारिणामिक है । तो ऐसे उस शुद्ध जीवत्व की दृष्टि से समान होने पर भी संसारी जीव भव्य और अभव्य दो प्रकार के कहे गये हैं ।
जीवभेदव्याख्यान का प्रयोजन―यह प्रकरण है मोक्षमार्ग के प्रतिपादन में 9 पदार्थों के वर्णन का । 9 पदार्थों का स्वरूप जाने बिना मोक्षमार्ग में कदम क्या उठाया-जायगा? सबसे प्रारंभ में जो बात सीखना चाहिए उसका प्रतिपादन इस अधिकार में सर्वप्रथम किया जा रहा है । 9 पदार्थों में सर्वप्रथम नाम है जीवपदार्थ का । ये जीव कैसे-कैसे हुआ करते हैं इसका वर्णन यहाँ चल रहा है ।